Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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युगगीता-47- - 'महावाक्य' से समापन होता है कर्म संन्यास योग की व्याख्या का
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(कर्म-संन्यास-योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की ड़ड़ड़ड़)
पिछली कड़ी में श्लोक क्रमाँक 26,27,28 की विस्तृत व्याख्या के साथ एक महावाक्य के रूप में 29 वें अंतिम श्लोक की संक्षिप्त टिप्पणी दी गई थी। पाँचवाँ अध्याय इन चारों के माध्यम से पराकाष्ठा पर पहुँचा है। पहले तो यह कहा गया कि काम-क्रोध आदि विकारों से युक्त, संयत चित वाले आत्मज्ञ योगीजन (यती) शरीर छोड़ने से पूर्व व बाद ब्रह्मनिर्वाण की स्थिति को प्राप्त होते हैं अर्थात् परब्रह्म परमात्मा से साक्षात्कार कर पाते है। इसके बाद योगेश्वर श्रीकृष्ण ध्यानयोग की पृष्ठभूमि तैयार करते है। वे 27 वे व 28 वें श्लोक में ध्यान का स्वरूप व उसकी महिमा बताते हैं। वे विधि भी बताते है। कि बाह्य विषयों को कैसे मन से बाहर रखकर, चक्षुओं को भ्रूमध्य मार्ग में स्थित करें एवं प्राण-अपान को समभाव से स्थित रखकर, इच्छा-भय-क्रोध से रहित होकर मोक्ष को प्राप्त करें। अपने आप से साक्षात्कार का सबसे श्रेष्ठ तरीका है ध्यान। तनाव से मुक्त हो बंधनमुक्ति का पथ प्रशस्त करता है ध्यान। इसके बाद श्रीकृष्ण कहते है कि जब ऐसा साधक मुझ श्रीकृष्ण रूपी भगवान को भी यज्ञों और तपों का भोक्ता, लोकों का महेश्वर तथा सभी प्राणियों का हितैषी, उनके प्रति दयालु, इस रूप में जान लेता है तो वह परमशांति रूपी मुक्ति को प्राप्त होता है। यह महावाक्य है। इसी की विशद व्याख्या व पूरे अध्याय की एक समीक्षा इस समापन कड़ी में है।
महावाक्य एवं उसकी व्याख्या
श्री भगवान इस अंतिम श्लोक में जो कह रहे है वह भलीभाँति समझने योग्य है। दो पंक्तियों में मानों वेदव्यास ने श्रीकृष्ण के सारे प्रतिपादन को समाहित कर दिया है। कर्मयोग की महत्ता बताते-बताते भगवान सारी साधनाओं की सिद्धि का मर्म भी कह जाते है। वह मर्म है-ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को पहचानकर संपूर्ण समर्पण। भगवान को तत्व से जानना। अपने भी यज्ञीय कर्मों एवं तप साधनादि कठोर संयम से पाले गए व्रतों का भोक्ता प्रभु को मानना, स्वयं को नहीं। ईश्वर को स्वार्थरहित, पक्षपात रहित एवं दयालु मानकर उसके प्रति पूरे निष्ठाभाव से समर्पण। वह सुहृदय है, दयालु है, प्रेमी है, यह मानकर निष्काम भाव से अपने सभी कर्म एवं आत्मिक प्रगति के लिए किए गए साधना-उपचार करते चलना। कभी फल की कामना में जल्दबाजी न करना। यह गीता के योग की पराकाष्ठा है, जिसमें प्रभु इस महावाक्य के माध्यम से परमशाँति की मानों कुँजी अर्जुन के माध्यम से हमें सौंप देते है।
भोक्तारं यज्ञतपसाँ सर्वलाकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानाँ ज्ञात्वा माँ शाँतिमृच्छति॥
-5/29
