Magazine - Year 1996 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रत्यक्ष फलदायी जीवन साधना
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जीवन प्रत्यक्ष देवता है। वह निरन्तर साथ रहने वाला ईश्वर का सर्व-समर्थ प्रतिनिधि है। स्रष्टा का इसे सर्वोत्तम उपहार समझना चाहिए। इससे बढ़कर और कोई वस्तु उसके पास ऐसी नहीं है जो जीवात्मा को दी जा सके। इसके सदुपयोग करने पर मनुष्य वह सभी विभूतियाँ अर्जित कर सकता है जो उसके लिए आवश्यक हैं। जीवन का महत्व समझा जाना चाहिए। भगवान के इस धरोहर का उन्हीं प्रयोजनों में उपयोग करना चाहिए जिसके लिए वह मिली है। जीवात्मा की दूरदर्शिता एवं प्रामाणिकता इस आधार पर परखी गई है कि वह इस अनुदान का कितनी जिम्मेदारी ईमानदारी के साथ उपयोग कर सका। परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों की पदोन्नति होती है। जीवन सम्पदा के सदुपयोग की कसौटी पर खरे उतरने वालों को महामानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि, जीवन मुक्त देवदूत जैसे उच्च बनने का श्रेय सौभाग्य मिलता है।
जीवन अनगढ़ रूप में सौंपा गया है। उसे परिष्कृत, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व मनुष्य का है। उसी के निर्वाह को जीवन साधना कहते हैं। धातुएँ जमीन में मिट्टी मिली हुई निकलती है। उन्हें आग में गलाकर शोधा जाता है तभी वे काम में आने योग्य बनती हैं। खदान से हीरा अनगढ़ निकलता है। उसे तराशा खरादा घिसा जाता है, इसके बाद ही उसका मूल्य निखरता है। वन्य पशु प्रयत्नपूर्वक सधाये जाते हैं तब कहीं सरकस के कलाकार बनते हैं। जीवन भी अनगढ़ मिला है। उसके साथ जन्म जन्माँतरों के सुसंस्कार चिपके हैं, इन्हें छुड़ाया जाना आवश्यक है। उठने बैठने के लिए बहुत कुछ सीखना पड़ता है। सामान्य योग्यता से शरीर यात्रा भर निभती है। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की दो प्रक्रियाएँ अपनाने का नाम जीवन साधना है। आकर्षक आभूषण और महत्वपूर्ण उपकरण बनाने वाली भट्टियों में अनगढ़ को गलाने और उपयोगी ढालने का क्रम चलता है। ऐसा ही आँतरिक कायाकल्प करने का प्रचण्ड पुरुषार्थ मनुष्य को भी करना पड़ता है। इसी को जीवन साधना कहते हैं। ईश्वर उपासना व जीवन साधना परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध हैं। दोनों के समन्वय से ही परम लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव होती है। रंगाई के पूर्व कपड़ों को धोना आवश्यक है। अकेला बाण ही लक्ष्य नहीं बेधता उसके पीछे तनी हुई कमान का बल भी रहना चाहिए। उगता तो बीज ही है पर उसके लिये उपयुक्त भूमि भी तो चाहिए। बादल तो बरसते तो सर्वत्र हैं पर पानी जमा वहीं होता है जहाँ गहराई है। यह उदाहरण बताते हैं कि दैवी अनुदान प्राप्त करने के लिए पात्रता प्रामाणिकता, पवित्रता एवं प्रखरता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। नेत्र न हो तो इस प्रासाद, वैभव को देखा कैसे जाय ? कान बहरे हों तो मधुर संगीत एवं परामर्श कैसे सुने जायँ ? खिड़कियां बन्द हों तो घर में सूर्य की रोशनी और हवा की ताजगी को प्रवेश कैसे मिले ? उच्चस्तरीय प्रगति के लिए चिन्तन और चरित्र की, गुण कर्म स्वभाव की, विशिष्टता चाहिये ही यह विभूतियाँ अनायास ही किसी को नहीं मिलतीं इसके लिये प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। जीवन साधना का यही स्वरूप है। देवों की उपासना का प्रतिफल संदिग्ध हो सकता है किन्तु जीवन देवता की साधना का पुण्यफल तो हाथों-हाथ मिलता है। व्यक्तित्व का निर्माण इतनी बड़ी सम्पदा है कि उसके बदले इस संसार के बाजार में से कुछ भी खरीदा जा सकता है। जीवन को कल्पवृक्ष, पारस अमृत कहा गया है जो उसकी साधना कर सका वह सुनिश्चित रूप से कृत-कृत्य होकर रहा है।
