Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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गंगाधर के मानस मैं कैसे “गीता रहस्य “ प्रकटा
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लोगों का कहना है कि वे पागल हैं। उन्होंने शहरों की सड़कों पर नंग-धड़ंग घूमने वाले पागल देखे हैं। बड़बड़ाते चले जाने वाले और फिर चाहे जिधर लौट पड़ने वाले पागल देखे हैं, ढेरों चिथड़े तथा कूड़ा-करकट समेटते चलने वाले पागल देखे हैं, गालियाँ देने वाले और लोगों पर पत्थर फेंकने वाले पागल एवं गुमसुम रहने वाले पागल भी देखे हैं। किन्तु, यदि देश के पागल चिकित्सालयों के इंचार्ज ने भी न देखा होगा।
पागल चाहे जैसा हो, उसकी आँखें अद्भुत कुछ गोलाई से लिए कुछ विभ्रान्त सी कुछ घूमी हुई सी रहेंगी। उसके चेहरे पर एक रूखेपन का भाव रहेगा। जबकि उनके विशाल सुन्दर नेत्रों में बालक की सरलता और माता का स्नेह साकार हो गया है। उनकी आंखों से जैसे स्नेह और शांति की हर पल बरसात होती रहती है। उनका सुन्दर चेहरा नित्य प्रसन्न, कुछ गम्भीर सा एकरस बना रहता है और वे एक जैसे अपनी मस्त गति से जैसे किसी दूसरे ही आनन्द लोक में हों। कभी वह किसी रोते बच्चे को पुचकारने लगेंगे और बच्चे भी उनको देखते ही हँस न पड़े, यह तो कभी नहीं हुआ।
कभी वह किसी लंगड़ाते कुत्ते के पिल्ले के पैर की चोट की देखभाल करने लगेंगे। कभी किसी निराश्रित पर अपना प्यार लुटाते दिखेंगे। दुखियों -पीड़ितों , अनाश्रितों के लिए सौहार्द सदा उमड़ा पड़ता है। फिर चाहे वे मनुष्य हो या मनुष्येत्तर प्राणी। इसी से लोगों ने उन्हें पागल समझ लिया है।
उन्हें किसी ने कुछ माँगते नहीं देखा। कोई कुछ पूछे तो तनिक मुस्कुराकर आगे चल देंगे। उनके होठ हिलते रहते हैं, पता नहीं क्या कहते रहते हैं वे ,शायद उनका अनवरत जप चलता रहता है। लेकिन उनको बात चीत करते देख लेना कठिन ही रहा है अब तक ।
उनको नगर की अपेक्षा एकान्त खेतों की ओर ही अधिक देखा जा सकता है नगर में तो बच्चे के प्रेक्षागृह तो कभी कभार आ जाते हैं। उन्हें कुछ भी न दें ,भोजन तो वे बहुत थोड़ा ही लेते हैं। संभवतः पेट भर जाने पर वे लेना बन्द कर देते हैं।
उस दिन उन्हें भी लगा कि शायद वे पागल ही हैं। एक बिल्ली खेत में मूर्छित पड़ थी। उसे सम्भवतः सांप ने काट लिया था। वे कुछ उसकी नाक से बार-बार सहसा चेतना में आती थी, अर्धचेतना में बौखलायी सी पंजे मारती और फिर मूर्छित हो जाती। उसने अपने नाखूनों से उनके हाथ, पैरा खरोंच डाले थे, लेकिन वह लगे थे उसे वह जड़ सुँघाने में। उन्होंने कई बार उनको मना किया पर जैसे उन्हें सुनायी ही नहीं दिया। अन्त में बिल्ली उठी सम्हली और भाग गयी। वे उसे देखते रहे। उनके मुख पर वही मुसकराहट आयी और वे एक ओर चल पड़े। उनके हाथों-पैरों की खरोंचों से निकलते रक्त ने उन्हें भिगो दिया है, इसका जैसे उनको ध्यान ही नहीं था।
इन दिनों एक हलवाई की उन पर बड़ी श्रद्धा उमड़ पड़ी थी। उसका कहना था कि वे महात्मा हैं। हलवाई बात झूठी है, यह कहने का साहस तो किसी को नहीं है। हलवाई उन्हें इधर-उधर से यदा-कदा ले आता है। उसने उनके लिए एक कमरे में सुकोमल गद्दा तख्त पर डाल रखा था। उन्हें साफ कपड़े पहना कर चंदन, पुष्प माला आदि से उनकी पूजा करने लगता, जैसे वह कोई मन्दिर का देवता हो। बस इतना ही। इस पूजा और भोग में उन्हें कुछ रस हो, ऐसा उनके चेहरे एवं व्यवहार को देखकर कहना कठिन ही है।
