Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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कुंडलिनी जागरण की पूर्व तैयारी
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सोये हुए साँप को जगा देना सरल है। एक कंकड़ फेंक देने भर से वह फुसकार मारता हुआ फन फैलाकर पीछे दौड़ सकता है। दबी हुई चिंगारी को प्रचण्ड कर देना सरल है। एक गठरी फूँस डाल देने पर या एक बोतल किरासिन तेल उड़ेल देने भर से यह कार्य हो सकता है। बाघ की माँद पर जाकर ढोल बजा देना आसान है, पर जब वह दहाड़ता हुआ हमला करता है तब उससे बचाव करना कठिन है। आग जब प्रचण्ड होकर पूरे गाँव को जला देने के लिए उबल पड़े तक उसका बुझाना और जिनका नुकसान हुआ है उनका हर्जाना चुकाना कठिन है।
कुंडलिनी जागरण के लिए जिन पूर्व साधनों की आवश्यकता है। उनके जुटाने में ही अधिकांश समय लगता है, अन्यथा क्रिया मात्र का सम्बन्ध रहा होता तो उसे बालू का महल बनाने की तरह कोई बालक भी कर गुजरता और सारे साथियों को बुलाकर अपनी कारीगरी का ढिंढोरा पीटता फिरता। बिजली का बटन दबा देना सरल है, पर करेंट के चल पड़ने पर फिर उसकी चपेट में जो-जो आते हैं उन्हें समेटना कठिन है। यह ठीक है कि सरकस में शेरों को रस्से पर चलाने की क्रिया मनुष्य ही कराते हैं। पर उन मनुष्यों को अपने जैसा साधारण नहीं माना जा सकता। कोई अनाड़ी उसी करतब को दिखाने के लिए मचल पड़े तो समझना चाहिए कि इसका बुरा दिन आ गया।
कुंडलिनी जागरण, क्रिया की दृष्टि से अति सरल है। उसमें मूलाधार, मेरुदण्ड और सहस्रार के साथ थोड़ी छेड़खानी करनी पड़ती है। यदि वह बहुत हलकी या उथली हुई तो बात दूसरी है अन्यथा यदि उसे तनिक सशक्तता पूर्वक प्रयोग में लाया गया तो उसकी हलचल देखते ही बनती है। साँप की फुँसकार, हाथी की चिंघाड़ शेर की दहाड़ और आकाशीय बिजली की तड़कन से उसकी तुलना करनी पड़ती है। यों उनसे लाभ भी उठाया जा सकता है पर पासा पलट गया तो लेने के देने पड़ने में भी सन्देह नहीं।
सपेरे साँप को नचा कर ही अपना गुजारा करते हैं। रीछ वाले अपनी गृहस्थी का उसी के बलबूते निर्वाह करते हैं। हाथी पर सवारी, राजा सामंत करते हैं। शेर खरीदना और सिखाना लाखों रुपया खर्च करने वाले सरकस मालिकों का काम है। इन कर्मों में सफलता प्राप्त करने वालों की प्रशंसा की जाती है। पर यदि चौकड़ी चूक गये तो जान गँवा बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। इसलिए डरा तो नहीं जाना चाहिए पर प्रयोग की प्रवीणता और बचाव के साधनों की सुविधा समय रहते एकांत में कर लेने में ही समझदारी है। कुंडलिनी साधना के लिए कदम बढ़ाने वालों को अपनी क्रिया तलवार की धार पर चलने से कम समर्थ किन्तु जोखिम भरी नहीं समझनी चाहिए।
इस प्रयोग में जिन उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। उनकी गणना पहले कराई जा चुकी है। (1) संकल्प (2) साहस (3) प्राण (4) संयम (5) धैर्य (6) तत्परता (7) तन्मयता इन सातों का संकलन कर लेना एक प्रकार से आत्म विजय करना है। जिसने अपने को जीत लिया उसके लिए अन्य किसी को भी जीत लेना सरल है।
