Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरुवर का वासंती संदेश-परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
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(विगत अंक में दी गयी अमृतवाणी का उत्तरार्ध)
15 फरवरी 1978 के पावन दिन पूज्यवर द्वारा दिया गया उद्बोधन विगत अंक में पूर्वार्ध के रूप में परिजनों ने पढ़ा इस ऐतिहासिक प्रवचन का उत्तरार्ध इस अंक में प्रस्तुत है। इस समग्र प्रवचन में पूज्यवर के इस विराट अभियान जिसे युग-निर्माण, प्रज्ञा-अभियान नाम से जाना जा सकता है का मर्म समा गया है। ब्रह्मवर्चस के शुभारंभ की वेला में दिया गया यह उद्बोधन भावी मनुष्य के नवनिर्माण का संविधान भी एक प्रकार से बन गया है। पढ़ें, अमृतवाणी।
साथियों, ब्रह्मवर्चस प्रशिक्षण के उत्तरार्ध में एक और तरह का आदमी ढालना चाहते हैं तपस्वी किसे कहते हैं? “तपस्वी”। बेटे, तपस्वी उसे कहते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन को ठीक कर लेता है उसका दूसरा नाम है -ब्राह्मण, ब्राह्मण किसे कहते हैं ? ब्राह्मण कोई कोई कौम नहीं होती, जाति नहीं होती। जाति ता न जाने किसने बना दी। ब्राह्मण एक वर्ग होता है, एक तबका होता है। ब्राह्मण उस तबके को कहते हैं जो अपने मन को काबू में रख करके अपने जीवन की विधि और प्रक्रिया को ऐसे व्यतीत करता है जिसको सिद्धांतवादी जीवन कहना चाहिए। कहते हैं कि ब्राह्मण अपने आप तक सीमित रहता है, अपने को ठीक करने में लगा रहता है। अपने आपको सही करता है, अपने आपको ही संस्कारवान बनाता है। तो क्या यह काफी नहीं है, नहीं, बेटे इतना ही काफी नहीं है। यह तो पहला अध्याय है, अपने आप को सही बनाना, लेकिन जब मैट्रिक हो जाय तो फिर ग्रेजुएट भी होना चाहिए।
ग्रेजुएट कौन होता है ? ग्रेजुएट तपस्वी होता है। तपस्वी किसे कहते हैं ? संत को तपस्वी कहते हैं। संत किसे कहते हैं ? जैसे मक्खन के ऊपर जब धूप पड़ती है तब वह पिघल जाता है, ठीक उसी तरह जो व्यक्ति अपने युग की-अपने समय की, मनुष्य जाति की, समस्त प्राणियों की पीड़ाओं को देखकर के पिघल जाता है, उसे संत कहते हैं। संत रोता नहीं है, वरन् उसके भीतर एक हूक उठती है, टीस उठती है, संकल्प जाग्रत होता है और पीड़ा एवं पतन के रोने के जो कारण थे, उनको दूर करने के लिए वह कष्ट उठाता है। वह उनसे मोर्चा लेने के लिए सीना तानकर खड़ा हो जाता है। रामचन्द्र जी तपस्वी का जीवन जी रहे थे। एक बार उन्होंने ऋषियों की हड्डियों का एक समूह देखा ता उनकी आँखों में आंसू आ गए तपस्वियों के आँसू कैसे होते हैं? उनके आँसू में से टपकती है आग-ऐसी आग कि जिसके ऊपर मुसीबत है उसे दूर करने में हमको मदद के लिए तन कर खड़ा हो जाता है। रामचन्द्र जी ने ऋषियों की हड्डियों के समूह को देखकर भुजा उठाकर प्रण किया कि अब इस पृथ्वी पर राक्षसों को नहीं रहने दूँगा। या तो मैं मरूंगा या उनको मार कर छोड़ूंगा-”डू और डाई” या तो हम करेंगे या मरेंगे। मित्रों! इतना साहस जिसके अन्दर होता है वह आदमी तप करने, कष्ट उठाने के लिए तैयार हो जाता है। उसे हम तपस्वी कहते हैं।
तपस्वी कैसे होते हैं ? तपस्वी उस प्रकाश स्तंभ की तरह होते हैं जो एकाकी समुद्र के बीच में खड़ा रहता है और उसके ऊपर एक बत्ती सदैव जलती रहती है चाहे रात हो, या ठण्डक हो या बरसात हो। यह बत्ती बताती रहती है कि जहाजों को नावों को इधर से आना चाहिए, उधर से नहीं विजधर चट्टान है वहाँ जोखिम है, आप वहाँ डूब जायेंगे, टक्कर खा जायेंगे आप दूसरे रास्ते से आइये। प्रकाश स्तंभ यही बताते रहते हैं। तपस्वी भी एक प्रकार के प्रकाश स्तंभ हैं। वे स्वयं मुसीबत उठाते रहते हैं और अकेले खड़े रहते हैं। उन्हें न सिनेमा देखने का मौका है, न खाने-पीने का शौक है, न कोई यार-दोस्त है, न चौपड़ है न शतरंज। वे अकेले खड़े रहते हैं और रास्ता बताते रहते हैं। इन्हें हम तपस्वी