Magazine - Year 1979 - April 1979
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Language: HINDI
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अन्यथा मनुष्य एक निरीह प्राणी ही है
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किन बातों में मनुष्य सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ है? इस प्रश्न का समाधान खोजने से पूर्व उसकी विशेषताओं को सृष्टि के दूसरे प्राणियों की विशेषताओं से तुलना कर देख लेना चाहिए आरम्भ में शरीर बल को ही लें। शारीरिक शक्ति की दृष्टि से मनुष्य संसार के अधिकाँश प्राणियों की तुलना में कमजोर ही नहीं नगण्य भी है। छोटे-छोटे जानवरों तथा कीड़े मकोड़ों चिड़ियों जैसे पक्षियों को छोड़कर और कोई प्राणी नहीं है जिनसे वह अधिक शक्तिशाली हो। भागने में वह एक खरगोश से भी पीछे रह जाता है, लड़ाई का बाहुबल आज-माने का मौका आये तो एके छोटा-सा कुत्ता भी उसे पराजित कर सकता है। अच्छे से अच्छा पहलवान भी शेर के सामने टिक नहीं सकता। यह बात और है कि कुछ लोग लम्बे समय तक अभ्यास करने के बाद इन क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित कर लें।
कुत्ते की घ्राणशक्ति, चमगादड़ की श्रवणशक्ति चील की देखने की क्षमता और साँप की स्पर्श चेतना जो धरती के बहुत सूक्ष्म कम्पन को भी अनुभव कर लेता है- आदि इंद्रियों की शक्ति-सामर्थ्य में मनुष्य इनकी तुलना में कही नहीं ठहरता। कुत्ता मीलों दूर की गंध पहचान लेता है और बहुत देर बाद भी वस्त्रों, उपयोग की गयी वस्तुओं में अवशिष्ट गन्ध को पहचान कर उसके उपयोग कर्त्ता को पहचान लेता है। इसे स्मरण शक्ति भी कहा जा सकता है कि वर्षों से बिछुड़ने और मीलों दूर पहुंच जाने के बाद भी कबूतर अपने स्थान पर बिना किसी से रास्ता पूछे पहुंच जाता है। साँप के लिए कहते हैं कि उसके कान नहीं होते, पर वह धरती पर चलने वाले पैरों से पृथ्वी में उठने वाले कम्पन को त्वचा से पहचान कर सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाता है।
शरीर को साधने और उसका संतुलन बनाने में तो मनुष्य बन्दर से भी मात खा जाता है। वर्षों तक अभ्यास करने के बाद सरकस के कलाकार एक झूले पर झूलते हुए दूसरे झूले पर पहुंच जाते हैं किन्तु बन्दर यदि सोते-सोते भी किसी डाली से अकस्मात् गिर जाय तो अर्धनिद्रित अवस्था में भी वह नीचे वाली टहनी को तुरन्त पकड़ लेता है और अपनी रक्षा कर लेता है।
शारीरिक शक्ति और संतुलन साधने में तो वह अपने से क्षुद्र कितने ही प्राणियों से पिछड़ा हुआ है। फिर क्या यह कहा जाय कि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो समूह बना कर समाज में रहता है और सह जीवन का सिद्धान्त अपनाता है। इस मामले में भी वह झुण्ड बना कर रहने वाले हरिणों, जंगली सुअरों हाथियों यहाँ तक कि चींटियों से भी पिछड़ा हुआ है। कई जंगली जानवर समूह बना कर रहते और सामूहिक जीवन व्यतीत करते हैं। इस जीवन शैली के वह इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि अकेले रहना उन्हें पसन्द ही नहीं आता। ऐसा भी नहीं है कि वे समूह में रहकर केवल अपना ही स्वार्थ पूरा करते हों, अपने कमजोर साथियों और आश्रित बच्चों की वे खूब चिन्ता करते हैं और समूह के किसी एक सदस्य पर आपत्ति आते ही मिल कर उस संकट का मुकाबला करते हैं।
