Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रेम किससे! भक्ति किसकी!
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मन को जो प्रिय लगता है, उसी के सम्बन्ध में उसकी विचारणा चल पड़ती है। जिस प्रकार पैसा मिलने पर किसी को भी वेश्या अपना प्रेम प्रदर्शित करने लगती है। उसी प्रकार मन की पूरी मशीन उसी स्तर की कल्पनाएँ करने, सम्भावनाएँ खोजने और प्राप्ति के साधन तलाशने में लग जाती है। आकांक्षाओं को उसी प्रकार मन्त्र तन्त्र का संचालक माना गया है जैसे कि शरीर से काम कराने में मन की प्रेरणा काम करती है।
जीवन का स्वरूप क्या हो? भविष्य में किस दिशा में बढ़ा जाय? इसका निर्धारण करने के लिए जिस अन्तराल से संदेश मिलते हैं, उस पर आकांक्षाओं की प्रधानता रहती है। इच्छाओं को अनुचित ठहराने ओर सही राह पर लाने में बुद्धि का उतना योगदान नहीं होता जितना भावनाओं का। बुद्धि तो राज दरबारियों की तरह शासक की हाँ में हाँ मिलाने लगती है। उसी का समर्थन करती है। वही उपाय बताती है जैसी कि मालिक की मर्जी होती है।
चेतना क्षेत्र की अधिष्ठात्री बुद्धि को माना जाता है। यह मान्यता लोकाचार से सम्बन्धित दैनिक क्रिया-कलापों पर ही ठीक तरह लागू होती है। पर जहाँ तक जीवन प्रवाह को मोड़ने का सम्बन्ध है, वहाँ आकांक्षाओं की ही प्रमुखता है। यह आकांक्षाएं निकृष्ट कोटि की भी हो सकती हैं। उनकी प्रतिशोध, वासना, लालसा की भी भरमार हो सकती है और उस उद्विग्नता में मनुष्य कुकर्म करने की योजना भी बना सकता है और तत्परता भी दिखा सकता है। किन्तु उन्हें उच्चस्तरीय बनाना हो तो अपनी प्रियता के साथ जोड़ना हो तो उसके लिए उसी स्तर का ताना-बाना बुनना पड़ता है। लौकिक आकांक्षाओं के स्थान पर आदर्शवादी आध्यात्मिक अभिलाषाओं को ही अपनाना पड़ता है। उसी अधिग्रहण को भक्ति भावना कहते हैं।
‘भक्ति’ साधारणतया भगवान से प्रेम करने को कहते हैं। पर वह व्यावहारिक नहीं, कल्पना में, तो किसी स्वल्प लोक की स्वर्ण परी को भी प्रिय पात्र बनाया जा सकता है। पर जहाँ तक ईश्वरीय सत्ता का सम्बन्ध है उसका अनुशासन पाला जा सकता है। वैसा प्रेम नहीं हो सकता जैसा कि दो मित्रों या सम्बन्धियों के बीच होता है।
तत्वज्ञानियों का कथन है कि ईश्वर एक नियम, अनुशासन और व्यवस्था है, जिसका किसी से रोग द्वेष नहीं हो सकता। उससे किसी पक्षपात की भी आशा नहीं की जा सकती। निष्पक्ष न्यायाधीश को मनुहार उपहार से फुसलाया नहीं जा सकता है। उसके सामने यथार्थता को सिद्ध करने वाले प्रमाण ही सब कुछ होते हैं। ईश्वर की अनुकूलता, अनुकम्पा किसी भावुकता भरी उछल-कद से नहीं खरीदी जा सकती। उस प्रयोजन के लिए अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करनी होती है। इस ढाँचे में ढलने के लिए ऐसी प्रबल अभिलाषा उत्पन्न करनी होती है जो उत्कृष्टता की पक्षधर हो। भक्ति का यही तात्पर्य है और यही स्वरूप।
प्रश्न यह था कि आकांक्षा को कहाँ नियोजित किया जाय? इसका आध्यात्मिक उत्तर एक ही हो सकता है- उत्कृष्टता के साथ। उत्कृष्टता का तात्पर्य आदर्शवादिता, उदारता, दूरदर्शिता, सज्जनता को ही माना जा सकता है। यही तो वे सत्प्रवृत्तियां हैं जो मनुष्य के अन्तराल एवं व्यक्तित्व को महान बनाती है। उसे ऐसे मार्ग पर चलाती हैं जिसमें आत्म परिष्कार और पुण्य परमार्थ का समुचित समन्वय हो।