कहते हैं। इनके भीतर एक हूक उठती है, दर्द उठता है कि हमको दूसरों के दुख दर्द को दूर करने के लिए, भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए क्या करना चाहिए। फिर उनकी गति-विधियों में फर्क पड़ जाता है? जब वे ऊपर आसमान की ओर देखते हैं तो कहते हैं कि भगवान की बनायी हुई मूल्यवान चीजें किस तरीके से जीवन यापन करती हैं, हमको भी इसी तरीके से जीवन यापन करना चाहिए। वे इसका अभ्यास करते हैं कि भगवान के दूत किस तरीके से काम करते हैं और हमें किस तरह से करना चाहिए। समुद्र में से पानी का गट्ठर लादकर के बादल रवाना होते हैं और दौड़ते हुए कहाँ-कहाँ तक चले जाते हैं जहाँ खेत सूखे पड़े हुए है। बादल अपनी हस्ती को, अपने परिश्रम के मेहनत को बिना कीमत के सूखे खेतों में गलाते हुए चले जाते हैं। ये कौन हैं ? ये संत हैं और तपस्वी है। तपस्वी जिनका काम ही है कि हम अपने आपका नुकसान उठायेंगे, पर समाज को, दुखियारों को, पिछड़े हुओं को, पतितों को सुखी बनाने के लिए अपने आपको हम खतम कर देंगे, खपा देंगे। वे ऊपर को देखते हैं तो उनकी हिम्मत बड़ी हो जाती है और उसी तरह के वे काम करने लगते हैं।
देवता बराबर काम करते रहते हैं। यह जमीन, यह आसमान यह संसार देवताओं से रहित नहीं है, तपस्वियों से रहित नहीं है। जमीन की ओर निगाह डालकर देखते हैं तो मालुम पड़ता है कि यहाँ तपस्वियों की कमी नहीं है। यह जमीन वजन उठाती है, टट्टी पेशाब उठाती है, लात खाती है फिर भी अपने भीतर से अनाज उगाती है, घास उगाती है, फूल पैदा करती है। यह अपने भीतर से लोहा पैदा करती है, सोना, चाँदी, रसायन आदि हर चीज देती चली जाती है। ये कौन है ? तपस्वी है। संत को चारों ओर तपस्वियों की परंपरा दिखाई पड़ती है। तपस्वियों की वजह से ही दुनिया जिन्दा है। जो दुनिया में खूबसूरती है, खुशहाली है, आनन्द है,शराफत है, अच्छाई है, केवल तपस्वियों की वजह से जिन्दा है। कौन-कौन तपस्वी है ? तपस्वी मनुष्य भी हो सकते हैं, लेकिन दुनिया में तपस्वियों की बहुत सारी सत्तायें हैं जो दुनिया में शांति कायम रखती हैं। दुनिया में जो खुशहाली आती है वह तपस्वियों के बलबूते पर आती है। पेड़ों की ओर जरा निगाह डाल कर देखिये-वह हमेशा फल पैदा करता है। पत्ता जानवरों को खिला देता है, अपनी छाया में पक्षियों को विश्राम देता है। अपने फलों को जमीन पर गिराता है। कौन हैं ये ? तपस्वी हैं।
तपस्वियों की बिरादरी अभी दुनिया में से खतम नहीं हुई है। तपस्वी जब निगाह उठा कर देखता है तो नदियाँ लहलहाती हुई दिखती हैं और प्यासों की प्यास बुझाने, पक्षियों को पानी पिलाने, खेतों की सिंचाई करने का काम करती हैं। तपस्वी जब घर आता है तो एक और बात देखता है- अपनी माँ को और अपनी धर्म पत्नी को। माँ कौन है ? तपस्विनी है जिसने अपने रक्त को-माँस को, हड्डियों को गलाकर के अपने बच्चे के लिए सौंप दिया और अपनी छाती का लाल रक्त सफेद रंग के दूध में बदल कर अपने बच्चे को पिला दिया। ये कौन है ? कोई दाम नहीं लिया, वरन् अपने प्यार की वजह से अपने को न्यौछावर कर दिया। माँ तपस्या की मूर्ति होती है और कौन होती हैं तपस्या की मूर्ति- निगाह उठाकर देखते हैं तो धर्मपत्नी-दूसरी तपमूर्ति नजर आती है। चौबीसों घंटे काम करने वाली , प्रेम देने वाली, श्रम करने वाली सेवा करने वाली, अपने शरीर का रस निचोड़ कर देने वाली, सारी जीवन और अपनी महत्वकाँक्षाओं को अर्पित कर देने वाली और बदले में गालियाँ खाने वाली-ये कौन है ? ये तपस्विनी है। यदि यह तपस्वी न होती तो दुनिया राक्षस हो जाती, आदमी पिशाच हो जाता और उसका कहीं ठिकाना न रहता। इसलिए तपस्विनी है-मेरी माँ, तपस्विनी है धर्म पत्नी, तपस्विनी है धरती। तपस्वी हैं पेड़ बादल, घास सब जगह तपस्वियों की बिरादरी है। सच्चा तपस्वी अपनी सारी जिंदगी को लोकहित के लिए-देश के लिए, श्रेष्ठ कार्यों को पूरा करने के लिए खर्च कर डालता है। तपस्वी वे नहीं हैं जो नंगे बैठे रहते हैं और धूनी रमाते हैं। वे और कुछ हो सकते हैं, पर तपस्वी नहीं।
