Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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यज्ञ ऊर्जा के बहुआयामी लाभ
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भौतिक ऊर्जा व प्राण ऊर्जा के समन्वय से एक तीसरी शक्ति के आविर्भाव में प्राचीनकाल के वैज्ञानिक ऋषियों ने एक अद्भुत सफलता प्राप्त की और उसे ‘यज्ञाग्नि’ के नाम से संबोधित किया। यज्ञ भारतीय परंपरा में उपासनात्मक अनुष्ठानों में भी सम्मिलित रखा गया है और उसका प्रयोग सृष्टि और समाज के असंतुलन को संभालने में एक सामर्थ्य विशेष के रूप में भी हुआ है।
यज्ञ का भारतीय संस्कृति में अविच्छिन्न स्थान है। उसे यज्ञ संस्कृति भी कहा जाता रहा है। जन्म से लेकर मरण पर्यंत षोडश संस्कारों के रूप में इस प्रक्रिया का सोलह बार प्रयोग करके उसके जीवन कम में से पशु प्रवृत्तियों के निराकरण और देव प्रवृत्तियों के अविवर्धन की अपेक्षा की जाती रही है। प्रत्येक पर्व और शुभारंभ में यज्ञ कृत्य की अनिवार्यता मानी गयी है। होली वार्षिक सर्वजनीन यज्ञ है। पाँच आहुतियों का बलिवैश्व यज्ञ दैनिक नित्यकर्म में सम्मिलित रखा गया है। भारतीय धर्मानुयायी का विवाह विधान दो आत्माओं की वैल्डिंग की तरह जोड़ने वाले यज्ञ कृत्य के साथ ही संपन्न होता है। पार्थिव शरीर की पूर्णाहुति चिता जलाकर अंत्येष्टि यज्ञ के रूप में ही संपन्न होती है। इन परंपराओं पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि भारतीय जीवनचर्या में यज्ञ को कितनी गहराई तक घुला मिला कर रखा गया है।
यज्ञ के भी गायत्री की तरह दो पक्ष हैं-एक दार्शनिक, दूसरा वैज्ञानिक। जीवन यज्ञ अथवा यज्ञीय जीवन एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण जिसके अनुसार पवित्रता और उदारता की रीति-नीति अपनाकर जिया जाना चाहिए। प्रथम और प्रमुख धर्मशास्त्र ऋग्वेद के प्रथम मंत्र के प्रथम चरण में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है। पुरोहित अर्थात् मार्गदर्शक, यहाँ मार्गदर्शक का तात्पर्य जीवन की दिशा धारा का निर्धारक है।यज्ञाग्नि की पाँच विशेषतायें बतायी गयी हैं-(1) सदा गरम अर्थात् सक्रिय रहना(2) ज्योतित अर्थात् अनुकरणीय बनकर रहना (3) संपर्क में आने वालों को अपने जैसा बना लेना (4) उपलब्धियों का संग्रह न करके वितरित करने रहना (5) लौ ऊंची रखना अर्थात् चिंतन, चरित्र और स्वाभिमान को नीचे न गिरने देना। इन्हीं आदर्शों को पंचशील कहा गया हैं। जो विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयुक्त होते हैं। पंचशील ही पंच देव है। उपासना में इन्हीं पाँचों को मूर्धन्य माना गया है।
यज्ञाग्नि का वैज्ञानिक रूप यह है कि जिसमें प्राण ऊर्जा से लेकर ब्रह्म ऊर्जा तक की प्रमुख पाँच अग्नियों को ज्वलंत किया जाता है। कठोपनिषद् के यम-नचिकेता संवाद में पंचाग्नि विद्या का सुविस्तृत उल्लेख है। उस प्रक्रिया के सहारे शरीर के आधारभूत पंचतत्वों का नये सिरे से परिमार्जन करके कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न की जा सकती है। चेतना के भी पाँच आधार हैं जिन्हें पाँच प्राण कहते हैं। इन पाँच घटकों का स्तर बढ़ाकर साधक की प्राण संज्ञा को किस प्रकार उच्चस्तरीय बनाया जा सकता है, यह भी एक रहस्य है। जिसका आभास यम निर्देशित पंचाग्नि विद्या में मिलता है।
