Magazine - Year 1979 - April 1979
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Language: HINDI
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अन्तःकरण की प्यास प्रेम साधना से ही बुझेगी
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प्रेम इस धरती का अमृत है। वह मनुष्य का जीवन-सार है, रस है। जितना ही वह विकसित होगा, उतनी ही सुख-शांति में वृद्धि होगी।
रूखा, नीरस, एकाकी मनुष्य न तो स्वयं ही शाँति-प्रसन्नता पाता, न हीं दूसरों को उसके सामीप्य से शाँति मिलती है। वह किसी का नहीं। उसका कोई नहीं। वह स्वयं से डरता है, स्वयं ही जलता है और संकीर्णता की आँच में झुलस जाता है। हाहाकार सूनापन पीड़ा-दायक रिक्तता, डरावना रूखापन और सब कुछ खो चुकने जैसी हताशा ही उसके नियति है। प्रेम-भावना के अभाव से बड़ा अभाव और क्या होगा?
मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाली वास्तविक शक्ति प्यार ही है। विचारक राल्फलिन्टन ने लिखा है कि “मनुष्य की एक बड़ी जरूरत यह है कि वह अपने प्रति दूसरों से प्रेम पूर्ण आवेग चाहता है।” प्रेम की भूख को शारीरिक आवश्यकता नहीं माना जा सकता। छोटे शिशु को तो अपनी शारीरिक जरूरतों के लिये ही दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है, इसलिये उसके मातृ-प्रेम को शारीरिक आवश्यकता से जुड़ा भी मान सकते है। पर वयस्क व्यक्ति बिना किसी शारीरिक चाह के भी दूसरे मनुष्यों में रुचि लेते हैं। भले ही इसका विकृत रूप ताक-झांक करने, मीन-मेख निकालने, छिद्रान्वेषण के रूप में सामने आता हो, किंतु मूलरूप में यह मनुष्य के भीतर की प्रेम की भूख ही है, जो उसे दूसरों के प्रति संवेदनात्मक स्तर पर जागरूक बनाती है। यों, जिसे सभ्य-जीवन कहते हैं, उसमें प्रेम की प्रत्यक्ष आवश्यकता नहीं दिखती। पुलिस का सिपाही और न्यायाधीश, इंजीनियर और मजदूर, बाबू और चपरासी, व्यापारी और ग्राहक आपस में बिना प्रेम के भी अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से कर सकते हैं। किंतु यह उनके जीवन का एक ही पक्ष है। उनमें से प्रत्येक को ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस होती है, जो उनके जीवन में गहरी रुचि ले यानी प्रेम करे। पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेयसी में शारीरिक आकर्षण होने पर भी उनके भीतर कभी भी मात्र शारीरिक और भौतिक आकांक्षाएं ही नहीं रहतीं, इनसे परे भी बहुत कुछ रहता है। इसलिये उसे प्रेम की छाया या प्रेम की एक छोटी झलक तो कहा ही जा सकता है। इस छाया या झलक की प्रेरणा कितनी प्रबल होती है, यह सभी जानते हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रेम वस्तुतः कितना उल्लासपूर्ण और कितना शक्तिशाली हो सकता है। वह कितनी अधिक सक्रियता और प्रगति की प्रेरणा दे सकता है।
प्रेम आत्मा की प्रकृति और प्रवृत्ति है। वह आंतरिक विकास ही स्वाभाविक अंतःप्रेरणा है। ‘स्व’ के निरंतर विस्तार की प्रक्रिया है। आरंभिक क्रम में वह स्त्री, पुत्र मित्र-संबंधी, श्रेष्ठ पुरुषों के माध्यम से विकसित होता है। उसकी सार्थक परिणति विश्व-प्रेम, ईश्वर प्रेम के रूप में होती है। प्रेम का स्फुरण बढ़ते-बढ़ते संपूर्ण अंतःकरण को ओत-प्रोत कर लेता और चिंतन एवं कर्तृत्व का मुख्य आधार बन जाता है।
