Magazine - Year 1994 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
नरमेध यज्ञ
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीमूत वाहन चले जा रहे थे आकाश मार्ग से। अकस्मात् उनकी दृष्टि रमणक द्वीप पर पड़ी। सुविस्तीर्ण वह मनोहर द्वीप और उसमें क्रीड़ा करते नागकुमार, किन्तु विद्याधर राजकुमार के लिए इसमें कोई आकर्षण नहीं था। उन्हें चौंकाया गया था एक विचित्र दृश्य ने। द्वीप के बाहरी भाग में पर्याप्त दूर तक एक अंतरीप चला गया था और उसके लगभग छोर पर एक उज्ज्वल शिखर दिख रहा था।
रमणक पर तो कोई उच्च पर्वत नहीं है। यह हिम शिखर यहाँ और इतना उज्ज्वल। अपने मूल भाग से ऊपर तक उज्ज्वल यह पर्वत। जितना ही ध्यान से उन्होंने उसे देखा, जिज्ञासा उतनी बढ़ती चली गयी। वह उतर पड़े वहाँ। उतरने के साथ ही वह चौंक पड़े। हे भगवान! कोई भी उस दृश्य को देखकर विह्वल हो उठता और जीमूत वाहन तो अत्यन्त सदय पुरुष थे। वे स्तंभित, चकित, भयातुर, स्तब्ध खड़े रह गये। वहाँ कोई पर्वत नहीं था। वह पर्वताकार दिख रहा अस्थिपंजरों का अकल्पित अंबार था। वहाँ ढेर के ढेर कंकाल और उनमें भेद, माँस और स्नायु का लेश नहीं। जैसे किसी ने सावधानी से स्वच्छ करके हजारों-हजार कंकाल वहाँ क्रम से सजाए हों।
क्या है यह?क्यों ये अस्थियाँ यहाँ हैं ? उस अस्थि पर्वत के ऊपरी भाग के कंकाल ऐसे लगते थे जैसे उन्हें अभी कुछ सप्ताह पूर्व ही वहाँ रखा गया है। लेकिन पूछें किससे? उस अशुभ स्थान के आस-पास कोई प्राणी नहीं था।लगभग पूरा अंतरीप निर्जन पड़ा था। वह उस अंतरीप से द्वीप के मध्य भाग की ओर बढ़े। उन विद्याधर के लिए नाग जाति से कोई भय नहीं था। यह जाति तो मित्र हैं उनके पिता की और शत्रु भी होती तो भी उनके सिद्ध देह का कुछ बनने-बिगड़ने वाला था नहीं। क्या है वहाँ अंतरीप के अंतिम भाग में ? जो पहला नाग मिला, उससे ही उन्होंने पूछ लिया। वहाँ? नाग-तरुण ने एक बार दृष्टि उधर उठाई और उसके नेत्र खिन्न स्वर में कहा-” हममें कोई उस अशुभ स्थान की चर्चा नहीं करता। उस ओर मुख करने में हम भी बचते हैं। लेकिन उसका आतंक हममें से सबके सिर पर सदा रहता है।” “ऐसा क्या बात है वहाँ?” उन्होंने अपना परिचय तो नहीं दिया, किन्तु वे इस द्वीप के अतिथि हैं, यह उन्होंने सूचित कर दिया।
आज पूर्णिमा है। स्वर्णवर्णा मृत्युपक्षी आज वहाँ उतरेगा और एक नाग के शरीर का अस्थि पंजर उस पर्वत की ओर बढ़ जाएगा। उस नाग तरुण ने व्यथित स्वर में बतलाया। “आज के दिन आप उस ओर जाने की भूल न करें।”
स्वर्णवर्णा मृत्युपक्षी क्या? अब भी कोई बात समझ में नहीं आयी थी। मस्तक उठाया तो वह नाग तरुण जा चुका था। किसी वृद्ध नाग से ही यह पहेली सुलझ सकती है।
विनता का पुत्र गरुड़ है हमारा आतंक। प्रत्येक पर्व पर उसके लिए बहुत सी खाद्य सामग्री लेकर किसी न किसी को अंतरीप के अंत में स्थित उस महावृक्ष के समीप जाना पड़ता है। वह वैनतेय सामग्री के साथ उसको लाने वाले को भी उदरस्थ कर लेता है। प्रहर भर पश्चात् वह अस्थि राशि के ऊपर उसके कंकाल को उगल कर उड़ जाता है। बड़ी कठिनाई से वृद्ध नाग ने रुक-रुककर क्रोध, क्षोभ तथा पीड़ा के स्वर में यह बतलाया।
‘वृद्ध बोल रहा था।” पहले तो वह असंख्य नागों का स्वेच्छया विनाश करता था। यह तो हमारे उस वंश शत्रु की उदारता ही है कि पर्व पर केवल एक बलि का वचन लेकर उसने हमारी जाति को जीवित छोड़ रखा है। कुछ छड़ रुककर फिर बोला-हम सब अपनी सम्पत्ति द्वेष का दंड भोग रहे हैं। इसमें गरुड़ को दोष भी कैसे दिया जा सकता है।