जीव सत्ता को प्राण कहते हैं, उसमें भौतिक और आत्मिक दोनों ही स्तर की ऊर्जा का समावेश है। इस प्राण को प्रखर एवं प्रचंड बनाकर प्राणाग्नि तक पहुँचाने की विद्या प्राणायाम कहलाती है। इसके अतिरिक्त अंतर्जगत में सन्निहित दिव्यता को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने में और सुषुप्ति की जाग्रति में परिणत करने के लिए अंतराल को प्रभावित करने वाली अनेक साधनाओं का भी अवलंबन अपनाना पड़ता है। गीता में “प्राण-अपान में और अपान को प्राण में यजन करने” का संकेत है। यह अंतःक्षेत्र की प्राणाग्नि का यज्ञाग्नि का प्रज्ज्वलन है। कुँडलिनी जागरण, षट्चक्र भेदन, ग्रंथि वियोजन, ध्यान, धारणा समेत समाधि प्रकरण जैसी अनेक साधनायें इसी परिधि में आती हैं। आत्म यज्ञ में बाहरी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। कायसत्ता में विद्यमान साधन सामग्री से ही योगाग्नि उत्पन्न कर ली जाती है और वह प्रतिफल हस्तगत किया जाता है जिसका महात्म्य-विस्तार अध्यात्म विज्ञान को अनेकों साधनात्मक दिशाधाराओं में किया गया है। यज्ञाग्नि और प्राणाग्नि में परस्पर संबंध में प्रश्नोपनिषद् में सुविस्तृत प्रकाश डाला गया।
अध्यात्म विज्ञान के अनुसार काक सत्ता की पाँच परतें हैं जिन्हें पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मन्तेमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोश के नाम से इन्हें जाना जाता है। इन्हें आत्मिक प्रगति के पाँच सोपान एवं पाँच दिव्यलोक भी कहते हैं। यह सब कुछ अपने ही शरीर हैं, परन्तु अभीष्ट ऊर्जा के अभाव में सब कुछ प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। जागरण के लिए उसे ऊर्जा चाहिए। पक्षियों के अंडे निजी गर्मी से नहीं, बाहरी गर्मी से पकते हैं। काया के पाँच तत्वों और चेतना के पाँच प्राणों को प्रखर बनाने के लिए जिस आँतरिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है उसे पंचाग्नि विद्या-प्राणाग्नि विद्या के सहारे संपन्न किया जाता है। मनुस्मृति के अनुसार सामान्य काया को यज्ञ विद्या के सहारे ब्राह्मीय देवत्व संपन्न बनाया जाता है। कहा गया है कि ब्राह्मण वंश नहीं, वरन् आत्मविकास का एक सोपान है, उसमें यज्ञोपचार का आश्रय लेना पड़ता है। यहाँ अध्यात्म यज्ञ का ‘प्राण से प्राण के यजन’ का संकेत है, फिर भी उस प्रक्रिया में अग्निहोत्र की अत्यधिक उपयोगिता मानी गयी है। संक्षेप में व्यक्तित्व में अंतरंग और बहिरंग क्षेत्रों में प्रखरता भर देने के लिए योगाग्नि और यज्ञाग्नि की आवश्यकता तत्वदर्शियों ने समझी है।
अग्निहोत्र यज्ञ विधान का तीसरा सोपान है। आमतौर से यज्ञ शब्द से अग्नि पूजा का ही अर्थ लिया जाता है। यह देखने में भौतिक विज्ञान की प्रक्रिया प्रतीत होती है, पर वस्तुतः उसमें चेतन और पदार्थ की विशिष्टताओं का समान रूप से उपयोग होता है। अग्निहोत्र का महात्म्य भौतिक उपलब्धियोँ के रूप में किया जाता है, फिर भी उसके साथ जुड़े हुए दिव्य परिणाम कम नहीं हैं।
अग्निहोत्र का प्रचलन भारत में छोटे-छोटे सही-गलत रूप में सर्वत्र पाया जाता है। देवता के नाम पर ज्योति जलाने और गूगल चढ़ाने की परंपरा से पिछड़े वर्ग भी परिचित हैं। होली जलाने में बच्चों तक को उत्साह रहता है। अगरबत्ती, धूप व दीप जलाने से इसी प्रयोजन की चिन्हपूजा है। अन्य धर्मावलंबी भी इस प्रक्रिया को किसी न किसी रूप में धर्म प्रयोजनों के अवसर पर प्रयुक्त करते हैं। प्रश्न यह उठता है कि इतने व्यापक प्रचलन के पीछे कोई विशेष उद्देश्य है या ऐसे ही सुगंधित धुंआ फैलाने जैसे छोटे प्रयोजन के लिए यह सब किया जाता है।
मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक रूप से निरंतर गंदगी निकालता रहता है। सामूहिक रूप से भी आये दिन गंदगी एवं कचरा उत्पन्न होता है। यह सभी निरंतर वायुमंडल में सम्मिलित होता और बढ़ता जाता है। यों तो इस गंदगी का शोधन वाली बात का भी महत्व है, पर समझा जाना चाहिए कि यज्ञ जैसा उच्चस्तरीय अनुष्ठान एवं अनुशासित विधि-विधान मात्र इतने भर के लिए नहीं बना है। आज पर्यावरण प्रदूषण की सर्वत्र चर्चा है और अंतरिक्ष के विषाक्तता से भरते जाने के कारण उत्पन्न संकट की विभीषिका ने सभी को चिंतित किया है। कल-कारखाने परमाणु भट्टियाँ एवं परिवहन के साधन जैसे मोटर गाड़ियाँ और वायुयान आदि को बंद करने की भी किसी की हिम्मत नहीं पड़ती और प्रदूषण से निपटने की कोई तरकीब भी हाथ नहीं लगती।इस संदर्भ में यज्ञाग्नि द्वारा निसृत ऊर्जा से कचरे को माचिस से नष्ट करने की तरह नयी आशा का केन्द्र बिन्दु मानकर इसे ब्रह्मवर्चस् की शोध शृंखला में सम्मिलित किया गया है।
यज्ञ के फलस्वरूप ‘पर्जन्य’ बरसने का प्रतिफल बताया गया है। पर्जन्य का मोटा अर्थ बादल भी है और उससे अभीष्ट वर्षा होने का तुक बिठाया गया है, पर वास्तविकता यह है नहीं। पर्जन्य अंतरिक्ष में घुमड़ने वाली प्राण परतों को कहते हैं, जो जल ही नहीं, पवन, अन्न और वनस्पतियों में सम्मिलित होकर प्राणियों की क्षमता एवं पदार्थों की उपयोगिता की अभिवृद्धि करता है। यज्ञ से इसी पर्जन्य की वर्षा होने और उससे सुखद परिस्थितियां विनिर्मित होने की बात कही है। विश्व वैभव के संवर्द्धन में यज्ञ प्रक्रिया का कितना बड़ा योगदान हो सकता है। इस तथ्य को अतीत के अध्यात्म विज्ञानी ऋषि-मनीषियों ने भली-भाँति जाना था और इस उपचार से विश्व-कल्याण का व्यापक वातावरण बनाया था। विषाक्तता भरे आज के वातावरण में इस महाविज्ञान की खोई हुई कड़ियों को फिर से ढूंढ़ निकालने की आवश्यकता पड़ी और तद्नुरूप ही उसकी व्यवस्था बनाई गई है। यों तो चिन्ह पूजा के रूप में जो आधी-अधूरी लकीर पिटती रहती है, उससे यज्ञ परंपरा का परिचय भर मिलता है। पर वह प्रयोजन पूरा नहीं होता जिसका कारण इस पुष्य प्रक्रिया को उच्चस्तरीय ऊर्जा शक्ति के रूप में मान्यता मिली थी।
यज्ञीय ऊर्जा का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है-शारीरिक और मानसिक रुग्णता से जूझना और स्वास्थ्य संवर्द्धन का पथ-प्रशस्त करना। प्राचीनकाल से ही मनुष्य के शारीरिक और मानसिक रोगों की निवृत्ति में यज्ञाग्नि का उपयोग होता रहा है। दोनों क्षेत्रों की समर्थता बढ़ाने में भी इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसका परिचय इतिहास पुराणों की अनेकों आख्यायिकाएं प्रस्तुत करती हैं। यज्ञोपचार से राजा दशरथ के चार पुत्र, अश्वत्थामा, द्रौपदी आदि विशिष्ट आत्माओं के जन्म धारणा करने की गाथायें बताती हैं कि इस ऊर्जा का प्रभाव मानवी सत्ता की कितनी गहरी परतों में पहुँचता है। बात इससे कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। यह समस्त संसार एक विश्व पुरुष है, उसे विराट् भी कहा गया है। इस विराट् के घटकों-अवयवों में समस्त प्राणी और पदार्थ सम्मिलित हैं। यज्ञोपचार को इस विराट् का प्राणोपचार माना गया है और “यज्ञेन यज्ञमय जन्तदेवा”-मंत्र में विभूतियों के अजस्र अभिवर्धन की बात कही गयी। इसमें सृष्टि की सामान्य संपदा को असामान्य बना देने और प्राणियों तथा पदार्थों का स्तर ऊंचा उठा देने का संकेत है।