मनुष्य नंगा उत्पन्न होता है। उसे वस्त्रों से ढकना पड़ता है। बोलना, सोचना, पढ़ना, कमाना उसे सिखाना पड़ता है। केश विन्यास से लेकर भोजन पकाने तक की सामान्य जीवनचर्या भी सीखी जाती है। जीवन सम्पदा बहुमूल्य मोटर की तरह मिली तो मुफ्त में ही है पर उसे चलाना तो सीखना ही होगा अन्यथा अनाड़ी चालक तो दुर्घटना ही खड़ी करेगा। आमतौर से लोग प्रायः जीवन भर पग-पग पर ठोकरें खाते और क्षण-क्षण में नये-नये संकट खड़े करते रहते हैं। आरम्भिक प्रगति के मार्ग पर चलने वालों का जीवन साधना का परम पुरुषार्थ करना होता है। चिन्तन एवं स्वभाव में उत्कृष्टता भर लेने को सुसंस्कारिता कहते हैं और व्यवहार में, आदतों में शालीनता के समावेश का सभ्यता कहा जाता है। सभ्यता और सुसंस्कारिता का समन्वय ही व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बनाता है। व्यक्तित्व संपन्न ही देव मानव कहे जाते हैं। वे स्वर्गीय वातावरण में रहते और दूसरों के लिये स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।
जीवन साधना के दो प्रमुख सूत्र हैं। समय और साधनों का मात्र सदुद्देश्य के लिये उपयोग करना। जीवन की अवधि ईश्वर प्रदत्त है और साधन सम्पदा मनुष्य अर्जित। उच्चस्तरीय दूरदर्शिता की एक ही कसौटी है कि कौन इन दिनों का श्रेष्ठतम सदुपयोग कर सका। कमाना संयोगवश भी हो जाता है पर खर्च में तो बुद्धिमत्ता की अग्नि परीक्षा से गुजरना ही पड़ता है।
कौन कितने दिन जिया, उसका एक ही उत्तर है किसने कितने समय का सदुपयोग किया। आद्यशंकराचार्य 32 वर्ष और विवेकानन्द 36 वर्ष जिए पर उन्हें सहस्रों वर्ष जीने का श्रेय मिला। इसके विपरीत धरती का भार बढ़ाते हुए बहुत दिन जीना निरर्थक है। सम्पदा का मूल्याँकन करते समय एक ही जाँच पड़ताल की जानी चाहिए कि कमाई किन कामों में लगाई गई। अपव्ययी और निर्धन में कोई अन्तर नहीं क्योंकि दोनों ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ कर सकने के सौभाग्य से वंचित रहते हैं। “चोर की कमाई उचक्के ने खाई” “अन्धी पीसे कुत्ता खाये” की उक्ति ही अधिकांश लोग चरितार्थ करते हैं उनका समय और वैभव ऐसे ही निरर्थक कामों में समाप्त हो जाता है, निरर्थक कामों में समाप्त हो जाता है, निरर्थक लोगों के हाथों चला जाता है।
जीवन साधना में दिनचर्या बनाकर चलना और बजट बनाकर खर्च करना यह दोनों शर्तें निताँत आवश्यक हैं। उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जीवन क्रम के साथ जुड़े हुए कर्त्तव्य, उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए ढेरों समय लगाना पड़ता है और साधन जुटाने में पैसा खर्च होता है। समय और वैभव के अपव्ययी सुरसा के मुँह जैसी लिप्साओं की पूर्ति तक में असफल रहते हैं। दिनचर्या और बजट बनाये बिना सदुद्देश्य के लिए कुछ बचता ही नहीं। हर प्रगति समय और साधन माँगती है। आत्मिक प्रगति भी इस सन्तुलन को बिठाने के लिए दिनचर्या और बजट के निर्वाह एवं परिवार के अतिरिक्त एक तीसरी आवश्यकता और जोड़नी पड़ती है परमार्थ प्रयोजन। दो के स्थान पर तीन की साझेदारी मानी जाय तो ही कुछ महत्वपूर्ण प्रयोजन सधेगा। इस तथ्य को भली प्रकार ध्यान में रखा जाय और उसका संतुलन कठोरता एवं दृढ़ता के साथ बिठाया जाय तभी कहने लायक आत्मिक प्रगति की सम्भावना बनेगी। हर दिन प्रातः दिनचर्या एवं बजट का निर्धारण करना चाहिए। साथ ही उसका कठोरतापूर्वक परिपालन भी। जीवन साधना का यह आरंभिक चरण है।
