Magazine - Year 2001 - Version 2
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Language: HINDI
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अध्यात्म पथ के पथिकों का पत्रों से मार्गदर्शन
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महामानवों के अवतरण का एक सर्वाधिक प्रमुख लक्ष्य होता हैं लोकशिक्षण। यह कार्य वे लेखनी से भी करते हैं, वाणी से भी तथा अपने आचरण से भी। जैसा भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैं, मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः (ब्/क्क्) “सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।” वही बात गुरुजनों पर भी लागू होती हैं। गुरुसत्ता का अवतरण ही इसीलिए होता है कि अध्यात्म पथ के पथिकों को दैनंदिन जीवन साधना, आत्मिक प्रगति संबंधी मार्गदर्शन समय-समय पर मिल सके। हम सभी सौभाग्यशाली हैं कि ऐसी गुरुसत्ता हम सभी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती चली गई। गुरुदेव द्वारा अपने शिष्यों को लिखे पत्र इसी कारण हम प्रतिमाह परिजनों-पाठकों को पढ़वाते हैं, ताकि वे गुरुसत्ता के सूक्ष्म व कारण रूप से आज भी वही शिक्षण ले सके, जो सभी कतिपय साधकों ने स्थूल शरीर द्वारा अपनी उंगलियों से लिखी गई उनकी पाती से लिया था।
क्−ब्ख् (माह व तारीख स्पष्ट नहीं हैं) में एक साधक को लिखे पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-
“तमोगुण की उच्च कक्षा वीरता, साहस एवं अन्याय निवारण हैं। रजोगुण की उच्च कक्षा लोक संग्रह, परमार्थ एवं पवित्रता है। सतोगुण की उच्च कक्षा प्रेम, दया एवं त्याग है। आप लोग प्रेम की भूमिका में आगे बढ़ रहे हैं, यह अतीव संतोष की बात हैं।”
पत्र को सभी पाठक दो बार पढ़े एवं इस भाषा पर ध्यान दें। गूढ़ तत्वदर्शन मानो इन तीन पंक्तियों में पिरो दिया गया है। तमोगुण, रजोगुण सतोगुण की इससे सुँदर व्याख्या और क्या हो सकती है। अपने अंदर सबके प्रति प्रेम का विस्तार ‘वसुधैव कुटुँबकम्‘ की भावना, औरों के लिए और भी अधिक त्याग करने की वृत्ति जिसमें विकसित होती चले, मानना चाहिए कि सतोगुण न केवल बढ़ रहा हैं, जिसकी उच्चतर कक्षा में हम प्रविष्ट होते जा रहे हैं। यही तीन गुण तो हैं जो किसी के व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं।
क् जनवरी क्−म् का लिखा एक और पत्र यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। जिसमें वे लिखते हैं-
“अध्यात्मिक साधनाएँ बरगद के वृक्ष की तरह धीरे-धीरे बढ़ती हैं, पर वे होती टिकाऊ हैं। आपका साधन वृक्ष सुचारु रूप से बढ़ रहा है। उस पर मनोलय आदि की सफलता के फल भी यथासमय अवश्य लगेंगे। इन कार्यों से प्रगति धीरे-धीरे होती हैं और कुछ विलंब भी लगता है। आपकी साधना कुछ ही समय में फलरूप में परिणत होने लगती।”
साधना को बरगद के वृक्ष की तरह बढ़ने की उपमा देकर मानो गागर में सागर समाहित कर दिया गया है। गीता के पुरुषोत्तम योग में योगेश्वर श्रीकृष्ण को समझाने में बीस श्लोकों का प्रयोग करना पड़ा, किंतु यहाँ यदि देखें तो इन चार-पाँच पंक्तियों में सारा-का-सारा मर्म अध्यात्म साधना का, पुरुष से पुरुषोत्तम बनने का छिपा पड़ा है। धैर्य साधना-क्षेत्र में अति अनिवार्य है। जल्दबाजी, आतुरता से असमंजस पैदा होता है एवं फिर यही आशंका क्रमशः अश्रद्धा में या चिह्न−पूजा में बदल जाती है। हर व्यक्ति सफलता देखना भी चाहता है। यह आश्वासन पूज्यवर की पाती में साकार उतरता है।
