Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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खेलो ऐसी होली, जो मिटा दे मन के मलाल को
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होली के रंगों की फुहार बरसी और हम सब उसमें भीगे, फिर भी बदरंग रह गए। जिन्दगी के अनगिनत कोनों में उदासी छुपी रह गयी। फाग के गीतों के साथ, गूँजती ढोलक के थापों की गमक उसे पूरी तरह मिटा न सकी। यूँ तो पर्वों का मतलब ही होता है, कुछ विशेष खुशी, उल्लास और उत्साह का कुछ खास अन्दाज। फिर होली की तो रंगों का इन्द्रधनुषी समाँ साल दर साल इसमें नए रंग जोड़ता रहा है। इसका इतिहास, इतिहास से भी पहले का है। अर्थात् उस समय से यह पर्व हमारी इनसानी जिन्दगियों से जुड़ा रहा है, जबकि इतिहास लेखन की शुरुआत भी न हुई थी।
और जब से इनसान ने लिखना शुरू किया, उसने सबसे पहले उन घटनाओं-किम्वदन्तियों को सहेजना शुरू किया, जो कहने-सुनने में भले बच्चों की कहानियाँ लगें, लेकिन उनके अन्दर जिन्दगी की दशा और दिशा को समझने वाले मर्म सँजोये हैं। होली के संदर्भ में हिरण्यकशिपु और प्रहलाद की प्रचलित लोक कथा से सभी परिचित हैं। भावनाओं और सम्वेदनाओं के अस्तित्व को अपने क्रूर प्रहारों और कुटिल चालों से समूल नष्ट करने में जुटे हिरण्यकशिपु पौरुष’ नृसिंह’ सक्रिय हुआ।
अपने अस्तित्व के लिए छटपटाती भावनाओं की प्रहलादी चीत्कारें आज भी हैं, लेकिन इन्हें सुने कौन ? सुबह के अखबार का पन्ना, रेडियो सेट से उभरती समाचार की ध्वनि, टेलीविजन के दृश्य, कहीं न कहीं किसी न किसी जगह बमों के धमाकों की खबर देते हैं। यह खबर आहट होती है, किसी सुहागन के विधवा होने की या किसी माँ की गोद सूनी होने की। अथवा इस बात से हमें चौंका देती है कि किसी का हंसता-खिलखिलाता घर आँसुओं में डूब गया। फुहार तो उड़ी पर वह खून की थी। हमें भीगने का अहसास तो हुआ, लेकिन टेसू के रंग से नहीं, मानव रक्त से। इस अहसास की सिहरन हमें दहशत में डुबाए बिना नहीं रहती।
धधकती ज्वालाओं की लपटें अब वर्ष की फाल्गुन पूर्णिमा का इन्तजार नहीं करती। इन्हें अब गाँव के आँगन के आँगन-चौबारे से लेकर देश और दुनिया के विशालकाय परिसर में कहीं भी देखा जा सकता है। हाँ, इन लपटों में मनोमालिन्य पार पारस्परिक वैर-विरोध हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियां न जलकर सम्वेदनाओं की सम्पत्ति स्वाहा होती है। प्राचीन शास्त्रकारों ने तो “होलास्ति समता पवस्तद्दिनेऽयोन्यस्य वै असमताऽसुरत्वस्यदाहः कार्यो होलिकावत्” अर्थात् उस दिन निश्चय ही आपस की असमता रूप असुरता का होली की तरह दाह करना चाहिए की बातें कहीं हैं। लेकिन कहीं में किसी नवविवाहिता को जला डाला। अथवा सनसनीखेज समाचार इस बात का होता है कि तन्दूर की भट्टी में कोई सुकोमल काया बेरहमी से जला दी गयी। यही नहीं, राष्ट्र भक्ति के जिन गीतों की तोता रटन्त करते हम नहीं थकते, उसी देश को धर्म जाति, सम्प्रदाय के नाम पर बड़ी बेदर्दी से जलाए चले जा रहे हैं।
ये सर्वनाशी ज्वालाएँ अपने पीछे जो छोड़तीं हैं, वह यज्ञ भस्म नहीं चिता भस्म होती हैं, वह यज्ञ भस्म नहीं सद्भावनाओं की दुर्गन्ध उड़ती है। जिसकी छुअन मन को एक अनजाने खौफ से-अनचीन्हीं दहशत से भर देती है। ऐसे में होली का गुलाल भी हमारे मन के मलाल को न धो सका हो तो आश्चर्य क्या ? हमारे कर्म हमको रह-रह कर चौंकाते रहते हैं ? मन में उमड़ते विचार एक के बाद एक-ढेरों सवालों की झड़ी लगा देते हैं। आखिर केसर की क्यारियों में बन्दूकों की फसलें क्यों उगने लगी ? मस्तानों की भूमि पंजाब-आतंक के गाँव में कैसे बदल गयी ? त्यागी-तपस्वी ऋषि-मुनियों का देश आखिर घोटालों का देश कैसे बन
