Magazine - Year 1979 - April 1979
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Language: HINDI
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स्वाध्याय की उपेक्षा न करें
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गीता में कहा गया है- “नहिं ज्ञानेने सद्दश पवित्र मिह विद्यते” अर्थात् इस संसार में ज्ञान से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है, यदि हम इस संसार में सर्व श्रेष्ठ वस्तु तलाश करना चाहें तो अन्ततः ‘ज्ञान’ की ही वह श्रेष्ठता प्रदान करनी पड़ेगी। इस प्राप्त कर सामान्य श्रेणी की योग्यता एवं परिस्थितियों के व्यक्ति अत्यन्त उच्च कोटि का स्थान प्राप्त करते हे। ज्ञान को ही पारसमणि कहा गया है। लोहा पारस को छूकर सोना बन जाता है या नहीं? पारस कहीं है या नहीं? यह बातें संदिग्ध हैं। पर ज्ञान रूपी पारस को स्पर्श कर तुच्छ श्रेणी के व्यक्ति ऊँचे से ऊँचे स्थान पर पहुँचे हैं यह निर्विवाद सत्य है।
शरीर की दृष्टि से मनुष्य अल्पबुद्धि पशु पक्षियों से भी गया बीता है। उनके शरीरों में जो भागने, बोझ उठाने, उड़ने; सर्दी गर्मी सहने, बीमार न होने आदि की विशेषतायें हैं वे मनुष्य शरीर में नहीं हैं; फिर भी उन सब की अपेक्षा वह अधिक साधन सम्पन्न हो सका इसका एक मात्र कारण उसका ज्ञान ही है। जब कभी किसी व्यक्ति का दिमाग खराब हो जाता है, ज्ञान शक्ति में अन्तर आ जाता हैं- तो शरीर ज्यों का त्यों रहने पर भी उसकी स्थिति हास्यास्पद हो जाती है। इसके विपरीत ज्ञानवान व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से गये बीते होने पर भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किये रहते हैं। ज्ञान की महिमा अपार है। गीताकार ने उसे सर्वश्रेष्ठ तत्व कह कर पुकारा तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं की है।
शारीरिक और मानसिक बनावट की दृष्टि से सभी मनुष्य लगभग एक से होते हैं, उनमें जो अन्तर होता है उसे बहुत थोड़ा ही कहा जा सकता है किन्तु आन्तरिक स्थिति की विचार और विवेक की भिन्नता के कारण उनमें जो अन्तर देखा जाता है वह असामान्य है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उसने अपने अन्तःकरण का विकास अवश्य ही किया था। यदि वह न किया गया होता तो वे अन्य असंख्यों साधन सुविधाओं के होते हुए भी उस उच्च स्थिति के अधिकारी न हुए होते।
क्या व्यक्तिगत जीवन में- क्या सामूहिक जीवन में सर्व विचार शक्ति का ही बोल बाला है। जब अज्ञान पूर्ण कुविचारों की मात्रा बढ़ जाती है। तो पाप, अनाचार, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थपरता, क्रोध, छल,शोषण,असंयम,तृष्णा, लाभ, क्लेश, भय, चिन्ता एवं दीनता का अन्धकार छा जाता है। यदि व्यक्तिगत जीवन में यह परिस्थिति पैदा हुई तो वह नरक बनेगा और यदि यह प्रवृत्तियां सार्वजनिक सामाजिक जीवन में बढ़ीं तो सारा समाज इन दुख-द्वंद्वों में ग्रस्त होकर अधःपतन के सत्यानाशी मार्ग पर अग्रसर होगा। इसके विपरीत यदि सद्ज्ञान के आधार पर अन्तःप्रदेश में सत्प्रवृत्तियां बढ़ी-दया, प्रेम, उदारता,संयम, सदाचार, स्नेह, सहयोग एवं सेवा की भावनाएं विकसित हुई-तो चाहे व्यक्तिगत जीवन हो चाहे सामाजिक जीवन, दोनों में ही सुख, शान्ति, समृद्धि, सहयोग, संगठन, आरोग्य, मैत्री, सुरक्षा की स्वर्गीय परिस्थितियाँ स्वयमेव पैदा हो जायेंगी।
ज्ञान के दो अंग है एक शिक्षा दूसरा विद्या। शिक्षा वह है जो स्कूल कालेजों में पढ़ाई जाती है, जिसे पड़ कर लोग ग्रेजुएट, क्लर्क, डाक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर, अफसर आदि बनते हैं। यह जीविकोपार्जन एवं लोक व्यवहार में निपुणता प्राप्त करने के लिए है। यह आवश्यक है क्योंकि इसके बिना साँसारिक जीवन में सुस्थिरता एवं उन्नति का मार्ग नहीं खुलता। पर इससे भी आवश्यक ‘विद्या’ है। जिस ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य अपनी मान्यताओं, भावनाओं, आकाँक्षाओं एवं आदर्शों का निर्माण करता है उसी ज्ञान को विद्या कहा जाता है। इसे प्राप्त करने का माध्यम स्कूल कालेज नहीं वरन् ‘स्वाध्याय’ और सत्संग है। चिन्तन और मनन से सत्साहित्य पड़ने से, सज्जनों के साथ रहने, उनके अभिवचन सुनने एवं कार्य-कलाप देखने से विद्या का आविर्भाव होता है।