तपस्वी अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी कष्ट उठाते हैं, लेकिन किसलिए उठाते हैं, यह आप लोगों को मालूम होना चाहिए। हमारी माँ एकादशी के दिन उपवास रखती थीं। उस दिन कुछ भी नहीं लेती थीं। दूसरे दिन द्वादशी को हम बच्चों को बुलाती थीं और जो सामग्री खाने के काम आती थीं-जैसे आटा, दाल, चावल, गुड़, घी आदि थाली में रखकर कहती थीं, जाओ बेटा, उसे मंदिर में देकर आओ। हम दे आते थे तब माँ पानी पीती थीं। क्या मतलब है इसका ? इसका मतलब यह है कि हम तपस्वी हैं और कष्ट उठायेंगे। कष्ट उठाने की वजह से जो आपने बचत की है, उसे अच्छे कामों में लगायेंगे। तू जानता है उपवास किस लिए करते हैं ? उपवास इसलिए करते हैं-पेट पर पट्टी बाँधते हैं कि अमुक दिन हम नहीं खायेंगे और उससे जो बचत होगी उसे अच्छे कामों में खर्च कर देंगे इसका नाम है - तप। हम अगले दिनों ऐसी ही पीढ़ी पैदा करना चाहते हैं जो तपस्वियों को पीढ़ी हो। तपस्वियों में क्या बात होती है ? बेटे-तपस्वी साक्षात् देवता होते हैं। वे स्वयं तो मुसीबत उठा लेते हैं, लेकिन अपने पुण्य की वजह से, तप की वजह से, अपनी शक्ति की वजह से असंख्यों का बेड़ा पार कर देते हैं अगले दिनों हम असंख्यों का बेड़ा पार करने वाले तपस्वियों की नयी पीढ़ी बनायेंगे। कैसे बनायेंगे ? क्या इसी में बना देंगे ? नहीं बेटे, इसी में तो नहीं बनाते, पर हाँ हम एक ऐसी विचारधारा, एक ऐसी कार्य पद्धति, विचार करने का ढंग और एक ऐसी फिजा पैदा करेंगे जो सारे के सारे समाज में छाती हुई चली जायेगी और लोगों की लिप्साओं को लोभ और मेह के दृष्टिकोण को बदलती हुई चली जायगी। यह आदमी को झकझोर कर रख देगी और कहेगी कि हे इंसान! तू इंसान की तरीके से जी। वनमानुषों, नर पशुओं और नर-कीटकों की तरीके से मत जी। एक ऐसी पैनी हवा उठेगी जो हर आदमी के कान पकड़ेगी और झकझोरेगी और यह कहेगी कि आपको नये युग के अनुरूप जीना चाहिए, सिद्धान्तों, आदर्शों, लोकहित एवं संसार की शांति के लिए जीना चाहिए।
ऐसे व्यक्ति पैदा करने के लिए हमने ब्रह्मवर्चस बनाया है। इसमें मन की मलीनता को धोने के लिए उपासनायें भी करायेंगे। हमारे भीतर का भगवान सो गया है-देवता सो गया है हमारे भीतर की शक्तियाँ सो गयी हैं, सिद्धियाँ सो गयी हैं, चमत्कार सो गये हैं। हमारे भीतर का आनन्द सो गया है, हमारे भीतर का शिव सो गया है। सौंदर्य सो गया है-देवता सो गया है हमारे भीतर की शक्तियां सो गयी हैं, सिद्धियाँ सो गयी हैं, चमत्कार सो गये हैं। हमारे भीतर का आनन्द सो गया है, हमारे भीतर का शिव सो गया है सौंदर्य सो गया है, भीतर की कला सो गयी है। सब कुछ सो गया है। अभी तो इस ढाँचे में कोई पिशाच, कोई भूत-मसान लाल-पीले कपड़े पहने हुए घरों में घूम जाया करता है। इस पिशाच के भीतर से ही हम देवता को जगायेंगे। इन सारे के सारे क्रियाकलापों को करने के लिए हमने ब्रह्मवर्चस बनाया है। यहाँ से हम एक विचार, एक कार्य पद्धति, प्रोसीजर पैदा करेंगे और न जाने क्या से क्या पैदा करेंगे। नये युग का आह्वान करने के लिए एक ऐसे फैक्टरी की जरूरत थी जिससे युगशक्ति का उदय किया जा सके। ब्रह्मवर्चस की स्थापना इसी के लिए की गयी है।
हमने बहुत पहले तीन घोषणाएं की थीं कि हम