गया ? अपने देश ने ढेरों उतार-चढ़ाव देखे हैं। धरती के इस टुकड़े को जितना तपना और सहकर भी इसकी उमंग नहीं मिटी, होली के रंग इतने बदरंग कभी नहीं हुए।
यहाँ अरब आए, यूनानी, ईरानी आए। मुस्लिम-पारसी न जाने कितनी जातियाँ संस्कृतियाँ आयीं और होली के रंगों में सराबोर होती चली गयीं। कवि गुरु श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इन्हीं भावों को अपनी एक कविता में बड़े मार्मिक शब्दों में गुंथा है-
हे भोर चित्तपुण्य तीर्थों जागों रे धीरे, एई भारतेर महामानवेर सागर तीरे। केह नाहि जाने, कार आहृने कत मानुषेर धारा, दुर्घर स्त्रोते एलो कोपा हाते, समुद्रे हलो हारा। हे थाय आर्य, हे था आनार्य-हे थाय द्राविण चौन, षक-हूण दल, पठान मोगल एक देहो हलो लीन। रणधारा वाहि, भेदि भरु पथ, गिरि पर्वत यारा एसेछिलो सब। तारा मोर माजे सवाई विराणे केहो नहे-नहे दूर, आभार षोणिते स्येछे ध्वनित तारि विचित्र सुर॥
आशय इसका यह है कि भारत देश महा मानवता का पारावार है। ओ मेरे हृदय! इस पवित्र तीर्थ में श्रद्धा से अपनी आँखें खोलो। किसी को भी ज्ञात नहीं है कि किसके आह्वान पर मनुष्यता की कितनी धाराएँ दुर्वार वेग से बहती हुई कहाँ-कहाँ से आयीं और इस महासमुद्र में मिलकर खो गईं। यहाँ आर्य है, यहाँ अनार्य है, यहाँ द्रविड़ और चीनी वंश के भी लोग हैं। शक-हूण, यवन और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आए और सबके सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गए। समय-समय पर जो लोग रण की धारा बहाते हुए एवं उन्माद और उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर एवं पर्वतों को लाँघ कर इस देश में आए थे, उनमें से किसी का भी अब अलग अस्तित्व नहीं है। वे सबके सब मेरे भीतर विराजमान है। मुझ से कोई भी दूर नहीं हैं। मेरे रक्त में सबका सुर ध्वनित हो रहा है।
यह भारत में मनायी जाने वाली होली के रंगों में सराबोर होने की अनुभूति से उपजी कविता है जिसमें भारतीय एकता की अद्भुत अनुभूति है। जिस देश की संस्कृति ने विभिन्न संस्कृतियों, जातियों को अपनी होली के रंग में रंग लिया आज उसी देश में यह कैसी विडम्बना उठ खड़ी हुई है कि अपने ही परायों का सलूक करने लगे हैं। घर को रोशन करने वाले चिराग आज अपने ही घर को जलाने के लिए आतुर-आकुल हैं।
कहीं न कहीं कोई बुनियादी भूल जरूर हुई है और यह भूल राजनैतिक नहीं सामाजिक और साँस्कृतिक है। यह साँस्कृतिक भूल ही है जिसके कारण आज का आम आदमी अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँट कर नहीं खाना चाहता। उसे पूरी रोटी केवल अपने लिए चाहिए, बल्कि बस चले तो वह दूसरों की भी रोटियाँ छीनकर बेच डालेगा और जो पैसे मिलेंगे उनसे और नहीं तो घूँट भर शराब ही पी लेगा। यही क्यों, जिसे रोटी बाँटने में परहेज है, वह जमीन को, हवा को, पानी को काटने-बाँटने की कोशिश में जुटा है।
इस असंस्कृति को दूर करने के लिए ही हमारी संस्कृति में जहाँ तीर्थ यात्रा व तीर्थ यात्रा व तीर्थ सेवन को एक बड़े राष्ट्र की साक्षात्कार प्रक्रिया माना गया वहीं पर्वों के माध्यम से व्यक्ति और समाज को संस्कारित करने का विधान भी रचा गया था। पर्वों का यूँ सामान्य मतलब है ऋतु परिवर्तन के महत्व को समझना। ऋतुचक्र और मनुष्य के जीवन चक्र में समानता देखना और काल को प्रवाह के रूप में, एक खण्ड के रूप में नहीं, सतत् चलायमान समय की धारा के रूप में अनुभव करना।