व्यवहार बुद्धि साँसारिक स्वार्थों का समर्थन करती है। बहुमत अपनाये गये क्रिया-कलापों से प्रभावित होती और उसी का अनुकरण करते हुए उसी राह पर चलती है। ऐसी दशा में व्यावहारिक विचारणा से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह उस पक्ष का समर्थन करेगी जो ओछे, बचकाने, अदूरदर्शी जन साधारण में प्रचलित नहीं है। बहुमत में स्वार्थी समुदाय है। आदर्शों की बात सोचने वालों को दर्शन तो जहाँ-तहाँ ही हो सकता है। उन्हें तो इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ही खोजा जा सकता है। जिनको महामानवों की गाथाएं, उच्चस्तरीय विचारणा की, महा प्रज्ञा की- झाँकी मिल सके और जिन्हें वह अनुकरणीय अभिनन्दनीय लग सके, उनसे ही दूसरों से सत्परामर्श मिलने की आशा की जा सकती है। अन्यथा आत्मा और परमात्मा को छोड़कर प्रायः सभी ऐसे हैं जो येन-कन प्रकारेण स्वार्थ सिद्धि का ही परामर्श देते हैं। यहाँ तक कि तथाकथित सन्त महन्त भी स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का वह मार्ग अपनाने की ही सलाह देते हैं जो प्रकारांतर से स्वार्थ सिद्धि के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
जीवन किस प्रकार व्यतीत किया जाय? इस बहुमूल्य सम्पदा को किस प्रयोजन में लगाया जाय? इसका सही परामर्श दो ही दे सकते हैं। एक आत्मा, दूसरा परमात्मा। इन दोनों के समन्वय से जो विचार बुद्धि प्रकाशित होती है उसे ‘महाप्रज्ञा’ कहते हैं। इस समुच्चय का एक ही परामर्श हो सकता है कि आदर्शों के लिए जिया जाय। उत्कृष्टता को अपनाया जाय। महामानवों के पद चिन्हों पर चला जाय। शारीरिक सुविधाओं को नहीं, आन्तरिक महानता को वरण किया जाय।
इस परिधि में अपनी अभिरुचि को केंद्रित और प्रगाढ़ किया जा सका तो समझना चाहिए कि भक्ति भावना का अन्तराल में प्रवेश हुआ और वह वर्ग मिला जिस पर चलते हुए हर कदम आनन्द एवं उल्लास की अनुभूति प्रदान कर सकता है। भक्ति का रसास्वादन ऐसे ही कर्मयोगी कर सकते हैं। जिन्हें उथली भावुकता उछाल कर प्रेम मग्न होने का नाटक करना है वे अभिनय के रूप में रोने, गाने, उछलने, मटकने जैसा कुछ भी नाटक कर सकते हैं, उनके लिए क्षण में रोना और क्षण में हँसना भी सम्भव हो सकता है न आता हो तो किसी अभिनय मण्डली में सम्मिलित रहकर उस कला में प्रवीण बना जा सकता है, पर इस विडंबना से हाथ क्या लगना है? आत्मा की गहराई में उतरने और परमात्मा की ऊँचाई नापने के लिए- महाप्रज्ञा का- दूरदर्शी विवेकशीलता का ही आश्रय लेना पड़ता है और वह साहस जुटाना पड़ता है जिसमें आत्मावलम्बन अपनाया जा सके, अन्य सभी का साथ छोड़ बैठने पर भी एकाकी लक्ष्य तक पहुँचकर रहने का व्रत निबाहा जा सके।
अन्तर्द्वन्द्व का महाभारत हर घड़ी धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मनःसंस्थान में छिड़ा रहता है। भौतिक आकर्षण अपनी ओर खींचते हैं। उनकी पकड़ इतनी मजबूत होती है कि पूर्व संचित कुसंस्कार, सामयिक लिप्सा लालसाएं प्रलोभनों की ओर ही घसीटती हैं। आदर्शों की पक्षधर दिव्य ज्योति तो अन्तःकरण के किसी कोने में जलती और अंधकार में न भटकने का धीमा परामर्श देती रहती है। इस दिव्य-ज्योति को प्रज्वलित किया जा सके तो वह सूझ-बूझ भरी दूरदर्शिता उभर सकती है, जिसमें आत्मकल्याण को प्रमुख और शरीर को दूसरे नम्बर पर रखा जा सके।
शरीर लिप्सा को प्रिय पात्र बनाने पर हम भोगों को भी चैन से भोग नहीं पाते और आत्मा को पतन के नारकीय गर्त में धकेलते हैं। किन्तु यदि आत्म सत्ता- परमात्म अनुशासन को स्वीकार करें तो शरीर यात्रा भी किसी घाटे में नहीं रहती। इसी राह को अपनाने वाले स्वार्थ और परमार्थ की सिद्धि का उभयपक्षीय लाभ उठाते हैं।