यह जो अंतिम श्लोक है पाँचवें अध्याय का, सभी साधकों के लिए जो कर्म-संन्यासयोग जानना चाहते है, इस प्रकार से सूत्र रूप में की गई समग्र व्याख्या है। कर्मयोग में ज्ञान व भक्ति का स्थान-स्थान पर तालमेल पूर्वक समन्वय एवं जीवन को सर्वांगपूर्ण ढंग से जीने का विज्ञान गीता की विशेषता है। गीता जीवन प्रबंधन की पाठ्य पुस्तिका है एवं स्थान-स्थान पर योगत्रयी को जीवन में समाहित करने का संदेश देती रहती है। मानव की सबसे बड़ी इच्छा इस लोक में शाँति पाने की है। वह परमात्म-तत्व को जाने बिना संभव नहीं। परमात्मा को कर्म से समझकर कर्मयोग का भलीभाँति संपादन कर तथा इस परमपिता परमात्मा को सर्वलोक महेश्वर मानकर सर्वतो भावेन समर्पण-यही वह राजमार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य को शाँति मिल सकती है। तनावमुक्त जीवन, आत्मिक प्रगति का खुले वातायनों से भरा पथ इस प्रक्रिया से सुलभ हो जाता है।
सर्वलोक महेश्वर को अर्पण
चूँकि परमात्मा ही सभी प्रकार के यज्ञों एवं तपों के भोक्ता हैं, इसलिए मुक्ति की कामना रखने वाले सभी साधकों को अपने सभी कर्मों को यज्ञ व तप रूप में करते हुए विराट पुरुष उस महेश्वर को उनके फल को अर्पित कर देना चाहिए। मुक्त पुरुष यदि बंधनों से मुक्त भी हो गया है तो भी उसे लोकसंग्रह हेतु (लोकशिक्षण हेतु) कर्म करते रहना चाहिए अर्थात् भटकों को राह दिखाने, सन्मार्ग के पथ पर चलने का शिक्षण देते रहना चाहिए। छब्बीसवें श्लोक में भगवान ने एक शब्द का प्रयोग किया है-“ अभितो वर्तते”। निर्वाण केवल अंदर ही नहीं, हमारे चारों ओर भी विद्यमान हो। हम उस ब्रह्माचैतन्य में निवास करें। यही बात इस अंतिम श्लोक में बताई है कि वही मुनि है, जिसने अपने अंदर, अपने चारों ओर निर्वाण लाभ प्राप्त कर लिया है, फिर भी वह जीवमात्र के कल्याण में सतत निरत रहता है। जो भगवान के साथ उन्हें तत्व से जानकर एक रूप हो गया, वह मनुष्य मात्र से दिव्य प्रेम कर सकता है। ईश्वर को दयालु, प्रेमी मानने के बाद व्यक्ति उस विराट पुरुष का ही एक अंग बन जाता है एवं एक प्रकार से उनके कर्म को तत्व से जानकर शाँति की पराकाष्ठा को प्राप्त होता है।
अंतिम श्लोक रूपी महावाक्य-आखिरी वचन से जो हम कर्म समझ पाते हैं, वह हमारे जीवन के हर क्षम में उतर जाए तो हम एक सच्चे दिव्यकर्मी बन सकते है। ऐसे महामानव को कर्म करते हुए जो दिव्य शाँति मिलती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस अंतिम श्लोक में जो “सर्वलोकमहेश्वर” शब्द आया है, उसे कई बार हम कर्म रूप में समझ नहीं पाते। इसे समझाते हुए श्री जयदयाल गायंदका जी अपनी तत्ववेचिनी टीका में लिखते हैं कि अपने-अपने ब्रह्माँड का नियंत्रण करने वाले जितने ईश्वर हैं, भगवान उन सभी के स्वामी और महान ईश्वर-परमेश्वर है। श्वेताश्वेतर उपनिषद् का हवाला देते हुए वे कहते है, “तमीश्वराणाँ परमं महेश्वरम्“ (उन ईश्वरों के भी परम महेश्वर को) पद इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस रूप में भगवान को मानने वाला भक्त कभी भटकता नहीं। काम-क्रोधादि विकार उसके पास कभी फटकते नहीं। ऐसा भक्त शाँत, निर्विकार एवं सदैव प्रभु के ध्यान में डूबा रहता है।
