
पूर्णता की प्राप्ति कैसे हो?
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संसार का हर मनुष्य विकास चाहता है शायद ही कोई एकाध व्यक्ति ऐसा मिले, जो अविकसित, गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहना चाहता है क्या इस विकास की कोई सीमा है? सीमा का पता लगाने पर मनुष्यों की परिस्थिति एवं मनःस्थिति का अध्ययन करने पर एक ही तथ्य स्पष्ट होता हैं कि प्रायः हर व्यक्ति अपनी पहले की स्थिति से आगे बढ़ जाने के बाद भी
वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट है। वह और अधिक विकास चाहता है। यदि उससे यह पूछा जाय कि आखिर विकास का भी कोई अन्त है तो एक मात्र उत्तर की प्राप्ति होगी-पूर्णता
निस्सन्देह हर व्यक्ति विकास की पूर्णता पाना चाहता है, पर यहाँ स्वाभाविक ही जिज्ञासा उठती है कि आखिर यह पूर्णता प्राप्ति किसकी हैं स्वयं के व्यक्तित्व की अथवा बाह्य साधनों की। यह प्रश्न हर विकासशील को चक्कर में डाल देता हैं। सचमुच उद्देश्य की होती है, न कि उसकी प्राप्ति के लिए सम्भाव्य साधनों की। आवश्यक साध्य है, न कि साधन। यह एक ऐसा तथ्य है, जो सरल होते हुए भी दुर्बोध हैं सामान्य जीवन में हम देखते है कि किसी काम के लिए कोई मनचाहा साधन न मिले, तो दूसरे से भी काम चला लिया जाता हैं उदाहरण के लिए यात्रा की मंजिल पूरी करने के लिए हवाई जहाज न मिले, तो रेल या मोटर बस से भी काम चला लिया जाता हैं पर इस प्रकार यहाँ आवश्यक मंजिल की प्राप्ति करना है, न कि यात्रा साधनों के पीछे भागना।
सामान्य यात्रा सम्बन्धी इस तथ्य को दैनिक उपयोग में लाते हुए भी जीवन यात्रा के सम्बन्ध में इस भी जीवन यात्रा के सम्बन्ध में इस नियम को हम लागू करना सर्वथा भूल ही जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति यात्रा पूरी करने के लिए साध नहीं इकट्ठा करता रहे,तो इसे अविवेकपूर्ण कहा जायेगा। यात्रा के लिए सामान्य साधन साइकिल आदि तो खरीदे जा सकते है; किन्तु बस, रेल, हवाई जहाज खरीदने की बात सोचना, इसी के लिए चिन्तित रहना, उन पर अपनी मिलकियत जमाने की बात पर बल देना हास्यास्पद ही कहा जायेगा।
सामान्य तथ्य तो यही कि इतना सारा जखीरा जमा करने की जगह उपयुक्त, किराया देकर लोग काम चला लेते, किन्तु आज तथा कथित बुद्धिमान लोग भी यह नहीं सोच पाता कि इस सर्व सुलभ सूत्र को जीवन यात्रा के लिए भी लागू किया जा सकता है।
प्रायः आज ऐसे ही लोगों की भरमार है, जो साधनों के इकट्ठा करने के चक्कर में साध्य भूल चुके। उनका एक मात्र उद्देश्य अधिकाधिक साधन सुविधाएँ जुटाना ही रह गया है। इस एकत्रीकरण में पूर्णता तो सा जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता, ऐसे व्यक्तियों को सनकी बताते हुए कहते है। कि ये व्यक्ति उद्देश्य में सफल होना तो दूर उलटे दुःखी हो जाते है। वह इन्हें मानसिक रोगी बताते हैं तथा इनके साधनों की पूर्णता प्राप्ति सम्बन्धी बात को पूर्णता प्राप्त करने का पागलपन।
फिंक की बात कटु अवश्य है किन्तु है सर्वथा सत्यं मानवी व्यक्तित्व की क्या गरिमा है, इसे उससे किस तरह प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए, आदि बातें भूलकर जो व्यक्ति लगातार सुविधा या साधनों की भरमार करने में जुटा रहे, उसके लिए फिंक की शब्दावली ही अधिक उपयुक्त है।
ऐसे व्यक्ति की मनः स्थिति का विश्लेषण करते हुए हैराल्डफिंक कहते हैं कि जब हुए हैराल्ड फिंक कहते हैं कि जब इनमें साधनों के इकट्ठा करने की आदत बढ़ती जाती हैं तो यह बढ़ता हुआ क्रम उन्हें शक्की बना देता हैं उन्हें न तो किसी चीज पर विश्वास रह जाता हैं न ही किसी व्यक्ति पर। उसे हमेशा यह डर रहता है कि लोग उसके विरुद्ध है। वह स्वयं के प्रति भी अविश्वासी हो जाते है इन व्यक्तियों के मनों में अपराधी भावना उपजी हैं जिससे अन्य भी ग्रसित होते हैं वह इन्हें बुनियादी तौर पर असामाजिक एवं आत्म विश्वास से हीन व्यक्ति बताते है।
पूर्णता प्राप्ति के मूल रहस्य को समझा जाना चाहिए। साधनों की अभिवृद्धि एवं पूर्णता की सनक के उलझाव में उलझ न रहकर प्रयास इस ओर किया जाना चाहिए कि स्वयं का व्यक्तित्व निर्मल-परिष्कृत एवं सद्गुणों की पूर्णता प्राप्त की वे समाज के मानदण्ड बनकर रहे है।
आज भी इन्हें पाकर समाज राष्ट्र धन्य हो सकेंगे। समाज में ऐसे ही व्यक्तित्वों का अनुकरण अनुसरण भी होता हैं इस ओर बढ़ चलना और वास्तविक विवेकशीलता और बुद्धिमानी है, जिसे हर कीमत पर पुरा किया ही जाना चाहिए।