Magazine - Year 1994 - October 1994
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Language: HINDI
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“देह नहीं, देहासक्ति का त्याग”
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“नारकीय प्राणी!” कलिंग नरेश द्युमान ग्लानि से गले जा रहे थे। शब्द नहीं वज्र से भी तीक्ष्ण अस्त्र थे वे। ऐसे अस्त्र जो मर्म पर क्षण-क्षण में आघात करके उसे विदीर्ण कर रहे थे।
राज्य का अमर आकाँक्ष्य वैभर, विलासिता की अपार सुविधाएँ, दिगंत धवल सुयश, विद्वानों के द्वारा प्रशंसित प्रतिभा जैसे सब सारहीन हो गए थे आनंद के उपकरण। बंदियों का सुयशगान अपना उपहास प्रतीत होता था। मागध जब वंश विरुदावली का वर्णन करते जी चाहता, कहीं ऐसा स्थान पर जा छिपे जहाँ किसी को मुँह न दिखाना पड़े। सूत प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हुए जब वर्तमान के वर्णन पर आने लगते, नरेश व्याकुल होकर उठ जाया करते।
“आप सब एक अयोग्य की प्रशस्ति में अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग क्यों करते हैं?” विनय नहीं अंतस् का सच्चा खेद होता था वाणी में। किंतु परंपरा ही ऐसी बन गयी थी कि नरेश के सामने आने वाले कवि, ज्योतिषी तथा अन्य विद्वान अधिक वाक्य व्यय नरपति की प्रशंसा में ही करते थे और इससे अत्यधिक वेदना होती थी उन्हें। पर कोई उनका निषेध सुनता कहाँ है। लोग तो उसे उनकी शिष्टता-विनय मान लेते हैं।
“आप अश्वमेध यज्ञ संपन्न करें।” कुल पुरोहित अपने प्रबल पराक्रम से यजमान को किसी प्रकार उनकी पीड़ा से मुक्ति दिलाने का प्रयत्न कर रहे थे। यदि कोई प्राक्तन पाप होंगे तो उनका प्रायश्चित हो जाएगा। अश्वमेध यज्ञ महापापों का भी परिहारिक है। आपका प्रताप दिग्विजय करने को पर्याप्त है।
“दिग्विजय की मुझे चिंता नहीं है।” कलिंग के वीर पराभव सुनने को कभी अभ्यस्त नहीं रहे। विजय श्री के कर उनके धनुष पर डोरी चढ़ते ही यशोमाल्य के लिए उन्हें अलंकृत करने उठ जाते हैं। नरेश ने उत्साह, नहीं दिखाया, किंतु एक अनाधिकारी नारकीय प्राणी सम्राट बन जाएगा अपने शौर्य के सहारे। धरा रसातल में चली जाएगी। धर्म कहाँ आश्रय ढूँढ़ेगा? द्युमान की दिग्विजय असुरों की विजय से भिन्न होगी क्या वह?
“कोई और उपयुक्त अनुष्ठान या आराधना!” पुरोहित को किसी भी प्रकार अपने इस यजमान के चित्त को आश्वासन देना है। वह सोचने लगे नारकीय प्राणी जैसा संबोधन महर्षि निदाध द्वारा भले क्यों दिया गया उन्हें। पर जिनके मुख से ये शब्द निकले थे, उन पर अविश्वास करने का साहस नहीं था राजपुरोहित में। वे अवधूत श्रेष्ठ निदाध-महर्षिगण उनकी चरण वंदना करते हैं। उन नित्य निस्पृह, निरंतर आत्मलीन में न रोष संभव है और न प्रमाद वहाँ प्रश्रय पा सकता है।
राजपुरोहित शास्त्रज्ञ हैं गंभीर विद्वान पूर्व मीमाँसा शास्त्र के। अनेक बार ऋषियों ने अपने यज्ञों में उन्हें ऋत्विक् अथवा अध्वर्यु वरण करके सम्मानित किया था। वेद के रहस्य एवं धर्म के तत्व को जानने का गर्व वे नहीं करते, किंतु जितना ज्ञान उनका है, अपने यजमान की त्रुटि उन्हें नहीं सूझ पड़ती। पर महर्षि निदाध की वाणी असत्य का स्पर्श करेगी, धर्मराज भी ऐसा सोचने का साहस नहीं कर सकते।
“यह ठीक है कि युवराज का अध्ययन अभी समाप्त नहीं हुआ।” नरेश के चिंतन में बाधा दी कुल पुरोहित ने “लेकिन आपकी छत्र छाया में सिंहासन पर उन्हें बैठाना मात्र ही तो है? आप! आप सिंहासन त्याग..............।” पूरी बात आशंका के कारण मुख से नहीं निकल सकी।