भगवान को अहैतुक प्रेमी मान लेना व यह विश्वास करना कि वे जो भी कुछ करते है, मेरे मंगल के लिए करते हैं, इस श्लोक की धुरी है। लोग इस तथ्य को समझ नहीं पाते इसीलिए दुखी बने रहते हैं व कभी शाँति को प्राप्त नहीं होते। यदि सर्वशक्तिमान, सर्वनियंता व सर्वदर्शी परमात्मा हमें अपना सुहृद मानता है और हम भी इस तथ्य पर विश्वास कर उसे अपना सखा, प्रेमी, निःस्वार्थ भाव से साथ दे रहा सहयोगी मान लें तो हम अलौकिक आनंद प्राप्त करेंगे एवं अपूर्व शाँति को हस्तगत करेंगे।
भगवान को तीन गुणों से पहचानें
ऊपर तीन बातें बताई गई। भगवान को यज्ञों व तपों का भोक्ता मानना, समस्त लोकों का महेश्वर मानना तथा सभी प्राणियों का सुहृद मानना। यदि इन तीन में से साधक-योगी किसी एक पर भी अडिग रह दृढ़ विश्वास कर ले तो वह परमशाँति को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार एक दिव्यकर्मी वह ही है, जो इन तीनों के अर्थ को भलीभाँति समझकर किसी एक पर या तीनों पर दृढ़ विश्वास रख महापुरुषों के सत्संग, मनन, श्रेष्ठ पुस्तकों के स्वाध्याय द्वारा श्रेष्ठतम कर्म करते हुए अपनी जीवन यात्रा को आगे बढ़ाए। उसका इहलोक-परलोक दानों ही सध जाएंगे।
परमपूज्य गुरुदेव ने अपने जीवनकाल के पूर्वार्द्ध में सबसे पहली पुस्तक लिखी-“मैं क्या हूँ”। वेदाँत दर्शन पर आधारित यह पुस्तक एक आत्मनिवेदन रूप में यह बताती है कि हमारे अंदर विद्यमान आत्मसत्ता में कितनी शक्ति भरी पड़ी है। वह किस विराट सत्ता की अंशधारी है। बाद में पूज्यवर ने काफी पुस्तकें लिखीं, परंतु ‘ईश्वर और उसकी अनुभूति’ ईश्वर कौन है, कहाँ है, कैसा है’ तथा ‘आत्मज्ञानः जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि’ इस विषय पर सर्वोत्तम ग्रंथ हैं। पुस्तकों में वही व्याख्या है जो गीता के पाँचवें अध्याय के डडडडडड इ ख्− वें श्लोक में वर्णित हैं। ईश्वर को जन-समझ लिया तो फिर सारे क्लेशों, बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। परमपूज्य गुरुदेव इस संबंध में ईसा एवं रामकृष्ण परमहंस से संबंधित उस घटना का उल्लेख करते थे, जिसमें कुष्ठग्रस्त रोगी की सेवा ईश्वर मानकर की गई थी। किसी भी प्रकार की जुगुप्सा नहीं, कोई और भाव नहीं। जीवमात्र में जब ईश्वर की झलक दिखाई देती है तो मनुष्य ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ का भाव रख प्रधान जीवन जीने लगता है।
पूरे अध्याय का सारामृत