“अतीत में कुछ भी हुआ, अब इसे विस्मित होना चाहिए। “ जीमूत वाहन जैसे अपने-आप से कुछ कह रहे हों, ऐसे बोल रहे थे। ‘नागमाता कद्रू ने देवी विनता के साथ छल किया। माता के अनुरोध पर नाग-भगवान सूर्य के रथ के अश्वों की पूँछ में लिपट गये। दूर से अश्वों की पूँछ श्याम जान पड़ी। देवी विनता अपने वचनों की स्पर्द्धा के नियम में पराजित होकर पुत्र के साथ नागमाता की दासी हो गयी। माता तथा स्वयं को इस दास्य भाव से मुक्त करने के लिए अमृत हरण करने में वैनतेय को जो श्रम करना पड़ा, सुरों में जो उनके सम्मान भाजन थे, संग्राम करना पड़ा और दास्यकाल में नागों ने उनको वाहन बनाकर उनका तथा उनकी माता का बार-बार तिरस्कार करके जो अपराध किया, उससे नागों पर उनका रोष सहज स्वाभाविक था। “ “हम गरुड़ को दोष नहीं देते।” वृद्ध नाग ने दुःख भरे स्वर में कहा। “गरुड़ अन्न अथवा फल आहार करने वाला प्राणी तो है नहीं। उसे जब जीवाहार ही करना है, सृष्टि के प्रतिपालक से अपने शत्रुओं को आहार के रूप में प्राप्त करने का वरदान लिया उसने। हम तो अपने पूर्व-पुरुषों के अपकर्म का प्रायश्चित कर रहे हैं। अनंत काल तक के लिए यह प्रायश्चित हमारी जाति के सिर पर आ पड़ा है। “ऐसा नहीं। संतानों को सदा-सदा के लिए पूर्व-पुरुषों के अपराध का दंड भाजन बनाये रखा जाए, यह उचित तो नहीं है। जीमूत वाहन ने गंभीर स्वर में कहा।” गरुड़ इतने निष्ठुर नहीं हो सकते। मुझे उनकी उदारता पर विश्वास है।”
“हतभाग्य नागों के अतिरिक्त विश्व में सबके लिए वे उदार हैं।” वृद्ध नाग ने दीर्घ श्वाँस ली।
“आज पर्व दिन है। किसको जाना है आज गरुड़ की बलि बनकर ? जीमूत वाहन ने कुछ क्षण सोचकर पूछा। “द्वीप के उस आवास में आज क्रंदन का अविराम स्वर उठ रहा है। आज उसी की बारी है। वृद्ध को यह बतलाने में बहुत क्लेश हुआ। वह वहाँ से एक ओर चला गया। लेकिन उसने जो बता दिया था, उस संकेत से उस अभिशापग्रस्त आवास को ढूंढ़ लेना कठिन नहीं था। “बेटा! तुम युवक हो। अभी तुम्हारे आमोद-प्रमोद के दिन हैं।तुम मुझे जाने दो। इस वृद्ध के बिना भी तुम इस परिवार का पालन कर सकते हो।” एक वृद्ध नाग उस परिवार में रोते-रोते पुत्र से अनुनय कर रहा था। “मैं जाऊंगी। मेरे न रहने से परिवार को कोई हानि नहीं। अब मैं आपकी संतानों की रक्षा में शरीर देकर धन्य बनूँ, इतनी अनुमति दें।” वृद्धा नागिन ने नेत्र पोंछ लिये। “मातः! गरुड़ को नारी बलि कभी भेजी नहीं गयी। कोई नाग परिवार इतना कायर नहीं निकला कि किसी नारी की मृत्यु के मुख में भेजकर अपनी रक्षा करना चाहै। गरुड़ को भी ऐसी बलि कदाचित् ही स्वीकार होगी। उन्होंने यदि इसे अपनी प्रवंचना या अपमान माना तो संपूर्ण जाति विपत्ति में पड़ जायेगी। पिता की सेवा में पुत्र का शरीर लगे, यह पुत्र का परम सौभाग्य आज मुझे मिल रहा है। मैं इसे नहीं छोड़ूँगा। “ युवक नाग में कोई व्याकुलता नहीं थी। पूरे परिवार में वही स्थिर धीर दिख रहा था।
“यह अवसर आप सब आज मुझे देंगे।” अचानक उस आवास में पहुँचकर जीमूतवाहन ने सबको चौंका दिया। “आप ?आप कोई भी हों, हमारे अतिथि हैं।” पूरा परिवार एक साथ सम्मान में उठ खड़ा हुआ। “दयाधाम! आप हमारी परीक्षा न लें। यह तो हमारी पारिवारिक समस्या है।”
