Magazine - Year 1979 - April 1979
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Language: HINDI
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प्रतिकूलताओं को चुनौती देती मानवी चेतना
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अन्य सृष्टि के जीवन-जन्तु आकस्मिक दुर्घटनाओं, प्राकृतिक प्रकोपों एवं अन्य आघातों से अपना सन्तुलन रख पाने में अपने को असमर्थ पाते है तथा घटना के प्रवाह में बहते, प्रभावित होते देखे जाते हैं। वहीं मानवी चेतना में इतनी सूझ-बूझ एवं समर्थता है कि इन प्रतिकूल परिस्थितियों को चुनौती देते हुए अपना वर्चस्व कायम रख सकें। किन्तु देखा यह जाता है कि मनुष्यों में अधिकांशतः सामान्य प्रतिकूलताओं में भी अपना मानसिक सन्तुलन स्थिर नहीं रख पाते। सामने आयी प्रतिकूलताओं से जूझने के बजाय स्वयं को असंतुलित कर, प्रकोपों के भाजन बन जाते हैं, अन्यथा सृष्टा ने चेतनशील प्राणियों का नेतृत्व करने वाले मनुष्य को इतना सशक्त, समर्थ बनाया है कि सामान्य तो क्या असामान्य परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है।
मानवी जीवन को ईश्वर का सर्वोत्तम उपहार मानने एवं उसमें अदम्य प्रेम करने वाले जीवट सम्पन्न व्यक्ति कितनी बार तो मृत्यु को भी चुनौती देते देखे जाते हैं। मृत्यु को भी इन व्यक्तियों के सहस एवं जीवन के प्रति लगाव को देखकर घुटने टेकना पड़ता हे।
द्वितीय विश्व युद्ध की एक घटना है। युद्ध की गतिविधियाँ उन दिनों तीव्र थी। मित्र राष्ट्र संगठित रूप से जर्मनी से टक्कर ले रहे थे। 24 मार्च 1944 को ब्रिटेन के सार्जेन्ट ‘निकोलस’ ने बर्लिन पर बमबारी करने के लिए हवाई जहाज की उड़ान भरी। गन्तव्य स्थान पर चार टन से भी अधिक विस्फोटक सामग्री डालने के पश्चात वह तेजी से शत्रुओं के जहाजों के प्रहार को बचाते हुए अपने जहाज को ले चला। सतर्क शत्रु सेना की विमानभेदी तोपों ने निकोलस के जहाज पर उगलना आरम्भ कर दिया। बचाव के लिए अत्यधिक सतर्कता रखने पर भी दो गोले उसके जहाज पर लग ही गये। फलस्वरूप विमान में आग लग गई। निकोलस ने वायरलेस से कप्तान से संपर्क स्थापित करते हुए सहयोग के लिए याचना की। ऐसी विषम परिस्थिति एवं भयंकर अग्नि में सहयोग किया भी कैसे जाय, यह एक विकट समस्या थी। अन्य विमान को बचाने के लिए भेजे जाने पर उसमें भी आग लगने की सम्भावना थी। कप्तान का नीचे से निराशाजनक स्वर सुनाई पड़ा कि, “ऐसी स्थिति में हम किसी प्रकार का सहयोग करने में असमर्थ है। अपनी सूझ-बूझ से स्वयं बचाव का प्रयत्न करों”।
एक ओर भयंकर अग्नि की ज्वाला दूसरी ओर कप्तान का निराशाजनक उत्तर, कुल मिलाकर दुर्बल मनःस्थिति का व्यक्ति अपना सन्तुलन तो कायम नहीं ही रख सकता। किन्तु इतने पर भी वह अपने को संतुलित रखते हुए बचने का उपाय सोचने लगा। इसे भी एक दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि पैराशूट उस दिन पहन न सका तथा वह बराबर के केबिन में रखा था। पैराशूट की याद आते ही वह केबिन की ओर मुड़ा किन्तु जैसे ही बीच का द्वारा खोला, लपलपाती हुई ज्वाला उसकी ओर बढ़ी। आँखों में धुँआ भर गया तथा केबिन आग की लपटों से घिरा था। लगता था मृत्यु उसे कालग्रस्त करने के लिए सारी परिस्थितियों का सृजन कर रही थी। बचाव का एक मात्र साधन पैराशूट आँखों के सामने देखते ही देखते जलकर भस्मीभूत हो गया। आग विमान में फैलती जा रही थी। जीवन-मृत्यु के बीच अब कुछ ही मिनटों का अंतर था। आग अपनी बाँह पसारे निकोलस को लेने के लिए आगे बढ़ रही थी। मस्तिष्क ने तेजी से सोचना आरम्भ किया। बीस हजार फुट ऊँचाई से निकोलस ने नीचे देखा। यह सोचकर कि “आग की लपटों में जल कर मर जाया जाय क्यों नहीं विमान से कूदकर बचने का प्रयास किया जाय। परमात्मा का नाम स्मरण करके वह कूद पड़ा। सिर के बल फुटबाल के समान तेजी से वह धरातल की ओर आ रहा था, अचेतन स्थिति में अनिश्चित मंजिल की ओर।
चेतना लौटी तो उसने अपने को बर्फ से चारों ओर ढका पाया। सर्वप्रथम परमात्मा को स्मरण किया जिसकी अनुकम्पा, अनुग्रह से उसे बीस हजार फुट से छलाँग लगाने के बाद भी नव-जीवन मिला। अंग-अंग में पीड़ा हो रही थी। एक बार उठने का प्रयास किया। किन्तु पैर की हड्डियाँ टूट गयी थी, इस कारण उठ नहीं पाया। अपनी रेडियम घड़ी पर निगाह डाली तो रात के दो बज रहे थे। इतना तो उसे अनुमान ही था कि यह क्षेत्र शत्रु का होना चाहिए। शारीरिक असमर्थता के कारण वह भाग सकने में असमर्थ था। जीवन की सुरक्षा के लिए उसने कमर में बँधी सीटी बजा दी। कई बार सीटी बजाये जाने पर शत्रु सैनिकों ने आकर उसे बन्दी बना लिया।
निकोलस ने शत्रु सेना अधिकारियों को सारी घटना बतायी, किन्तु किसी को यह विश्वास नहीं हो रहा था। जले हुए विमान के अवशेष मिलने पर अधिकारियों को विश्वास पड़ा। पहले तो उन्हें सन्देह था कि निकोलस गुप्तचर है किन्तु घटना की पुष्टि होने पर सन्देह जाता रहा। युद्ध बन्दियों को युद्ध समाप्त होते ही छोड़ा गया। निकोलस सकुशल इंग्लैंड पहुँचा।
घटना जहाँ मानवी साहस का परिचय देती है वही इस बात की भी परिचायक है कि जीवन के प्रति अदम्य प्रेम करने वाले प्रतिकूलताओं को चीरते हुए, चुनौती देते हुए अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रखने में समर्थ होते हैं। यदि ईश्वरीय सर्वश्रेष्ठ उपहार-अलभ्य मनुष्य जीवन से प्रेम किया जा सकें, विपन्नताओं के समक्ष समर्पण न किया जाय तो आयी हुई प्रत्येक कठिनाइयों से जूझने में मानवी चेतना समर्थ है।