पर्व की शाब्दिक व्याख्या की जाय तो इसका अर्थ है गाँ सन्धिकाल तो इसका अर्थ गाँठ सन्धिकाल। जैसे बाँस का एक कल्ला फूटता है तो एक वोर छूटता चला जाता है। पर्व इस तरह की वृद्धि के सूचक हैं तथा दो समय विशेष प्रक्रिया विशेष की मिलन की अवधि में आ रहे हैं। इन क्षणों में जहाँ नव सृजन की सम्भावनाएँ हैं वहीं विकृतियाँ भी पनप सकती हैं। इन विकृतियों की समाप्ति एवं नव सृजन का कौशल कर दिखाना पर्वोत्सवों का प्रयोजन रहा है। होली इस क्रम में भावनाओं के उभार और उफान का समय है। इन्हें सुनियोजित और सुसंस्कृत करना सदियों से इसका प्रयोजन रहा है। पर्वोत्सवों से समाज का स्तर ऊँचा उठाने की हमारी साँस्कृतिक परम्परा रही है। जन-जन की भावनाओं की परिष्कार के हेतु, बहुरंगी व्यक्तित्व के बहुआयामी बहुविध पक्षों के प्रकटीकरण हेतु देव सुसंस्कृति में इनका विधान किया गया था।
ऋषिगण जानते थे कि मनुष्य असामाजिक व विक्षिप्त भावनाओं के दमन व विकृत होने से ही होता है। यदि भावनाओं को परिष्कृत उल्लास में बदल कर समूह की शक्ति का उसमें समावेश किया जा सके व उसे आध्यात्मिक उत्सव का रूप दिया जा सके तो इससे समाज स्वरूप बना रहेगा। आज के ख्यातिनामा सामाजिक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ प्रो. आर. डी. लेंग का भी यही मानना है। उन्होंने “इण्डिया : ए लैण्ड ऑफ फेस्टिवल” में भारतीय परम्पराओं के मनोवैज्ञानिक महत्व को सिद्ध किया है। इस क्रम में उन्होंने होली को कुण्ठा-हीनता, एवं अन्यान्य मनोग्रन्थियों से छुटकारा देने वाले पर्व के रूप में चित्रित किया है। स्वस्थ एवं स्वच्छ मनोवृत्ति को विकसित करना ही इसका मकसद रहा है।
पर्व की जो परम्परा जनश्रद्धा को उल्लासपूर्ण तरीके से विवेक सम्मत मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए थी। उसमें आज विसंगतियाँ ही विसंगतियाँ भर गयी हैं। यही कारण है कि रंगों का त्योहार बदरंग हो गया। मस्ती पर बदमस्ती हावी हो गयी। शील का मिलन अश्लील घात कर बैठता है। शराफत के रंगों को वासना की कालिख मैली कर रही है। नशों को सिरों पर ताज की तरह सजा लिया गया है। हमारे जीवन में इतनी विसंगतियाँ क्यों ? हमारी खुशियों की हत्या क्यों ? हमारी इनसानियत शर्मिंदा क्यों ? पर्वों का वह दस आनन्द बेमजा और बदरंग क्यों ? जीने की रफ्तार कामनाओं की चाह-चाहे जितनी भी तेज क्यों न-हो ये समस्या हमें हल करनी ही होंगी। पर्वों के मर्म को भूल जाने का ही दुष्परिणाम है कि विकृतियों विसंगतियों का हिरण्यकशिपु भावनाओं के प्रहलाद को मिटा देने के लिए सचेष्ट है। उसकी इस कुत्सित चेष्टा को मिटा पाना तभी सम्भव है, जब ‘नृसिंह’ का प्रचण्ड पराक्रम सक्रिय हो। इस महापुरुषार्थ के जागते ही वह हुँकार उठेगी, जो स्वयं से और औरों से कह सकेगी, समाप्त कर दो इस अश्लीलता के नंगे नाच को जिससे हमारी मातृ शक्ति कलंकित होती है। मत खेलो खून की होली जो हमारे राष्ट्र को टुकड़ों में बाँटती है। मत उछालो एक दूसरे पर गंदगी, कीचड़ जो हमारे राष्ट्र के मानचित्र को गंदा करती है। सारे द्वेष-दुर्भावों सारी संकीर्णताओं के बन्धनों को को तड़ातड़ तोड़ दो और निश्छल प्रेम की रसधार बहा दो। ऐसी होली खेलो, सारा राष्ट्र तरंगित हो उठे। ऐसा हो सका तभी होली का गुलाल हमारे मन के मलाल को मिटा सकेगा।