जिस ज्ञान को संसार का सर्व श्रेष्ठ पदार्थ कहा गया है यह विद्या ज्ञान ही है। स्कूली ज्ञान तो करोड़ों मनुष्यों को है। उससे थोड़ा लौकिक विकास तो जरूर होता है, पर आन्तरिक महानता किसी की नहीं, बढ़ती। आत्म निर्माण की, चरित्र गठन की, सत्प्रवृत्तियों की भावनाएँ जागृत करने वाले सद्विचारों को ही सच्चा ज्ञान कहा जा सकता है। यही जीवन को सफल बनाने वाला सर्व श्रेष्ठ पदार्थ है। इसे प्राप्त करने के लिए हम में से हर एक को शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए।
सत्संग के साधन जब भी उपलब्ध हों, सत्पुरुषों के साथ विचार विनिमय एवं सान्निध्य जब भी संभव हो तब उसका लाभ उठाना चाहिये, पर यह है बहुत कठिन। क्योंकि ऐसे अनेक सत्पुरुषों का एक साथ मिलना दुर्लभ है, जिनके विचारों में से उचित अंश को ग्रहण करके अपना ज्ञानकोष पूरा किया जा सकें। कोई व्यक्ति सत्पुरुष होते हुए भी सर्वथा निभ्रान्त नहीं होता। यदि उसके सभी विचारों को ठीक माना जाय तो उस सत्पुरुष में जो भ्रान्ति थी वह अपने पल्ले भी बँध जायगी। भगवान बुद्ध अत्यंत उच्चकोटि के त्यागी-तपस्वी महापुरुष थे, उनकी अधिकाँश शिक्षाएँ बड़ी उत्तम हैं, पर ईश्वर को न मानने का उनका सिद्धान्त उचित नहीं माना जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति बुद्ध भगवान पर अनन्य श्रद्धा करके उनके विचारों में से उचित अनुचित की काट-छाँट न करे तो उसे अनीश्वर वादी बनना पड़ेगा और उस मान्यता के दुष्परिणामों को भी भोगना पड़ेगा। संसार को हर व्यक्ति अपूर्ण है। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों के भी सब विचार निभ्रान्त ही होंगे यह नहीं कहा जा सकता। उनकी बातों में से उपयोगी, बुद्धि संगत और देश, काल परिस्थिति के अनुरूप विचारों को छाँट कर ग्रहण किया जाय इसके लिए यह आवश्यक है कि सत्संगत के लिए अनेक सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हो यह कठिन है। क्योंकि ऐसे श्रेष्ठ विचारशील सत्पुरुष न तो बड़ी संख्या में उपलब्ध होते हैं न वे अपने समीप ही रहते हैं। फिर वे इतने कार्य व्यस्त भी होते हैं कि हर जिज्ञासु के लिए अभीष्ट सम्मति दे सकना उनके लिए सम्भव नहीं होता इसलिए सत्संग को यदाकदा प्राप्त होते रह सकने वाला अवसर ही माना जायगा। ज्ञान लाभ का उद्देश्य पूर्ण करने वाला सर्व सुलभ साधन स्वाध्याय ही है।
संसार में अनेक सत्पुरुष हैं, और हो चुके हैं वे जीवित हों या मर गये हों, उनके विचारों का संकलन यदि साहित्य रूप में उपलब्ध है तो उससे कोई भी व्यक्ति किसी भी समय लाभ उठा सकता है। महात्मा गाँधी का भरपूर सत्संग एवं विचार विनिमय का अवसर प्राप्त कर सकना उनके जीवन काल में भी लोगों के लिए सम्भव न था। अब उनके स्वर्गवास के बाद तो वह बात सर्वथा असम्भव हो गई। पर उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़ कर हर कोई व्यक्ति रात के दो बजे भी जी चाहे जितनी देर सत्संग का लाभ उठा सकता है। इसी प्रकार पूर्व काल में हुए ऋषि महर्षि, महापुरुष, ज्ञानी, विज्ञानी हमारे लिए साहित्य के माध्यम से हमें सत्संग के लाभ देने के लिए अभी भी प्रस्तुत मिल सकते हैं, घर बैठे संसार भर के श्रेष्ठ पुरुषों के साथ चाहे जब, चाहे जितनी देर घुल मिल कर बातें करना, उनके विचारों से लाभ उठाना स्वाध्याय द्वारा हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है।