श्रद्धा और विश्वास भरे निश्चय निर्धारण, कार्यान्वयन को संकल्प कहते हैं। जिसने किसी विषय की जिज्ञासा उभार कर पक्ष और विपक्ष का संदर्भ मन्थन नहीं कर लिया है, उसके लिए संकल्प कर सकना और निभा सकना कठिन है। बाल कल्पनाएं और कौतुक कौतूहल देखने भर की ललक आम लोगों में होती है। उनके मनोरथ पानी के बबूले की तरह उठते फूटते रहते हैं। गरम दूध उफन कर बर्तन से ऊपर निकलता है। एक चम्मच पानी डालते ही वह पेंदे में भी बैठ जाता हे। ऐसी मनःस्थिति वाले कोई बड़ा काम नहीं कर सकते। वे आज आरम्भ करते और कल छोड़ बैठते हैं। साधन पथ के पथिकों को धैर्यवान होना चाहिए और विलम्ब लगने पर इतना ही सोचना चाहिए कि हथेली पर सरसों जमाना बाजीगर का काम है। हजार वर्ष जीवित रहने वाले वृक्ष उगने और प्रौढ़ होने में समय ले जाते हैं। उनकी सिंचाई और देखभाल देर तक करनी होती है।
सहस में आत्मबल, आत्मविश्वास और पराक्रम का सम्पुट रहता है। कठिनाइयों के बिना सामना किये किसी बड़े काम में तत्काल सफलता नहीं मिलती। बालक जन्म लेने से पूर्व स्वयं काफी हैरान हो लेता है और माता को परेशान कर लेता है। सरल काम तो इस संसार में एक ही है मजाक और मनोरथ। बड़े पुल और बाँध बनाने, बड़े कारखाने खड़े करने में कितने साधन सरंजाम जुटाने और कितने जोखिम उठाने पड़ते हैं इसका विवरण ऐसे कामों का दायित्व उठाने वाले भुक्तभोगियों से ही पूछा जा सकता है।
प्राण एक शक्ति है जिसे सजीव विद्युत कहा जाता है। इसका अभ्यास करने के लिए प्राणाकर्षण प्राणायाम करते रहना है। इसका विधान सीधा सा है कि निखिल ब्रह्माण्ड में चेतना का भण्डार भरा पड़ा है और हम उस समुद्र में मछली की तरह जी रहे हैं। वह हमारे भीतर ओत-प्रोत है और हर श्वास के साथ हम उसे अधिकाधिक मात्रा में भर रहे हैं। शक्ति पुंज, चेतना भाण्डागार जैसी हमारी स्थिति बन रही है। इसे कल्पना के रूप में नहीं वास्तविकता के रूप में मान्यता देनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि हमारे कण-कण में रोम-रोम में सृष्टा का वरिष्ठ तेजस्- ब्रह्म वर्चस्- संव्याप्त हो रहा है। इस क्रिया में प्राणायाम अभ्यास से बहुत सहायता मिलती है।
संयम उस तत्व का नाम है जो उत्तेजना भी, आवेशों आवेगों, प्रलोभनों, दबावों को अस्वीकार करता है और बहकाने वाले फुसलाने वाले हर अनौचित्य को स्वीकारने से दो टूक इनकार करता है।
आये दिन भीतर और बाहर से अवाँछनीयताओं के उफान आते रहते हैं। कई बार तो वे अन्धड़ की तरह प्रचण्ड होते हैं। कामुकता और जीभ का चटोरापन तो अपने स्वभाव के अंग बने बैठे होते हैं। लोभ और मोह की- संग्रह और प्रदर्शन की लालसा इतनी तीव्र होती है, जो कुकर्म और अपराध अपनाने तक के लिए उत्तेजना प्रदान करती है। मित्र, सहयोगी, पड़ौसी और सम्बन्धी भी यह करते हैं और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वैसा ही अनुगमन करने का परामर्श देते हैं। एक ओर भीतरी और बाहरी दबावों का आकर्षण, दूसरी ओर सादगी, सज्जनता अपनाने पर उपहास और विरोध का तंगी और हैरानी का धैर्य तोड़ने वाला कुचक्र चलना। जो इस परिस्थिति से आये दिन जूझता रहता है, जूझने में प्रसन्नता अनुभव करता है उसे संयमी कहते हैं। उसे अपनी-अपनी निज की शक्ति- दुष्प्रवृत्तियों से जूझने में व्यय करनी पड़ती है। ‘ना’ कहना सीखना पड़ता है और किसी के भला या बुरा मानने का विचार करना पड़ता है। यह अभ्यास परिपक्व होते-होते उस संयम के रूप में बदलता है जो मनुष्य को सोने जैसा खरा और चट्टान जैसा मजबूत बना देता है।
तत्परता का अर्थ है- लगन- लगन, स्फूर्ति और श्रम शीलता का समन्वय। जिस काम में हाथ डाला जाय उसे पूरा करना अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाय। आलस्य प्रमाद को पास न फटकने दिया जाय। श्रम की कठोरता में अपना गौरव अनुभव किया जाय।
