
पुण्यतोया भागीरथी भारत के लिए एक विशिष्ट अनुदान
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पानी और नदियों में भी बहता है, फिर गंगाजल ही क्यों? आजकल के बौद्धिक एवं तर्क प्रवण जमाने में इस तरह के अनगिनत सवाल उठना कोई अचरज की बात नहीं है। इन दिनों जब कि अधकचरी बौद्धिकता सदियों पुरानी श्रद्धा एवं आस्था को निगलती जा रही है, ऐसे समय में विदेशी वैज्ञानिकों, डॉक्टरों ने अपने श्रम साध्य प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर बताना शुरू कर दिया है कि ऋषियों की बातें कोरी गल्प नहीं हैं। उसके पीछे उनके दीर्घकालीन अनुभव सँजोये हैं।
अमेरिका के विश्वविख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन ने अपनी पुस्तक भारत यात्रा वृत्तांत में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. हेनकेन के एक प्रयोग का ब्योरेवार जिक्र किया है जो उन्होंने “ गंगाजल” पर किया था। प्रयोग के लिए उन्होंने जो जल लिया वह स्नानघाट वाराणसी के उस स्थान का था, जहाँ बनारस की गन्दगी गंगाजी में गिरती है। परीक्षण से पता चला कि उस जल में हैजा के लाखों कीटाणु भरे पड़े हैं। 6 घण्टे तक जल रखा गया, उसके बाद दुबारा जाँच की गई तो पाया कि अब उसमें एक भी कीड़ा नहीं हैं। उसी समय जब इस जल का प्रयोग किया जा रहा था, वह शव भी बाहर निकाल लिया गया, जाँचने पर पता चला कि उसके बगल के जल में भी हजारों हैजे के कीटाणु हैं, 6 घण्टे तक रखा रहने के बाद वे कीटाणु भी मृत पाए गए। यही कीटाणु निकाल कर एक दूसरे कुएँ के जल में दूसरे बर्तन में डाल कर रखे गए तो उसमें हैजे के कीटाणु अबाधगति से बढ़ते रहे। अद्भुत-आश्चर्य-आखिर क्या विशेषता है उसमें? गंगा जल के पाचक, कीटाणुनाशक, प्राण एवं शक्ति वर्धक गुणों की प्रशंसा सुनते-सुनते हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्रवक्ता डॉ. एन. एन. गोडबोले ने सोचा क्यों न गंगाजल की रासायनिक परीक्षा करके देख ली जाए? लगातार अपने प्रयोगों से उन्हें जो निष्कर्ष प्राप्त हुए, उससे उनका मस्तक गंगा की पवित्रता के समक्ष नत हो गया।
इन निष्कर्ष का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि मुझे फिनायल यौगिकों की जीवाणु निरोधिता के परीक्षण का काम दिया गया था। तभी मुझे गंगा जल पर कुछ चिकित्सा सम्बन्धी शोध पत्र देखने को मिले जिनमें यह बताया गया था कि ऋषिकेश से लिए गए गंगाजल में कुछ ‘प्रोटेक्टिव कोलाइड’ होते हैं। ये ही उसकी पवित्रता को हद दर्जे तक बढ़ाते हैं। कोलाइड एक ऐसा तत्व है, जो पूरी तरह घुलता और ठोस भी नहीं रहता। शरीर में लार, रक्त आदि देहगत कोलाइड हैं। ऐसे ही कोलाइड गंगाजी के जल में भी पाए जाते हैं। जब उनकी शक्ति का ‘ रिडैलवाकर’ नामक यन्त्र से पता लगाया तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गंगाजल जीवाणु की वृद्धि को रोकता ही नहीं, उन्हें मारता भी है। जाँच के लिए प्रयुक्त ‘रिडैलवाकर’ उपकरण की खोज रिडैल और वाकर नामक दो वैज्ञानिकों ने मिलकर की थी। जिस तरह परमाणुओं के भार को हाइड्रोजन परमाणु के सापेक्षित मान निकालते हैं, उसी तरह फीनोल से सापेक्षित जीवाणु निरोधिता निकालते हैं।
