Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ध्यान धारणा से दिव्य क्षमताओं का आकर्षण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
ध्यान का तात्पर्य है बिखरे हुए विचारों को एक केंद्र पर केंद्रीभूत करना। यह एकाग्रता का अभ्यास, चिन्तन को नुकीला बनाता है। मोटे तार से कपड़ों को नहीं सिया जा सकता। पर जब इसकी पैनी नोंक निकाल दी जाती है तो कपड़े की सिलाई का प्रयोजन भली-भाँति पूरा हो सकता है। बिखराव में शक्तियों की अस्त व्यस्तता रहती है। पर जब उन्हें बटोरकर एक केंद्र के साथ बाँध दिया जाता है तो अच्छी बुहारने वाली झाडू बन जाती है। धागों को इकट्ठा करके कपड़ा बुना जाता है और तिनके रस्सी बन जाते हैं। मेले ठेलों की बिखरी भीड़ गन्दगी फैलाती और समस्या बनती है पर जब उन्हीं मनुष्यों को सैनिक अनुशासन में बाँध दिया जाता है तब ये ही देश की सुरक्षा संभालते हैं, शत्रुओं के दाँत खट्टे करते हैं और बेतुकी भीड़ को नियम मर्यादाओं में रखने का काम करते हैं। बिखरे घास-पात को समेटकर चिड़ियाँ मजबूत घोंसले बना लेती हैं और उनमें बच्चों समेत निवास करती हैं।
बिखरी धूप मात्र गर्मी रोशनी पैदा करती है पर जब उसे आतिशी शीशे द्वारा छोटे केंद्र पर केंद्रित किया जाता है तो आग जलने लगती है। गर्मी आते ही तालाबों का पानी तेजी से भाप बनकर आसमान में उड़ जाता है। पर व्यवस्थित और केंद्रित की हुई भाप रेलगाड़ी जैसे वाहनों को घसीट ले जाती है। यह केंद्रीकरण के चमत्कार हैं। विचार शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह निरर्थक कल्पनाओं में उलझी रहती है और शेख-चिल्ली जैसे अनगढ़ ताने-बाने बुनती रहती है। बन्दर इस डाली पर से उस डाली पर अकारण उचकते मचकते रहते हैं। पर क्रमबद्ध काम करने वाली मधु-मक्खियां अपने छत्ते में ढेरों शहद जमा कर लेती हैं। मकड़ी अच्छा-खासा घर बना लेती है। क्रमबद्धता इसी को कहते हैं।
विचारों को दिशाबद्ध रखने वाले विद्वान, साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, शिल्पी, विशेषज्ञ, दार्शनिक बन जाते हैं। पर जिनका मन उखड़ा-उखड़ा रहता है वे समस्त सुविधा साधन होते हुए भी आवारागर्दी में जीवन बिता देते हैं। अर्जुन के द्रौपदी स्वयंवर जीतने की कथा प्रसिद्ध है। उसकी समूची एकाग्रता मछली की आँख पर जमाई थी और लक्ष्य वेध लिया था। जब कि दूसरे राजकुमार चित्त के चंचल रहने पर वैसे ही धनुष-बाण रहने पर असफल होकर रह गये थे। निशाने वही ठिकाने पर बैठते हैं जो लक्ष्य के साथ अपनी दृष्टि एकाग्र कर लेते हैं।
कल्पनाओं की शक्ति असाधारण है। बरसात के दिनों में टिड्डे हरे रंग के रहते हैं और गर्मी में घास सूख जाने पर वे पीले हो जाते हैं। कारण एक ही है कि वर्षा में उन्हें अपने चारों ओर हरियाली दीखती है और गर्मी की सूखी घास, सूखी जमीन पड़ जाती है। उसे देखते-देखते टिड्डा भी पीला पड़ जाता है। कीट भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। भृंग का गुँजन सुनते और स्वरूप देखते-देखते झींगुर भी तद्रूप हो जाता है।
