
चण्ड अशोक का आत्म-बोध
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आज हुई विजय के उपलक्ष्य में उल्लास का पर्व-मनाया जा रहा था। अहंकार और सत्ता के मद में चूर सैनिक अधिकारी घूम रहे थे। इसी बीच सम्राट ने महासेनापति को बुलाया। कुछ ही क्षणों के बाद वह सम्राट के शिविर में थे।
“ सेनापति। युद्ध बन्दी कितने हैं? “
“ सिर्फ एक।”
एक! अशोक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपनी भृकुटियों में बल डालते हुए उसने पूछा- बाकी कलिंग के किशोर और वृद्ध?
उन्होंने भी तलवार उठा ली थी सम्राट!
उन्होंने भी?
“ हाँ “
“ तब तो अब कलिंग में महिलाएँ भर रह गयी होंगी।”
वह भी नहीं रहीं।”
क्यों?”
अन्तिम लड़ाई हमें उन्हीं से लड़नी पड़ी। “
ओह! कहकर वह किसी चिन्तन में डूब गया।
“अच्छा, युद्ध बन्दी को हाजिर करो। “
“जो आज्ञा।”
थोड़ी देर बाद एक लंगड़ा झुर्रीदार चेहरे वाला बूढ़ा सामने था। उसकी ओर देखते हुए सम्राट ने कुछ तीखे स्वर में कहा- तो तुम हो।
हाँ मैं ही हूँ - आपकी विजय का उपहार। बूढ़े के स्वरों में रोष था। विजय का उपहार और तुम-कहकर सम्राट हंस पड़ा। यानि कि मेरी वीरता का सामना कलिंग निवासी नहीं कर सके। क्यों सेनापति? कहकर उसे पास खड़े सेनापति की ओर देखा। वह चुप था।
‘वीरता नहीं क्रूरता कहिए’- बूढ़ा बोला पड़ा।
क्रूरता!
हाँ लाशों के लोभी वीर नहीं हुआ करते। कुत्ते, गिद्ध, स्यारों के चेहरों पर भी लाशों को देखकर प्रसन्नता नाच उठती है, पर उन्हें वीर नहीं कहा जा सकता।”
“ चुप रहो” ........... सम्राट जैसे चीख पड़ा।
“ कौन चुप रहे? नृशंस-अथवा वह जिसका रोम-रोम पीड़ा से चीत्कार कर रहा है।” बूढ़े ने विषैली हँसी हँसते हुए कहा। “ “अपनी क्रूरता को जाकर युद्ध भूमि में देखना वहाँ तुम जैसे कुछ और मिलेंगे।”
“ इस बूढ़े को यहाँ से हटाओ”- कहते हुए सम्राट के स्वर में पर्याप्त झल्लाहट थी। लेकिन इसका कोई असर उस बूढ़े पर नहीं पड़ा। उसने जाते-जाते कहा- “सताए हुओं के कष्ट हरने, उत्पीड़ितों के उत्पीड़न का दूर करने का नाम वीरता है। वीरों के लिए कहा गया है क्षविया व्यक्त जीवितः जो दूसरों के लिए स्वयं के जीवन का मोह भी त्याग दे। जो हँसती-खेलती जिन्दगियाँ बरबाद करे, व क्रूर है, उन्मादी है।” शिविर से बाहर ले जा रहे बूढ़े के ये स्वर अशोक के कानों में हथौड़े की तरह बजने लगे।
रात बेचैनी में कटी। वीरता और क्रूरता की व्याख्या उसके अन्तर को कचोटती रही। तो क्या वीर नहीं है? फिर वीरता के लिए किया गया यह सब कुछ? प्रश्न शून्य में विलीन हो गया, कोई उत्तर नहीं था।
सुबह उठते ही उसने कहा- ‘ उस बूढ़े को बुलाओ।’ सैनिक दौड़ पड़े। थोड़ी देर बाद वे फिर हाजिर थे, पर खाली हाथ, सिर झुकाए।
“ क्या हुआ?”
“ वह मर गया, सम्राट। “
अरे!
थोड़ी देर बाद सेनापति हाजिर हुए, उन्होंने बताया, राजवैद्य ने परीक्षा करके घोषित किया है कि असह्य मानसिक पीड़ा का आघात उसे सहन नहीं हुआ और उसने दम तोड़ दिया।
वह भी गया-अशोक बुदबुदाया।
अपराह्न में सम्राट अपने मन्त्रियों, सैनिकों, अधिकारियों के साथ युद्ध भूमि में थे। वहाँ थी सिर्फ लाशें, हाथी, घोड़े, आदमी, औरतों के कटे-छितराए अंग, जिन्हें कुत्ते, स्यार, गिद्ध इधर-उधर घसीट रहे थे और खुश हो रहे थे।
उसे रह-रह कर बूढ़े की बातें याद आने लगीं। किले के अन्दर घुसने पर मिला राख का ढेर। यानि कि उसने विजय किया है श्मशान को। अब वह किन पर शासन करेगा-लाशों के ढेर पर? उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। सम्राट के अन्तराल में सोयी आत्म चेतना अँगड़ाइयाँ ले रही थीं।
वह शिविर में लौट आया। अब उसके मन में आज से सात-साल पहले के दृश्य घूम रहे थे। भाइयों के साथ लड़े गए भीषण युद्ध-नर संहार। विनाश ध्वंस-हँसते को रुलाना, जिंदे को मारना, मरे को कुचलना-यही किया था, उसने अब तक। यही था अब तक का उसका कर्तृत्व, जिसके बलबूते वह वीर कहलाने की डींग हाँकता आया था। पर अब........?