एक दिन पास से एक शराबी की आवाज सुनाई
पड़ी। वह चिल्ला रहा था, ‘तू यहाँ से भाग जा’ नहीं हड्डियाँ तोड़ डालूँगा, यह गालियां बक रहा था। हाथ के डण्डे से धड़ा-धड़ किसी को पीटे जा रहा था। वहाँ एक छोटे बच्चे के रोने का शब्द भी था। सारे मुहल्ले को मालूम है कि वह शराबी है। जब पीकर आता है, अपनी सीधी पत्नी को अकारण क्रूरता पूर्वक पीटता है। लेकिन उसकी पत्नी इस प्रकार शांत तो नहीं रहती। वह तो रोती है, चिल्लाती है तब क्या मूर्छित हो गयी वह ? यह दुष्ट कहीं बच्चे को ही न मारे डालता हो। यह सोचकर भागे-भागे वहाँ पहुँचे। पहुँचने पर पता चला कि वह शराबी व्यक्ति जिसे पीटे जा रहा था, वह और कोई नहीं हलवाई के महात्मा जी ही थे, जिन्हें कुछ लोग पागल भी कहते थे। पता नहीं ये कब और कैसे यहाँ पहुँच गए। मदान्ध शराबी डण्डे से पीटता जा रहा था, इस प्रकार जैसे किसी पत्थर या लकड़ी को पीट रहा हो। भुजाओं पर पीठ पर मोटी-मोटी काली धारियाँ उमड़ आयी थीं, लेकिन जैसे उन्हें इसका ध्यान ही नहीं था। वह तो बस उसी मारने वाले के बच्चे को गोद में लिए छिपाए उसे सम्हाल रहे थे। लड़के की नाक से खून बहता नजर आ रहा था। लगता है कि पिता के मारने या गिर पड़ने से उसकी नाक फूट गयी है और इन्हें उसकी नाक का रक्त बन्द करने के ध्यान में अपने शरीर पर पड़ती चोट का ध्यान नहीं है।
यह दृश्य देखकर उनसे रहा न गया। उन्होंने उस शराबी के हाथ से डण्डा छीनकर उसी के दो-चार जमाने को हुए, कि उन्होंने थोड़ा उलाहने की नजर से उनकी ओर देखते हुए कहा-ऐसा नहीं करते गंगाधर, यह तो शराबी है, लेकिन तुम तो समझदार हो। पहली बार उनके मुख से नाम सुनकर एक आत्मीयता की अनुभूति हुई। उन्होंने डण्डे को दूर फेंक दिया। बच्चे की माँ कहीं बाहर गयी थी। माता को आते देख बच्चा दौड़ गया।
इतने में हलवाई उन्हें ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहाँ पहुँचा। पास में खड़े एक सज्जन ने अपनी समझदारी दिखाते हुए उससे कहा-रामदीन! तुम्हें भी क्या सनक है, उस पागल के पीछे पड़े हो। तुम्हें क्या लाभ हुआ उसकी सेवा से। इससे तो अच्छा होता।’
पता नहीं क्या-क्या कहना था उन्हें, किन्तु रामदीन हलवाई को वह सब सुनने का अवकाश नहीं था और न इतना धैर्य था उसमें। बड़ी नम्रता से उसने कहा-’वे पागल हों या महात्मा, उन्होंने मेरे लड़के को मरने से बचाया है। मैं उनकी सेवा किसी लाभ के लोभ में नहीं करता। मेरे भाग्य में जो होगा, उतना ही मुझे मिलेगा।
यह सभी को पता है कि रामदीन के एक ही पुत्र है। अकेली सन्तान पर माता-पिता का ममत्व एकत्र हो उठता है। बाजार में एक दिन दो लड़ते साँडों की चपेट में वह लड़का आ गया था। पता नहीं कहीं से वह आ निकले, और दौड़ कर लड़के को उठा लिया। उन्हें थोड़ी बहुत चोट जरूर लगी लेकिन बच्चे की जान बच गयी। रामदीन के मन में उनके प्रति असीम कृतज्ञता थी।
‘महराज! टाप मुझ पर कृपा करें।’ एकान्त में एक दिन गंगाधर उस पागल से लगने वाले सन्त के समीप गए। उनको आज यह निश्चय कर ही लेना था कि वे पागल हैं या साधु। उन्होंने केवल उनकी ओर नजर उठाकर देखा। उस नजर में कितना स्नेह था, यह कहना कठिन है। सम्भवतः वह कम बोलते हैं। उनके जप में बाधा न पड़े, इसलिए शायद उन्होंने बोलना कम कर दिया होगा। उनकी दृष्टि-रही थी-तुम क्या चाहते हो ?
