Magazine - Year 1994 - October 1994
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Language: HINDI
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वेदाँत के विज्ञान में निहित है सारा तत्वज्ञान
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ईश्वर वह चेतन शक्ति है जो विश्व-ब्रह्माँड के भीतर और बाहर जो कुछ है, उस सब में संव्याप्त है। काँट, हेगल, प्लेटो, एरिस्टाँटल जैसे मूर्धन्य पाश्चात्य मनीषी भी इसे स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि एक ऐसी सत्ता है जो ब्रह्माँड की रचयिता है या स्वयं ब्रह्माँड है, किंतु इनमें से किसी ने पूर्ण विचार देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। संसार में जितने भी धर्म है, वह सब ईश्वरीय अस्तित्व को मानते हैं। प्रत्येक धर्म अपने ब्रह्म के प्रतिपादन में अनेक प्रकार के सिद्धाँत और कक्षायें प्रस्तुत करते हैं, परंतु उस परम चेतन सत्ता का सविवेक प्रदर्शन इनमें से कोई नहीं कर सकता, तथापि वे उच्च सत्ता की सर्वशक्तिमत्ता पर अविश्वास नहीं करते।
वैसे देखा जाय तो जब चेतना के विकास संबंधी अनुसंधान की वैज्ञानिक प्रक्रिया चार्ल्स, डार्विन से प्रारंभ होती है। डार्विन एक महान विकासवादी प्राणिशास्त्री थे। उन्होंने देश विदेश के प्राणियों, पशुओं और वनस्पतियों का गहन अध्ययन किया और 1849 एवं सन् 1871 में प्रकाशित अपने दो ग्रंथों-”आन दि आरिजिन आफ स्पेसीज” एवं “दि डीसेन्ट आफ मैन” में यह सिद्धाँत स्थापित किया कि संसार के सभी जीव एक ही आदि जीव चेतना के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। उन्होंने बताया कि संसार में प्राणियों की जितनी भी जातियाँ और उपजातियाँ हैं, उनमें बड़ी विलक्षण समानतायें और असमानतायें हैं। समानता यह कि उन सभी की रचना एक ही प्रकार के तत्व से हुई है और असमानता यह है-कि उनकी रासायनिक बनावट सब में अलग-अलग है। आनुवाँशिकता का आधार रासायनिक स्थिति है, उसकी प्रतिक्रिया में भाग लेने वाली क्षमता चाहे कितनी सूक्ष्म क्यों न हो।
इसके पश्चात् ग्रीगर मेंडल, हालैंड के ह्यगो द्वीज ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग किये और यह पाया कि जीव में आनुवाँशिक विकास माता-पिता के सूक्ष्म गुणसूत्रों-क्रोमोसोम पर आधारित है। हार्वड यूनिवर्सिटी के विख्यात वैज्ञानिक डॉ॰ जेम्सवाट्सन एवं कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी-इंग्लैंड के डॉ॰ फ्राँसिस क्रिक ने भी अनेक प्रयोगों द्वारा शरीर की कोशिकाओं की भीतरी बनावट का विस्तृत अध्ययन किया और क्रोमोसोम-गुणसूत्रों की खोज की। इसी सुविस्तृत खोज की अगली कड़ी गुणसूत्रों पर पायी जाने वाली एक प्रकार अगणित गाठें थीं जिन्हें “जीन्स” कहा गया। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य शरीर में डोरे की शक्ल में पाये जाने वाले गुणसूत्रों को यदि खींच कर बढ़ाया दिया जाय तो उससे संपूर्ण ब्रह्माँड को नापा जा सकता है। यद्यपि इससे अधिक और मूल स्रोत की जानकारी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये और उनके खोज की दिशा और ही हो गयी। उस एक अक्षर, अविनाशी और सर्वव्यापी तत्व के गुणों का पता लगाना उनके लिए संभव न हुआ जो प्रत्येक अणु-परमाणु के सृजन या विनाश की क्रिया में भाग लेता है। हाँ इतना अवश्य हुआ कि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि (1) सारा जीव जगत एक ही तत्व से विकसित हुआ है, (2) गुणों के आधार पर जीवित शरीरों का विकास होता है।
यद्यपि यह जानकारियाँ अभी निताँत अपूर्ण हैं तो भी मनुष्य को सत्य की यथार्थ जानकारी के लिए प्रेरणा अवश्य मिलती है। “कंटेम्परेरी थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन” नामक पुस्तक के सुप्रसिद्ध विद्वान लेखक ए॰ एन॰ विडगरी ने लिखा है कि-”वे तत्व जो जीवन का निर्माण करते हैं और जिनकी वैज्ञानिकों ने जानकारी प्राप्त की है, उनमें यथार्थ मूल्याँकन के अनुपात में बहुत कमी है। आज आवश्यकता इस बात की है कि साँसारिक अस्तित्व से भी अधिक विशाल मानवीय अस्तित्व क्या है? इसका पता लगाया जाये। विज्ञान से ही नहीं, बौद्धिक दृष्टि से भी उसकी खोज की जानी चाहिए। हमारा भौतिक अस्तित्व