जीवन साधना के लिए उपासना की तरह ही आत्म चिन्तन के लिए न्यूनतम पन्द्रह मिनट का समय निश्चित रहना चाहिए। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार आत्म निर्माण और आत्म-परिष्कार के सम्बन्ध में अपनी जाँच पड़ताल कड़ाई के साथ करनी चाहिए। मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन निर्वाह में कहाँ त्रुटि रही रही है। अशोभनीय, व्यर्थ, निरर्थक और अनर्थमूलक चिंतन और व्यवहार कब किस प्रकार बन पड़ता है और उन आदतों को कैसे सुधारा जाना चाहिए। इस ऊहापोह में आत्म-समीक्षा और आत्म-सुधार की प्रक्रिया बन पड़ती है। देव मानवों की पंक्ति में बैठने के लिए उनकी किन क्षमताओं को विकसित एवं आदतों को परिष्कृत किया जाना है उसका ताना-बाना बुनना आत्म निर्माण है। अन्ततः यह सोचा ही जाना चाहिए। संकीर्ण सीमा बन्धन तोड़े ही जाने चाहिए। लोभ मोह के बन्धन टूटने ही चाहिए। आत्मा का विस्तार वसुधैव कुटुंबकम् के रूप में होना चाहिए और आत्मवत् सर्वभूतेषु की कल्पना दिन-दिन सुदृढ़ बननी चाहिए। दूसरों का दुःख बाँट लेने और अपना सुख दूसरों को बाँट देने की उमंगें उठने लगें तो समझना चाहिए कि आत्म-विकास के लक्षण प्रकट होने लगे। आत्म-चिन्तन के लिए निर्धारित समय में इन्हीं प्रसंगों का ऊहापोह होते रहना चाहिए। जिन प्रसंगों पर ध्यान किया जाता है।
एक बड़े बौद्ध संघाराम के लिए कुलपति की नियुक्ति की जानी थी। उपयुक्त विद्या और विवेक वाले आचार्य की छाँट का ऊहापोह चल रहा था। तीन सत्पात्र सामने थे, उनमें से किसे प्रमुखता दी जाय यह प्रश्न सामने था। चुनाव का काम महाप्राज्ञ मौद्गल्यायन को सौंपा गया।
तीनों को प्रवास पर जाने का निर्देश हुआ। कुछ दूर पर उस मार्ग पर काँटे बिछा दिए गए थे।
संध्या होने तक तीनों उस क्षेत्र में पहुँचे। काँटे देखकर रुके। क्या किया जाय, इस प्रश्न के समाधान में एक ने रास्ता बदल लिया। दूसरे ने छलाँगे लगाकर पार पाई। तीसरा रुक कर बैठ गया और काँटे बुहार कर रास्ता साफ करने लगा, ताकि पीछे आने वालों के लिए वह मार्ग निष्कंटक रहे। भले ही अपने को दे लगे।
परीक्षक मौद्गल्यायन समीप की झाड़ी में छिपे बैठे थे। उनने तीनों के कृत्य देखे और परीक्षाफल घोषित कर दिया। दूसरे के लिए रास्ता साफ करने की विद्या सार्थक मानी गई और अधिष्ठाता की जिम्मेदारी उसी के कंधे पर गई। मौद्गल्यायन ने कहा-संघाराम में सत्प्रवृत्तियों की परम्परा वही डाल सकेगा, जो स्वयं सबका ध्यान रखे और अपने आचरण से प्रेरणा उभारने की क्षमता रखता हो।
उनकी गुत्थियाँ और मार्ग भी मिलता है। द्वार उनका अवरुद्ध रहता है जिन पर गम्भीरता पूर्वक विचार ही नहीं किया जाता।
चिन्तन का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है। इसलिए उसे परिष्कृत करने के लिए साधना परायण को स्वाध्याय, संयम और सेवा की आवश्यकता अनुभव की जानी चाहिए और उसकी व्यवस्था भी आहार, वस्त्र, विश्राम की तरह ही बननी चाहिये। अब ऐसा सत्संग सम्भव नहीं इसलिये अब वह कार्य प्रेस की वर्तमान सुविधा और श्रेष्ठजनों की दुर्लभता में सत्साहित्य से ही चलाना होता है, संयम को तपश्चर्या कहते हैं। आत्म-अनुशासन भी वही है। इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम, विचार संयम, के चार अनुशासन अपने ऊपर स्थापित किये जायँ तो अपव्यय और अस्तव्यस्तता में नष्ट होने वाली शक्तियां बचायी जा सकती हैं। इन चार छेदों के बन्द कर देने पर ईश्वर प्रदत्त विभूतियों की असाधारण बचत हो सकती है और उस बचत को सत्प्रयोजनों में नियोजित करने वाला कोई भी व्यक्ति, किसी भी दिशा में आश्चर्यजनक प्रगति करने में समर्थ हो सकता है। महानता की उपलब्धि का यही मार्ग है।
समाज के ऋण चुकाने के लिये विश्व उद्यान को सुव्यवस्थित करने में सहायता देने की ईश्वरीय इच्छा पूरी करने के लिये अपनी सत्प्रवृत्तियाँ परिपुष्ट करने के लिए-उपलब्धियों को सार्थक बनाने के लिये दूरदर्शी को जीवनचर्या में सेवा साधना को अधिकाधिक स्थान देना पड़ता है। इसके बिना मनुष्य संकीर्ण, स्वार्थपरता की, कृपणता निष्ठुर की परिधि में ही जकड़ा रहता है और अवरुद्ध कीचड़ की तरह सड़ता रहता है। कमाने के लिये पूँजी लगानी पड़ती है। उगने के लिए गलना पड़ता है सेवा धर्म अपना कर अर्जित किये गये पुण्य परमार्थ द्वारा ही महानता उपलब्ध होती है। आत्म संतोष? लोक सम्मान और ईश्वरीय अनुकम्पा के त्रिविध लाभ प्राप्त करने के लिये परमार्थ को आत्मा की भूख समझ कर उसकी पूर्ति के लिये कटिबद्ध होना पड़ता है।
