
कहीं हम जंगली संस्कृति के शिकार तो नहीं हो रहे
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पिछले दिनों बुद्धिवाद एवं विज्ञान जो विकास हुआ है, उसने विज्ञान का जो विकास हुआ है, उसने भौतिक सुविधाओं को भले ही बढ़ाया हो, आध्यात्मिक आस्था को दुर्बल बनाया है विज्ञान ने जब मनुष्य को एक पेड़-पौधा मात्र बनाकर रख दिया और उसके भीतर किसी आत्मा को मानने से इनकार कर दिया, ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत किया इस सृष्टि को सब कुछ अणुओं की स्वाभाविक गतिविधि के आधार कर स्वाभाविक गतिविधि के आधार पर स्वसंचालित बताया, तो स्वभावतः स्वसंचालित बताया, तो स्वीवतः वान को प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर अति प्रामाणिक मानने वाली बुद्धिवादी नई पीढ़ी उसी मान्यता का शिरोधार्य नई पीढ़ी उसी मान्यता को शिरोधार्य क्यों न करेगी? प्रत्यक्ष है कि विचारशील वर्ग अनास्थावान् होता चला जा रहा हैं और यह एक भयानक परिस्थिति हैं क्योंकि बुद्धिजीवी वर्ग के पीछे जनता के अन्य वर्गों को चलन के लिये विवश होना पड़ता हैं आत के थोड़े से अनास्थावान् बुद्धिजीवी कल-
परसों अपनी मान्यताओं से समस्त जन समाज को आच्छादित किये हुए होंगे।
आध्यात्मिक मान्यताएँ सदाचार सहयोग सद्भाव, सेवा सद्भावना, पुण्य, संयम एवं त्याग, बलिदान जैसी सत्प्रवृत्तियों की रीढ़ हैं आत्म कल्याण ईश्वरीय प्रसन्नता, पुण्य मान्यताओं के आधार पर ही मनुष्य अपनी चिरसंचित पशुओं पैशाचिकता पर नियन्त्रण करने और लोक कल्याण के लिए नितान्त आवश्यक सत्प्रवृत्तियों को चरितार्थ करने में समर्थ होता हैं यदि वह आधार ही नष्ट हो गया-यदि वह आधार ही नष्ट हो गया यदि उन मान्यताओं को कपोल-कल्पित मान लिया गया तो फिर न किसी को संयमी बनने की आवश्यकता अनुभव होगी, न सदाचारी होने की, न पुण्य अभीष्ट होगा, न परमार्थ। न त्याग की बात कोई करेगा, न बलिदान की। फिर मनुष्य खाओ पीओ, मौज उड़ाओ, के आदर्श का अपना कर हर अनैतिक कार्य करने के लिए तैयार हो जायेगा। ताकि वह अधिक अवसर प्राप्त कर सके।
कानूनी पकड़ एवं दण्ड से बचने का रास्ता अब अति सरल हैं कानून का रास्ता अब अति सरल हैं कानून बहुत ही ढीले-पोल हैं। फिर जिन पर कानून पालने के लिए विवश करने की-दण्ड देने-दिलाने की जिम्मेदारी हैं, वे राज्य कर्मचारी ही कहाँ दूध के धुले है? अपराधी से साँठ–गाँठ रखने की कला उन्हें भी आ गई है ओर उस दुर्बलता से हर भ्रष्टाचारी हर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले पुरा-पुरा लाभ उठाया है, उठा सकता हैं केवल कानून के द्वारा अपराध रोक सकने की बात सोचना उपहासास्पद हैं मनुष्य केवल अपनी अन्तरात्मा की पुकार-और ईश्वरीय सत्ता के रोक-अनुग्रह का विचार स्मरण रखकर ही कुकर्म से बचता ओर सन्मार्ग अपनाता हैं यदि आत्मा ओर ईश्वर कोई है ही नहीं, कर्मफल देने की कोई अज्ञात व्यवस्था है ही
नहीं, तो फिर पाप-प्रवृत्तियों को अपनाकर शौक-मौज के साधन जुटाने से कोई चूके क्यों? आज यही विचार बुद्धि जीवी पीढ़ी के मस्तिष्क में धूम रहे हैं और उसका नैतिक स्तर दिन-दिन दुर्बल होता चला जा रहा है।
