Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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काश! अपनी जीवात्मा को भी वह सुयोग मिले
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गज और ग्राह की कथा है कि गज ग्राह के मुँह में फंस गया। एक पैर उसने निगल लिया और खींचकर गहरी नदी में ले गया। हाथी ने किनारे पर निकलने की बहुत कोशिश की। ग्राह की शक्ति गज से कम न थी। जब हाथी गहराई में चला गया और सूँड का सिरा मात्र बाहर रह गया तो उसने बचने की कोई रत न देखकर भगवान को पुकार लगाई। भक्तवत्सल आए और उन्होंने ग्राह के मुख से गज को छुड़ाया। इस प्रकार ‘गजेन्द्र मोक्ष’ का कथानक पूरा हुआ।
इस कथानक का आध्यात्मिक रहस्य यह है कि जीवनरूपी गज शरीररूपी ग्राह के मुँह में फंस गया। निकलने का प्रयत्न करने के रूप में वह पूजा-पाठ-तप भी बहुत करता है, पर बाहर निकल नहीं पाता। पुरुषार्थ निरर्थक चला जाता है। अंत में स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि नाममात्र को सूँड का अग्र भाग बाहर रह जाता है और उसकी समूची सत्ता ग्राह के क्षेत्र में नदी के कीचड़ में फंस जाती है। ग्राह खींचता है। मायारूपी कीचड़ हाथी के भारी-भरकम शरीर को और भी अधिक जकड़ती जाती है, फिर निकलना कैसे हो पाए?
आत्मा अपने स्वरूप, लक्ष्य, दायित्व को एक प्रकार से पूरी तरह भूल जाती है। उसकी सत्ता शरीराभ्यास में पूरी तरह जकड़ जाती हैं कहने को आत्मा और शरीर दो नामों से जाने जाते है। दोनों की भिन्नता भी सर्वविदित हैं इस पृथकता और आमतौर से चर्चा भी होती हैं। इतना ही नहीं इसके प्रत्यक्ष प्रमाण आए दिन मिलते रहते हैं यदि थोड़ी देर भी लाश रखी रहे तो वह स्वयं सड़ने लगती है। सड़न तभी तक रुकी रहती है, जब तक प्राण है, अन्यथा काय-कलेवर उन्हीं तत्वों में मिल जाने के लिए व्यग्र हो उठता है, जिससे मिलकर वह बना था। स्पष्ट है कि काया और आत्मा की सत्ता पृथक-पृथक हैं आत्मा प्रमुख है। काया उसका वाहन, आवरण, उपकरण। दोनों परस्पर मिलजुलकर काम तो करते है, उनकी पृथकता बनी ही रहती है।
आश्चर्य इस बात का है कि जीवात्मा अपनी मूलभूत सत्ता, महत्ता, गरिमा और दिशाधारा को पूरी तरह भूल जाती है। शरीरगत इच्छाएं, कामनाएं, लिप्साएं जिधर भी चाहती है, उधर ही उसे घसीट ले जाती हैं यात्री नाव पर बैठता तो अपनी इच्छा से, पर बैठने के बाद पराधीन हो जाता है। नाविक असावधान हो तो नाव लहरों के साथ किसी भी दिशा में चल पड़ती है। लहरों की ठोकरें खाते-खाते किसी चट्टान से टकराकर उलट भी सकती है, भंवर में फंसकर डूब भी सकती है। यात्री को तैरना न आता हो तो फिर बेचारे का ईश्वर ही मालिक है।
शरीर उन्हीं पंचतत्वों का बना है, जिनसे कि यह विचित्र आकृति और प्रकृति वाला संसार। इसलिए सजातीय होने के कारण वे एक दूसरे को परस्पर खींचते और खिंचते है। शरीर को संसार में बहुरंगे स्वादों एवं आकर्षणों में बहुत रस आता है। उसका सोना-जागना सब इसी क्षेत्र में होता है। इसलिए असाधारण तन्मयता की डोर में वे गुँथ जाते हैं। मछली और पानी यद्यपि अलग-अलग हैं, फिर भी मछली उसके साथ इतनी तादात्म्य होती है कि साथी के बिना जीवित नहीं रह सकती। शरीर इंद्रिय लिप्सा और ममताजन्य तृष्णा में पूरी तरह लिपटा रहता है। इन्हें न छोड़ना चाहता है, न साधारणतया यह बंधन टूटता है भवबंधन इसी को कहा जाता है। उसका अर्थ है-मनुष्य का लिप्सा-लालसा के साथ पूरी तरह जकड़ जाना।