सर्वसुलभ एवं सर्वोपरि महत्व की सेवा साधना वर्तमान परिस्थितियों में एक ही है, जन-जन के मन-मन तक महाप्रज्ञा का आलोक पहुँचाने में संलग्न रहना। व्यक्ति और समाज की सामयिक समस्याओं का समाधान एवं सर्वतोमुखी प्रगति से भरे-पूरे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण इसी आधार पर सम्भव है। हर जाग्रत आत्मा को विचार करना होगा कि वह युग की पुकार का समय की चुनौती का किस प्रकार उत्तर दें और समय दान की बढ़ी-चढ़ी श्रद्धाँजलि किस प्रकार युग देवता की झोली में रखें। साधना, स्वाध्याय संयम के आधार पर जो श्रेष्ठता अर्जित की जाय उसे प्रज्ञायुग के अवतरण में लगाने के लिये भगीरथ जैसा साहस उभरना चाहिये। अपने समय में प्रज्ञायोग ही सबसे बड़ा योग जप एवं तप, साधना माना जायेगा।
ज्ञान की सार्थकता कर्म में है। जीवन साधना के निमित्त जो सोचा या सुना, समझा जाय उसे व्यक्तित्व की पवित्रता, प्रखरता बढ़ाने के रूप में कार्यान्वित किया जाना चाहिये ।इन निमित्त जन मानस के परिष्कार की प्रज्ञा विस्तार साधना का महत्व सर्वोपरि है। उसमें भावना पूर्वक संलग्न रहकर जीवन साधना की जा सकती है। इस साधना के निमित्त जो सोचा या सुना, समझा जाय उसे व्यक्तित्व की पवित्रता, प्रखरता बढ़ाने के रूप में कार्यान्वित किया जाना चाहिये। इन निमित्त जन मानस के परिष्कार की प्रज्ञा विस्तार साधना का महत्व सर्वोपरि है। उसमें भावना पूर्वक संलग्न रहकर जीवन साधना की जा सकती है। इस साधना के फलस्वरूप मिलने वाली सिद्धियाँ हाथों-हाथ मिलती हैं उसके लिये तनिक भी ठहरना नहीं पड़ता।
सन्तान लाभ की कामना हेतु आतुर व्यक्ति विवेक खो बैठता है। अन्ततः वह अपने पैरों में कुल्हाड़ी ही मारता है।
ब्रह्म संध्या कर आचार्य त्रिपाद उठे ही थे आत्मदेव ने उनके चरण पकड़ लिये। वह दीन शब्दों में बोला-आचार्य प्रवन-एक सन्तान की इच्छा से आपके पास आया हूँ।
आचार्य ने कहा-आत्मदेव सन्तान से सुख की आशा करना व्यर्थ है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुःख पाता है। पूर्व जन्म की कृपणता का पाप ही तुम्हारे लिये सौभाग्य विमुख बना है। आत्मदेव की समझ में नहीं आया, उसने कहा-महात्मन्! या तो आज आपसे पुत्र लेकर लौटूँगा या आत्मदाह करूंगा।
ज्योति पाद ने हँस कर कहा-तुम्हारे लिए किसी और का पुण्य छीनना पड़ेगा। पुत्र तो तुम्हारे भाग्य में है नहीं। परन्तु तुम्हारी इच्छा परमात्मा पूर्ण करें, लो यह फल अपनी भार्या को खिला देना। वह एक वर्ष तक नितान्त पवित्र रहकर नित्य कुछ दान करे।
आत्मदेव, महर्षि के रहस्यमय वचन सुनकर कुछ समझ न सका तथा वह फल अपनी पत्नी धुँधली को देकर सारी बातें समझा दीं। धुँधली ने सोचा-पवित्रता मुझसे बन न पड़ेगी अपनी सम्पत्ति और को क्यों दान करूं ? उसने वह फल गाय को खिला दिया और समय पर अपनी बहन का पुत्र रत्न हुआ है। पुत्र का नाम धुँधकारी रखा गया। कालान्तर में वह बहुत दुराचारी निकला। धुँधकारी ने अपने पिता की सारी सम्पत्ति, माँस, मदिरा, जुआ और वेश्यावृत्ति में नष्ट कर दी। माता-पिता कुढ़ कर मर गए। धुँधकारी भी असमय ही काल-कवलित हो गया।
इससे तो अच्छा है कि समस्त विश्व को अपना परिवार मानकर उसके समग्र विकास में स्वयं को नियोजित कर दिया जाय।
निद्रा एक यज्ञ है एवं स्वप्न उसकी ऊर्जा रश्मियां आप तो सोए हैं, तो फिर भला सपने कौन देख रहा है ? नींद में जाते ही शरीर तो सो जाता है, इन्द्रियाँ भी निष्क्रिय हो रहती हैं। गहरी नींद में सोते ही व्यक्ति को अपने आस-आस क्या हो रहा है। एक तरह से वह सोते हुए भी किसी दूसरी दुनिया में चला जाता है। फिर सवाल उठता है कि शरीर का कौन सा बाहरी या भीतरी अंग होता है जो सपने देखता है ? प्रश्नोपनिषद् में गार्ग्य मुनि पिप्पलाद ऋषि से यही सवाल करते हैं-