कल्पनाओं की एकाग्रता में असाधारण शक्ति है। झाड़ी में से भूत निकल पड़ता है और जान लेकर हटता है। कुछ मित्रों ने शर्त बदी कि जो कोई मरघट में रात को मुर्दे के कफ़न में कील गाड़ आवे उसे वह अपनी भैंस उपहार में दे देगा। जो तैयार हो गया वह चला तो गया पर मन में डरता रहा। रात के अन्धेरे में उसने मुर्दे के कफ़न में कील गाड़ने की अपेक्षा अपनी धोती में कील गाड़ ली। जब उठा तो कील ने उलझा लिया। उसने समझा भूत ने पकड़ लिया। जोर से चीखा और उसी समय उसका हार्ट फेल हो गया। भावी आशंकाओं की कल्पना करके कितने ही लोग इतने भयभीत रहते हैं की नींद उड़ जाती है और जीना हराम हो जाता है।
यह कल्पना का निषेधात्मक स्वरूप है। उसके विधेयात्मक स्वरूप भी है कि शुभ और उच्च कल्पनाओं, मान्यताओं के आधार पर मनुष्य का मस्तिष्क ही नहीं जीवन क्रम भी उसी ढाँचे में ढलने लगता है और वह अन्ततः वैसा ही बन जाता है।
अध्यात्म प्रयोजन में कल्पना और भावना का एकीकरण करते हुए किसी उच्च केंद्र पर केंद्रीभूत करने का अभ्यास कराया जाता है इसे ध्यान कहते हैं। ध्यान की क्षमता सर्वविदित है। कामुक चिन्तन में डूबे रहने वालों को स्वप्नदोष होने लगते हैं। टहलने के साथ स्वास्थ्य सुधार की भावना करने वाले तगड़े होते जाते हैं पर दिन भर घूमने वाले पोस्ट मैन या उसी कार्य को भारभूत मानने वाले उस अवसर का कोई लाभ नहीं उठ पाते। पहलवान की भुजायें मजबूत हो जाती हैं किन्तु दिन भर लोहा पीटने वाले लुहार को कोई लाभ नहीं होता। इस अन्तर का एक ही कारण है भावनाओं का सम्मिश्रण होना और दूसरे का वैसा न कर पाना।
योगाभ्यास की ध्यान धारणा में अनेकों प्रयोग हैं। देववादी बहुधा अपने-अपने मान्य देवता का ध्यान करते हैं। जप के साथ ध्यान का जुड़ा रहना उपयुक्त भी है। इसमें मुख से नामोच्चार का अवसर मिलता है पर मस्तिष्क खाली रहता है। वह अनगढ़ कल्पनाओं में इधर-उधर भागता रहता है। जप के साथ मनोयोग भी जुड़ना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब मस्तिष्क को ध्यान जैसी प्रक्रिया में नियोजित कर दिया जाय। देवताओं की गणना नहीं, जिसे जो सुहाता है वह उसे इष्ट मान लेता है और साधना काल में उसका ध्यान करने का प्रयत्न करता है पर वह भी निभता नहीं। क्योंकि मात्र छवि पर देर तक चित्त को एकाग्र नहीं रखा जा सकता। उसके साथ आत्मीयता भरी भावनाऐं भी जुड़नी चाहिए। उन्हें अपना कोई घनिष्ठ स्वजन सम्बन्धी माना जाना चाहिए। इसीलिए “पितु, मातु, सहायक, स्वामी, सखा” जैसी भावनाओं का आरोपण इष्ट छवि में आरोपित किया जाता है और उसके साथ घनिष्ठतम आत्मीयता एकता जोड़नी पड़ती है। इस भाव चेतना का समावेश होने पर ही देवी देवताओं की, छवि की भाव कल्पना करने पर उनके साथ मन एकाग्र होता है अन्यथा भटकता ही रहता है। इस प्रयोग में इष्टदेव के सम्बन्ध में समझी गई भली बुरी विशेषताऐं भी अपने में अवतरित होने लगती हैं। कामुक देवता की काम वासना, क्रोधी एवं युद्ध परायण देवी का आक्रोश भी भक्त के स्वभाव में सम्मिलित होने लगता है।
इसलिए चरित्र गाथा वाले देवताओं की अपेक्षा बिना चरित्र का इष्ट अधिक निर्दोष है उस पर चाहे जैसी ऊँची से ऊँची भावनाऐं आरोपित की जा सकती हैं। उसमें उनके चरित्र दोष बाधक नहीं होते।
निराकार साधना में सविता देवता का ध्यान सर्वोत्तम माना गया है। सविता अर्थात् प्रातःकाल का उदीयमान स्वर्णिम सूर्य। यही गायत्री शक्ति का देवता भी है। छंद विनियोग में गायत्री का देवता ‘सविता’ कहा गया है। सविता की शक्ति सावित्री भी गायत्री ही है।
