Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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नवयुग की गंगोत्री, जिसमें भरी है विशिष्ट प्राणऊर्जा
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अपनी आवश्यकता और अनिवार्यता के बावजूद आज ऐसे स्थान नगण्य है-जहाँ परिवेश-पर्यावरण और वातावरण तीनों उच्चस्तरीय शक्ति संपन्न हों। परस्पर घुले-मिले हों। एक की प्रभाविकता दूसरे को संपुष्ट करती हो। जहाँ जाकर व्यक्ति अपने स्वास्थ्य-व्यवहार और संस्कारों में परिवर्तन महसूस किए बिना न रहें। जीवन की उल्टी धारा को मोड़-मरोड़कर सीधा करने वाली जगह यदि है तो हिमालय की दुर्गमताओं से घिरी। पालब्रान्टन, योग ऋषि बंधु जैसे खोजियों की कृतियाँ इन स्थानों का वर्णन कितना ही मोहक क्यों न करे ? पर सर्वसामान्य के लिए वहाँ जाने का अर्थ है स्व के अस्तित्व को नष्ट करने पर उतारू हो जाना। लगभग यही स्थिति अन्य स्थानों की है। यदि परिवेश ठीक है तो पर्यावरण नहीं। दोनों हैं तो वातावरण का विशिष्ट स्तर अज्ञेयवादियों की खोज की तरह बेबूझ है-दूरातिदूर बना हुआ है। इन तीनों दुर्लभताओं को अपने में समेट कर सुलभ बनाने की दृष्टि से शांतिकुंज अपने आपमें अनूठा है। जिसका स्थूल मोहक आकर्षण सूक्ष्म अंतवेर्धी सामर्थ्य, कारण की बरबस उलटफेर कर डालने वाली शक्तियां अनुभूतिगम्य हैं।
इस अनूठेपन की अनुभूति को वस्तु और इन्द्रिय संयोग की संकरी सीमा में नहीं समेटा जा सकता। इसके पीछे उस सूक्ष्म और सघन आवरण की क्रियाशीलता है, जिसमें न केवल पदार्थ बल्कि हम स्वयं घिरे रहते हैं। इस आवरण के अनेक स्तरों के अनुरूप अनुभूतियों के अनेक रूप-रंगों का आस्वादन जाने-अनजाने होता रहता है।गहरी पैठ और विश्लेषक दृष्टि के अभाव में पृष्ठभूमि में होने वाली उस क्रियाशीलता को नहीं समझ पाते जो भावानुभूतियों अनेक रूप रंग प्रदर्शित कर हमें आश्चर्य में डालती रहती है।
पर यदा-कदा प्रायः हममें से प्रत्येक के जीवन में ऐसे क्षण आ जाते हैं, जब हमें इस तथ्य की अनुभूति हुए बिना नहीं रहती। इन विशेष क्षणों में तो हम स्वयं उस स्थान परिवेश तक पहुँच जाते हैं-जहाँ इस विशिष्ट आवरण के किसी स्तर की अत्यधिक सघनता है। अथवा हमारा चित्त स्वयं आरोह-अवरोह कर उस स्तर विशेष का संस्पर्श पा लेता है। संस्पर्श से अपनी अनुभूति कराने के कारण ही मनीषियों ने इस आवरण को वातावरण की संज्ञा दी है। वात् शब्द का अर्थ वायु का समानार्थी है। वायु का मतलब उस तत्व विशेष से है जो अपने स्पर्श से हमारे अंतःकरण में अनुभूतियों की इन्द्रधनुषी आभा बिखेर दे।
स्वामी योगमयानंद के आर्य शास्त्र प्रदीप के अनुसार अनुभूतियों में तीव्रता और मंदता का कारण इसका सघन और विरल होना है। सघनता और विरलता के अनुपातिक परिणाम में ही अनुभूति की तीव्रता या मंदता का अनुभव हो पाता है। संस्पर्श देने वाले इस आवरण को हम सुखद या दुखद इन दो शब्दों में वर्गीकृत कर लेने का मिथ्या प्रयास भले कर लें। किन्तु वास्तविकता यही है कि इसकी सीमाएं उतनी ही विचित्र, व्यापक और विस्तीर्ण हैं जितना कि स्वयं अनुभवों का संसार।