व्यक्ति निर्माण के लिए और समाज निर्माण के लिए काम करेंगे। यह हमारे मिशन का स्वरूप है। व्यक्ति निर्माण के लिए हम ब्रह्मवर्चस और उसकी कार्य पद्धति बनाते हैं। मानव उत्कर्ष की सारी की सारी प्रक्रिया हम यहाँ से पैदा करेंगे इंसान को मनस्वी अर्थात् मनुष्य में देवत्व उदय होने की प्रक्रिया अर्थात् व्यक्ति निर्माण। व्यक्ति कैसे बनाया जा सकता है, यह प्रक्रिया हमारे छोटे से आश्रम ब्रह्मवर्चस से आरंभ होगी। आप इसके भविष्य को देखिये, इसके पीछे महानता को देखिये, झण्डे के इस प्रतीक को देखिये। यह है तो एक प्रतीक, पर इसके पीछे न जाने क्या से क्या सत्ता भरी पड़ी है। एक बड़ी चीज की जिम्मेदारी भगवान ने हमारे ऊपर सौंपी है और इसके लिए हमने एक बड़ा प्लान बनाया है। इस बड़े काम में सहायता देने के लिए ही आपको बुलाया गया है कि हम समाज में एक ख्वाब पैदा करेंगे, नया युग लाने के लिए मनुष्यों को पैदा करेंगे। युगशक्ति पैदा करेंगे। आध्यात्मिक शक्ति पैदा करेंगे। लोगों में मनस्वी तत्व पैदा करेंगे जो मन से लोहा ले सकने में समर्थ हो सकें। हम मनुष्यों में तपश्चर्या का माद्दा-अर्थात् श्रद्धा और उदारता पैदा करेंगे, करुणा पैदा करेंगे, सेवा की वृत्ति पैदा करेंगे। अभी आदमी के भीतर तो निष्ठुर पिशाच बैठा हुआ है और कहता रहता है कि ला हमारे लिए धन, ला हमारे लिए मोह। यह पिशाच न तो सिद्धान्तों को भीतर आने देता है, न आदर्शों को आने देता है, न करुणा को आने देता है, न सेवा को अपने देता है। चाहे भजन करने जायँ, चाहे मन्दिर में जायँ, हर जगह से यह अपना उल्लू सीधा करता है।
मित्रों ! हम मनुष्यों को बदलना चाहते हैं। इसके लिए क्या करना पड़ेगा ? इसके लिए आप अपने जीवनक्रम में थोड़ा सा हेर-फेर कर दें और भगवान को अपने जीवन में हिस्सेदार बना लें। हमने कई बार अपील की है कि आप लोग अपने जीवन में ईश्वर को साझीदार बना लें। बैंक को आप हिस्सेदार बना लेंगे तो आपका काम अच्छा चलेगा। बड़ी-बड़ी मिलें ऐसे ही चल रही हैं। उनमें पचास प्रतिशत पैसा बैंक का लगा हुआ है। बैंक उनको पैसा देती है, उसकी बिल्टियों पर एडवाँस देती है, तब सारे काम चल रहे हैं। आप भी भगवान की बिल्टी लें, भगवान को हिस्सेदार बनायें और मालदार बने। यदि कोई यह कहता है कि नहीं महाराज जी, भगवान की हमें कोई जरूरत नहीं है और हम तो ऐसे ही थोड़ा बहुत चालाकी से- बेईमानी से काम चला लेंगे, तो बेटा इससे काम चलेगा नहीं। सम्पन्न बनना हो, मालदार बनना हो तो भगवान को हिस्सेदार बनाना ही होगा। मैंने बार-बार लोगों से कहा है कि आप अपने जीवन में से थोड़ा सा हिस्सा भगवान के लिए खर्च करें और थोड़ा सा अपने लिए। भगवान के लिए जो हिस्सा खर्च करेंगे, उसके बदले में आप पायेंगे। भगवान के लिए जो हिस्सा खर्च करेंगे, उसके बदले में आप पायेंगे। भगवान को बहकायेंगे तो नहीं पायेंगे, वह जब भगवान को बहकाना है जो आप अब तक करते रहे हैं, ध्यान रखिये। भगवान को जिन्दगी में हिस्सेदार बनाने का मतलब यह है कि आप अपने समय का एक हिस्सा, अपनी अकल का एक हिस्सा, अपनी क्षमता का-प्रतिभा एक एक हिस्सा, अपने प्रभाव का एक हिस्सा और अपने पैसों का एक हिस्सा भगवान के कामों में लगाइये। नहीं, महाराज जी, हम इस चक्कर में नहीं फंस सकते। चक्कर में नहीं फंस सकते तो आप तालाब की तरीके से सड़ेंगे और कोई बड़ी चीज नहीं पा सकेंगे।
साथियों, मनुष्यों को श्रेष्ठ बनाने के लिए, सूखी और समुन्नत बनाने के लिए, नवयुग के अनुरूप शांति से रहने और रहने देने में सहायता करने वालों के लिए ब्रह्मवर्चस का यह प्रशिक्षण आरंभ किया गया है। ब्रह्मवर्चस के पीछे जो एक छोटी इमारत के रूप में बनाया गया है, हमारा एक ही उद्देश्य है- युगशक्ति का उदय, आध्यात्मिक शक्ति का उदय, व्यक्ति को मनस्वी और तपस्वी बनाना और मनुष्य के भीतर उन शक्तियों को उदय करना जिससे वह अपने जीवन की नाव पार कर सके और असंख्यों की नाव पार करा सके।