फ्राँस के डॉक्टर डी. हेरल ने गंगाजल पर किए गए इन प्रयोगों की चर्चा और प्रशंसा सुनी तो वे भारत आए और गंगाजल का वैज्ञानिक परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि इस जल में संक्रामक रोगों के कीटाणुओं को मारने की जबर्दस्त शक्ति है। उनके अनुसार आश्चर्य जनक बात तो ये है कि एक गिलास में किसी नदी या कुएँ का पानी लें जिसमें कोई भी कीटाणुनाशक तत्व न हो, तो गंगा जल में कृमिनाशक कीटाणुओं की संख्या बढ़ जाती है। इससे सिद्ध होता है कि गंगा जी में कोई ऐसा विशेष तत्व है जो किसी भी मिश्रण वाले जल को भी अपने समान बना लेता है। यही कारण है, 1557 मील लम्बी गंगाजी में घाघरा, यमुना, सोन, गण्डक और हजारों छोटी-बड़ी नदियाँ मिलती चली गयीं, तब भी गंगा सागर पर उसकी यह कृमिनाशक क्षमता अक्षुण्ण बनी रही। इसे उन्होंने ईश्वरीय चमत्कार की संज्ञा दी।
अपने गम्भीर प्रयोगों के दौरान वैज्ञानिक डी. हेरल ने पाया कि गंगा जल में जीवाणुओं को समाप्त करने वाला एक विशिष्ट जीवाणु ‘बैक्टिरियो फेज पाया जाता है। इसमें टी.बी. अतिसार, संग्रहणी, व्रूण, हैजा के जीवाणुओं को समूल समाप्त कर देने की आश्चर्य जनक शक्ति विद्यमान है। इस विशिष्ट जीवाणु के अलावा गंगाजी के जल में ऐसा अद्भुत रासायनिक मिश्रण है जो असाध्य बीमारियों के लिए कारगर सिद्ध होता है। इस औषधीय गुणों के कारण की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि वस्तुतः हिमालय के क्षेत्र में अति दुर्लभ औषधियाँ पायी जाती हैं वहाँ से निकलने के कारण यदि गंगा इन गुणों को अपने में समाहित कर लायी है तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
इसी के आधार पर उन्होंने गंगावतरण के पौराणिक कथानक की व्याख्या करते हुए कहा कि भारतीय ऋषियों-मुनियों की पद्धति प्रत्येक घटना को कलात्मक रीति से वर्णन करने की रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों अकाल-महामारी जैसी स्थिति आयी होगी। तब प्रजा को पुत्र के समान माना जाता था। बहुत सम्भव है, सगर के साठ हजार नागरिक पीड़ित हुए हों और तब उन्हें एक नहर की आवश्यकता हुई हो। पौराणिक कथन है कि गंगा जी के लिए सगर की तीन पीढ़ियों ने तप किया था। डॉ. हेरल के अनुसार ऋषियों ने तप का अर्थ आग में तपना नहीं बल्कि असम्भावित परिस्थितियों से संघर्ष को माना है। हिमालय की चट्टानों को काटकर गंगाजी को लाना एक कठिन कार्य था। उसके लिए सचमुच बड़े परिश्रम की आवश्यकता थी। डॉ. हेरल के अलावा कई अन्य पश्चिमी विशेषज्ञों की भी ऐसी धारणा है कि गंगा नदी नहीं नहर है और उसे कुछ विशेष स्थानों से जानबूझ कर लाया गया है।
हिमालय बहुमूल्य रसायनों और खनिजों का रहस्यमय स्रोत है। सर्पगंधा, चन्द्रवटी ऐसी अनेक जड़ी-बूटियाँ जो अन्यत्र दुर्लभ हैं, हिमालय में आज भी हैं। जो फूल संसार में दूसरे स्थानों पर उगाने पर भी नहीं उगते, उनकी वहाँ मीलों लम्बी घाटियाँ हैं। वहाँ से गुजरने के कारण यदि ये औषधीय चमत्कार गंगा जी में समा गए तो आश्चर्य क्या?