सहज भाव से लिखी एक छोटी-सी बात एक अन्य पत्र के माध्यम से जो बाँदा के श्री बद्रीप्रसाद पहाड़िया जी को ख्त्त्-ख्-भ्फ् को लिखा गया था, किस तरह संप्रेषित कर दी गई, यह देखने योग्य है। वे लिखते हैं-
“बच्चे की फीस माफ हो गई, सो ठीक है। आपके ऊपर चढ़ी हुई जन्म-जन्माँतरों की मलीनतारूपी फीस भी प्रिंसीपल परमात्मा माफ करेंगे। अब आपको गृह निवासा साधु के रूप में जीवन व्यतीत करना है।”
पत्र की भाषा देखें। बच्चे की फीस माफ होना एक लौकिक कार्य है। वह शरीरधारी एक प्रिंसीपल के बस की व बच्चे के पुरुषार्थ के वश की बात थी। पर उसी बात को परलौकिक शब्दावली के साथ जोड़ते हुए जो पूज्यवर लिख गए हैं, वह शोधकर्ताओं के लिए आगे कई वर्षों तक एक चुनौती बना रहेगा। वे लिखते हैं उपमा देकर कि इसी तरह आपकी आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मष, मलिनताएँ परमात्मा द्वारा साफ कर दी जाएं, ऐसी हम प्रार्थना करते हैं। यहाँ परमात्मा को प्रिंसिपल की उपमा दी गई हैं एवं फीस से आशय हैं-जन्म-जन्माँतरों से चले आ रहे मलीन आवरण। भाषा का सौष्ठव-सुगठन इससे अधिक सुँदर और क्या हो सकता है। बारंबार कलम चूमने का मन करता है। इच्छा होती है कि सतत इसी चिंतन को पढ़-पढ़कर अपनी मुक्ति का पथ भी प्रशस्त कर लिया जाए। इससे बड़ी प्रार्थना और हो भी क्या सकती है कि हम चाहेंगे कि ऐसा हो एवं आप गृह निवासी साधु के रूप में, एक सद्गृहस्थ होते हुए भी निर्लिप्त कर्म करने वाले साधक के रूप में प्रतिष्ठित हों।
मनुष्य कभी-कभी बड़ा डाँवाडोल हो जाता हैं, जीवन समर में चलते-चलते। कभी प्रगति के अवसर प्रशस्त होते दीखते हैं, तो कभी लगता है कि अब सब कुछ चुक गया, कोई भी शक्ति अब बचा नहीं सकती। अवसाद-उत्साह के हिचकोले सहज ही जीवन में आते रहते हैं। ऐसी स्थिति में पत्र लिखने पर गुरुसत्ता का प्रत्युत्तर क्या होता था, यह जान लेना ठीक रहेगा, सभी को शिक्षण भी इससे मिलेगा।
“हमारे आत्मस्वरूप ख्क्/क्क्/भ्ख्
आपका पत्र मिला। कुशल समाचार पढ़कर प्रसन्नता हुई। धूप-छाँह की भाँति मनुष्य के जीवन में तीनों गुणों के उभार आते रहते हैं। समुद्र में ज्वार-भाटे की तरह मन भी कई बार चढ़ाव-उतार के झोंके लेता रहता है। महाभारत के बाद पाँडवों ने श्रीकृष्ण जी से युद्ध के समय कही हुई गीता पुनः सुनाने की प्रार्थना की, तो श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि “उस समय मेरी जो आत्मिक स्थिति थी, वह अब नहीं है। इसलिए वह गीता तो नहीं सुना सकता, पर दूसरा अनुगीता के नाम से सुनाता हूँ।” इस प्रसंग से यह आदर होता है कि बड़े-बड़े की मनोदशा में उभार आते रहते हैं। आपको भी वैसा ही हुआ हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। साँसारिकता के जो विशेष अनुभव पिछले दिनों आए, वे भी स्थाई नहीं है। बदली हटते ही फिर सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाएगा। आपका आधार बहुत मजबूत है। उसे पकड़े रहने वाले व्यक्ति की कभी दुर्गति नहीं होती।”