“कान्यस्मिंज्जागृति कतर एवं देव स्वप्नान्पष्यन्ति (4/1)” अर्थात्-कौन-कौन जागते रहते हैं और स्वप्न अवस्था में कौन-कौन स्वप्न की घटनाओं को देखते रहते हैं।
चतुर्थ प्रश्न में गार्ग्य मुनि पिप्पलाद ऋषि से निद्रा के समय मनुष्य शरीर की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं। जिसके उत्तर में पिप्पलाद ऋषि कहते हैं कि निद्रा एक यज्ञ है। इस शरीर रूप नगर में पच प्राण रूप अग्नियाँ जागती रहती है। शरीर प्रश्वास दोनों इस यज्ञ में दी जाने वाली आहुतियाँ हैं। इनको जो समभाव से पहुँचाता है वही होता है। यह मन ही यजमान है और उससे मिलने वाला अभीष्ट फल ही उदान है। यह उदान ही मन रूप यजमान को प्रतिदिन (निद्रा के समय) ब्रह्मलोक में भेजता है अर्थात् हृदय गुहा में ले जाता है (प्रश्नो. - 4/3-4)
ऋषि के अनुसार निद्रा एक यज्ञ है और उसमें शरीर में जाने-वाले श्वास-प्रश्वास आहुतियाँ है। इस अलंकारिक उत्तर में ऋषि ने यह बताया है कि स्वप्न के माध्यम से मन जीवात्मा के पास पहुँचने का प्रयास करता है। यद्यपि नींद में पड़ने वाले विक्षेपों के कारण भी कई स्वप्न आते हैं। उस समय की कष्टकारक अनुभूतियाँ और मानसिक परेशानियां भी अपने-अपने स्तर के पीड़ादायक डरावने स्वप्न खड़े कर देती है। सोते-सोते यौन उत्तेजना में काम क्रीड़ा के दृश्य दिखाई देते हैं। अतृप्त आकाँक्षाएँ भी अपना रंग महल बनाने-बिगाड़ने का खेल खेलती हैं और कई प्रकार के स्वप्नों की सृष्टि होती है। इस तरह के स्वप्न प्रायः महत्वहीन होते हैं। यों उनका विश्लेषण किया जाय तो उनके सहारे मनःस्थिति का परीक्षण निदान उसी प्रकार किया जाता है, जिस प्रकार मल-मूत्र रक्त आदि की जाँच द्वारा शारीरिक रोगों का निदान किया जाता है। लेकिन महर्षि पिप्पलाद का प्रतिपादन निद्रा यज्ञ से सम्बन्धित है।
यों अग्नियाँ और भी है जिनमें कूड़ा-करकट के जलाने से लेकर खाना-पकाने और मकान जलने जैसी प्रिय-अप्रिय घटनाएँ घटती हैं। परन्तु यज्ञाग्नि उन अग्नियों से अलग है। इसी प्रकार निद्रा को भी एक अग्नि की संज्ञा देते हुए उसके यज्ञ स्तर के स्वरूप वाली निद्रा मन को ऐसे उच्च स्तर के स्वरूप वाली निद्रा मन को ऐसे उच्च लोकों की यात्रा करा देती है, जिन्हें वरदान और अलौकिक अनुभूतियाँ कहा जा सकता है। ऋषि ने इसी स्तर के स्वप्नों को ब्रह्मलोक की यात्रा-हृदय गुहा में स्थित आत्मचेतना के सामीप्य की प्राप्ति और उसके माध्यम से विराट चेतना के साथ सम्बद्ध होने का द्वार कहा है।
अब तक तो विज्ञान भी स्वप्नों को अतृप्त आकाँक्षाओं और दबी हुई कामनाओं का ही प्रतीक मानता था। परन्तु हाल में हुई शोधों के अनुसार स्वप्नों के बारे में मनःशास्त्री भी कहने लगे हैं, कि कुछ स्वप्न ऐसे होते हैं, जिनकी आधुनिक मनोविज्ञान के आधार पर व्याख्या नहीं की जा सकती है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय तथा शिकागो विश्वविद्यालय ने इस तरह के अव्याख्येय स्वप्नों के रहस्य सुलझाने के लिए ‘स्वप्न परीक्षण विभाग’ खोले हैं। जहाँ लोगों को बुला या जाता है, उन्हें पैसे देकर सुलाया जाता है। वे गाढ़ी नींद लेकर सो सकें इसके लिए आवश्यक प्रबन्ध भी किए जाते हैं और सोते समय उनके मस्तिष्क में चलने वाली विद्युत तरंगों को रिकार्ड करने के साथ-साथ जागने के बाद उन्हें याद रहे स्वप्नों का विश्लेषण भी किया जाता है।