सामूहिक जीवन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण चींटियों को कहा जा सकता है। बहुत छोटी-सी और क्षुद्र प्रतीत होने वाली चींटियां आपस में मिलकर समझौता कर लें तो साँप से लेकर हाथी तक को परेशान कर डालती हैं। मिल-जुल कर काम करने और संगठित शक्ति का महत्व समझने में मधु मक्खियाँ भी बेमिसाल हैं जो अलग-अलग जाकर पुष्पों से मधु संचित करती हूँ और एक छत्त में ले जाकर संग्रहित करती हैं।
फिर क्या बुद्धि की तुलना में वह अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले थोड़ा ठहरना होगा। निस्संदेह मनुष्य को जो बुद्धि बल मिला है वह अन्य किसी जीव जंतु के पास नहीं है। उससे भी बड़ी बात यह कि वह अपने बुद्धिबल का उपयोग स्वतंत्र रूप से किसी भी दिशा में कर सकता है जबकि उन प्राणियों को जिन्हें थोड़ी बहुत बुद्धि मिली है प्रकृति की प्रेरणा तक ही सीमित रहने की छूट मिली हुई है।
सभ्यता और विज्ञान के स्वतंत्र प्रयोगों द्वारा प्राप्त की गयी वर्तमान अवस्था मनुष्य की बुद्धिमत्ता का ही परिणाम है। इसी बुद्धिमत्ता के कारण उसने ऐसे-ऐसे दांव पेच सीखे जिनके द्वारा वह अपने से शक्तिशाली प्राणियों को भी नियंत्रित कर लेता है, कोयल से भी अधिक मीठे स्वरों का संगीत जब चाहे तब सुन सकता है, चील को दिखाई देने वाली दूरी से भी असंख्य गुनी दूरी की वस्तुएं दूरबीन द्वारा स्पष्ट देख लेता है और बारीक से बारीक चीजों को, जिन्हें सृष्टि का कोई प्राणी नहीं देख पात, देख लेता है।
इसे मस्तिष्क का ही कमाल कहना चाहिए कि मनुष्य ने अपने से बलवान प्राणियों पर भी सहज ही विजय प्राप्त करने वाले अस्त्र-शस्त्र बना लिये। खरगोश, हिरन और अन्य तेज दौड़ने वाले पशुओं से भी अधिक तीव्र गति से दौड़ने वाली कारें बना लीं तथा ऐसे अंतरिक्षयान निर्मित कर लिये, जिनकी बराबरी कोई भी पक्षी नहीं कर सकता।
निस्संदेह बुद्धिबल के कारण मनुष्य ने अन्य सभी क्षेत्रों में सभी प्राणियों को पीछे छोड़ दिया। परंतु यहीं एक क्षण रुकना पड़ता है, यह जानने के लिए कि मस्तिष्कीय क्षमता में वह, स्वयं अपने बनाये यांत्रिक उपकरणों से पिछड़ गया है। औद्यौगिक क्रांतियों ने जिस तरह मनुष्य की मांसपेशियों का काम मशीनों को सौंप कर उसे श्रम से मुक्त करना आरंभ किया उसी तरह अब एक ‘कम्प्यूटर क्रांति’ की संभावना भी व्यक्त की जा रही है, जिसके बाद मनुष्य सोचने समझने और मानसिक श्रम के तमाम कार्य उन कम्प्यूटरों को सौंप कर निश्चिंत हो जायेगा।