मैं कुछ चाहता नहीं, केवल जानना चाहता हूँ। युवा गंगाधर ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। उनके अधरों पर जो मन्द स्मित आया, वही शायद अपनी बात कहने की अनुमति थी। ‘आपने उस नोचने बिल्ली को जीवन दिया, उस पीटने वाले शराबी के बच्चे को स्नेह दिया और इस सेवा करने वाले रामदीन के पुत्र की प्राण रक्षा की, यह तो कोई विशेषता की बात न हुई। यह शराबी भी क्या रामदीन के समान ही आपकी कृपा का अधिकारी है ?’
वे खुलकर हँस पड़े। बालकों की भाँति इस प्रकार उनका यह उन्मुक्त हास्य आज पहली बार देखने को मिला और पहली बार ही उन्होंने कदाचित किसी को इस योग्य माना कि अपने पागलपन का नाटक न करके कोई संकेत करें। उन्होंने गंगाधर को वहीं रहने का संकेत किया और एक ओर चले गए।
पता नहीं क्या चमत्कार देखने को मिलेगा। स्वभाव से आस्तिक गंगाधर को यह पता था कि ऐसे सन्त कोई भी चमत्कार दिखा सकते हैं। वह उस सम्भावित चमत्कार के लिए पूरी तरह उत्सुक थे।
‘वे आवेंगे या नहीं ?’ पर्याप्त विलम्ब होने पर मन में हलकी सी घबराहट हो आयी। इस प्रकार काम-धाम छोड़कर एक खेत की मेंड़ पर बैठे रहना भला किसे प्रिय लगेगा। कब तक कोई इस तरह प्रतीक्षा करता रहता। उन्हें अपने पर कुछ-कुछ झल्लाहट होने लगी। तभी वह दूर से आते दिखाई पड़े। वह वैसे ही अलमस्त चाल से चले आ रहे थे। लेकिन उनके हाथों की अंजलि बनी हुई थी। दूर से ही जानने की उत्सुकता जगी-’क्या है उसमें ?’ उन्हें देर होनी ही चाहिए थी। लवंगलता के नन्हे-नन्हे पुष्प एक अंजलि
भरकर चुन लेना दस-पांच मिनट का काम तो है नहीं। वे आए और सुरभित फूलों को उन्होंने उनके सिर पर उड़ेल दिया। अब अपना दाहिना हाथ इस प्रकार उनके मुख के पास रख दिया कि वह उसे सूँघ सकें। वह मधुर मोहक सुरभि नासिका से मस्तिष्क तक भर सी गयी। इसी प्रकार उन्होंने बायाँ हाथ उनकी नासिका के समीप कर दिया था। फिर वे खुलकर हंस पड़े।
गंगाधर कुछ पल खड़े सोचते रहे। उनकी दृष्टि जमीन में बिखरे उन छोटे-छोटे फूलों पर गयी। अब भी वे वायु को अपनी सुहावनी गन्ध से भर रहे थे। तभी वह बोल पड़े इनका काम विश्व को सुगन्ध का दान करना है। दक्षिण या बाम (अनुकूल या प्रतिकूल) का भेद ये नहीं करते। जो इनके संपर्क में आता है, उसी को उनसे सुरभि प्राप्त होती है।
फूलों की सी इस समता को अपने व्यवहार में उतार लाना ही योग है। भगवान श्री कृष्ण ने तभी तो गीता में कहा है-’समत्वं योग उच्यते।’ उनके इस के साथ ही गंगाधर के मानस में गीता रहस्य प्रकट हो गया। कालान्तर में जब वह गंगाधर के मानस से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हो गए उन्होंने इस रहस्य को जनमानस के लिए ‘गीता रहस्य’ के रूप में विस्तार से लिपिबद्ध किया।