यह विभीषिका इतनी भयानक है कि इसकी भावी सम्भावनाओं का स्मरण करने मात्र से आँखों के समाने अँधेरा छा जाता हैं शुतुरमुर्ग की तरह बालू में मुँह ढक कर खतरा टल गया ऐसा सोचना मूर्खता है सब कुछ अपने आप ठीक हो जाए ऐसी मान्यता वास्तविकता से दूर हैं जहाँ धर्म अध्यात्म का प्रकाश नहीं पहुँचा है ऐसे अफ्रीका आदि प्रदेशों के जंगली लोग अभी भी नर माँस खाते और एक से एक बढ़कर घृणित एवं नृशंस रीति-रिवाज अपनाये बैठे है अपने आप सब कुछ ठीक होने वाला होता तो सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक लाखों वर्षों में वे लेकर अब तक लाखों वर्षों में वे अपने आपको सभ्यता के उच्च स्तर तक ले आने में समर्थ हो गये होते। अपने आप कुछ नहीं होता, सब कुछ करने से होता हैं। ऋषियों ने लाखों वर्ष तक तप, त्याग, मनन-चिन्तन करके अध्यात्म और धर्म का अति महत्वपूर्ण कलेवर खड़ा किया है। उसे जन-मानस में प्रविष्ट कराने के लिए अगणित साधु ब्राह्मणों ने तिल-तिल करे अपनी जीवन जलाया है अगणित धर्म, ग्रन्थ लिखे गये हैं और उन्हें पढ़ने, सुनने, समझने तथा हृदयंगम करने की स्थिति उत्पन्न करने के लिये अगणित मानवतावादी परम्पराओं, या रीति-रिवाजों प्रक्रियाओं, पूजा-पद्धतियों एवं कर्मकाण्डों का प्रचलन किया है लगातार उस विचार-धारा से संपर्क बनाये रखने के लिए उन्होंने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया है।
यदि ऋषियों द्वारा प्रादुर्भूत धर्म संस्कृति का आविर्भाव न हुआ होता तो अन्य प्रदेशों को उद्धत जंगली जातियों की तरह समस्त जन-समाज पशु प्रवृत्तियाँ अपनाये होता और उसकी बौद्धिक विशेषता पतनोन्मुख होकर इस संसार में पैशाचिक कुकर्मों की आग जला रही होती। ईश्वर अपने आप सब कुछ कर लेगा यह सोचना ठीक नहीं। इस सदी में संसार का 80 फीसदी भाग बौद्धिक एवं राजनीतिक स्तर पर साम्यवादी शासन के अंतर्गत समा गया सा प्रतीत होता था किन्तु परिवर्तन चक्र सोवियत रूस का तन के आज जिस तीव्रगति से धूम रहा है उसे देखत हुए अगले 5 से 10 वर्षों में आध्यात्मिक साम्यवाद ही विजय सम्मत धर्म के माध्यम से चारों ओर छाया दीखेगा, ऐसा कहना अत्युक्तिपूर्ण नहीं लगता।
बुद्धिवाद ओर विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित उन मान्यताओं के सम्बन्धों में हमें सतर्क होना होगा जो मनुष्य का अनास्थावान् एवं अनैतिक अनात्मीय हैं विचारों को विचारों से मान्यताओं के को मान्यताओं से प्रतिपादनों से काटा जाना चाहिए। समय-समय पर यही हुआ भी है। वाममार्गी विचारधारा को बौद्धों ने हटाया और बौद्ध धर्म के शून्यवाद का समाधान जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रबल प्रयत्नों, द्वारा हुआ। लोगों को केवल तलवार बन्दूकों की लड़ाइयाँ ही स्मरण रहती है। असली लड़ाइयाँ वो विचारों की लड़ाइयाँ है। वे ही जन-समूह के भाग्य का निर्माण करती है। प्रजातंत्र. सिद्धान्त के जन्मदाता रूसो और विचारधाराएँ पिछली शताब्दियों से मानव समाज का भाग्य निर्माण करती रही है।
पूँजीवाद, समाजवाद, अधिनायक वाद की विचारधाराओं ने भी अपने महत्वपूर्ण धाराओं ने भी अपनी महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रस्तुत की है। बाह्य संघर्षों की पृष्ठभूमि में मूलतः यह विचार धाराएँ काम करती रही हैं देशों ओर जार्जिया के उत्थान पतन उनकी आस्थाओं और प्रवृत्तियों के आधार पर ही होता है, होता रहा है, हो सकता है।
उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति अनास्था उत्पन्न करने वाली आज की बुद्धिवादी और विज्ञानवादी मान्यता जिस तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती चली जा रही है। उसकी भयंकरता की दुर्धर्ष सम्भावना का मूल्यांकन कम नहीं किया जाना चाहिए। उसका प्रतिरोध करने के लिए तत्परता पूर्वक खड़ा होना चाहिए युग के प्रबुद्ध व्यक्तियों की यह महती जिम्मेदारी है। इसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए। और न अवज्ञा। हमें एक ऐसा विचार-मोर्चा खड़ा करना चाहिए, जो भौतिकवादी अनास्था से पूरी तरह लोहा ले कसे। यदि यह कार्य सम्पन्न किया जा सका तो समझना चाहिए कि मानवजाति के मस्तिष्क को धर्म संस्कृति और आध्यात्म को अंधकार के गर्त में गिरने से बचा लिया गया। पर यह मोर्चा खड़ा न किया जा सका, उसे सफलता न मिली तो परिणाम प्रत्यक्ष हैं कुछ ही दिन बाद हम जंगली संस्कृति के, नास्तिकता के, पशु-प्रवृत्तियों के पूरी तरह शिकार हो जायेंगे और लाखों वर्षों की मानवीय संस्कृति आत्मदाह करके अपना करुण अन्त प्रस्तुत करेगी।
समय रहते चेतने में ही बुद्धिमानी हैं बुद्धिमत्ता देवोपम उत्कृष्ट जीवन जीने में अपनी शान और बहादुरी समझता था, भले ही उसे उसमें कितना ही बड़ा कष्ट क्यों न सहना पड़ता रहा हो। आगे भी यही रीति नीति बरती जाती रहेंगी। जब भी कोई आदर्श उस युग की मनोभूमि का आधार लेकर सिखाया समझाया और उस पर आचरण भी करेंगे। यदि हम अध्यात्मवादी मान्यताओं का आज विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सकते हों तो निस्संदेह जन समाज को उसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी और यह भी निश्चित है कि जो बात अन्तःकरण की गहराई में स्वीकार की जाती है। वह आवरण में भी अवश्य उतरती है।
आज अध्यात्म का प्रतिपादन जिन आदर्शों पर जिस ढंग से किया जाता हैं वे जन मानस में गहराई तक प्रवेश नहीं करते। कथा, पुराणों, धर्म शास्त्रों किम्वदन्तियों एवं परम्पराओं की प्रामाणिकता पर अब लोगों के नाम में संदेह उत्पन्न हो गया है। वे उन्हें किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की ऐसी कल्पनाएँ माने है जिनकी उपयोगिता एवं वास्तविकता प्रमाणित नहीं होती शंका-शंकित और संदिग्ध मन से हम धर्मोपदेश सुन तो लेते हैं पर उसकी यथार्थता एवं व्यवहारिकता पर विश्वास नहीं करते। यही करण है कि धर्मोपदेशकों का विशालकाय कलेवर, इतने बड़े आडम्बर के साथ विद्यमान रहते हुए भी उकसा जन जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है धर्म के हृ आवरणों को एक पक्षपात के रूप से अपना लेते हैं पर आचरण में उन आदर्शों का प्रवेश तनिक भी नहीं होने देते जो धर्म की आत्मा है। इसका एक ही कारण है कि अध्यात्म का उन आदर्शों पर नहीं समझाया जाता जो आज की जन मनोभूमि के अनुरूप हों आज हर व्यक्ति तर्क, प्रमाण और विज्ञान को आधार मानता हैं इस युग में कोई भी मान्यता केवल इन तीन आधारों पर ही प्रामाणिक एवं ग्राहय बन सकती है।