दूसरे नम्बर पर है-प्रज्ञा मंदिर, जिसका कि उद्घाटन करने के लिए हमने आपको बुलाया है। कौन सा प्रज्ञा मंदिर-गायत्री ज्ञान मंदिर। गुरु जी, गायत्री की मूर्ति तो हमारे यहाँ पहले से ही रखी हुई है, फिर दुबारा क्यों ? बेटे, ये मूर्ति नहीं है, यह प्रज्ञा मंदिर है। प्रज्ञा को हम सर्वोपरि मानते हैं। प्रज्ञा से बढ़कर और कोई चीज नहीं है - “नहि ज्ञानेन सदृशपवित्रमिह विद्यते।” इसलिए हम भगवान को प्रज्ञा के रूप में पूजा करते हैं। “प्रज्ञा” विवेकशीलता को कहते हैं-दूरदर्शिता को कहते हैं। अकल तो हमारे पास है, पर प्रज्ञा हमारे पास नहीं है-विवेक हमारे भीतर नहीं है। अकल किसे कहते हैं-और प्रज्ञा किसे कहते हैं ? अकल बेटे, वही होती है जो बी. ए., एम. ए. पास करने के बाद में खरीदी जा सकती है। कैसी होती है अकल ? अकल ऐसी होती है जो हमारे लिए तुरन्त फायदा कराती है और नहीं देखती कि कल जो नुकसान होगा वह होता रहे। प्रज्ञावान कौन होता है ? किसान होता है। वह अभी नुकसान उठाता है और छह महीने बाद फायदा उठाता है। प्रज्ञावान विद्यार्थी होता है तुरन्त नुकसान उठाता है, दस-पन्द्रह साल तक पढ़ता है और फिर वह गजटेड अफसर बन जाता है। प्रज्ञावान दुकानदार होता है जो अपना घर खाली कर देता है, फिर उसके बाद कमाता है। जो दूर की बात सोचता है, उस दूरदर्शी को हम प्रज्ञावान कहते हैं सिद्धान्तवादी को हम प्रज्ञावान कहते हैं और जो अपने छोटे-छोटे सामयिक स्वार्थों के लिए अपने भविष्य को अंधकारमय बना लेते हैं, उनको मैं अकलमंद कह सकता हूँ। विनाश की जड़ अकल ही है।
अकलमंद कैसे होते हैं ? बहुत अकलमंद हैं, आपकी जितनी प्रशंसा की जाय कम है। आपकी अकल का मुकाबला कोई और कर सकता है क्या ? नहीं और कोई नहीं कर सकता सिवाय कौआ के ? कौआ बड़ा अकलमंद होता है, बहुत चालाक होता है। मनुष्य की सारी की सारी अकल ऐसे ताने-बाने बुनती रहती है कि क्या कहा जाय। बेटे, ताने-बाने बुनने वाली इस अकल के स्थान पर हम एक नयी सत्ता को स्थापित करना चाहते हैं, उसका नाम है - प्रज्ञा। प्रज्ञा के सामने हम मस्तक झुकाते हैं, प्रज्ञा की देवी को हम नमस्कार करते हैं। प्रज्ञा की देवी कौन है - गायत्री माता। गायत्री माता कौन है - प्रज्ञा। प्रज्ञा किसे कहते हैं, - ऋतम्भरा प्रज्ञा को-दूरदृष्टि को विवेकशीलता को, न्यायदृष्टि को विवेकशीलता को, न्यायदृष्टि को। इसी गायत्री माता की हम साधना करते हैं। तो महाराज जी, गायत्री माता वह है जो थैली में रुपये वाली नहीं है। मित्रों, आपको यह जानना चाहिए कि वस्तुतः गायत्री किसका नाम है ? गायत्री है श्रद्धा का नाम-प्रज्ञा का नाम। हम इसी प्रज्ञा की स्थापना करेंगे और जन-जन से कहेंगे कि आप प्रज्ञा के सामने मस्तक झुकाइये, विवेकशीलता के सामने मस्तक झुकाइये।
हमने जो भी स्थापनाएं की है, उसका नाम है - श्रद्धा। हम श्रद्धा की स्थापना करते हैं। श्रद्धा क्या ? श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार-इसका नाम है श्रद्धा। श्रद्धा मनुष्यों के भीतर से चली गयी। श्रेष्ठता के लिए हम जवान से भले ही प्रशंसा कर दें, लेकिन असीम प्यार करने वाली वह श्रद्धा चली गयी जिसके लिए आदमी त्याग कर सकें, कष्ट उठा सके। यह देवी कौन है जिसकी हमने स्थापना की है। इसका नाम श्रद्धा। ये कौन है ? बेटे ये नारी की गरिमा की स्थापना है। नारी की गरिमा कैसी होती है ? नारी की गौरव-गरिमा सत्य, शिव और सुन्दर की तीनों विशेषताओं से सम्पन्न, एक प्रतीक है। नारी का एक प्रतीक है-एक सम्बल है जो हमारी बेटी के रूप में विद्यमान है। श्रद्धा नारी के प्रति श्रेष्ठता के भाव-गरिमा के भाव जाग्रत करती है। नारी के प्रति श्रद्धा, नारी के प्रति नमन, नारी के प्रति सम्मान, आस्था उत्पन्न करने के लिए हमने गायत्री माता को नारी के रूप में भी बना सकते थे ? हाँ, हम नर रूप में भी बना सकते थे, क्योंकि ब्राह्मीशक्ति, ब्रह्म और गायत्री एक ही शक्ति है। सरस्वती, लक्ष्मी और विष्णु एक ही बात है। पार्वती और शंकर एक ही बात है। इस माध्यम से हम नारी की गरिमा बढ़ाते हैं और यह कहते हैं कि नारी के प्रति अर्थात् पवित्रता के प्रति, करुणा के प्रति कला के प्रति, सौंदर्य के प्रति, तपश्चर्या के प्रति नमन करें। हमने यही स्थापना की है।