इलेक्ट्रान की तरंगों- अर्थात् परमाणु की नाभि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले ऋण आवेश वाले कणों- का नियमन कर उनका उपयोग इस मशीनी मस्तिष्क में किया जाता है। आरंभ में जब कम्प्यूटरों को प्रचलन हुआ था तो मामूली गणना करने वाले कम्प्यूटरों का आकार एक बड़े कमरे के बराबर होता था। शुरू-शुरू के रेडियो सेट भी बहुत भारी भरकम थे, जिन दिनों उनका प्रचलन हुआ था उन दिनों किसी को यह कल्पना भी नहीं थी कि किसी दिन इन्हें जेब में रखकर भी घूमा जा सकता है। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक्स की सूक्ष्मता का दौर आरंभ होने के बाद जेबी ट्रांजिस्टरों के साथ जेबी कम्प्यूटरों की भी कल्पना की जाने लगी। इस दिशा में कुछ जापानी वैज्ञानिकों ने कार्य किया तो चौथाई वर्ग इंच के आकार वाले सिलिकॉन चिप-एक तत्व जो 2600 डिग्री सेंटीग्रेड ताप को भी सहन कर जाता है, ऐसे कम्प्यूटर बनाने की संभावना मूर्त होती दिखाई दी अर्थात् अंगूठी जितना बड़ा कम्प्यूटर जेब में रखना संभव हो गया।
अंगूठी के बराबर कम्प्यूटर तैयार कर लिये गये हैं और ये केवल संगणक का- जोड़, बाकी, गुणा, भाग का ही काम नहीं करते बल्कि 32 हजार तरह के मस्तिष्कीय कार्य करने लगे हैं। अंगूठी जितने आकार के कम्प्यूटर से अगले दशक तक 10 लाख विभिन्न काम लेने की बात सोची जा रही है। इनका मूल्य भी कोई विशेष नहीं होगा। आरंभ में जिस प्रकार बड़े-बड़े रेडियो सेट 700-800 रुपये में बिकते थे परन्तु अब 50-60 रुपये तक के जेबी ट्रांजिस्टर बनने लगे हैं। उसी प्रकार इन कम्प्यूटरों का निर्माण व्यय भी बहुत कम रह जायेगा।
हाल ही में एक ऐसे टैक्सी मीटर का आविष्कार भी हो गया है जो किराया बताने के साथ-साथ प्रत्येक सवारी पर लगने वाला किराया भी बता देता है। निकट भविष्य में कारों के ऊंघते ड्रायवरों को जगाने, नशे की हालत में या मोड़ों पर सचेत करने तथा इंजन की खराबी मालूम करने वाले कम्प्यूटर उपकरण भी तैयार हो रहे हैं। इसी प्रकार पोर्टेंबल टेलीफोन भी तैयार हो जायेंगे जिन्हें सुविधानुसार जेब में डाल कर कहीं भी ले जाया जा सकेगा और किसी भी व्यक्ति में जब चाहे संपर्क किया जा सकेगा। फिर चिट्ठी लिखकर डाक में डालने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी, यहाँ चिट्ठी लिखकर कम्प्यूटर को सौंपी कि तत्क्षण अभीष्ट पते पर उसी प्रकार की चिट्ठी छप कर बाहर आ जायेंगी। कार्यालयों में फाइलों का अंबार लगाने की आवश्यकता नहीं रहेगी क्योंकि सारे भारत के सभी कार्यालयों में जितने रिकार्ड हैं वे सभी रिकार्ड एक छोटे से कम्प्यूटर में सुरक्षित रखें जा सकेंगे। फाइलों के नष्ट होने, खोने या समय पर न मिलने का भी डर रहता है परन्तु कम्प्यूटर से जब भी चाहें बटन दबाते ही अभीष्ट जानकारी प्राप्त की जा सकेगी।