तन्मयता का अर्थ है- एकाग्रता। दत्त-चित्त होना। मन को भटकने न देना। जो सोचना या करना है उसी के सम्बन्ध में इतनी गहराई तक उतरा जाय कि अन्य कोई विचार सामने आने ही न पाये। मस्तिष्क में टिक ही न सके। अर्जुन का मत्स्य वेध, पृथ्वीराज का शब्द वेध इसका अच्छा उदाहरण है। कीट भृंग का संदर्भ भी इस सम्बन्ध में दिया जाता है। यह एकाग्रता भौतिक और आत्मिक सफलताओं के लिए समान रूप से आवश्यक है।
इस सप्त सम्पदाओं को अन्तराल में धारण करने पर कोई व्यक्ति सच्चा साधक बन सकता है। सातों ऋषि उसके भीतर निवास करते हैं और न उसकी साधना खण्डित होने देते हैं और न उपलब्धियों का दुरुपयोग करने पर उलटा परिणाम हस्तगत होने की विपरीत स्थिति बनने देते हैं। जिनने इस दिशा में उपेक्षा बरती अपने को पवित्र और प्रखर नहीं बनाया वे मात्र क्रिया-कृत्यों में उलझे रहते हैं और जादूगरी का अनुकरण करते हुए ऐसी आशा लगाये रहते हैं कि करामातें हस्तगत करके लोगों को मूर्ख बनाने, उनसे यश और धन प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करेंगे। ऐसे लोगों को अपयश और अनिष्ट ही हाथ लगता है। नैतिक पतन के गर्त में गिरने से उनका अन्तरात्मा भी दुर्बल होता है और वस्तु-स्थिति विदित होने पर प्रशंसक भी निन्दक, विरोधी बन जाते हैं।
कुंडलिनी जागरण महत्वपूर्ण तो है, पर उसमें बारूद के खिलौनों से खेलने जैसा जोखिम भी है। दिवाली के दिनों में फुलझड़ी जलाने और पटाखे छुड़ाने में मजा तो बहुत आता है, पर कितनों की ही आँखें फूटती और उँगलियाँ उड़ती भी देखी गई हैं। भूत-प्रेत सिद्धि से लेकर कुंडलिनी जागरण तक की सिद्धियाँ ऐसी हैं जिसमें शरीरगत संस्थानों की ही उठक-पटक करनी पड़ती है। इन सबको करने से पूर्व अपने साधनों को सही बना लेना और सुरक्षा कवच से सुसज्जित हो जाना है। टूटी तलवार और फटी ढाल लेकर लड़ाई के मैदान में उतर पड़ना, ऐसी जल्दबाजी है जिसका दुष्परिणाम पागल हो जाने जैसी विपत्तियों के रूप में सहन करना पड़ सकता है।
तीर कमान सही हो तो निशाना चिड़िया से लेकर शेर तक पर साधा जा सकता है, अभ्यस्त शिकारी कटार के सहारे सिंह, व्याघ्रों तक को परास्त करते देखे गये हैं पूर्ण अभ्यास एवं अनुभव की भूमिका ऐसे अवसरों पर ही परखी जाती है। जो आतुरता में दूसरों की नकल करने में जुट पड़ते हैं, उनकी उतावली उन्हीं के लिए खतरनाक सिद्ध होती है।
इसकी तुलना में दूसरी साधनाएँ भी हैं जो अपूर्ण रहने पर भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाती। अधिक से अधिक इतना ही हो सकता है कि लाभ सीमित मात्रा में मिले- समय कुछ अधिक लगे। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार के ऐसे जोखिम की आशा नहीं हैं जिसके लिए चुनाव की गलती पर पश्चाताप करना पड़े।
ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग की साधनाऐं भी ऐसी हैं जिनके सहारे अध्यात्मवादी उपलब्धियों का समुचित लाभ मिल सकता है। हठयोग की सभी क्रियाऐं ऐसी हैं जिसमें साधक की मनोभूमि और मार्गदर्शक की अपरिपक्वता बनी रहने पर उस प्रकार के प्रयोगों में कोई नई व्यवधान उठ खड़े होने की सम्भावना रहती है।
कुंडलिनी प्रयोग हठयोग के अंतर्गत आता है। उसके लिए मात्र मनोभूमिका परिशोधन ही नहीं, नाड़ी शोधन के लिए नेति, धौति, वस्ती, कमाल भाति, वज्रोली आदि की भी तैयारी करनी पड़ती है। उनमें अशुद्धता भरी रहने पर अवरुद्ध नली वाली बन्दूक के न चल सकने की तरह असफलता का एक नया कारण बनता है। (क्रमशः)