देश भर में हमने प्रज्ञा मंदिरों की स्थापना की है। प्रज्ञा मंदिरों की स्थापना की है। प्रज्ञा मंदिरों से आप क्या करेंगे ? प्रज्ञा मंदिरों से बेटे हम वह काम करेंगे जो बहुत दिनों पहले मिशन के लिए यह घोषणा की थी कि हम नया समाज बनायेंगे। तो नये समाज का आधार क्या होगा- बताइये ? हर एक के मेनीफिस्टो होते हैं। नया समाज बनाने का आधार हमारा यह है कि हम आदमी का चिन्तन बदल देंगे। हम हर आदमी का मन बदल देंगे। मन बदलने से क्या होगा ? मन बदलने से व्यक्ति की समस्याएँ और समाज की असंख्य समस्याएँ-इन सबका एक ही कारण है-आदमी का मन। आदमी का मन अगर सड़ेगा तो उसमें से कीड़े, मच्छर, मक्खी आदि बीसों चीजें पैदा होंगी, बदबू पैदा होगी। कीचड़ को आप साफ कर दीजिए, फिर मच्छर भगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारे चिन्तन की मलीनताओं सारे के सारे समाज में असंख्य परिस्थितियाँ पैदा करती हैं-- राष्ट्रीय सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में। इसलिए हम समाज निर्माण के लिए इस बात का शिक्षण करते हैं कि शालीनता, सज्जनता, भलमनसाहत, ईमानदारी, और शराफत आदि तत्वों को आगे बढ़ाना चाहिए। समाज का अभिनव निर्माण इन्हीं आधारों पर खड़ा होगा।
मित्रों, गायत्री माता क्या है ? यह ईमानदारी और नेकनीयती, सज्जनता और शराफत की देवी है। इसके माध्यम से हम सबको समझाएंगे। राजहंस इसका वाहन है। इसे यह पसंद करती है, दुलार करती है और चौबीसों घंटे साथ लिए फिरती है। यह राजहंस ऐसा है जो नीर-क्षीर का विवेक करता है, जो मोती खाता है-कीड़े खाते हैं। हाँ बेटे, हंस कीड़े खाते हैं, पर गायत्री माता का राजहंस अलग है गायत्री माता की स्थापना करके हम राजहंस पैदा करना चाहते हैं। हम गायत्री का ही नाम सावित्री है और सावित्री का वरण करने के लिए-माला पहनने के लिए सत्यवान की जरूरत पड़ती है। गुरु जी! आप तो सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर रहे है, देवी-देवताओं की बात नहीं कहते ? हाँ बेटे, देवी-देवता फायदा कराते ? हाँ बेटे, देवी-देवता फायदा कराते हैं, लेकिन देवी-देवता सिद्धान्त होते हैं, आदर्श होते हैं। मनुष्य की महानता-मनुष्य के गुण होते हैं, श्रेष्ठतायें होती हैं। देवी वह नहीं होती जो पहाड़ पर मंदिर में बैठी रहती है और बकरे खाती है। देवी ऐसी नहीं हो सकती- वह तो कोई डाकिन होगी, भूतनी होगी। आपकी देवी और हमारी देवी में फर्क है। हमारी देवी देवत्व की निष्ठायें हैं, देवत्व के प्रति आस्थायें ही देवत्व के संकल्प, देवत्व के संकल्प, देवत्व की मान्यताएँ, भावनाएँ हैं। इन्हीं का हम विस्तार करना चाहता है। प्रज्ञा मंदिर हमने इसी लिए बनाया है। तो आप इसी मंदिर में से गायत्री उपासना सबको सिखा देंगे ? नहीं बेटे, हमने तो ये प्रतीक बनाया है यह एक सिमबल है। हम चाहते हैं कि इसका विस्तार हो।
प्रज्ञा-विस्तार के लिए क्या-क्या काम करने होंगे ? इसके लिए हमें बहुत काम करने होंगे। हमने आप लोगों को इसीलिए बुलाया है। कि लोगों की अकल को बदलने के लिए कई कार्यक्रम हाथ में लेने चाहिए। आदमी को विवेक की विचारधारा, अकल की नहीं- विवेक की विचारधारा, अकल की नहीं-विवेक की न्याय की, सिद्धान्तों की, आदर्शों की विचारधारा, अकल की नहीं- विवेक की न्याय की, सिद्धान्तों की, आदर्शों की विचारधारा को बताने के लिए-हृदयंगम कराने के लिए हमको और आपको दो काम करने चाहिए। एक तो लोगों को अपने पास बुलाना चाहिए और दूसरा लोगों के घरों परा जाना चाहिए। यह प्रज्ञा की देवी गायत्री माता की सबसे बड़ी सेवा है। तो क्या भजन करें , हाँ भजन तो करना ही पड़ेगा। भजन तो हम भी करते हैं, लेकिन उतने से ही काम पूरा नहीं होगा। भजन के साथ-साथ में उसको चरितार्थ करना भी बेहद जरूरी है। इस वास्ते हमने एक आन्दोलन आपको दिया है कि आप ज्ञानरथ चलायें-गायत्री माता का ज्ञान रथ। ज्ञानरथ कैसा होता है ? ज्ञान रथ ऐसा होता है जैसा कि जगन्नाथ जी का रथ निकलता है और रथ यात्रा होती है। वृंदावन