सामान्य अर्थों में हम परिवेश-पर्यावरण-वातावरण को समानार्थी मान बैठते हैं। पर हमारी यह मान्यता उथली सोच का परिणाम है। सत् ही भौतिक स्थिति में अटक कर उसके पीछे छुपी मनोवैज्ञानिक गहराइयों की अवहेलना है। यथार्थ में ये तीनों शब्द अपना अलग अर्थ रखते हैं। भेद सिर्फ अर्थ के अलगाव का नहीं अनुभूतियों की संरचना का भी है। परिवेश का तात्पर्य शुद्ध भौतिक परिस्थितियों से है। स्थान विशेष की स्थिति से है। उदाहरण के लिए यदि हमें घर गाँव का परिवेश समझना हो तो घर की स्थिति, अड़ोस-पड़ोस में कौन रहते हैं ? घर के पास चिकित्सालय विद्यालय की स्थिति का अता-पता करेंगे। इसकी सीमा इतने तक ही है। जबकि पर्यावरण शब्द अपने अर्थ की व्यापकता के घेरे में परिवेश के अतिरिक्त और बहुत कुछ समेटे रखता है। इसका अध्ययन परिवेश की प्रभाविकता का अध्ययन है। न केवल परिवेश बल्कि वायु आकाशीय स्थिति के साथ अन्य सूक्ष्मताएं हमारे जीवन को किस तरह से प्रभावित करती हैं ? इसकी छानबीन, ढूंढ़ व खोज भी हैं। जीवन पर प्रभाविकता सिर्फ शरीर अर्थों में नहीं बल्कि मानसिकता के घेरे में। आधुनिक विज्ञान द्वारा अपने अध्ययन फलक का विस्तार कर लिये जाने के कारण इस विधा ने आज “डीप इकोलाजी” के रूप में जन्म पाया है। भले आज हमें उसका शैशव काल देखने को मिले। पर उसकी गतिविधि क्रिया कलापों को देख कोई भी उसके विकास की असीम संभावनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकता। व्यवहार विज्ञानी सी.सिम्पसन ने अपने शोध अध्ययन “बिहैवियरल चेंजमेंट्स इन मैन” में पर्यावरण के बदलते रूपों के अनुसार मानवीय व्यवहार के बदलते क्रम की छानबीन कर इसके प्रभावों को स्पष्ट करने की कोशिश की है।
वातावरण इन दोनों को अपने प्रभाव में समेटने वाला कहीं अधिक सूक्ष्मतर तत्व है। उपर्युक्त दोनों को यदि स्थूल-सूक्ष्म कहें तो इसे कारण की उपमा देना कोई अत्युक्ति न होगी। इसकी इसी विशेषता के कारण हममें से अनेक इसके विज्ञान को समझने में असमर्थ हो जाते हैं। सामान्य क्रम में एक ही परिवेश को इसके विभिन्न स्तर अपने स्पर्श से प्रभावित करते रहते हैं। तदनुसार चित्त के अनुकूल-प्रतिकूल संस्कारों का संयोग मानवीय व्यवहार के तरह-तरह के चित्र खींचता रहता है। एक ही घर में रहते हुए हम गमगीन और हर्ष छलकाते जिस माहौल की अनुभूति करते हैं वह इसी की सृष्टि है। यदा कदा इस तरह के अनुभव बिना किसी विशेष घटनाक्रमों के यों ही हो जाते हैं। उस समय प्रत्येक वस्तु, पदार्थ सुख या दुःख से सनी लगने लगती है। कभी-कभी इसके विपरीत घटनाक्रमों में परिवर्तन इसके किसी स्तर विशेष की सघनता बढ़ा देता है। उसके सहज