संसार के सर्वश्रेष्ठ तत्व ‘ज्ञान’ को प्राप्त करके जीवन को सफल बनाने- उसे श्रेष्ठ दिशा में विकसित करने के लिए स्वाध्याय ही प्रधान माध्यम है, इसलिए स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म कर्तव्य माना गया है। शास्त्र कहता है-‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करों और ‘अहरहस्ऋध्यायमेध्येतव्यः’ अर्थात् दिन रात स्वाध्याय में लगे रहो। शतपथ ब्राह्मण में लिखा हैं कि-”भावन्तः वा इमा पृथिवी वितेन पूर्णददल्लोकं जयति त्रिस्तावन्तं जयतिभूयाँ संवाक्षम्य य एवं विद्वान अहरहः स्वाध्यायामेधीते।’ अर्थात् जितना पुण्य धन धान्य से पूर्ण इस समस्त पृथ्वी को दान देने से मिलता है उसका तीन गुना पुण्य तथा उससे भी अधिक पुण्य स्वाध्याय करने वाले को प्राप्त होता है। इस कथन पर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं हैं। भावनाओं को प्रेरणा देने का प्रमुख आधार स्वाध्याय ही वह तथ्य माना गया है जिससे प्रेरित होकर मनुष्य के विचार और कार्य सन्मार्ग की दिशा में विकसित होते है और यही विकास क्रम अन्ततः अक्षय पुण्य फल प्राप्त होने का हेतु बनता है।
शरीर, वस्त्र, मकान, बर्तन की सफाई नित्य करनी पड़ती है क्यों कि नित्य ही उन पर मैल जमता रहता है। इसी प्रकार मन पर भी संसार के बुरे वातावरण का मैल और कुप्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है। उसकी सफाई के लिए सत्संग और स्वाध्याय की बुहारी लगाने की नित्य ही आवश्यकता होती है। इसलिए शास्त्रकारों ने भोजन, स्नान, शयन आदि की भांति ही स्वाध्याय को भी नित्य कर्म माना है। पानी को फैलाते ही वह तेजी से नीचे की और बहने लगता है। उसी प्रकार मन का स्वभाव भी नीच कर्मों की और आकर्षित होता है। यदि उसे न रोका जाय तो वह पशु प्रवृत्तियों की और ही बढ़ेगा। पानी को ऊपर ले जाना होता है तो रस्सी, बाल्टी, पम्प, आदि का प्रयोग करना पड़ता है तब कहीं वह ऊपर को बढ़ाया जा सकता है। स्वाध्याय को वह व्यवधान कहा जा सकता है जो मन रूपी पानी को कुमार्ग की ओर बहने से रोकता है। यहीं वह पम्प है, जो मानसिक वृत्तियों को उच्च मार्ग की ओर चढ़ा कर तुच्छमानव प्राणी को महापुरुषों की- भूसुरों की श्रेणी में ले जाकर बिठा देता है अनेकों दुर्गुणों, और दुर्भावों, हानियों को स्वाध्याय के आधार पर समझा जा सकता है आत्म निरीक्षण द्वारा उन्हें ढूंढ़ा जा सकता है और प्रयत्नपूर्वक उन्हें छोड़ा जा सकता है। आत्म शोधन और आत्म निर्माण का सबसे प्रधान विधान ‘स्वाध्याय’ ही माना गया है। इसी से परमात्मा की प्राप्ति भी होती है। महर्षि व्यास का कथन है- ‘स्वाध्याय योग सभ्यत्या परमात्मा प्रमाशते’ अर्थात् स्वाध्याययुक्त साधना से ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
हमें अपने व्यक्ति एवं राष्ट्रीय चरित्रनिर्माण के लिए स्वाध्याय को प्रमुख आधार मानना पड़ेगा और इसे जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में जन-जन को हृदयंगम कराना पड़ेगा। जो अनेकों दुष्प्रवृत्तियां हमारे वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में घर कर गई हैं उनकी हानियों को भली प्रकार समझने एवं त्याग ने के लिए प्रेरणा देने में स्वाध्याय की शक्ति को प्रमुख उपाय मानना होगा। इसी प्रकार जो सद्भावनाऐं एवं सत्प्रवृत्तियां विकसित की जानी आवश्यक हैं उनकी उपयोगिता समझने एवं ग्रहण करने के लिए उत्साह उत्पन्न करने का कार्य भी स्वाध्याय की आदत को अधिकाधिक प्रोत्साहन देने से ही संभव हो सकेगा।
हममें से प्रत्येक को स्वाध्याय के लिए नित्य कुछ समय नियमित रूप से निकालना चाहिए। जिस प्रकार स्नान के लिए एक समय नियत रहता है और रोज ही उस समय नहाया जाता है उसी प्रकार नित्य स्वाध्याय के लिए भी एक समय नियत रहना चाहिए। यों पढ़ने को तो तरह-तरह की चीजें लोग पढ़ते हैं- पढ़ने का अर्थ स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्याय वही कहा जायेगा जो हमारी जीवन समस्याओं पर, आंतरिक उलझनों पर प्रकाश डालता है और मानवता को उज्ज्वल करने वाली सद्प्रवृत्तियों को अपनाने की प्रेरणा देता है।