में रंग जी का एक मंदिर है। उस मंदिर से जब रथ यात्रा निकलती है तो वह घर-घर जाती है। बूढ़े और बच्चे जो मन्दिर नहीं पहुँच पाते, उनके लिए भगवान को रथ पर बिठाकर घर-घर ले जाते हैं और कहते हैं कि देखिये साहब, आप तो रंग जी के मंदिर नहीं पहुँच पाये थे, अब हमने भगवान को आपको घर में लाकर रख दिया है, आप दर्शन कीजिए। युग के अनुरूप विचार क्रान्ति के लिए-ज्ञानयज्ञ के लिए हम भी अलख निरंजन कहते हुए बादलों की तरीके से, तीर्थ यात्रा की तरीके से घर-घर जायेंगे अपने साहित्य को लेकर। जो लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं, समझ भी नहीं सकते, उनके लिए लेखनी के अलावा एक और चीज रह जाती है। उसका नाम है वाणी। वाणी को हम घर-घर लेकर जायेंगे और अलख जगायेंगे। तीर्थ यात्रा प्राचीन काल में इसीलिए होती थी।
पदयात्रा का कोई उद्देश्य नहीं था। यह मात्र धर्म प्रचार के लिए अर्थात् ज्ञान-प्रचार के लिए होती थी। चाहे वह ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा हो या नर्मदा की परिक्रमा । धर्म क्या होता हैं-अच्छे ज्ञान और अच्छे विचार। अच्छे विचारों को फैलाने के लिए घर-घर जाना पड़ता है। ये क्या है ? ये बेटे वही है जिसे हम प्रज्ञा का प्रसार करने के लिए सम्मेलनों की बात कहते हैं घर-घर जाना जब मुश्किल पड़ता है तब लोगों को एक जगह जमा कर लेते हैं और अपनी बात उनसे कम समय में कह देते हैं। आप क्या बोलते हैं ? बेटे हम गायत्री मंत्र बोलते हैं-चौबीसों घंटे। नहीं गुरु जी, आप तो व्याख्यान करते हैं। नहीं बेटे हम व्याख्यान नहीं करते-गायत्री मंत्र बोलते हैं- केवल गायत्री मंत्र। हमारी वाणी से और कोई दूसरा शब्द नहीं निकलता। हमारा सारा जीवन गायत्री माता को समर्पित है। इसलिए हम गायत्री के अलावा दूसरा शब्द बोल ही नहीं सकते। एक स्वामी जी केवल एक शब्द बोलते थे- ‘श्रीकृष्णःषरणंमम।’ इसी तरह एक और स्वामी जी थे जो यह बोलते थे- ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ इसके अलावा और कोई दूसरा शब्द नहीं बोलते थे, मात्र इशारा कर देते थे। हम भी गायत्री में का अर्थ है - अवांछनीयता के विरुद्ध संघर्ष। गायत्री मंत्र के “भर्गो” शब्द के माने हैं-जो अवाँछनीय तत्व है उसको भून डालना, उसके विरुद्ध लोहा लेना, संघर्ष करना। यही विचार क्रान्ति है। और ज्ञान यज्ञ क्या है ? ज्ञान यज्ञ वह है जिसमें से सद्भावना का उदय होता है, श्रेष्ठता, का उदय होता है। यही काम हमको और आपको करना है। बहुत से कार्यक्रमों के लिए हम आपको बुलाते रहते हैं। ये सब क्या है ? बेटे, यह गायत्री मंत्र की उपासना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आपको तो इसलिए मालूम नहीं पड़ता कि आप माला घुमाने को ही गायत्री मंत्र कहते हैं और और अच्छे वारों के विस्तार के लिए जो प्रयास किये जाते हैं उसको आप गायत्री मंत्र नहीं मानते। वस्तुतः अच्छे विचारों का-अच्छी भावनाओं का संवर्धन करना विशुद्ध गायत्री मंत्र की उपासना करना है। मैं चौबीसों घंटे इसी महामंत्र की उपासना करता हूँ-जप करता हूँ। सोलह घंटे काम करता हूँ नहाने-धोने, खाने-पीने, सोने सबमें गायत्री मंत्र की उपासना करता हूँ। अच्छे विचारों को फैलाना, जन-जागरण करना, लोगों की भावनाओं को परिवर्तित करना उसके लिए परामर्श देना-ये सारे के सारे कार्य हैं जो आपको करना चाहिए।