सामीप्य की उपलब्धि से उपस्थिति प्रत्येक जन हर्षोल्लास या दुःख, उच्छ्वास की तरंगों में डूब जाता है। शादी-विवाह या किसी प्रियजन की मृत्यु पर इस तरह की अनुभूतियाँ सहज हो जाती हैं। यह बदलाव परिवेश-पर्यावरण बदलने के कारण न होकर वातावरण बदल जाने से बन पड़ता है। किसी धार्मिक अनुष्ठान’यज्ञायोजन के समय में भी हमारे अंतः-करण किन्हीं विशेष स्पंदनों से सराबोर हुए बिना नहीं रहते।
अनुभूतियों के इस निरंतर सिलसिले के बावजूद आज वह पुरुषार्थ विस्तृत प्रायः है जो वातावरण के किसी उच्चस्तरीय शक्ति-स्पंदनों वाले स्तर को सघन और चिरंतन बनाये रखे। भले यह कार्य सामान्य मानवीय सामर्थ्य के बाहर हो किन्तु मानव विकास के लिए चेतना जगत में प्रवेश कर उच्च स्थितियों में अधिष्ठान के लिए इसके सिवा कोई अन्य उपाय है भी नहीं। प्राचीन समय के सतयुगी माहौल के पीछे वे प्रयास ही थे, जिसके द्वारा हर गाँव को छोटे-मोटे तीर्थ का रूप दे दिया गया था। इसके अतिरिक्त विशिष्ट स्थानों को कठोर तपश्चर्या के बलशाली चुँबक द्वारा पवित्रता-प्रफुल्लता, सामंजस्य आदि ओजस्वी तत्वों से भरी-पूरी ऐसी चादर तान दी जाती थी, जिसके साये में मानव अपनी आकुलता संताप से छुटकारा पा सके। यह चादर अपनी मजबूती बरकरार रखे इसके लिए तप की चुँबकीय सामर्थ्य निरंतर सक्रिय रहती थी।
पौराणिक आख्यानों में अगस्त्य की वेदपुरी, नर-नारायण के बद्रीवन आदि विभिन्न ऋषियों की वातावरण की विशिष्ट प्रयोगशालाओं का चमत्कारी वर्णन आज हमारे लिए कौतूहल की वस्तु है। बौद्धिक सामर्थ्य अपनी सारी कलाबाजियों के बाद यह सोच पाने में असफल है। न सोच पाने का कारण प्रत्यक्ष का अभाव भी है। अथवा ऐसे वातावरण संपन्न स्थानों से स्वयं का संपर्क न हो पाना है। अन्यथा इसका यत्किंचित् संपर्क भी चित्त के संस्कारों को अपने अनुरूप बनाए नहीं रहता। श्री अरविंद अलीपुर की जेल की जिस काल कोठरी में रहे थे। उनके चले जाने के बाद जेलर ने वहाँ पर किसी अन्य कैदी को रख दिया। यौगिक वातावरण की सघनता कैदी के मन को जबरन उन्हीं ऊंचाइयों की ओर ले जाने लगीं। अनभ्यासी मन घबरा गया। अंग्रेज जेलर भी परेशान-बाद में उसे कारण का पता लगा। कैदी का तबादला किया गया। ‘चंपकलाल की वाणी’ में लेखन ने अपना एक निजी अनुभव संजोया है। पाटन शहर के पास बावड़ी नामक गाँव में तालाब के किनारे नीम के पेड़ के नीचे लेटते ही उसे गहरी समाधि लग गई। उसे इस अद्वितीय आनंद की उपलब्धि पर महान आश्चर्य हुआ। बाद में गाँव वालों से पता करने पर मालूम हुआ कि एक संत ने वहाँ वर्षों कठोर साधनायें की हैं।