“आप जैसे वेदज्ञ कहते हैं कि तुषाग्नि को शरीर समर्पित कर देना मानव का सबसे बड़ा प्रायश्चित है।” नरेश ने स्वस्थ स्वर में कहा-”तीर्थराज में गंगा-यमुना जहाँ अंकमाल देती हैं, मकर के आगामी पुण्य पर्व पर इस अधम की भस्म वहाँ परिपूत बने ऐसी अनुमति प्रदान करें।”
“कोई इसे स्वीकार नहीं करेगा। प्रजा, सामंत, विप्रवृंद एवं आश्रित जन कोई नहीं।” राजपुरोहित दृढ़ स्वर में बोले-”अल्प पाप में अधिक प्रायश्चित निर्दिष्ट करने वाला ब्राह्मण नरकगामी होता है। यदि यही प्रायश्चित आवश्यक हो तो इसका विधान महर्षि निदाध को ही करना चाहिए।”
राजपुरोहित सोचने लगे उस दिन महर्षि निदाध के राज्य में पधारने का समाचार मिला था। उन्होंने ही उत्साह के साथ महाराज को सूचित किया था। वे दिग्वसन, अलक्ष्य लिंग अवधूत, उनका कोई ठीक पता-ठिकाना हुआ करता है? उन ज्ञान मूर्ति के दर्शन जिसे हो जायँ, सौभाग्य उसका। ऋषिगण भी सदा उन्हें कहाँ पहचान पाते हैं।
उन्मत्त, जड़ के समान अपने को प्रदर्शित करने वाले, गृहस्थ के यहाँ गोदोहन काल से अधिक किसी प्रकार न रुकने वाले उस नित्य परिव्राजक से उपदेश प्राप्ति की आशा तो दुराशा ही है। वे कहाँ प्रवचन करते हैं? किंतु उनके दर्शन ही क्या कम सौभाग्य सूचक हैं।
एक अंतर्वासी उनके दर्शन समीप के वानप्रस्थाश्रम में कर आया था। उसने अपने गुरुदेव को सूचित किया और राजपुरोहित की कलिंग नरेश पर असीम कृपा तो सबको ज्ञात है। वे तत्काल राज्यसदन पहुँच गये थे, “अवश्य ही कुछ श्रम उठाना पड़ेगा उन्हें ढूँढ़ने में।”
“वह श्रम हमारे सौभाग्य को शुभ करने वाली तपस्या बनेगा।” नरेश ने तत्काल रथ प्रस्तुत करने की आज्ञा दे दी।
कोई सेवक साथ नहीं लिया गया। राजपुरोहित ने अपना एक ब्रह्मचारी अवश्य भेज दिया था पहिले ही। रथ वानप्रस्थ तपस्वियों के आश्रम तक पहुँचा भी नहीं था कि वह ब्रह्मचारी मार्ग में लौटता मिला-भगवान भास्कर के प्रधान पीठ की ओर महर्षि चले गए।
एक से दूसरे स्थानों में पूछते-पता लगाते अंत में महर्षि निदाघ मिल गए थे। वे शाद्वल भूमि में एक नारियल के पेड़ की छाया का आश्रय लेकर लेटे थे। एक हाथ पर मस्तक रखकर शाँत पड़ा था उनका श्री अंग। रथ पर्याप्त दूर छोड़ दिया गया।
राजपुरोहित को आगे करके नरेश महर्षि के समीप मंदगति से पहुँचे। भूमि में पड़कर प्रणिपात किया सभी ने। राजपुरोहित का ब्रह्मचारी भी साथ ही था और सारथी भी।
“नारकीय प्राणी!” महर्षि ने तिरस्कार पूर्वक कहा और शीघ्रता पूर्वक उठकर खड़े हो गए। वे इतने वेग से एक ओर दौड़ पड़े कि उनके पीछे दूसरे के लिए दौड़ना भी कठिन था। दौड़ना मर्यादा के अनुरूप भी नहीं होता।
स्तब्ध से रह गए चारों के चारों व्यक्ति। वाक्य किसी एक को लक्ष्य करके नहीं कहा गया था, किंतु उसका लक्ष्य कौन था यह निर्णय कोई समस्या नहीं थी। सारथी को महर्षि संबोधित करते यह संभावना नहीं थी। राजपुरोहित तथा ब्रह्मचारी के लिए वह इस तरह का संबोधन कर नहीं कर सकते थे। आगतों में जो मुख्य था संबोधन उसी को लक्ष्य करेगा। नरेश को लगा कि दिशाएँ अंधकार में डूब गयी हैं। वे मस्तक पकड़ कर बैठ गए। राजपुरोहित के चिंतन प्रवाह में उस दिन की सारी घटनाएँ चल-चित्र की तरह घूम गयीं।
इस घटना को हुए कितने ही दिन बीत गए। महर्षि निदाघ कोणार्क क्षेत्र में ही हैं। राजपुरोहित के ब्रह्मचारी ने ही इस बार भी समाचार दिया था। कई ब्रह्मचारी तथा अनेक राजसेवक महर्षि का पता लगाने चारों ओर घूम रहे थे।