जीवन का व्यावहारिक पक्ष कुछ ऐसा हैं, जिसमें सभी सफल नहीं हो पाते। बड़ों के, भगवान् स्तर की सत्ता के उदाहरण देकर यहाँ हमारे पूज्यवर गुरुदेव बड़ा ही स्पष्ट चिंतन सामने रखते हैं कि कोई भी अपवाद नहीं है मनःस्थिति किसी की भी कभी भी गड़बड़ा सकती है। आशावाद ही जीवन है। अंधकार कितना भी घना क्यों न हो, सूर्य कदापि आशा नहीं छोड़ता कि दिनमान नहीं होगा। वह तो भवितव्यता है। ऐसी बदलियाँ आए दिन हम सबके जीवन सूर्य पर भी आती रहती है। हमें बिना घबराए उनका सामना करते रहना चाहिए। यह जीवन जीने की कला है। यही वस्तुतः सही मायने में अध्यात्म है।
साधक के लिए एक बड़ा रोमाँचकारी विषय हैं कुँडलिनी जागरण। कब जगेगी गुरुकृपा से कुँडलिनी? कब वे विलक्षण अनुभव होंगे, यह जिज्ञासा सहज ही मन में बनी रहती है। ऐसी स्थिति में जिन्हें मार्गदर्शन नहीं मिल पाता, वे गड़बड़ा जाते हैं, जो उंगली पकड़कर गुरुसत्ता आश्रय में चलते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। वे प्रगति की ऊँची कक्षाओं को पार कर जाते हैं। कानपुर के श्री रामदास वर्मा को क्स्त्र-ख्-भ्क् का लिखा एक पत्र साक्षी रूप में प्रस्तुत हैं-
“कुँडलिनी जगाने के लिए हठयोग की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। जब वह जागती हैं, तो सर्प की तरह फुसकारती हुई ऊपर चलती हैं और हाड़-माँस सबको चाट जाती है। अस्थि-पिंजर मात्र मनुष्य रह जाता है और उस पर फिर नया रक्त-माँस आता है। वह साधनाएँ काफी क्लिष्ट हैं। तुम्हारे लिए ब्रह्म कुँडलिनी का मार्ग उचित है। हम ऐसे सीधे मार्ग पर आपको लिए चल रहे हैं, जो तनिक भी कठिनाई या झंझट का सामना किए बिना परम लक्ष्य तक पहुँचा दें। आपकी यात्रा अत्यंत संतोषजनक रीति से आगे बढ़ रही है। आपको अपनी यात्रा ढीली मालूम पड़ती है और अधिक कष्टसाध्य तथा तीव्र उपासना करने की इच्छा होती हैं, यह आपकी प्रगति का प्रधान लक्षण है। यदि आपकी गति रुक जाएगी, तो आपका उत्साह ठंडा हो जाएगा और श्रद्धा शिथिल पड़ जाएगी। आपकी श्रद्धा और तीव्र उत्कंठा को देखकर हम यह जान लेते हैं कि आपकी प्रगति किस प्रकार हो रही है।”
पत्र बड़ा स्पष्ट हैं एवं सभी साधकों के लिए गायत्री जयंती की बेला में मार्गदर्शक है। हमारी साधना कैसी हो, किस तरह हम उसे गति दें, इस संबंध में परिपूर्ण मार्गदर्शन है। ब्रह्म कुँडलिनी का मार्ग क्या हैं, कैसे आगे बढ़ा जाए? यह पूज्यवर की लेखनी से ही विस्तृत मार्गदर्शन हम आगे प्रस्तुत करते रहेंगे। अभी तक हम गुरुदेव के लिखे पत्रों की ही बात करते रहे हैं, किंतु गुरुदेव स्वयं इसी उपर्युक्त पत्र के आरंभ में अपने भक्तों के पत्रों के बारे में क्या कहते हैं, यह पढ़कर इस लेख को विराम देंगे।
“आपका पत्र जब आता हैं, तब आँतरिक स्नेह उमड़ पड़ता हैं। पत्र को बार-बार पढ़ लेने पर भी उसे हाथ से अलग करने की इच्छा नहीं होती। पत्र के बातें तो साधारण होती हैं, पर उसके चारों ओर जो मधु चिपका होता हैं, उसका रसास्वादन करते-करते तृप्ति नहीं होती।”