
“क्षमा” ने कर दिया पापी का हृदय परिवर्तन
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शौर्य और धर्मनिष्ठा का जितना समन्वय उन दिनों सिन्धु-सौवीर राज्य के शासक सम्राट उद्रायण में मिलता था, किसी अन्य प्रजाजन तो क्या नरपालों में भी नहीं था। उद्रायण अधर्मी और अन्यायी शासकों को दण्ड देते समय जिसने कठोर हो सकते थे, किसी दीन दुःखी व्यथा-वेदना से पीड़ित को देख कर उतने दयार्द्र भी। कर्म और भावनाओं में धर्म की एक रस धारा का यह प्रवाह ही था, जिसने सम्राट उद्रायण को चक्रवर्ती बना दिया था।
अब वे तृतीय वय में प्रवेश पा चुके थे। एक दिन सायंकाल राज दरबार से लौटने पर उनकी धर्म परायणा पत्नी महारानी प्रभावती ने कहा-स्वामी! धार्मिक मर्यादा के अनुसार अब हमें राज्य शासन राजकुमार अभीचि को सौंप देना चाहिए। राजकुमार की शिक्षा-दीक्षा भी पूरी हो चुकी। अब वे इस योग्य हैं कि शासन-भार को वहन कर सकें। इन्हें शासन-सूत्र सौंप कर हम दोनों को परमार्थ एवं परलोक की तैयारी के लिए स्वयं को मुक्त कर लेना चाहिए। महारानी की यह सम्मति पाकर उद्रायण अतीव प्रसन्न हुए। युवराज अभीचि के राज्याभिषेक की तैयारियाँ होने लगी।
महाराज उद्रायण की एक बहन भी थी। उसका एक पुत्र केशीकुमार इस दिनों सिन्धु-सौवीर के संरक्षण में ही पल रहा था। केशीकुमार के पिता किसी अन्य राज्य के शासक थे, पर एक युद्ध में वह मारे गए थे। तब सम्राट उद्रायण की बहन सिन्धु-सौवीर ही चली वियोग में परलोक प्रयाण करने लगी थीं, तब उन्होंने केशीकुमार को अपने भाई को सौंपा था। महाराज ने वचन दिया था कि वह उसे अपने पुत्र राजकुमार अभीचि से अधिक ध्यान देकर रखेंगे। हुआ भी यही, उन्होंने अपने इस कर्तव्य का पालन अब तक अक्षरशः किया था। शिक्षा-दीक्षा आमोद-प्रमोद के जो साधन अभीचि को उपलब्ध होते थे, वह केशीकुमार के पास पहले पहुँचा दिए जाते थे। तब भी केशीकुमार के मन में फणिधर के विष की तरह अभीचि के प्रति अज्ञात दुर्भाव पनपता रहा। हर शंकालु व्यक्ति की तरह उसे अभीचि से सदैव भय बना रहता था।
राज्याभिषेक की तैयारियाँ अभी प्रारम्भ भी नहीं हुयीं थी कि केशीकुमार महाराज के पास जा पहुँचा। धूर्तों की सजगता ही तो होती है कि उन्हें कभी-कभी अनायास सफलता भी हाथ लग जाती है। उसने सम्राट को उनके दिए वचन की याद दिलाई और कहा- “अब तक प्राप्त प्राथमिक सुविधाओं के समान क्या सिन्धु-सौवीर के राज्य सिंहासन पर मेरा प्रथम अधिकार नहीं?”
प्रश्न बड़ा टेढ़ा आ पड़ा मंत्रीगण, सचिव और सेनापति सब इस पक्ष में थे कि राजकुमार अभीचि ही राज्य के उत्तराधिकारी और सुयोग्य प्रशासक हैं। किन्तु महाराज उद्रायण ने जब अपनी स्थिति देखी तो पाया कि वे वचनबद्ध हैं। यों वह केशीकुमार के दुष्ट स्वभाव को जानते थे। दुष्ट को दबाना पाप नहीं होता पर अपयश का भय धर्म के नाम पर एक प्रकार की दीनता ही कही जाएगी। जीवन भर एकछत्र क्षात्र धर्म का पालन करने वाले सम्राट उद्रायण से उतना भी साहस करते न बना। उन्होंने केशीकुमार का ही राज्याभिषेक कर दिया।
अब तो बन्दर के हाथ में तलवार वाली कहावत हो गयी। दुष्ट-स्वभाव के मनुष्य को शक्ति और साधन देना तो दुष्टता का अभिसिंचन और परिपोषण करना ही होता है। राज्य पाकर केशीकुमार का जीवन और अधिक उद्दण्ड हो गया। प्रजा के हित की चिन्ता न रही। मार्ग की एक मात्र बाधा अभीचि को भी उसने राज्य से निष्कासित कर अपने मुट्ठी भर समर्थकों के साथ भोग विलास का जीवन जीने लगा। अभीचि अपने मौसेरे भाई चंपा के राजकुमार कुणिक के पास चला गया।
उद्रायण ने महाश्रमण तीर्थंकर महावीर से धर्म दीक्षा ली और आत्मकल्याण की साधना में रत हो गए। साधना और लोक सेवा में तत्पर श्रमण उद्रायण बहुत समय तक देश का भ्रमण और तीर्थाटन कर अपनी आत्मिक क्षमताएँ बढ़ाने में लगे रहे। धर्म साधना के क्षेत्र में भी उनका यश पहले की ही भाँति सारे संसार के फैल गया। उनकी कठोर तपश्चर्या के उदन्त सारे लोक में गाए जाने लगे। उनके चमत्कारी व्यक्तित्व के सान्निध्य में जो कोई भी आता, स्वयं को धन्य अनुभव करने लगता।