“हम पहिले भगवान नारायण को नमस्कार करेंगे।” कोणार्क पहुँच कर यद्यपि अवधूत का पता लग गया, किंतु राजपुरोहित ने रथ को देवधाम की ओर ले जाने का आदेश दिया भगवान सूर्य की विधिवत् अर्चना उन्होंने की और नरेश से संपन्न करायी।
“हे जगत के परम प्रकाशक! आपके चरणों में यह अज्ञानांधकार में डूबता ब्राह्मण प्रकाश की प्राप्ति की कामना से आया है।” पूजा के अंत में राजपुरोहित ने जब प्रार्थना प्रारंभ की केवल नरेश ही नहीं सभी जन विस्मित हो उठे। यह अद्भुत गंभीर स्वर वैखरी वाणी तो नहीं है। हृदय से उठती घनघोष जैसी यह पश्यंती वाणी “कोणार्क से निराश लौटने नहीं आया यह विप्र। आपने अनुकंपा नहीं की श्री विग्रह के सम्मुख प्राँगण में इस शरीर की भस्म मिलेगी कल प्रातः। भार्गव ब्राह्मण देह दाह के लिए चिता की चिंता नहीं करता। अग्नि की धारणा उसे माता के दूध के साथ मिलती है। यजमान को तुषाग्नि में आहुति बनते देखने से पूर्व योगाग्नि दग्ध न कर दे यह देह तो पौरोहित्य व्यर्थ रहा मेरा।”
किंतु भगवान के चरणों में पहुँची प्रार्थना कभी निराश लौटी है जो आज लौटती। महर्षि निदाघ ही कहाँ निष्ठुर हो सकते थे। जिसमें रज और तम की छाया का स्पर्श नहीं रोष, क्रोध, घृणा, निष्ठुरता का प्रवेश संभव है वहाँ? उनकी वाणी ने अमंगल का स्पर्श कब किया?
“जिज्ञासु है तू। आ आजा।” सागर पुलिंन पर पड़े थे सर्वज्ञ इस दिन। आज भी वे दाहिने हाथ का तकिया बनाए लेटे थे। आज नरेश के साथ राजपुरोहित मात्र थे महर्षि को प्रणिपात करने वाले। शेष सभी लोगों को राजपुरोहित ने रोक दिया था। महर्षि ने किंचित् मस्तक उठाया और अधरों पर मंदस्मित आ गया-”विप्रश्रेष्ठ! आपका यजमान अब प्रकाश के उन्मुख हो चुका है।”
“श्री चरणों की कृपा।” राजपुरोहित ने अंजलि बाँधकर मस्तक झुकाया प्रकाश के अधिदेवता के पादपंकजों में प्रणाम करके ही हम इधर आये हैं।
“आप शास्त्रज्ञ हैं। नरक का स्वरूप क्या है” नरेश और राजपुरोहित दोनों जब समीप पुलिन की रेत पर बैठ गए, दो क्षण रुक कर महर्षि ने पूछा ‘क्या-क्या है नरकों में?’
“अंधकार, घृणित वस्तुएँ।” राजपुरोहित ने विनम्र स्वर में ही उत्तर दिया-”पीड़ा के अकल्पनीय उपकरण मल-मूत्र शोणितादि अपवित्र घृणित पदार्थ।”
“राजन। तुम्हारे इस शरीर के भीतर क्या-क्या है?” महर्षि देर तक मौन रहे। उन्होंने नेत्र बंद कर लिए थे। जैसे राजपुरोहित का उत्तर उन्होंने सुना ही नहीं। एकायक नेत्र पलक खुले और उन्होंने द्युमान की ओर देखा-”कुछ श्रेष्ठ, सुन्दर, सुपवित्र तत्व।”
“भगवन्। इसमें श्रेष्ठ, सुन्दर, सुपवित्र क्या है?” नरेश संकोचपूर्वक बोले “रक्त, माँस, मेद, अस्थि, लोम, मज्जा, त्वचा, मल, मूत्र. ..........।”
“सब अपवित्र, सब दुर्गंधित, सब घृणित।” महर्षि उठकर बैठ गए-”और इस देह ने दुःख ही दुःख दिया प्राणियों को। दारुण वेदना देने वाला यह कारागार। तब यह नरक नहीं है राजन्।”
“इस नरक में देह में पड़ा प्राणी देहासक्त ही नारकीय प्राणी है। जिसकी देह में आसक्ति है, जो देह के भोगों में, विलास सामग्रियों में लिप्त है, उसे नारकीय ही तो कहेंगे। देहासक्ति ही उसे नरक भी ले जाती है। प्रायश्चित करना है तुम्हें? इस देहासक्ति का त्याग तुम्हारा प्रायश्चित।”
राजपुरोहित के साथ नरेश ने श्रद्धाभरित प्रणाम किया वहीं पुलिन पर उन अवधूत श्रेष्ठ को। तब उन्हें महर्षि का उपालंभ समझ में आया एवं अंतर्ज्ञान उपजा जिसने उनकी आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त कर दिया।