इन विश्वविद्यालयों द्वारा की गई शोधों से प्राप्त निष्कर्षों से फ्रायड के एकाँगी स्वप्न सिद्धान्त की यह मान्यता लगभग ध्वस्त हो चुकी है। दैनिक जीवन की अतृप्त आकाँक्षाएँ, इच्छाएँ और सम्वेदनाएँ ही निद्रा के समय स्वप्न के रूप में परिलक्षित होती है। मनोविज्ञान के विश्व-विख्यात आचार्य कार्ल युँग ने अपनी पुस्तक -मेमोरिज ड्रीम्स, रिफ्लैक्षन्स’ में लिखा है कि चेतन मस्तिष्क को ज्ञान प्राप्ति के जितने साधन प्राप्त हैं, उससे कहीं अधिक और समर्थ ठोस साधन उपचेतन (सबकाँशस) मन को उपलब्ध हैं। चेतन मस्तिष्क दृश्य श्रव्य तथा अन्य इन्द्रियानुभूतियों द्वारा ज्ञान अर्जित करता है, परन्तु अचेतन के पास तो ज्ञान प्राप्ति के असीम साधन हैं। वह अन्तरिक्ष में प्रवाहित होते रहने वाले संकेत कम्पनों को भी पकड़ लेता है, जिनमें असीम जानकारियाँ होती हैं और वह भी विभिन्न स्तरों की।
यह उपचेतन तभी सक्रिय होता है, जब चेतन मन सो जाता है। सामान्यतया हमारा शरीर ही सोता है, चेतन मन नहीं, जिसे मस्तिष्क भी कह सकते हैं। सोते समय मन में चलते रहने वाले विचारों और कल्पनाओं की दृश्यावली साधारण स्वप्नों के रूप में उभर कर आती है। लेकिन जब मस्तिष्क भी थका होता है, चेतन मन भी सो जाता है, तो गाढ़ी नींद की स्थिति होती है। कार्ल युँग के अनुसार उस गाढ़ी नींद के समय उपचेतन मन सक्रिय होता है।
फ्लोरेन्स (इटली) के मनःशास्त्री गेस्टन डगदियानी का कहना है कि सक्रिय मस्तिष्क में चले जाने के बाद दिखाई पड़ने वाले स्वप्नों में कई ऐसे संकेत ढूँढ़े जा सकते हैं, जो महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इस स्थिति में बहुतों को ऐसे आधार हाथ लगते हैं, जिन्हें बहुत माथापच्ची करने के बाद भी नहीं समझा जा सका है। अपने स्वयं के स्वप्न का विश्लेषण करते हुए उन्होंने यह बात कही थी।
घटना उस समय की है, जब गेस्टन सात वर्ष की आयु के बालक थे। तब वे प्रायः सपना देखा करते थे कि वे किसी बहुत बड़े मन्दिर में पुजारी का काम करते हैं। सपना इतना स्पष्ट था कि इमारत का नक्शा उनके मस्तिष्क में जमा रहा और उस स्वप्न की गहरी छाप भी उनके मस्तिष्क में जमी रही। एक बार जब वे भारत आये तो उन्होंने फिर वैसा स्वप्न देखा। भारत मन्दिरों का देश है यह तो उन्हें मालूम ही था, अतः वे अपनी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सभी प्रख्यात मन्दों में गए। खोजते-खोजते वे महाबलीपुरम के एक मन्दिर में गए, तो उसे देखकर वे सन्न रह गए। यह मन्दिर हू ब हू स्वप्न में देखे गए मन्दिर के समान था। इस स्वप्न का विश्लेषण उन्होंने पूर्व जन्म की स्मृति बताते हुए किया है।
स्वप्नों के साथ जुड़ी हुई दूरदर्शन, अविज्ञात का ज्ञान और भविष्य के पूर्वाभास की घटनाएँ भी यही सिद्ध करती हैं कि मनुष्य की चेतना स्वप्नों के माध्यम से सूक्ष्म जगत की हलचलों के साथ संपर्क स्थापित कर लेती हैं। मस्तिष्क या चेतन मन के शिथिल होते ही मनुष्य की सूक्ष्म चेतना पर छाया रहने वाला उनका आवरण हट जाता है और उसका संपर्क दिव्य चेतना से जुड़ जाता है। ध्यान- धारणा, समाधि और योग निद्रा के समय भी चेतन मन तथा बुद्धि की दौड़-धूप कम हो जाती है और उस समय भी अन्तःचेतना के साथ संपर्क कर लेती है। विराट चेतनापूर्ण समाधि अथवा अर्ध समाधि की स्थिति में साधकों को जो दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं, उन्हें जाग्रत एवं अधिक यथार्थ स्वप्न कहा जाय तो उसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी।
प्रसिद्ध मनोविज्ञानी हैफनर मारस का तो कहना है कि अपनी अंतश्चेतना को इस प्रकार प्रशिक्षित भी किया जा सकता है कि वह स्वप्नों का संकेत समझ सकें। सिडनी के टामफीचर नामक व्यक्ति ने तो यह कर भी दिखाया है। इतना ही नहीं उन्होंने ऐसी क्षमता भी अर्जित कर ली है कि जाग्रत स्थिति में न सुलझायी जा सकने वाली समस्याओं और गुत्थियों को वे स्वप्नों के माध्यम से सुलझा सकें। इस क्षमता को प्राप्त करने के लिए उन्होंने वर्षों तक अभ्यास किए थे। टामफीचर की स्वप्न सिद्धि के कई प्रमाण सिडनी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं।