ब्रह्मवर्चस में प्रज्ञा मंदिर की स्थापना करने के लिए जो आप आये हैं, इसमें हम आपको गायत्री मंत्र की उपासना, गायत्री मंत्र की विशेषता और गायत्री मंत्र को जीवन में समावेश कर लेना-इसकी विधियाँ सिखायेंगे। सारे विश्व में हम गायत्री मंत्र की एक हवा पैदा करेंगे। चारों ओर गायत्री मंत्र की हवायें पैदा करेंगे जिसे सभी मानेंगे। गायत्री मन्त्र की जो दिशा है, जो कल्पना है, वह हर एक को हृदयंगम करायेंगे और उनसे यह कहेंगे कि यह सार्वभौम मंत्र है-सर्वजनीन मंत्र है और इसमें व्यक्ति विशेष के लिए कोई अंतर नहीं पड़ता। ज्ञानरथ चलाने से लेकर सम्मेलन करने तक सी हमारे कार्यक्रम गायत्री माता को घर पहुँचाने के लिए हैं। हमारे सम्मेलन राजनैतिक सम्मेलन नहीं हैं। हमारे सम्मेलनों में केवल मनुष्यों के भीतर से सद्भावना जगाना-सत्प्रेरणा जगाना, सत्प्रवृत्तियाँ जगाना-बस यही एक उद्देश्य है। इसी के लिए हम आपको कार्यक्रम देते हैं, क्षेत्रीय सम्मेलन बुलाने के लिए कहते हैं। क्षेत्रीय सम्मेलनों में गायत्री माता के सद् विचारों का प्रसार करेंगे। इसके लिए जो भी व्यक्ति भेजे जायँ, हम चाहते हैं कि वे हमारे शब्दों में बोलें, हमारी वाणी में बोलें और हमारे जैसे बोलें। अगले दिनों समाज का नया निर्माण करने के लिए- विचारों को विस्तार देने के लिए प्रज्ञा मंदिरों का विस्तार होगा। आज तो एक शुरुआत है जिसका कि अभी-अभी उद्घाटन हुआ है।
साथियों, गायत्री एक परिवार है। परिवार निर्माण करने की प्रणाली है। परिवारों का निर्माण कैसे करना चाहिए-इस संबंध में हमने एक बार “लार्जर फेमिली’ नाम से एक लेख छापा था। उसमें घर-परिवार कैसे बनने चाहिए, कुटुम्ब-समाज कैसे बनने चाहिए, यह बताया गया था। गायत्री परिवार, युग निर्माण परिवार, अखण्ड ज्योति परिवार जैसे शब्द हमें बहुत प्यारे लगते हैं। बेटे, यह हमारा परिवार है जिसमें स्वर्ग का अवतरण होने वाला है। स्वर्ग का अवतरण सबसे पहले कहाँ होगा ? परिवार में होगा, फिर वहाँ से व्यक्तियों में फैलेगा और समाज में फैलेगा। स्वर्गीय वातावरण वाले पारिवारिक खदानों से ही नर-रत्न पैदा होते हैं। कॉलेज में से-गुरुकुल में से नर-रत्न पैदा नहीं होते। हाँ गुरुकुल यदि कोई परिवार होगा तो वहाँ से पैदा हो जायेंगे। परिवार नहीं होगा तो वहाँ भी पैदा नहीं होंगे। परिवार कैसे बनने चाहिए ? परिवार ऐसे बनने चाहिए जैसे कि एक महिला ने परिवार की पाठशाला में- प्रयोगशाला में तीन ब्रह्मज्ञानी बना दिये थे, जिनका नाम था-बिठोवा, बिनोवा और बालकोवा। परिवार को कौन चला सकता है ? परिवार को चलाने का स्वामी-अधिकारी एक ही है और उसका नाम है-नारी । नारी के पास वो शक्ति है जो मनुष्य के अकल को तो नहीं, पर हृदय को ठीक कर सकती है। नारी के पास अकल तो कम है, पर हृदय तत्व बहुत विशाल है।शरीर से ताकत से भी वह कमजोर पड़ती है, लेकिन श्रद्धा में बढ़ी-चढ़ी ही होती है। मनुष्य के भीतर की मनुष्यता को शालीनता का विकसित करने के लिए एक ही तत्व काम करता है और उसका नाम है - श्रद्धा। श्रद्धा-भावना से भरी हुई नारी को हम जगाना चाहते हैं। परिवार संस्था को जीवित करना चाहते हैं।
आज परिवार संस्था खतम हो गयी है और रह गये हैं बस स्त्री-पुरुष। स्त्री-पुरुष कौन होते हैं-वासना के शिकार। ब्याह किसके लिए होता है वासना के लिए - प्रेम के लिए नहीं। प्रेम किसे कहते हैं ? बेटा, प्रेम चला गया, प्रेम तो दुनिया में रहा ही नहीं, श्रद्धा तो है ही नहीं, सहयोग तो रहा ही नहीं। परिवार संस्था खतम हो गयी। परिवार कैसे होने चाहिए ? इस संस्था को जीवित रखने के लिए हम नया प्रयोग करते हैं और अपने कुटुम्बियों कार्यकर्त्ताओं को बुलाकर कहते हैं कि आप कुटुम्ब हमारे हवाले कीजिए, हम उनका शिक्षण करेंगे। गुरु जी, आप तो संत हैं इसलिए हम कुटुम्बों का शिक्षण कर सकते हैं इसलिए हम कुटुम्बों का शिक्षण कर सकते हैं। भगवान राम के बीबी-बच्चों का शिक्षण महर्षि वाल्मीकि ने जैसे अच्छी तरह से किया था, वैसा कोई और दूसरा नहीं कर सकता था। लव, कुश और सीता जिस सुख और शांति से उनने रखा, वैसा और कोई नहीं रख सकता था। यह काम केवल संत ही कर सकते हैं। परिवारों का निर्माण कैसे करना चाहिए इसके लिए हमने एक प्रयोगशाला बनायी है- एक कालोनी बसाई है-नाम है उसका गायत्री नगर। इसमें हम शिक्षण देंगे कि नारी को कैसे विकसित करना चाहिए ? नारी-शिक्षण कैसे होने चाहिए ? लार्जर फेमि