प्रगति-पुरुषार्थ, इच्छा की तीव्रता पर निर्भर करता है। इस इच्छा का मूल उद्गम प्यार ही है। अंतःकरण स्वयं को तो देख नहीं पाता। अपना रस खुद नहीं चख पाता। अतः अपनी श्रेष्ठता को देखने और सरसता को चखने के लिये वह किसी माध्यम को चुनता है। संस्कार और प्रवृत्ति के अनुसार कोई वस्तु, व्यक्ति या दिशाधारा लक्ष्य बन जाती है। वहीं प्रिय लगने लगती है। उसे पाने, उस दिशा में बढ़ने और उससे एक रूप हो जाने की प्रबल एवं उत्कृष्ट उमंग उठने लगती है। इस उमंग को ही उस वस्तु, व्यक्ति या लक्ष्य से प्यार हो जाना कहते हैं। इस प्रकार वस्तुतः प्रेम आत्मा की उमंग और रस है। आनंद और उल्लास उसी के स्वाभाविक गुण-धर्म हैं। उस उमंग की हर लहर आनंद, उल्लास और पुरुषार्थ-प्रेरणा के रूप में संपूर्ण व्यक्तित्व को हिलोर जाती है, भिगो डालती है।
सृजन और आनंद की अनंत शक्ति प्रेम में भरी पड़ी है। जिस प्रयोजन से गहरा प्यास हो जाता है, उसे उपलब्ध करने के लिये व्यक्ति के भीतर से गजब की शक्ति फूट पड़ती है। फरहाद ने शीरीं को पाने के लिये ऊंचे पहाड़ को काटकर नगर तक नहर खोद डाली थी। जबकि सामान्यतः यह काम एक आदमी के बूते का है नहीं। किसी भी बड़े वैज्ञानिक, अन्वेषक या महामानव के कार्यों को देखा जाय तो वे ऐसे ही असंभव प्रतीत होने वाले और आश्चर्यजनक लगेंगे। अभीष्ट प्रयोजन से प्रगाढ़ प्यार ही उनमें यह असामान्य शक्ति भर देता है। उस कार्य में तल्लीन होने में उन्हें अकथ आनंद मिलता है। इस प्रकार आनंद और शक्ति दोनों प्रेम से जुड़े हैं। सृजन और उपलब्धि वस्तुतः प्रेम ही प्रतिक्रिया का ही दूसरा नाम है।
स्कूल जाने वाले छोटे बच्चे को जब तक विद्या का महत्व नहीं ज्ञात होता और विद्यार्जन के प्रति उसके मन में प्यार नहीं जागता, वह स्कूल के नाम से ही बिदकता है। उसी बालक को विद्या से प्यार हो जाने पर वह दिन-रात मेहनत करने लगता है। यह मेहनत भौतिक लाभों के लिए नहीं की जाती। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जिनके मन में ज्ञानार्जन के लक्ष्य से इतना गहरा लगाव-प्यार था कि- भौतिक दृष्टि से हर प्रकार का घाटा उठाकर भी वे दिन रात विद्याध्ययन में ही जुटे रहे। भले ही बाद में उनके अगाध ज्ञान के कारण उनका सम्मान हुआ हो, किंतु प्रायः जीवन भर भौतिक दृष्टि से उन्हें घाटा ही उठाना पड़ा और असफलताएं ही झेलनी पड़ीं। अतः उनके विद्या-प्रेम को लाभ-हानि का आकर्षण नहीं कहा जा सकता। वह तो अंतःकरण का आकर्षण है। इसके विपरीत, जिन्हें अध्ययन-ज्ञानार्जन से प्यार नहीं होता, वे उच्च अध्ययन से ऊंची ठाटदार नौकरी पाने का प्रत्यक्ष लाभ होने और सभी साधन तथा अवसर अनुकूल रहने पर भी पढ़ाई के लिये मेहनत नहीं कर पाते। यद्यपि उससे मिलने वाले लाभों के प्रति उनके मन में तेज ललक बनी रहती है। वे उनसे विमुख और वैराग्य-संपन्न थोड़े ही होते हैं। इससे स्पष्ट है कि लाभ-हानि का आकर्षण सक्रियता की वैसी प्रेरणा नहीं देता, जैसी अंतरंग के आकर्षण से मिलती है। आदर्शों, उत्कृष्टताओं से होने वाले प्रेम में तो सांसारिक दृष्टि से प्राय हानि ही उठानी पड़ती है। देश के लिये प्राण न्यौछावर कर देने वाले लाखों लोगों को आज कोई जानता तक नहीं। अपने जीवन में भी उन्हें कोई भौतिक लाभ नहीं मिला। तो भी देश-प्रेम ने उनमें वह उमंग भर दी है कि वे हंसते-हंसते सर्वस्व उत्सर्ग कर बैठे। समाज सेवकों को प्रायः उपेक्षा, अपमान और अभावों तक का सामना करना पड़ता है। पर लोक-सेवा के लक्ष्य से प्रेम के कारण उनके भीतर उल्लास ही लहरें उठती रहती हैं। ईश्वर-भक्ति में प्रत्यक्षतः घाटा ही रहता है, तो भी भगवद्भक्त ईश्वर-प्रेम में निमग्न रहने को ही सर्वोपरि मानते हैं। स्पष्ट है कि प्यार भरी भावनाएं साकार करने की इच्छा व्यक्ति को जो पुरुषार्थ-प्रेरणा देती है, वह लाभ-हानि के विचार से भी बढ़कर प्रेरक होती है।
