
लोक मर्यादाओं का अधिष्ठाता धर्मतंत्र
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परिचारक ने जाकर सन्देश दिया-महात्मन् महाराज त्रैवृष्ण स्वयं पधारे हैं, आपसे अभी भेंट करने की इच्छा प्रकट की है उन्होंने।
महर्षि जन के पुत्र महर्षि जन के पुत्र महर्षि वंशजान सायंकालीन संध्या से अभी उठे ही थे। परिचारक का सन्देश सुनकर वह स्वयं उठकर द्वार तक आए और सम्राट त्रैवृष्ण का स्वागत कर अपने परामर्श कक्ष की ओर चल पड़े। मार्ग में ही पूछा-महाराज! दिग्विजय के लिए प्रस्थान की सारी तैयारी सम्पन्न हो चुकी होंगी। विजय दशमी को प्रातः कालीन अग्निहोत्र के बाद ही प्रस्थान कर देना होगा।
ऐसा ही होगा भगवन्। हम आपकी आज्ञाओं का अक्षरशः पालन करा रहे हैं। सेवा में तो हम एक अन्य अकिंचन आकांक्षा लेकर उपस्थित हुए हैं। महर्षि! आपके प्रताप से इक्ष्वाकु वंश की विजय पताका रिक मण्डल में फहरा रही है। प्रजा को कोई कष्ट नहीं, कहीं अपराध नहीं, अराजकता नहीं, सब आपका ही आशीर्वाद है। हमारी इच्छा है भगवन् कि इस युद्ध में मेरे राि की रास आप ही सम्भालें आपने पुरोहित का गुरुतर भार सम्भाल कर अपनी शास्त्रज्ञता सिद्ध की है। जब तक आप जैसे समर्थ पुरोहित इस देश में जनम लेते रहेंगे, प्रजा के हित की तब तक चिंता नहीं की जा सकती। पर हम यह भी देखना चाहते हैं कि शास्त्र पुरोहित, शस्त्रज्ञता का निर्वाह कैसे करते हैं। आज तक आपके ब्राह्मणत्व को जानते आए हैं, अब आपमें समाहित क्षात्रत्व को देखने की अभिलाषा भी तीव्र हो उठी है। आशा है निवेदन ठुकरायेंगे नहीं।
वृश हँसे और बोले-ऐसा ही होगा महाराज! जाओ युद्ध की अवशेष तैयारियाँ भी पूरी करो। इस युद्ध में आपके रथ का संचालन हम स्वयं करेंगे।”
और सचमुच सारी प्रजा ने देखा कल तक जो गैरिक वस्त्र धारण किए सारी प्रजा को ज्ञान का उपदेश दिया करते थे, आज वह वीर केसरिया वेश से सज्जित इक्ष्वाकु श्रेष्ठ त्रैवृष्ण के रथ की बागडोर अपने हाथ में लिए चल रहे हैं। वय का पूर्वार्द्ध समाप्त कर वे उत्तरार्ध में चल रहे थे, बाल पकने लगे थे तो भी जटा-जूट सवार कर जब उन्होंने एक योद्धा का रूप लिया, शिरस्त्राण कवच और तूणीर धारण किया तो वह वीर वेश भी देखते ही बनता था। जन्मजात योद्धा सरीखे दीख पड़ रहे थे, वृश। सैकड़ों कलाकारों ने प्रस्थान की उस पुण्य बेला में राजधानी पहुँचकर महर्षि का वह वीर वेश तूलिकाकिंत किया।
दिग्विजय की युद्ध श्रृंखला प्रारम्भ हुई। महर्षि वृशजान ने रथ का संचालन बड़ी कुशलता से किया। वे स्वयं एक सिद्ध योद्धा थे। युद्ध पर युद्ध जीतने गए और एक बार फिर इक्ष्वाकु वंश का ऐश्वर्य सारे विश्व में छा गया।
विजय वाहनियाँ लौट रही थी। स्वागत के लिए प्रजा उमड़ पड़ी। दोनों ओर पंक्ति बद्ध खड़े नागरिकों का अभिनन्दन स्वीकार करता हुआ, राजस्यन्दन आगे बढ़ रहा था। राजधानी में पहुँच कर विजयोत्सवों की धूम मच गयी। महाराज त्रैवृष्ण भी विजयोन्माद में फूले नहीं समा रहे थे। प्रभुता के उन्माद का नशा-मनुष्य की विवेक चेतना का हरण कर लेता है। उसे दूसरों को सम्मान देने की अपने श्रेय में भागीदार समझने की सुध-बुध नहीं रहती। सारे श्रेय का अधिकारी वह स्वयं को समझने लगता है।
महाराज त्रैवृष्ण के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने प्रभुता के मद में महर्षि वृश की उपेक्षा तक सीमित रहती तो भी ठीक था। उपेक्षा के साथ अवमानना अवहेलना, तिरस्कार का क्रम भी शुरू हो गया। वह उनके साथ एक राज कर्मचारी से भी गया, गुजरा व्यवहार करने लगे। कुछ दिन तो महर्षि इस बर्ताव के सहते रहे। पर-धीरे-धीरे उनका मन टूट गया। उन्होंने राजधानी में रहने के स्थान पर एकान्त साधना करने के लिए अरण्य में जाना औचित्य पूरा समझा। अपने इस निर्णय से उन्होंने महाराज को अवगत कराकर एकान्त वन में चले गए।
महर्षि वृश के जाते ही धर्मतन्त्र शिथिल पड़ गया। राज-घराने में होने वाला अग्निहोत्र समाप्त हो गया तो सामान्य प्रजा भी धर्मकृत्यों को छोड़ बैठी। देखते ही देखते राज्य की सम्पूर्ण तेजस्विता नष्ट-भ्रष्ट हो गयी लोग आलसी-कामुक और उच्छृंखल हो गए। व्यापार ठप्प पड़ गया, कृषि टूट चली, देश की दुर्गति होने लगी, तब लोगों को महापुरोहित वृश का अभाव खटका।
एक दिन एक सामान्य नागरिक की पत्नी ने अपने पति की उपेक्षा कर दी, उसके भूखे और थके होने पर भी उसने भोजन नहीं बनाया। पति -पत्नी के मध्य प्रेम और आत्म भाव न रहे। उस युग को दुःख और दैन्य की चर अवस्था कहना चाहिए। उपेक्षा राजवंश में भी न चढ़ पड़े इसकी चिन्ता हो चली। हुआ भी ऐसा ही एक दिन महाराज त्रैवृष्ण की महाराज ने ही महाराज के प्रति कर्तव्य व प्रमाद किया, तब उन्हें धर्मतन्त्र व जागरण की आवश्यकता प्रतीत हुई।
दुःखी नरेश स्वयं वृश को ले गए। वृश को अपनी प्रजा ने समाचार सुनकर बड़ा दुःख हुआ। यद्यपि उन्हें तिरस्कृत किया गया था तो भी लोकहित के लिए अपने अपमान का ध्यान न दिया और पुनः राजधानी लौट आए। उनके आते ही लोक मर्यादाएँ पुनः प्रदीप्त हो उठीं।
महाराज ने धर्म मंच के स्वर को पहचाना और तब अनन्त का तक के लिए पुरोहित का पद शासनाध्यक्ष से भी उच्च घोषित किया।