एक प्रमाण तो सिडनी के नगर के पुलिस दफ्तर में भी दर्ज है। इसमें फीचर ने एक चुराए गए बालक को अपहरण कर्त्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने में पुलिस की सहायता की थी। बालक इस समय कहाँ है, उसे किन व्यक्तियों ने चुराया है और उनका क्या पता ठिकाना है, वे बालक का क्या-क्या यातनाएँ दे रहे हैं आदि बातों का विवरण टामफीचर ने स्वप्न में देखकर बताया था और इसके लिए डिनी पुलिस ने उन्हें दो हजार डालर पुरस्कार स्वरूप भी दिए थे।
योग साधना, ध्यान, अभ्यास और आत्मिक साधनाओं द्वारा हो अथवा पूर्व जन्मों के संस्कारों के परिणाम स्वरूप, जब व्यक्ति का आत्मिक स्तर उठ जाता है कि उसका मन आत्मा की सनिनधि में पहुँच जाय, तो वह इस स्तर की अनुभूतियाँ स्वप्नों के माध्यम से प्राप्त करता है। उपचेतन मन ऐसे स्वप्न संकेत ही पकड़ता है जिनसे किसी का भला होता हो अथवा अपना पवित्र साध्य भी पवित्र साधनों से सधता हो। स्वप्नों के माध्यम से आज तक न तो किसी को अनीति अपनाने अथवा अवाँछनीय लाभ उठाने के संकेत मिले हैं अथवा न किसी को पहुँ की ही प्रेरणा मिली है। ऐसे उदाहरण अवश्य मिलते हैं जिनमें व्यक्ति के अपने सौभाग्य उदय में आ रहे अवरोधों को हटाने की प्रेरणा मिली हो।
स्वप्नों के माध्यम से विराट चेतना व्यक्ति को दिशा बोध भी प्रदान करती है, जैसे-सुदूर चौकियों पर लड़ रहे सैनिकों को उनके अफसर वायरलैस अथवा ट्राँसमीटर संकेत देता है कि अमुक दिशा में बढ़ो। अमुक मोर्चे पर आक्रमण करो। उसी प्रकार विराट चेतना भी व्यक्ति चेतना का मार्गदर्शन करती है। अमेरिका के चार्ल्स फिल्मोर को प्राप्त प्रमाणित करता है।
चार्ल्स फिल्मोर एक सात्विक प्रकृति के व्यक्ति थे। वे स्वयं ध्यान साधना का अभ्यास करते और लोगों से भी कराते थे। एक रात उन्होंने स्वप्न देखा कि एक अपरिचित व्यक्ति उन्हें अपने पीछे-पीछे आने का संकेत कर रहा है। वे उसके पीछे-पीछे चल पड़े और कंसासनगर में पहुँच गए। फिर वह व्यक्ति उन्हें ऐसे स्थान पर ले गया जो उनके लिए अपरिचित था। वहाँ उसने चार्ल्स के हाथ में एक समाचार पत्र दिया, जिसका पहला अक्षर ‘सू’ ही वे पढ़ पाए थे कि एक के बाद एक अनेक समाचार पत्र उनके हाथों में आते गए। साथ ही उन्होंने देखा कि सामने बैठे बहुत से व्यक्ति ध्यान कर रहे हैं।
स्पष्ट ही इस स्वप्न का अर्थ उन्होंने लगाया कि वे ध्यान साधना का प्रचार करे। संयोग की बात, एक दिन कुछ लोगों ने उनके पास आकर इस कार्य को संगठन बद्ध प्रचार करने का प्रस्ताव रखा इसके बाद चार्ल्स फिल्मोर कंसास शहर चले गए। वहाँ के लोगों ने जिस स्थान पर संस्था का कार्यालय खोलने की बात कही, वह स्थान यूँ तो चार्ल्स के लिए अपरिचित था, परन्तु उन्होंने पाया कि स्वप्न में जिस स्थान को उन्होंने देखा था, यह वही स्थान है। उसी स्थान पर सोसाइटी ऑफ सायलेन्ट यूनिटी नामक संस्था की स्थापना की। संस्था की ओर से जो समाचार पत्र निकाला गया, उसका प्रथम अक्षर ‘यू’ ही था और अखबार का नाम ‘यूनिटी’ रखा गया। बाद में और भी पत्र-पत्रिकाएँ वहाँ से छपीं और स्वप्न का तथ्य सत्य हो गया।
कई बार स्वप्न इतने प्रेरक होते हैं कि उनका कारण मनुष्य की जीवन दिशा ही बदल जाती है। सभी जानते हैं कि भगवान बुद्ध राजकुमार थे। उनके वीतराग संन्यासी हो जाने की भविष्यवाणी ज्योतिषियों से सुनकर शुद्धोधन ने इस बात का हर सम्भव प्रयास किया था कि उनके सामने कोई दुःखद प्रसंग न आने पाए। फिर भी उन्होंने एक वृद्ध एक रोगी और एक शव यात्रा का देखकर जीवन प्रवाह के मोड़ देखे। इन घटनाओं ने उनके चित्त को विचलित किया। एक दिन उन्होंने स्वप्न देखा कि कोई श्वेत वस्त्रधारी एक वयोवृद्ध दिव्य पुरुष आया और उनका हाथ पकड़ कर श्मशान ले गया। उँगली का इशारा करते हुए उस दिव्य पुरुष ने बताया देख ! यह तेरी लाश है। इसे देख और प्राप्त हुए जीवन का सदुपयोग कर। आँख खुलते ही राजकुमार सिद्धार्थ ने निश्चय कर डाला कि इस बहुमूल्य सौभाग्य का उन्हें किस तरह का सदुपयोग करना है, जीवन का क्या प्रयोजन है और वे उसी क्षण रात में ही अपने राज-पाट को छोड़ कर श्रेय की खोज में निकल पड़े तथा उसे प्राप्त कर ही लिया।
