Magazine - Year 1978 - Version 2
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Language: HINDI
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अर्थवसुश्च परिग्रह
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‘तात!’ उल्हाने भरे स्वर में आयुष्मान् विलाड ने पिता से कहा− ‘‘स्नातक मेरा उपहास करते हैं, कहते हैं तुम्हें कोई अर्थवसु का पुत्र कहेगा? तुम्हारी वेशभूषा, तुम्हारा जीवन स्तर तो हम निर्धन वर्ग से किसी भी तरह ऊँचा नहीं− सच तो आपने आज तक कभी भी मेरी अभियाचनायें पूर्ण नहीं कीं। आर्य! आखिर आप हमारी महत्वकांक्षाओं का अनादर क्यों करते हैं?”
तभी ज्येष्ठ पुत्र वधू उधर आ पहुँची, कहने लगीं− विलाड सच ही तो कहते हैं आर्य श्रेष्ठ। आज ग्राम्य ललनाओं ने मुझे जो कहा, उसे सुनकर तो मेरा अन्तःकरण ही कराह उठा है। वे कहती हैं तिर्यग! तुम्हारे श्वसुर इतने धनाढ्य हैं, वे चाहें तो तुम्हें नख-शिख से आभूषण धारण करा सकते हैं किन्तु आज वह सावित्री को अर्चना के समय भी तुम्हारे परिधान तक अति−सामान्य गृहणी से अधिक सुन्दर नहीं आभूषणों की तो बात ही नहीं है।
ऐसे-ऐसे उपालंभ अर्थवसु ने सहस्रों बार सुने हैं, झेले हैं किन्तु उन्होंने कभी कोई उत्तर नहीं दिया। एक क्षण के लिए अधर स्मित हुए हैं और दूसरे ही क्षण वे शीतकाल की अन्धकार−आवेष्ट रजनी की तरह मौन हो गये हैं। यह ठीक है कि उनने कभी किसी का प्रतिवाद नहीं किया, किन्तु सच यह भी है कि वणिक वृत्ति में व्यापक लाभ के अन्तर भी कभी वैभव का जीवन न स्वयं जिया, न अपने कुटुम्बीजनों को विलासी होने दिया। सलज्ज राजहंसिनी के प्रणय व्यापार की तरह किसी ने यह तक नहीं जाना कि अर्थवसु किस लिए संग्रह करते हैं, किसके लिए संग्रह करते हैं। यदि इतने पर भी कुछ सच था तो यही कि उन्होंने परिजनों के पालन पोषण, शिक्षा दीक्षा वेशभूषा के सामान्य नागरिक कर्तव्यों की कभी अवहेलना नहीं की, इसीलिए कभी किसी ने भी उनको असम्मानित करने का साहस नहीं जुटाया।
परिवर्तन और परिवर्तन प्रकृति का यह रथ चक्र मानव जीवन को कभी सौरभसिक्त आनन्द के आंचल में सुला देता है तो कभी पीड़ा के गहन काँटों भरे कतार खण्ड में ला खड़ा करता है। इस परिवर्तन का ही नाम सृष्टि है, गति है, जीवन है। काल के इन थपेड़ों से आज तक न बचा है कोई राव और न कोई रंक।
नियति का यह क्रम इस वर्ष अत्यन्त क्रूर बनकर आया। ज्येष्ठ की तपन से झुलसे हृदय बारम्बार अम्बर की ओर निहारते, बलाहकों की अभ्यर्थना करते किन्तु अषाढ़ सूखा निकल गया। चित्रा, अश्लेषा, पुनर्वस, स्वांति सारे ही नक्षत्र यों ही निकल गये धरती के कण्ठ में एक भी बूँद न गिरी तो फिर नहीं ही गिरी, राजगृह श्मशान की-सी भयंकरता में परिणत हो गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गया और लोग भूखों मरने लगे।
अब तक जिन अर्थवसु की आँखों में शून्य क्रीड़ा किया करता था अब वही दृग−द्वय मानवीय संवेदना से सिक्त हो उठे हैं, राजगृह के नागरिकों के लिए अर्थवसु ने अपने द्वार खोल दिए सारी सम्पत्ति गतिमान हो उठी। जिन अर्थवसु को किसी ने एक कौड़ी खर्च करते नहीं देखा था, युग पीड़ा ने उनके हृदय कपाट पूरी तरह खोल दिये, उनका सर्वस्व स्वाहा हो गया किन्तु उनके हृदय ने कभी भी किसी को यह अनुभव नहीं होने दिया कि राजगृह असहाय है, अनाश्रित है।
भगवान बुद्ध ने सुना तो वे गदगद हो उठे। जिनके दर्शनों के लिए जन−समुदाय सागर की तरह लहरा उठता, वही आज स्वयं ही अर्थवसु के दर्शनों के लिए चल पड़े। तिर्यग ने पुकारा! आर्य श्रेष्ठ! उठिये! तथागत आज आपके द्वार पर आये हैं। अर्थवसु ने आँखें खोली, उनने इतना भर देखा कि दैदीप्यमान सूर्य उनके सम्मुख उपस्थित हैं और उनकी आत्मा उसमें समाती चली जा रही है। तथागत की आँखें भर आयीं− उनके मुँह से इतना ही निकला। अर्थवसु तुम सच्चे अर्थों में अपरिग्रही थे, तुम्हारे त्याग ने आज सारे राजगृह की रक्षा कर ली। इसी सन्तोष भरे आनन्द में अर्थवसु की आत्मा शून्य में विलीन हो गई।
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