वातावरण को इस गहरी प्रभाविकता के कारण योगशास्त्रों ने स्थान-स्थान पर साधना विशेष के लिए स्थान विशेष की अनिवार्यता बताई है। जहाँ मन प्रधान-योग साधनाओं के लिए नदी का किनारा पर्वतीय सान्निध्य जैसे मन को विश्राँति देने वाले स्थल सुझाए हैं। वहीं प्राण प्रधान ताँत्रिक साधनाओं हेतु श्मशान-कब्रिस्तान को साधना स्थली के रूप में चुनने का विधान है।ताकि बचे रहे अवशिष्ट प्राण से अपनी क्षमता में अभिवृद्धि हो सके। साथ ही उस वातावरण के सूत्र स्पंदनों की ओर सहज आकर्षित होने वाली शक्तियों से तादात्म्य बिठाया, सहयोग प्राप्त किया जा सके। पंचमुँडी, नवमुँडी आसनों की सृष्टि भी इसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए थी।
मानवीय चेतना के व्यापक उलट-फेर के लिए संस्कार पानी के रूप में शाँतिकुँज की स्थापना के पीछे भी यही सिद्धांत काम कर रहा है। हिमालय की पर्वतीय शृंखला के मध्य कल-कल निनादिनी गंगा की सप्त भुजाओं में ममतामय आलिंगन में बंधे इस स्थान की स्थूल मोहकता हम लोगों को कितना भी क्यों न आकर्षित करे। पर वह सिर्फ उतना भर नहीं है। दृश्य कितना भी शक्ति सम्पन्न और आकर्षक क्यों न हो अदृश्य को शताँक ही अभिव्यक्त कर पाता है। यहाँ की अदृश्य सामर्थ्य को ऋषि सत्ताएं प्राचीन समय से ही संजोती-बढ़ाती रही हैं। गायत्री मंत्र के प्रथम द्रष्टा विश्वामित्र की सिद्धि स्थली के रूप में विख्यात इस क्षेत्र में सप्त ऋषियों ने अपने तरह-तरह के प्रयोग सम्पन्न किये हैं। इन विशिष्ट प्रयोगों में चिकित्सा प्रयोग का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। दिये वर्णन के अनुसार भारद्वाज ने ऋतुपरक आहार-विहार, कश्यप ने प्राणायाम याज्ञवल्क्य एवं गौतम के हवन अत्रि के मानसोपचार, विश्वामित्र द्वारा प्रार्थना तथा मंत्र से चिकित्सा, जमदग्नि द्वारा जल चिकित्सा और महर्षि वशिष्ठ द्वारा स्पर्श चिकित्सा संबंधी प्रयोग यहीं पर संपन्न हुए थे।
ऐसे न जाने कितने प्रयोगों की जन्मदात्री इस स्थली के सूक्ष्म संस्कारों को युगऋषि ने अपने प्रचंड सामर्थ्य द्वारा पुनः दीप्त किया है। यह दीप्तिमान सामर्थ्य उस ढाँचे के रूप में है जो मानवीय व्यवहार को तोड़-मरोड़कर जबरन उत्कृष्टता का रूप दे देती है। जहाँ कुछ ही दिन का प्रयास स्वयं को साथ आए स्वजनों को आश्चर्यानुभूति कराए बिना नहीं रहता।
क्षमता इतने तक सीमित नहीं है। वास्तविकता इसके कहीं अधिक परे ओर अपनी प्रचंडता में कहीं अधिक सूक्ष्म है। जिसके सृष्टिकर्ता युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा की तपनिष्ठा पर मोहित होकर नियंता ने इसे सतयुग की गंगोत्री दर्जा दे डाला है। इसी तप कौशल से आकर्षित होकर हिमालय की ऋषि सत्ताओं ने इस भूमि को अपनी कार्य सिद्धि के लिए चुना है। उनकी तपनिष्ठा से बुनी गई अपनी विशिष्ट स्तरीय सघनता लिए वातावरण की चादर सदा मजबूत बनी रहे, इसके ऋषि युग्म का सूक्ष्म सान्निध्य ही नहीं, वे प्रयास भी हैं जो करोड़ों की संख्या में जप, यज्ञ, अग्निहोत्र, उच्चस्तरीय चिंतन रूप ज्ञान यज्ञ के रूप में प्रतिदिन सम्पन्न किए जाते हैं। पूर्वकाल में विश्वामित्र, अगस्त्य के प्रयासों की भाँति इस अतुलनीय प्रयास द्वारा उद्भूत शक्ति को हम कितना ग्रहण कर पाते हैं यह स्वयं की क्षमता पर निर्भर है।