शरीर और संसार के प्रति यह बंधन अत्यधिक घनिष्ठ बन जाते है और दोनों की स्थिति अविच्छिन्न जैसी लगती है। इस स्थिति का दुर्विपाक यह है कि आत्मा अपने मूलभूत आधार परमात्मा की ओर से मुँह मोड़कर इस शरीर को ही अपना सर्वस्व मानने लगती है, जो स्वयं जड़ पदार्थों से बनता और उन्हीं में अहिर्निश रमण करता रहता है।
मान्यता की दृष्टि से शरीर और आत्मा को पृथक मानने में सैद्धांतिक रूप से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए पर व्यवहारतः सब कुछ उलटा ही होता है। ‘स्व’ परक सभी अनुभूतियाँ इस प्रकार होती है, मानो ‘अहम्‘ की समूची परिधि शरीर और इच्छा, इच्छाओं एवं मान्यताओं के साथ एकाकार हो गई है, दूध-पानी की तरह घुल-मिलकर एकात्म स्थापित कर चुकी है। अनुभूतियाँ ही अभ्यास बन जाती हैं। मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता, मानता और करता है, वह समग्र रूप से शरीर से ही संबंधित होता है। शरीरगत स्वार्थ ही इष्ट बन जाता हैं। आत्मकल्याण का प्रयोजन साधने वाले परमार्थ की पूरी तरह उपेक्षा करने लगते हैं
आत्मा ईश्वर का अविनाशी अंश हैं उसका सघन संपर्क ब्रह्मचेतना के साथ ही है। मनुष्य उसकी सर्वोपरि कलाकृति है, जो इसलिए मिली है कि उसे धरोहर समझा जाए और परमार्थ प्रयोजन की सिद्धि की जाए। परमार्थ के दो भाग है- सिक्के के दो पहलू की तरह एक आत्मकल्याण दूसरा लोकमंगल। यही है जीवनलक्ष्य। इसी में इस जीवन की सार्थकता निहित है, किंतु इसके लिए प्रायः कुछ भी करते धरते नहीं बन पड़ता। शरीर की वासना, तृष्णा और अहंता की जकड़ इतनी मजबूत होती है कि उसे छोड़कर अन्य किसी कार्य के लिए अवकाश ही नहीं रहता, उत्साह ही नहीं जगता। जन्म मरणपर्यंत शरीर भाव ही छाया रहता है और उसी की कामनापूर्ति के लिए अहिर्निश प्रयास चलता रहता हैं आत्मकल्याण के लिए जीवनलक्ष्य की पूर्ति के लिए जो किया जाना चाहिए, उसे करने में पग-पग पर व्यस्तता आड़े आती रहती है। अरुचि और उपेक्षा का भाव भी बना रहता हैं आत्मप्रवंचना के लिए पूजा-पाठ की उलटी-सीधी लकीर भर पीटी जाती है, मानों ईश्वर मनुहार और उपहार पाने के लिए ही लालायित बैठा रहता हो। उसे उस प्रयोजन की चिंता एवं स्मृति ही नहीं है, जिसके लिए इस सुरदुर्लभ जन्म की बड़ी आशाओं के साथ धरोहर रूप में सुपुर्द किया गया है।
शरीर भाव और आत्म भाव का गुँथ जाना ही माया की ग्रंथि हैं यही हथकड़ी, बेड़ी और ताले की तरह भवबंधन में बाँधती है एवं भ्रम-जंजाल में भटकती है। दोनों की पृथकता का भाव जाग्रत होने पर कर्तव्य भी बंट जाते है। शरीर को कार्यरत रह सकने योग्य बनाए रखने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं का प्रबंध करने पर काम चल जाता है और इसके उपराँत इस कलेवर से उन कार्यों को करने के लिए योजनाबद्ध रूप से अग्रसर होना पड़ता है, जो लक्ष्य एवं इष्ट है। स्वार्थ को सीमित करके परमार्थ को असीम बनाना ही वह निर्धारण है, जिसे अपनाने पर उन विभूतियों की प्राप्ति होती है, जिन्हें स्वर्ग, मुक्ति एवं ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जाना जाता है।
परम पुरुषार्थ के नाम से एक ही सफलता को माना गया है कि शरीर और आत्मा की पृथकता एवं विधि व्यवस्था को भली प्रकार आत्मसात कर लिया जाए। उसी दृष्टि से सोचा और उसी विधि से योजनाबद्ध क्रिया-विधान बनाया जाए।
ऐसी सूझ-बूझ ही ईश्वर की वास्तविक अनुकंपा है। गज की पुकार पर भगवान चक्र सुदर्शन लेकर दौड़े थे और अपने भक्त को ग्राह के पाश से, सरोवर के दलदल से उबारा था। शरीराभ्यास ही ग्राह है और सांसारिक प्रलोभनों का आकर्षण ही दलदल भरा सरोवर। इससे त्राण पाने में गज सफल हुआ था। देखना है कि अपनी जीवात्मा को यह सुयोग मिलता है या नहीं?