फ्राँस की राज्यक्रान्ति की सफल संचालिका ‘जोन ऑफ आर्क’ एक मामूली से किसान के घर में जन्मी थी। अपने पिता के घर ही उसने स्वप्न देखा कि आसमान से कोई फरिश्ता उतर कर आया है तथा उससे कह रहा है कि अपने को पहचान। समय की पुकार सुन और स्वतंत्रता की मशाल जला। उस फरिश्ते ने जोन के हाथों में एक जलती हुई मशाल भी दी। नींद खुलने पर जोन ने इन बातों को गाँठ में बाँध लिया और उसी समय से फ्राँस को स्वतन्त्र कराने के लिए उत्साह के साथ काम करने लगी। इतिहास साक्षी है कि जोन ने कितनी वीरता के साथ स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा और अपने कर्तृत्व से स्वयं को अमर कर गयी।
इस तरह के दिव्य आभास और दिव्य प्रेरणाएँ देने वाले स्वप्न उन्हीं व्यक्तियों को आते हैं, जिनकी मनोभूमि अधिक विकसित होती है। पूर्व संचित संस्कारों के करण भी किन्हीं-किन्हीं में ऐसी विशेषता पायी जाती है। कई लोग साधना-उपासना द्वारा अपनी मलीनताओं तथा विकृतियों का
शोधन करके भी इस प्रकार की आत्मिक प्रखरता उत्पन्न करते हैं और स्वप्नों के माध्यम से ऐसे संकेत प्राप्त करते हैं जो आत्म तत्व की खोज में सहायक होते हैं अथवा आत्मसत्ता के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं। ऋषि पिप्पलाद ने निद्रा को इसलिए यज्ञ कहा है, कि इस अवस्था में वैयक्तिक चेतना, परम चेतना के साथ आसानी से एकाकार हो जाती है। माण्डूक्योपनिषद् में बताया गया है-
स्वप्न स्थानोऽन्तः प्रज्ञः सप्ताँग एकोनविंषतिमुखः प्रविविक्त भुक् तेजसो द्वितीयः पादः ॥4॥
अर्थात्-स्वप्न अवस्था में जब मन सो जाता है, तब उसकी प्रज्ञा बुद्धि अन्दर ही काम करने लगती है। इस समय उसके सातों अंग (पाँच तन्मात्राएँ, अहंकार और महत् तत्व) उन्नीस मुख (दस इन्द्रियाँ, पाँच प्राण, और चार अन्तःकरण) भी उसी में लीन हो जाते हैं, जिनसे आत्मा शरीर के समान ही संसार का भोग करता है। यह आत्मा का तेजस द्वितीय पाद है। अर्थात् यह जागृति और सुषुप्ति के बीच की अवस्था आत्मतत्व की खोज में सहायक हो सकती है।
स्वप्न मन को आत्मा से जोड़ने वाली अवस्था के रूप में भी बदले जा सकते हैं। शास्त्रकारों के अनुसार इसके लिए साधना उपासना द्वारा अपनी चेतना का परिष्कार मलीनताओं का निवारण तथा आत्म शोधन के द्वारा अपने व्यक्तित्व का परिपाक करना पड़ता है। जिस समय चेतना पूर्णतया निर्मल शुद्ध हो जाती है, उस आत्म सत्ता में
परमात्म सत्ता का उसी प्रकार अनुभव किया जा सकता है, जिस प्रकार कि सामने बैठे हुए व्यक्ति या रखी हुई वस्तु का।
साधना क्षेत्र में आत्मिक प्रगति की कितनी मंजिल पार कर ली गयी है, इसका पता भी स्वप्नों से लगाया जा सकता है। पुराणों और आर्ष ग्रन्थों में इस प्रकार के कई स्वप्नों का उल्लेख आता है, जिनसे यह पता चलता है कि साधना क्षेत्र में हमारी प्रगति किस गति से हो रही है। स्वप्नों के संकेत यदि समझना सम्भव हो सके, तो न केवल आत्मिक स्थिति का स्तर मालूम किया जा सकता है, वरन् उसके माध्यम से सूक्ष्म को समझ पाना तथा उसके साथ ताल-मेल बिठाना भी सम्भव हो सकता है। प्रश्नोपनिषद् में महर्षि ने निद्रा को इसीलिए यज्ञ कहा है कि उस अवस्था में चेतना के अन्तर्मुख होने की सम्भावना अधिक रहती है और शरीर के सोते रहने पर भी मन न केवल सूक्ष्म जगत का ज्ञान प्राप्त कर सकता है बल्कि आत्मा को अलौकिक सान्निध्य भी पा सकता है। अन्यथा निद्रा आलस्य प्रमाद की तामसिक वृत्ति भी हो सकती है।