इन युग के मनीषियों का पवित्र कर्तव्य है कि व अपने समय की आवश्यकता को समझें और उसकी एक व्यवस्थित विचार पद्धति विनिर्मित करने में संलग्न हों। युग निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक हैं इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए जीवन जीने की कला के व्यवहारिक आध्यात्म का प्रतिपादन शिक्षण किया भी जा रहा है। अखण्ड-ज्योति पत्रिका इसी प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न है और आवश्यक गोला बारूद, विचार, प्रवाह प्रस्तुत करती चली आ रही हैं यह प्रयत्न आगे इसी गति से-और भी अधिक तीव्र गति से आगे बढ़ें ऐसे प्रयास चल रहे हैं आत से तीस वर्ष पूर्व यह कहा जाता था कि- ‘जहाँ विज्ञान समाप्त होता हैं वहाँ से अध्यात्म आरम्भ होता हैं विज्ञान और अध्यात्म का क्षेत्र सर्वथा पृथक् एक दूसरे से सर्वथा असंबद्ध है। पर अब ऐसी स्थिति नहीं रही। गत पचास वर्षों में विज्ञान ने अति तीव्रगति से प्रगति की है और उसका हर चरण अध्यात्म के समर्थन की ओर बढ़ा है। लगता हैं कि यह प्रगति क्रम जारी रहा तो अगले पचास वर्षों में अध्यात्म और विज्ञान दोनों इतने समीप आ जायेंगे कि दोनों का एकीकरण एवं समन्वय असम्भव न रहेगा।
सर्व साधारण की जानकारी प्रायः बहुत पिछड़ी हुई बनी रहती है। प्रगति के नवीन चरण उसमें प्रायः अविज्ञात ही बने रहते है। डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त नई खोजों के आधार पर उपहासास्पद बनता चला रहा है। और फ्रायड के कामुकता समर्थक मनोविज्ञान के अब धुर्रे उड़ा दिये गये हैं नवीन शोधों ने विकास बाद और मनोविज्ञान को अध्यात्म की दिशा में काफी आगे तक बढ़ा दिया हैं और लगता हैं उनके बढ़ते जाते कदम अध्यात्म के समर्थन की दिशा में ही बढ़ रहे है। अणु विज्ञान के आचार्य आइन्स्टीन की नवीन खोजों ने अणु-सत्ता के (ईश्वर) अस्तित्व को स्वीकार किया है और भी इस दिशा में बहुत कुछ काम हुआ हैं पर वह उतने स्तर के सत्र में है कि सर्वसाधारण तक उसकी जानकारी मुश्तों बाद पहुँचेगी और तब तक अनास्थावादी मान्यताएँ इतनी प्रखर हो जायेगी कि उन्हें हटाना, मिटाना सम्भव न रहेगा।
दर्शन और तत्त्वज्ञान के उद्गम से ही कोई चार पद्धति एवं आचार प्रक्रिया प्रादुर्भूत होती है अध्यात्म का दर्शन और तत्त्वज्ञान प्रतिपादन करने के लिए ही वेद, उपनिषद् दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक आदि का आविर्भाव हुआ। ईश्वर, जीव प्रकृति के विभिन्न भेद-उपभेदों की चर्चा रही। दर्शन ही विचार और आचरण का मूल आधार हैं इसलिए ईश्वर, आत्मा, धर्म, स्वभाव, कर्मफल आदि के दार्शनिक सिद्धान्तों को यही ढंग से प्रतिपादित करना होगा संसार के दिशा मोड़ने वाले दार्शनिकों ने मानवीय आस्थाओं का मूलभूत विश्लेषण अपने ढंग से किया है और यदि वह लोगों को ग्राहय हुआ तो निस्संदेह जनसमूह की गतिविधि भी उसी दिशा में सोचने, करने और बढ़ने के लिए प्रेरित-प्रभावित होगी। अब भी यही किया जाना है हम अध्यात्म के दार्शनिक सिद्धान्तों का विज्ञान, तर्क और प्रमाणों के आधार पर प्रतिपादन कर सकें तो निस्संदेह जन-मानस को पुनः उसी प्रकार सोचने और करने का तत्पर किया जा सकता है, जिस पर कि भारतीय जनता लाखों वर्षों तक आरूढ़ रहकर समस्त विश्व का प्रकाशपूर्ण मार्ग दर्शन करती रही है।
तब सम्भवतः हम संस्कृति के शिकार न होकर उन सभी को सत्पथ दिखा सकेंगे जो भटकते दिखाई देते हैं भविष्य का धर्म वैज्ञानिक धर्म है, एवं यह भारतीय दर्शन की मूल धुरी पर टिका होगा, इससे सम्बन्ध में हमें कदापि अविश्वास नहीं रखना चाहिए।