भगीरथ की प्रजा अकाल ग्रस्त ही न थी, अभिशाप ग्रस्त भी थी, अर्थात् वे लोग अनेक रोगों से पीड़ित होंगे। इसलिए गंगा जल को उन-उन स्थानों से लाने के लिए एक विशेष शोध कार्य सगर की तीन पीढ़ियों को करना पड़ा, जिनमें स्वास्थ्य वर्धक, कीटाणु नाशक और तेजोवर्धक तत्वों का बाहुल्य था। गंगाजी का भूगोल भी इस तथ्य का शतशः प्रतिपादन करता है।
प्राचीन काल में जब भारतवर्ष का अरब, मिश्र एवं योरोपीय देशों के साथ व्यापार चलता था, तब भी और इस युग में भी सब देशों के नाविक गंगा की गरिमा स्वीकार करते रहे हैं। डॉ. नेल्सन ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि गंगा का जो जल कलकत्ता से जहाजों में ले जाते हैं, वह लन्दन पहुँचने तक खराब नहीं होता। परन्तु थेम्स नदी का जो पानी लन्दन से जहाजों में भरा जाता है, बम्बई पहुँचने के पहले ही खराब हो जाता है।
तब जब कि जल को रासायनिक सम्मिश्रणों से शुद्ध रखने की जानकारी नहीं थी, तब पीने के पानी की बड़ी दिक्कत होती थी। खारी होने के कारण लोग समुद्र का पानी नहीं पी सकते थे। अपने साथ जो जल लाते वह कुछ ही दिन ठहरता था, जब कि समुद्री यात्राएँ महीनों लम्बी होती थीं। जाते समय वे लोग गंगाजी का बहुत जल भर ले जाते थे, बहुत दिनों तक रखा रहने पर भी उसमें किसी प्रकार के कीड़े नहीं पड़ते थे।
योरोपीय देशों में चर्टेल गायोन, सेण्ट नेक्टेयर, बार्बूले और मोन्टेडोरे की कुण्डों को अति पवित्र माना जाता है। फ्राँस के डॉ. मोनोद ने इन जलकुण्डों की वैज्ञानिक जाँच करके बताया कि सचमुच इन जल कुण्डों में कुछ ऐसे उपयोगी रसायन घुले हुए हैं जो डिप्थीरिया, दमा आदि बीमारियों में लाभकारी होते हैं। अपने इण्टेरियन लेक्चर में उन्होंने इन निष्कर्षों का विवरण दिया तो लोगों को उन मान्यताओं की वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ी। डॉ. मोनोद के अनुसार इन जलकुण्डों से हजारों गुना बढ़कर गुणकारी गंगाजल को यदि भारतीयों ने इसे श्रद्धास्पद माना, तो उस पर आक्षेप करने का कोई कारण नहीं है।
डॉ. स्टीवेन्सन ने अपने ग्रन्थ, “ इण्डिया ए लैण्ड ऑफ मिरैकल्स” में इस तथ्य की चर्चा करते हुए कहा है कि गंगाजल के जो रासायनिक परीक्षण किए गए हैं, उनके निष्कर्षों पर यकायक वैज्ञानिक भी विश्वास नहीं कर पाते हैं, जो संसार की किसी नदी में नहीं हैं। चाहे वह अमेजन नदी हो अथवा मिसीसिपी और मिसौरी नदियाँ। यहाँ तक कि यमुना में भी वे तत्व उपलब्ध नहीं हैं, जो गंगा जी में बहुतायत से विद्यमान है। कई पश्चिमी वैज्ञानिकों ने यह कोशिश की कि इन तत्वों को उनके अपने देश की नदियों में विकसित किया जा सके, परन्तु वह सफल नहीं हो सके। डॉ. स्टीवेन्सन के मतानुसार- “ गंगा नदी भारतीयों के लिए परमात्मा द्वारा दिया गया ऐसा अनुदान है जिस पर अन्य देश के निवासी सिर्फ ललचा सकते हैं। उसे पाने की कोई तरकीब उनके पास नहीं है।
ऐसे विशिष्ट अनुदान का मूल्याँकन भारतवासियों की वर्तमान पीढ़ी ने क्या किया है? इसका विश्लेषण करने पर सिर शर्म से झुक जाता है। जो गंगा हम भारतीयों के जीवन-मरण के साथ जुड़ी हुई है, उसे यो प्रदूषित करते रहना, उन लाखों-करोड़ों लोगों की श्रद्धा और भावनाओं का अपमान है, जो अमावस्या, पूर्णिमा और ग्रहण के अवसरों पर हजारों मील दूर से चलकर पहुँचते और स्नान करते हैं। उनकी इस श्रद्धा का आधार वह विज्ञान है, जिसे भारतीय तत्त्ववेत्ता आदि काल से जानते रहे हैं और आज का विज्ञान जिसकी अक्षरशः पुष्टि करता है।