इस प्रबल प्रेरणा का कारण यही है कि वह अंतरंग की आवश्यकता के संबद्ध होती है। अंतःकरण से जुड़ी प्रेरणा, बुद्धि-प्रेरणा से भारी पड़े यह स्वाभाविक है। वही प्रेम तृप्ति देता है, जो अंतःकरण की आवश्यकता पूरी करे। उसे आनंद-उल्लास से भरे। आत्म-तत्व के विस्तार की जिसमें आकांक्षा जुड़ी हो। वस्तुतः प्रेम एक विशुद्ध अध्यात्म-तत्व है और उससे आनंद-उल्लास तभी तक मिलता है, जब तक उसकी आध्यात्मिकता जागृत रहे। जहां वह मन की चंचलता और इन्द्रियों की खुजली तथा मचलन से जुड़ जाता है, वहां ज्वर-उन्माद, व्यग्रता-व्यथा ही पल्ले पड़ती है। जब नर-नारियों के बीच चल रही वासनात्मक गतिविधियों को ही प्रेम का पर्याय बतलाया जाने लगता है, तब मांसलता के प्रदर्शन, यौन-आकर्षण और रूप-यौवन की उच्छृंखल उमंगें ही प्रेम की आड़ में क्रियाशील रहती हैं। आत्म-तत्व के विस्तार की आकांक्षा उसमें राई रत्ती भर ही रहती है। वासना के पहाड़ के बीच दबी होने पर भी वह अपनी प्रभाव उल्लास के रूप में तो प्रदर्शित करती है, परन्तु धीरे-धीरे वासना का यह प्रवाह शारीरिक आवश्यक बन जाता है। तब उसके पीछे, जोड़-तोड़, सौदेबाजी, झूठे छल और प्रदर्शन ही शेष रहता है। परिणामस्वरूप उल्लास का नाम भी नहीं बच रहता। नशे की उत्तेजना और पतन की ग्लानि का चक्र चलने लगता है। तब प्रेम की रट लगाने पर भी भीतर रिक्तता ही रिक्तता बढ़ती रहती है। क्योंकि तब वह दिमागी फितूर बम चुका होता है।
इन्द्रिय परक सभ्यता के केन्द्र भारतीय शहरों में भी यह बुखार फैल-बढ़ रहा है। दिन-रात प्रेम की बात करने पर भी, इस वासना-व्यापार से सदा अशान्ति, अतृप्ति ही बढ़ती है। प्रेम का नाम लेकर चली जाने वाली मन-मस्तिष्क की कुचालों से यदि जीवन में व्यग्रता-रिक्तता बढ़ती दिखें, तो इसे प्रेम का दुष्परिणाम नहीं कहा माना जा सकता। उस जलन और खीझ, अभाव और अलगाव का कारण प्रेम की प्यास नहीं, प्रेम का मिथ्या-भास और आत्मप्रवंचना है। देह-व्यापार और मनोविकार को प्रेम कह देने भर से वे सत्परिणाम नहीं देने लगेंगे। व्यवहार की मधुरता मात्र भी प्रेम नहीं है। वह तो आदान-प्रदान की सामान्य वृत्ति मात्र है।
प्रेम इससे ऊँची चीज है। वह अन्तःकरण की सही और श्रेष्ठ प्रवृत्ति है। अन्तःकरण में भरें अमृत-रस की अनुभूति की प्रक्रिया ही प्रेम है। इसलिए वह वस्तुतः एक साधना है। साधना के उपकरण व्यक्ति और वस्तुएँ हो सकते हैं, पर वे ही प्रेम का स्रोत नहीं हैं। कुँआ खोदने के लिये गैंती, फावड़ा की जरूरत पड़ती है। पर जल-स्त्रोत कुँए के भीतर से ही फूटता है, उन उपकरणों से नहीं।
इस तथ्य को समझने पर ही प्रेम-साधना सम्भव है। अन्तरंग से निकलने वाले प्रेम-रस का उभार ही साध्य है। यह ध्यान रखकर प्रेम-साधना करने पर ही आत्म-तृप्ति मिलती है। उस प्रेम में कभी भी विफलता नहीं प्राप्त होती। आन्तरिक उल्लास और सच्ची शाँति प्रेम, के विकास के अनिवार्य परिणाम हैं।