कुटीचक साध्वी के रूप में तप कर रही महारानी प्रभावती का देहावसान जब हो गया, तब श्रमण उद्रायण अकेले ही लोकहित में प्रव्रज्या करने लगे। बहुत दिनों के बाद उनके मन में अपनी राजधानी सिन्धु-सौवीर की स्मृति ताजा हो उठी। वे वीतमय राजधानी की ओर प्रस्थान कर गए। और कुछ ही दिन में सिन्धु-सौवीर जा पहुँचे। अपने भूतपूर्व धर्मप्रिय शासक को पाकर प्रजाजनों ने अपना सारा प्यार उन पर उड़ेल दिया। यह अन्तर्स्नेह ही तो व्यक्ति को धर्म और सदाचरण की प्रेरणा देता है। अन्यथा आज संसार में दुष्ट-दुराचारियों का ही प्रभुत्व रहा होता।
सब अच्छे ही नहीं होते। इस संसार में बुरे भी कम नहीं है। एक ओर जहाँ प्रजा अपने भूतपूर्व शासक के स्वागत में तल्लीन थी। वहीं दूसरी ओर निहित स्वार्थ के चापलूस पदाधिकारी केशीकुमार को भड़का रहे थे कि महाराज प्रजा का समर्थन लेकर आपको राज्य-च्युत करने वाले हैं। उनका यहाँ आगमन आपको हटाकर अपने पुत्र राजकुमार अभीचि को राज सिंहासन दिलाने के लिए हुआ है।
कृतघ्नता-नीचता की पहली और अन्तिम कसौटी है। जो किसी के किए हुए उपकार के प्रति श्रद्धा नहीं रखता, उससे बढ़कर दूसरा कोई पापी नहीं हो सकता। केशीकुमार ने दुष्ट व्यक्तियों के प्रभाव में आकर घोषणा करा दी कि सिन्धु-सौवीर का जो भी नागरिक श्रमण उद्रायण को आश्रय प्रदान करेगा, उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति छीन ली जाएगी और उसे मृत्यु दण्ड भी दिया जाएगा।
ज्येष्ठ की चिलचिलाती धूप में श्रमण उद्रायण भिक्षाटन के लिए निकले। लेकिन आज उन्हें भिक्षा देना तो दूर, जिसने भी उन्हें देखा अपने द्वार बन्द कर लिए अपना-अपना मुख छुपाकर लोग घरों में जा छुपे। इसी से तो भय को महापाप कहा गया है। भयभीत व्यक्ति अन्याय का प्रतिकार भी नहीं कर सकता है। जो प्रजा कल तक उद्रायण के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहती थी। आज वही भयवश उनका मुख तक देखने से कतरा रही थी।
ऐसे समय एक कुम्भकार ने आगे बढ़कर उद्रायण का स्वागत किया और यह दिखा दिया कि साहसी व्यक्ति सत्य के समर्थन में किसी भी भय से विचलित नहीं होते, चाहे मृत्यु दण्ड की आशंका ही क्यों न हो। उसने उद्रायण की समुचित सेवा की और विश्राम के लिए उचित व्यवस्था कर दी। उसके इस साहस ने श्रीमन्तों के सिर झुका दिए। अब तो और लोग भी उनके स्वागत को उद्यत हो गए।
केशीकुमार तक यह समाचार पहुँचा। पापी में साहस कितना। वह गरीब कुम्भकार के साहस का भी सामना न कर सका। उसने छल पूर्वक उद्रायण को मरवा देने का निश्चय किया। कुम्भकार के समीपवर्ती एक ग्वाले के हाथ विष मिला दुग्ध भिजवा कर उसने उन्हें मार डालने की योजना निश्चित कर दी।
सायंकाल का समय था श्रमण उद्रायण ने दुग्धपान कर लिया। विष का प्रभाव शरीर में फैलने लगा उद्रायण भयंकर पीड़ा से कराह उठे। सारे नगर में यह समाचार बिजली की तरह तेजी से फैल गया। नगरवासी विद्रोह कर उठे। महाराज उद्रायण की आज्ञा लेने और केशीकुमार की सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए मतवाली भीड़ कुम्भकार के द्वार पर जा पहुँची।
श्रमण उद्रायण ने एक बार सिर ऊपर उठाया और बहुत धीमे स्वर में कहा- “आप लोग केशीकुमार का प्रतिकार न करना। वह क्षमा के पात्र हैं। शरीर तो आज नहीं कल नष्ट होना ही था।”
उद्रायण के प्राण-पखेरू उड़ गए पर उनके अन्तिम शब्द पास खड़े केशीकुमार के कानों में जा पड़े। उसका हृदय प्रायश्चित्त से जल उठा। जो कार्य मतवाली भीड़ न कर सकी, वह परिवर्तन “क्षमा” इन दो अक्षरों ने कर दिखाया। ग्लानि और पीड़ा से भरे केशीकुमार ने स्वतः राजसिंहासन का त्याग करके प्रव्रज्या स्वीकार कर ली उस धर्म मार्ग पर चलने का व्रत लिया जिस पर श्रमण उद्रायण चले थे।