कम्प्यूटर की मदद से बच्चों को पढ़ाने, रोगियों की देख भाल तथा इलाज करने के काम भी ले पाना सम्भव हो गया है। यदि ऐसे कम्प्यूटर सहज सुलभ हो गये और निश्चित है कि अगले कुछ दशकों में ही वे सुलभ हो जायेंगे तो न अध्यापकों की आवश्यकता रह जायेगी न डॉक्टरों की वर्षों तक पढ़ाने और ट्रेनिंग देने के बाद कोई व्यक्ति अध्यापक बनता है और ढेरों रुपये तथा वर्षों का समय खर्च कर डॉक्टर बना जा सकता हैं, परन्तु इन मशीनी अध्यापकों तथा मशीनी डॉक्टरों को दो चार हजार रुपये खर्च कर अपने घर में ही रखा जा सकेगा तथा आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य अध्यापकों व चिकित्सकों से भी अच्छी व प्रामाणिक सेवायें प्राप्त की जा सकेंगी। डॉक्टरों के पास जाने पर तो यह डर रहता है कि वह रोगी को ठीक करने में नहीं बल्कि लाभ कमाने में रुचि रखता है इसलिए तुरन्त ठीक करने वाली दवा नहीं भी देगा। कम्प्यूटर इस आशंका की सम्भावना को ही निर्मूल कर देंगे क्योंकि इन्हें न फीस का लोभ रहेगा न लाभ कमाने का आकर्षण। वे तो अपने मालिक की निस्वार्थ सेवा करेंगे और सही परामर्श, उचित इलाज ही बतायेंगे।
जिन किन्हीं भी तकनीकी दक्षताओं के कारण मनुष्य अपने आपको बुद्धिमान समझ बैठा है और इस कारण अपने आपको सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझ रहा है ये दक्षताएं तो कम्प्यूटर में ही विकसित हो रही है। दूसरे शब्दों में मनुष्य की बुद्धिमता का दम्भ उसका स्वयं का बनाया हुआ मशीनी मस्तिष्क ही तोड़ चुका है और अगले दिनों वह मस्तिष्क रेडियो, ट्राँजिस्टर की तरह सर्व सुलभ हो जायगा।
बुद्धि के क्षेत्र में भी मनुष्य हार गया। मजे की बात यह है कि उसे किसी दूसरे प्राणी ने नहीं हराया बल्कि स्वयं उसके द्वारा निर्मित यंत्र ने ही उसे यह शिकस्त दी। तो क्या यह, सिद्ध हो गया कि मनुष्य के पास अपने आपको सर्वश्रेष्ठ कहने के लिए कोई आधार बचा ही नहीं हैं? शारीरिक शक्ति, मानसिक शक्ति और बुद्धि बल के रूप में तो निश्चित ही ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके कारण वह अपने आपको सर्वश्रेष्ठ कह सकें।
परन्तु जिन आधारों पर मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है व शाश्वत हैं। यह अलग बात है कि उस आधार को भुला दिया गया और श्रेष्ठता के दम्भ को बनाये रखने के लिए दूसरे सस्ते कारण खोज लिये गये। वे आधार, वे मूल्य शाश्वत हैं। मनुष्य उन्हें आज भी अपनाये तो परमात्मा के युवराज होने का आत्मगौरव यथा-स्थान है। आवश्यकता इस बात की है कि उन मूल्यों को पहचाना जाय। प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या हैं वे मूल्य? सहज उत्तर है जिस उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही नष्ट न किया जाय वरन् मानवीय जीवन को सार्थक बनाने वाले आदर्शों को ही अपनाया जाय। अब तक यह बात इतिहास द्वारा ही प्रमाणित थी कि वे ही लोग सार्थक जीवन व्यतीत करने हैं जो अपने लिए नहीं औरों के लिए, स्वार्थों के लिए नहीं आदर्शों के लिये जिये हैं। अब यह बात विज्ञान सिद्ध भी हो गयी है कि बलवान् और बुद्धिमान होना उतना अर्थ-पूर्ण नहीं है जितना कि मनुष्य होना। मनुष्यता को तिलाँजलि देकर मनुष्य का बलवान होना भी निरर्थक है और बुद्धिमान होना भी। मनुष्यता का वरण करने पर ही मनुष्य का मनुष्य होना ही गरिमामय है अन्यथा मनुष्य बेचारा एक निरीह सबसे अशक्त प्राणी है।