प्रत्येक की अपनी सीमा है-जिसे मानवीय अहं स्वीकारने में हिचकता है।इस हिचकिचाहट को दबाने में कुशल बुद्धि ढेरों आलोचना-जन्य सवाल उछाल फेंकती है। इस अद्भुत प्रयास के रहते प्रत्येक आने वाला तुरंत-फुरंत ऋषि क्यों नहीं बन जाता ? यह या इस जैसे अनेक प्रश्न मानवीय व्यक्तित्व की जटिलता तथा चित्त एवं वातावरण के सघन संयोग की अभिक्रिया को न जानने के कारण है। वातावरण का लाभ प्रत्येक को मिलता है पर कितना ? इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक की ग्रहण-शीलता के अभाव में सुमेरु शिखर पर चढ़ दौड़ने वाले पर्वतारोही वहाँ के दिव्य वातावरण के स्पंदनों में रीते रहते हैं। शारीरिक ग्रहणशीलता उन्हें बर्फ की कंपकंपी भर दे पाती है। लाभ अधिकतम लिया जा सके-इसके लिए महाभारत के वन पर्व में ऋषि धौम्य युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते हैं “वातावरण का सान्निध्य लाभ स्वयं के पुरुषार्थ का प्रारंभ है अंत नहीं। अग्नि जलाने से गर्मी तो मिल जाएगी पर यज्ञानुष्ठान के अजस्र लाभों के लिए सतत् जागरुक रहकर सारे विधि नियमों का पालन करना पड़ता है।”
सिर्फ शरीर यदि-यहाँ पर बना रहे तो परिवेश जन्य लाभ उत्तम स्वास्थ्य के रूप में मिल जायेगा। यदि कोई शरीर के साथ प्राण को यहाँ के महाप्राण से एकाकार करने की कोशिश करे तो यहाँ का पर्यावरण-व्यवहार की दुर्बलताओं से छुटकारा दिलाकर इसे परिमार्जित प्रखर बना डालेगा। वातावरण की सामर्थ्य इन दोनों से अलग है। इसके प्रभाव सीधे अचेतन के संस्कारों पर पड़ते हैं। व्यक्तित्व के उद्यान में दिव्यता के बीज बोने की प्रक्रिया इसी के द्वारा संपन्न होती है। इसका लाभ लेने के लिए आवश्यकता कहीं अधिक जागरुक होने की है। ध्यान में जिस तरह स्वयं को हम भागवत चेतना की ओर खोलते हैं, उसी तरह यहाँ रहकर प्रत्येक स्थिति-जागते-सोते कर्मरत रहते भाव यह होना चाहिए कि तीर्थ चेतना, तीर्थ निर्माता ऋषि की शक्ति प्रत्येक रोम से प्रविष्ट हो स्वयं को देव पुरुष के रूप में ढाल रही है। यह मात्र कल्पना नहीं है। जागरुक चिंतन की प्रगाढ़ता शीघ्र अनुभूतियों के क्षेत्र में प्रवेश दिलाती है। और ये भावानुभूतियाँ अपना प्रतिफल-स्वास्थ्य-व्यवहार और चिंतन में हुए व्यापक परिवर्तनों में किए बिना नहीं रहतीं। ऐसे परिवर्तन जिन्हें देखकर हम शाँतिकुँज गायत्री तीर्थ गुरुसत्ता के इस विलक्षण तपःपूत सृजन पर अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकते। तीर्थ सेवन का लाभ उठाकर जीवन को धन्य बनाने का अवसर ऐसे जाग्रत वातावरण में रहने वालों को सहज ही मिल जाता है। इसमें किसी को संशय नहीं रखना चाहिए। नवरात्रि की साधना ऐसे वातावरण में तो निश्चित ही विशिष्ट लाभ प्रदान करती है। यह अनुभूति अनेकों की है।