सर्वविदित है कि पदार्थ के तीन स्वरूप होते हैं-ठोस, द्रव और गैस। कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता, वरन् परिस्थिति के अनुरूप इन्हीं तीन स्थितियों में अदलता-बदलता रहता है। वायुभूत हुआ पदार्थ सृष्टि के कण-कण में फैल जाता है। वही सूक्ष्मीकृत पदार्थ श्वाँस के माध्यम से सरलतापूर्वक काया के कण -कण में भी अतिशीघ्र पहुँचाया जा सकता है, जबकि उसे उदरस्थ करने और पचाने के लिए प्रभावी बनाने में विलंब ही नहीं लगता, वरन् अंश भी थोड़ा बहुत हाथ ही लगता है। इंजेक्शन में सरलता मानी गयी है और उस माध्यम से उपचार सामग्री भीतर पहुँचाने का उपाय खोजा गया है, किन्तु यह पद्धति भी आँशिक रूप से ही सफल हुई है। कई बार तो शरीर के श्वेत रक्त कण उसके प्रति विद्रोह तक खड़ा कर देते हैं और लाभ के स्थान पर हानि उठानी पड़ती है। किन्तु यज्ञाग्नि द्वारा पदार्थ को वायुभूत बनाकर उसे शरीर में प्रवेश कराने की पद्धति ऐसी है जिसे निरापद, सरल और सफल होने का अपेक्षाकृत अधिक अवसर है। कारण सूक्ष्म होने पर पदार्थ की सामर्थ्य और व्यापकता बढ़ती है। यज्ञ में यजन किये गये पदार्थ नष्ट नहीं होते, वरन् अदृश्य होकर अपेक्षाकृत अधिक सशक्त और व्यापक बन जाते हैं और साँस के सहारे अंदर पहुँचकर अपना अधिक प्रभाव छोड़ते हैं। इस माध्यम से रोग निवारक और परिपोषक पदार्थ वायुभूत होकर जब भीतर पहुँचते हैं तो अपनी सूक्ष्मता के कारण स्वभावतः अधिक प्रभावी होते हैं। इस प्रक्रिया की एक और विशेषता है कि साँस नाक द्वारा ली जाती है और वह मस्तिष्क मार्ग से फेफड़ों में होती हुई समूचे शरीर में वितरित होती है। अतः यज्ञ प्रक्रिया द्वारा निस्तृत गैस का प्रमुख लाभ मस्तिष्क को मिलता है। इस तरह यज्ञ से शारीरिक ही नहीं, मानसिक उपचार भी बन पड़ता है।
यज्ञ में मात्र अमुक पदार्थों का वायुभूत बनाना ही एक प्रसंग नहीं है, वरन् याजकों की श्रद्धा, विशेष स्थिति, मंत्रों की स्वर शक्ति व्यक्तियों की संयुक्त ऊर्जा जैसे अनेक कारणों के मिलने से एक विशिष्ट वातावरण बनता है। ऐसा विशिष्ट जिसमें देवसत्ता की उपस्थिति का अनुभव किया जा सके। इस उत्पादन का न केवल उस प्रयोजन में भाग लेने वालों पर प्रभाव पड़ता है, वरन् व्यापक वातावरण पर उसकी उपयोगी प्रतिक्रिया होती है। पर्जन्य के रूप में प्राण ऊर्जा, प्राणियों की समर्थता का संवर्धन, ऋतुओं की अनुकूलता, वनस्पतियों का विशिष्ट परिपोषण, रोग कीटाणुओं का शमन जैसे कितने ही भौतिक लाभ प्राचीनकाल से में यज्ञों से मिलते रहे हैं। प्राण और पदार्थ की संयुक्त ऊर्जा से जिस अग्नि का आविर्भाव होता है, उसकी सामर्थ्य एवं परिणति तो असाधारण है। सृष्टि एवं समाज के बिगड़ते संतुलन को संभालने में समय-समय पर इस तरह राजसूय, वाजपेय और अश्वमेध यज्ञों के विराट् आयोजन होते रहे हैं। इस दिनों इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री शाँतिकुँज द्वारा विश्व स्तर पर आयोजित अश्वमेध यज्ञों को उसी पुरातन शृंखला की कड़ी माना जाना चाहिए। इसमें सतयुग की देवलोक की संभावनाओं को मानवी प्रयत्नों द्वारा अवतरित, विनिर्मित, सुनिश्चित तथ्य सन्निहित है।