“मुझे आपका कोई सत्कार स्वीकार नहीं। मैं अतिथि हूँ और आपसे गरुड़ के पास उनकी बलि सामग्री ले जाने का अवसर माँगने आया हूँ।” जीमूत वाहन के स्वर में दृढ़ निश्चय था। “आप मुझे निराश करेंगे तो मैं वहाँ कभी नहीं जाऊंगा। आप मुझे रोक नहीं सकते। “ “अतिथि की ऐसी माँग कैसे स्वीकार की जा सकती है ?” बड़े धर्म संकट में पड़ गया नाग परिवार। वह आसन तक स्वीकार नहीं कर रहे थे। अंत में उनका आग्रह विजयी हुआ। वे जायेंगे ही, यह जानकर अत्यंत अनिच्छा होने पर भी नाग परिवार को उनकी बात माननी पड़ी। यद्यपि वह युवक उनके साथ उस अंतरीप के छोर तक गया। रमणकद्वीप में आज पहली बार एक साथ दो व्यक्ति उस बलि स्थान तक पहुँचे थे। जीमूतवाहन ने बहुत आग्रह करके किसी प्रकार युवक को लौटा दिया।
आकाश में गरुड़ के पंखों से उठता सामवेद की ऋचाओं का संगीत गूँजा और एक स्वर्णिम प्रकाश सारी दिशाओं में फैल गया। संपूर्ण धरा और सागर का जल जैसे स्वर्ण द्रव से आर्द्र हो उठा। उच्च अस्थि राशि स्वर्णवर्णा बन गई। जीमूतवाहन उस छटा को मुग्ध नेत्रों से देख रहे थे। भय कंप उनमें तनिक भी न था।
एक बार प्रचंड वायु से सागर क्षुब्ध हुआ और तब गरुड़ उतर आये। महातरु के समीप अंतरीप पर उन्होंने बलि सामग्री देखते ही भोजन करना प्रारंभ कर दिया। उन्हें भी आश्चर्य था-”आज सामग्री लाने वाला यह है कैसा ?न रोता है-न भयभीत है और न व्याकुल ही दिखता है।”
क्षुधातुर गरुड़ के समीप अधिक विचार करने का अवकाश नहीं था। बलि-सामग्री शीघ्र समाप्त करके उन्होंने जीमूत वाहन को समूचा निगल लिया और उड़कर अस्थि पर्वत पर बैठ गए। भोजन के पश्चात् विश्राम करके देह का कंकाल उगलकर तब जाया करते हैं।
“महाभाग! तुम कौन हो” गरुड़ ने बड़ी व्याकुलता अनुभव की। उन्होंने कंठ इधर-उधर घुमाया। अस्थि समूह से उड़कर नीचे आये। लगता था उन्होंने कोई तप्त लौह निगल लिया हो। जीमूत वाहन को उन्होंने झटपट उगल दिया और पूछा “तुम नाग नहीं हो सकते। तपस्वी ब्राह्मण अथवा भगवद्भक्त ही अपने तेज से मेरे भीतर ऐसी ज्वाला उत्पन्न कर सकते हैं।”
जीमूत वाहन का सारा शरीर गरुड़ के जठर द्रव से लथ-पथ हो रहा था। उनके शरीर में कई खरोंचें थीं। किन्तु वे अविचलित स्थिर और शाँत थे। उन्हें पहचानते हुए गरुड़ बोले-” आपने एक क्षुद्र नाग के लिए स्वयं की बलि देने का क्यों सोचा ?
“इस सृष्टि में क्षुद्र कोई नहीं है। सबके भीतर समान रूप से परम पुरुष की सत्ता है। यह शरीर किसी के काम आ सके इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा ?” “मैं आपका प्रिय करूं ?” गरुड़ का स्वर शिथिल था। जीमूत वाहन शाँत स्वर में बोले-”आप यदि मुझपर प्रसन्न हैं तो सारा द्वेष भूलकर इस नागद्वीप के निवासियों को अभय दें।”
“महाभागवत, दयाधर्म के धनी जीमूत वाहन ! मैं स्वयं पर लज्जित हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, तुम्हारा आत्मदान सार्थक हुआ। अब इस द्वीप पर गरुड़ नहीं उतरेगा तुम्हारी जीव दया का प्रकाश सर्वत्र फैले।” यह कहते हुए गरुड़ उड़ चले। जीमूत वाहन के मुख पर संतोष की रेखा चमक उठी।
“महाभागवत, दयाधर्म के धनी जीमूत वाहन ! मैं स्वयं पर लज्जित हूँ। तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, तुम्हारा आत्मदान सार्थक हुआ। अब इस द्वीप पर गरुड़ नहीं उतरेगा तुम्हारी जीवदया का प्रकाश सर्वत्र फैले।” यह कहते हुए गरुड़ उड़ चले। जीमूत वाहन के मुख पर संतोष की रेखा चमक उठी।