अर्थात् हमारे शरीर की रचना और इससे संबंधित संस्कृति का मानव के पूर्ण अस्तित्व से कोई तालमेल नहीं है। इससे हमारी भावनात्मक संतुष्टि नहीं हो सकती। इसलिए हमें जीवन के मूलस्रोत की खोज करनी पड़ेगी। अपने अतीत और भविष्य के बीच थोड़ा सा वर्तमान है, क्या हमें उतने से ही संतोष मिल सकता है? हमें अपने अतीत की स्थिति और भविष्य में हमारी चेतना का क्या होगा? हम संसार में क्यों हैं और क्या कुछ ऐसे आधार हैं जिनसे बँधे होने के कारण हम संसार में हैं, इनकी खोज होनी चाहिए? इन पंक्तियों में वही बात प्रतिध्वनित होती है, जो ऊपर कही गयी है। विज्ञान ने निष्कर्ष भले ही न दिया हो, पर उसने जिज्ञासा देकर मनुष्य का कल्याण ही किया है। “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” ब्रह्म की पहचान के लिए हम तभी तत्पर होते हैं जब उस मूल स्रोत के प्रति हमारी जिज्ञासा जाग पड़ती है।
इस बिंदु पर पहुँच कर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदाँत धर्म में बहुत पहले से है। “एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति”, ‘एक नूर से सब जग उपजिया’, ‘संकल्पयति यत्राम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, तत्त देवासु भवति तस्येदं कल्पनं जगत्।-योगवशिष्ठ 6/2/18/6 के इस सूत्र के अनुसार सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। छाँदोग्योपनिषद् 6/2/1 के अनुसार वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (6/11) में भी वही-’एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़.........।’ अर्थात् वही एक देव सब भूतों में ओतप्रोत होकर सबकी अंतरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। वह इस कर्म रूप शरीर का अध्यक्ष है। निर्गुण होते हुए भी चेतना शक्ति युक्त है। पूर्व में क्या किया है, अब क्या कर रहा है, जीव की इस संपूर्ण क्रिया का साक्षी वही है। वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप में वास करता है।’
उपरोक्त आख्यानों और पाश्चात्य वैज्ञानिकों की इस खोज में कि-”संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुए हैं” जबर्दस्त साम्य है। वेदाँत के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसलिए जब हम अकेले वेदाँत को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक “पूर्ण परब्रह्म” था, जब वही अपने कल्मषों के साथ जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना। जीव जब अपने साँसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति “त्रैत” कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती है-वही “विशिष्टाद्वैत” के नाम से कहा गया है। इसमें न कहीं कोई भ्राँति है, न मत अनैक्य। वेदाँत ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिए किये हैं, वैसे सिद्धाँत में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद् के सूत्र 16 एवं 20 में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं पर पूर्वात्य दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा गया है-”जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यंत्रों से भी नहीं देखा जा सकता, जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों-प्राणियों की आत्मा है, वही तुम हो-तुम वही हो।” और “मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा हूँ इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिए। मैं ही शिव और ब्रह्मस्वरूप हूँ, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूँ।”
उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीवकोश से संबंधित जो अब तक की उपलब्धियाँ हैं उनमें तनिक भी अंतर नहीं है। प्रत्येक जीवकोश का न्यूक्लियस-नाभिक अविनाशी तत्व है। वह स्वयं नष्ट नहीं होता, परंतु वैसे ही अनेक कोशिकायें बना देने की क्षमता से परिपूर्ण है। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, क्योंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिए वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव भी कह सकते हैं, पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान हैं जैसे समुद्र की एक खारी बूँद में पानी के सब गुण विद्यमान होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में जितनी कोशिकायें हैं, इन सबकी सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली। पर वेदाँत उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती है, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करती है, नष्ट नहीं होती। वही इच्छायें, अनुभूतियाँ, संवेग, संकल्प और जो भी अचेतन क्रियायें हैं, करता या कराता है, पदार्थ में यह शक्ति नहीं है, क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है, उसे “प्रज्ञानं ब्रह्म” भी कहते हैं।
राकफेलर इन्स्टीट्यूट-अमेरिका में ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक द्वय वेकाफ और स्टेनली ने जीवित और अजीवित पदार्थों का अंतर बतलाने के लिए अनेक अनुसंधान किये। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक अणु रासायनिक प्रक्रिया से स्वयं उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं, पर इसमें विचारणीय बात यह है कि अणु तभी उत्पन्न होते हैं जब तक वे जीवित पदार्थ से संबंधित रहते हैं। इसलिए जीवन की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास तो निरर्थक है, उससे तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि चेतना और जड़ दो अलग-अलग वस्तुएँ होकर भी गति और सक्रियता का मूल कारण चेतना ही है। उसकी क्षमताओं का विज्ञान अध्ययन नहीं कर सका, उसे केवल जड़ शक्ति की उपलब्धि हुई है। इसलिए विज्ञान जिन बातों को बताने में असमर्थ है, उसकी जानकारी के लिए विश्व के सामने सिवाय इसके कि वह वेदाँत की शरण ले और कोई दूसरा उपाय शेष नहीं रह जाता। जहाँ से पदार्थ विज्ञान की इति हो जाती है, उससे आगे अध्यात्म विज्ञान अर्थात् आस्था और विश्वास का आश्रय लिए बिना मनुष्य “सत्यमेव” की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य को यह विश्वास करना ही होगा कि चेतना के गुण और स्वभाव भौतिक पदार्थों से अलग हैं और उनकी जानकारी भावनात्मक आधार पर ही हो सकती है। भावनाओं को गहरा बनाने एवं परिष्कृत करने के लिए उपाय भले ही कुछ हों।
प्रत्येक जीव से स्वार्थ परायणता का कुछ न कुछ अंश अवश्य रहता है। इसमें स्वयं के प्रति प्रेम और आदर भी सम्मिलित है। यदि यह प्रश्न किया जा सकता है कि “प्रोटोप्लाज्म” कहाँ से उत्पन्न हुआ तो यह भी पूछा जा सकता है कि यह स्वार्थभाव कहाँ से आया? मानव की मूल प्रवृत्तियों जैसे प्रेम, काम, अहंभाव की उत्पत्ति कैसे हुई? मनोविज्ञान उन्हें वंशानुगत संपत्ति के रूप में लेता है। उससे भी सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चढ़े तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि विकास की प्रक्रिया किसी एक बिंदु से प्रारंभ हुई है और तब यह भी मानना पड़ेगा कि वह चेतना आदि अंत रहित है। जीव उसमें से संसर्ग मात्र से पैदा होता रहता है, उससे मूल चेतना के अस्तित्व में न अंतर आता है और न उसे कोई खतरा पैदा होता है।
वेदाँत उस मूल स्वत्व को ही अधिक महत्व देता है और उसे प्राप्त करने को ही जीवन का लक्ष्य बतलाता है। वह अविनाशी, अक्षर, सर्वव्यापी तत्व है। यह वह मूल्यवान निधि है, जो जिसके पास होगी, वह स्वर्ग से भी अधिक सुखी होगा। इच्छानुसार जहाँ चाहे पहुँच सके, जो भोग चाहे भोग सके, उससे बढ़कर सुख क्या हो सकता है। यह स्थिति अंतिम स्थिति है।
ब्रह्म एक भाव है और उसे भावनात्मक स्तर पर उतर कर ही प्राप्त कर सकते हैं और जब उसे पा लेते हैं, तब उस स्थिति से आनंददायक और प्राप्य कुछ रह नहीं जाता। यह प्रक्रिया हम अपने आपको प्रेम करने से प्रारंभ करते हैं। यह प्रेम शरीर के माध्यम से करने लगते हैं तो वह अज्ञान की स्थिति हो जाती है क्योंकि हमारा अपना स्वरूप चेतन तो है, पर अदृश्य है। उसे केवल विश्वास और अपने गुण, कर्म, स्वभाव तथा चिंतन, चरित्र, व्यवहार के विकास एवं परिष्कार के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। वेदाँत के विज्ञान सम्मत इस तथ्य को मानने से ही ईश्वर दर्शन की-आत्मोत्कर्ष की अगली जानकारियाँ संभव होंगी। इसके अतिरिक्त ईश्वरीय सत्ता को जानने व मानने का कोई और उपाय भी तो नहीं है।