सविता ध्यान का विधान यह है कि अपने को निर्वस्त्र निश्छल बालक जैसा माना जाय। पूर्व दिशा में प्रातःकाल के उदीयमान सूर्य को अपना इष्ट माना जाय। और ध्यान किया जाय कि उसकी धीमी किरणें अपने सम्पूर्ण शरीर पर बिखर रही हैं। मात्र बिखरती ही नहीं शरीर के ऊपरी बाहरी क्षेत्र अवयवों में प्रवेश भी करती हैं।
स्थूल शरीर में उन किरणों का प्रवेश बलवर्धन करता है। सूक्ष्म शरीर मस्तिष्क प्रदेश में उनका प्रवेश बुद्धि, वैभव और प्रज्ञा अनुदान की वर्षा करता है। कारण शरीर- हृदय देश भावना क्षेत्र को श्रद्धा, सहृदयता और सद्भावना से सराबोर करता है। इसी प्रकार काया के भीतर वाले सभी छोटे बड़े अंग-प्रत्यंग सविता की किरण प्रवेश द्वारा लाभान्वित होते हैं। सभी को उनकी आवश्यकता के अनुरूप बल मिलता है। सभी परिपुष्ट और क्रियाशील बनते हैं। उनके भीतर जो अंधकार रूपी विकार थे वे प्रकाश के प्रवेश से तिरोहित होते हैं। अपना व्यक्तित्व निखरता है और स्थूल शरीर को ओजस्, सूक्ष्म शरीर को तेजस् और कारण शरीर को वर्चस् उपलब्ध होता है। जैसे सूर्योदय होते ही कमल पुष्प खिलने लगते हैं वैसे ही अपनी समग्र सत्ता इस सविता साधना से साधना से विकसित उल्लसित, प्रफुल्लित एवं तरंगित होती है।
यह ध्यान नेत्र बन्द करके कहीं भी किया जा सकता है। यदि इसे प्रत्यक्ष करना हो तो जहाँ प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य सर्वप्रथम दिखाई पड़ता हो वहाँ ऊँचे स्थान पर बैठना चाहिए। लज्जा-वस्त्र लंगोट भर पहिन कर समस्त शरीर खुला रखना चाहिए। सूर्य की ओर मुख रखना चाहिए। पर उसे लगातार देखना नहीं चाहिए। क्षणभर के लिए उसकी झाँकी इस प्रकार करनी चाहिए कि उस क्षणिक दर्शन का अभ्यास देर तक बना रहे। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि दर्शन के योग्य प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य ही होता है जब उसमें तेजी सफेदी आने लगे तो फिर उसका खुली आँख से देखना हानिकारक होता है। नेत्रों की ज्योति क्षीण करता है।
यहाँ सविता को निर्जीव अग्निपिण्ड मात्र नहीं मानना चाहिए जैसा कि भौतिक विज्ञान की दृष्टि से माना जाता है। आध्यात्मिक भाव मान्यताओं के अनुरूप वह परब्रह्म का तेजस्वी प्रतीक है- प्राण शक्ति को सृजेता। प्राणियों का प्राण और पदार्थों का गति धर्म। भौतिक विज्ञानी मानते हैं कि पृथ्वी पर जो जीवन है वह सब सूर्य का ही अनुदान है। इसी प्रकार पदार्थों में जो विशेषताएं पाई जाती हैं वे सूर्य किरणों में से अविभूत होती हैं। यदि सुर्य बुझ जाय तो पृथ्वी का अस्तित्व भी न रहेगा। वह अन्धेरी हिमाच्छादित तो हो ही जायेगी, साथ ही किसी अन्य ग्रह की आकर्षण शक्ति से खिंचकर कहीं अन्यत्र चली जायेगी तब उसका स्वरूप भी नहीं रहेगा। यह वैज्ञानिक मान्यता हुई।
अध्यात्म मान्यताओं के अनुसार सूर्य परब्रह्म की प्रत्यक्ष प्रतीक प्रतिमा है। वह मात्र भौतिक पदार्थों का ही उपहार नहीं देता अपितु चेतना को जीवन्त बनाये रखने वाले पाँच प्राण भी उसी में आते हैं। उसकी आराधना से हम अपने आन्तरिक चुम्बकत्व संकल्प शक्ति से अभीष्ट मात्रा में अभीष्ट स्तर के प्राण आकर्षित और धारण कर सकते हैं। सूर्य में असीम ऊर्जा है। उस ऊर्जा का चेतना पक्ष जितना अभीष्ट हो, जितना धारण करने की क्षमता हो उतना प्राप्त कर सकते हैं।
सविता का ध्यान सर्वोत्तम है। वह प्रत्यक्ष देव है। उसकी ध्यान धारणा से हम प्रत्यक्ष लाभ भी प्राप्त करते हैं। भौतिक सिद्धियाँ भी और आत्मिक ऋद्धियाँ भी।