शिविर उखड़ रहे थे। वह मगध की ओर जा रहा था। पर मन में था परिवर्तन का संकल्प, क्रूरता को वीरता में बदलने का। न उसे बूढ़ा भूल रहा था और न कलिंग के लाखों लोगों का सर्वनाश। वह रक्त की प्रबल धारा हताहतों का आर्तनाद। अन्दर की बेचैनी की प्रबलता बढ़ती जा रही थी।
मगध पहुँच कर उसने आचार्य उपगुप्त को बुलवाया। आचार्य आए। उसका पहला प्रश्न था- “ वीरता और क्रूरता क्या है?” “ त्रास से घिरे लोगों को बचाने, उनको सुख पहुँचाने हेतु अपने जीवन तक के मोह को तिलाञ्जलि देकर जुट पड़ने का नाम वीरता है और क्रूरता ...........। “ उन्होंने सम्राट के चेहरे की ओर देखा। कुछ रुक कर कहना शुरू किया, “ बसी हुई बस्तियों को उजाड़ देना, खड़ी फसल में आग लगा देना, शोषण उत्पीड़न के चक्र चलाना, इसी का नाम क्रूरता है।”
कैसा साम्य है- उस बूढ़े के और इस आचार्य के कथन में अशोक ने मन ही मन सोचा।
“आचार्य! मैं वीर बन सकता हूँ। “ सम्राट के स्वरों में पश्चाताप का पुट था।
“ हाँ क्यों नहीं? “आचार्य की वाणी में मृदुलता थी।” पर किस तरह?” अब वाणी में उल्लास था। “ अन्दर के दिव्य भावों को जगाकर। इन्हें जीवन के सक्रिय क्षेत्र अर्थात् आचरण व व्यवहार में उतार कर। “
“ उदार आत्मीयता-अपनत्व का विस्तार फिर कोई पराया नहीं रह जाता। दूसरों की तकलीफें स्वयं को निष्क्रिय निठल्ला बने नहीं रहने देती। पैर उस और स्वयं बढ़ते, हाथ सेवा में जुटे बिना नहीं रहते ..... एक और चिन्ह भी है।”
“ वह क्या?” अब स्वरों में उत्सुकता थी।
“ स्वयं के जीवन का स्तर समाज के सामान्य नागरिक जैसा हुआ या नहीं? यदि मन के किसी कोने में अभी वैभव को पाने का लालच, सुविधा संवर्धन की आतुरता है, बड़प्पन जताने, रौब गाँठने की ललक है, तो समझना चाहिए कि भावों का स्रोत अभी खुला नहीं है। “
“ भावों का स्रोत खुले और अविरल बहता रहे, क्या इसके लिए कोई उपाय नहीं है?”
“ हाँ क्यों नहीं। “
“ क्या? “
“ स्वाध्याय और सत्संग। युगावतार भगवान तथागत के चिन्तन को पियो। जिन्होंने उनके चिन्तन के अनुरूप जीना शुरू किया है, उनका सत्संग करो। रोज न सही तो साप्ताहिक ही सही। ऐसे परिव्राजकों की आज बड़ी संख्या तैयार की जा रही है, जो घूम-घूम कर जनमानस को युग की भावधारा से अनुप्राणित करें। उनके मर्म को स्पर्श कर सम्वेदनाओं को उभारें। “
बत समझ में आ गयी। उसके उत्साह का पारावार न था। चण्ड अशोक के कदम अब अशोक महान की ओर बढ़ने लगे। उसने भली-भाँति जान लिया था, कि करुणा की दिव्यता महत्त्वाकाँक्षाओं की मलीनता दोनों परस्पर विरोधी हैं। जहाँ एक रहेगी वहाँ दूसरे का ठहरना टिकना बिलकुल असम्भव है।
अशोक की जाग्रत आत्मचेतना ने महत्त्वाकाँक्षा को ठोकर मारकर स्वयं के व्यक्तित्व से बाहर निकाल फेंका था। क्रूरता को तोड़-मरोड़ कर कूड़े के ढेर में डाल दिया और जुट गया शान्ति और सद्भाव की भावधारा बहाने में। साम्राज्य का संचालन ही नहीं व्यक्तित्व जीवन भी अब अपने परिवर्तित रूप में था। सभी के कहने-सुनने-मना करने के बाद भी उसने अपनी आवश्यकताओं को कम कर लिया। साम्राज्य का सबसे गरीब अधिकतर जिस तरह जीता था सम्राट उसी तरह जीने लगा, ऐतिहासिक विवरण के अनुसार उसकी कुल सम्पत्ति थी, एक चीवर और एक सुई, केशों के लिए एक छुरा, जल छानने के लिए एक छलनी और एक तूंबा जो उसका अभिन्न संगी बना। उसने एक शिलालेख में लिखवाया-” मैं सभी जनों के मंगल के लिए कार्य करूँगा। सभी के हित में मेरा हित है इससे मैं कभी विमुख न रहूँगा। जीवन की सफलता के लिए यही सूत्र है।”