छठवें अध्याय की ओर बढ़ने से पूर्व इस अंतिम महत्वपूर्ण पाँचवें अध्याय के सारामृत को एक बार फिर ग्रहण करने का प्रयास करें, ताकि तेरह माह से चला आ रहा यह स्वाध्याय जड़ जमाकर हमारे अंतस् में बैठ जाए एवं हमारे कर्मों में उतरने लग। इस अध्याय का शुभारम्भ ही अर्जुन की जिज्ञासा से हुआ है। वह भ्रमित हैं उसने चौथे अध्याय में कर्मयोग की महिमा जानी, किन्तु बीच-बीच में श्रीकृष्ण के श्रीमुख से ज्ञानयोग (कर्म संन्यास) की बातें भी ‘ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृवति’ (श्लोक 24) के माध्यम से जानीं। श्रीकृष्ण से अर्जुन यह जानना चाहता है कि कौन-सा साधन श्रेष्ठ है-कर्मयोग अथवा ज्ञानयोग।
भगवान ने अर्जुन को यहाँ बताया है कि पूर्णतया कर्मफल का परित्याग कर वह कर्मयोगी, नित्य संन्यासी बने। गीता का उपदेश कर्म त्यागना नहीं है, न ही स्वधर्म त्यागना। कर्म त्याग करके संसार में रहना संभव नहीं है। मनुष्य दिव्यकर्मी बने, न किसी द्वेष करे, न किसी वस्तु की आकाँक्षा रखे। राग-द्वेषादि द्वंद्वों से मुक्त व्यक्ति संन्यासी के ही समान है, यह श्रीकृष्ण का प्रतिपादन है। आगे वे ज्ञानियों व नासमझों में अंतर बताते है। वे कहते है कि पंडितजन (ज्ञानी-अध्यात्म के कर्म को समझने वाले) जानते है कि कर्म-संन्यास एवं कर्मयोग दोनों ही मार्ग एक ही लक्ष्य पर ले जाते है-परमात्मा की ओर। उन्हें पृथक फल देने वाला नहीं मानना चाहिए। दोनों ही मार्ग पर चलकर मनुष्य परमात्मा के परमधाम तक पहुँचता है। आगे वे कहते है कि यदि कोई दिव्यकर्मी कर्म करते हुए जीवन व्यापार में सामान्यक्रम से जीते हुए अपने मन को अपने वश में रखता है, इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है एवं अंतःकरण को शुद्ध बनाए रखता है, सभी प्राणियों में परमात्मा की झाँकी देखता है तो वह कर्म करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं होता। हर कर्मयोगी को ज्ञानयोग के इस मर्म को मन में बिठाकर भगवत्स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। यहाँ प्रभु, जो योगेश्वर भी है एवं नीतिपुरुष भी, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग के एक सम्यक् संतुलन को जीवन में उतारने का शिक्षण देते है। (श्लोक 6 व 7) जीवन जीने की कला के ये कुछ महत्वपूर्ण सूत्र है।
आसक्ति को त्यागो
शिष्य अर्जुन के गुरु श्रीकृष्ण उसे बताते है कि उसे ऐसा कर्मयोगी बनना चाहिए जो काया, मन बुद्धि एवं इंद्रियों से मात्र प्रभु अर्पित होकर कर्म करता है। वह समाज-समष्टि के हित हेतु जीवन जीता है एवं ये दिव्यकर्म मात्र अपनी अंतःशुद्धि हेतु करता है। (श्लोक 11)। श्रीकृष्ण बार-बार एक बात पर ध्यान केंद्रित करने का निर्देश देते है- ‘संगत्यक्त्वा’ अर्थात् आसक्तियों को छोड़कर कर्म करो। ऐसे आसक्तिरहित जीवन जीने वाले दित्यकर्मी जै बालगंगाधर तिलक एवं हमारे गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी। इस प्रकार किए गए कर्मों की परिणति बताते हुए श्रीकृष्ण कहते है कि इससे कर्मयोगी भगवत्-प्राप्ति रूपी शाँति को प्राप्त होता है। सकाम कर्म करने वाला तो बंधनों में फंसता चला जाता है। (शुल्क 12) आगे श्रीकृष्ण कर्मयोग से अर्जुन का ध्यान ज्ञानयोग की ओर आकर्षित करते हैं कि परमेश्वर तो कर्मफल संयोग परे है, यह तो मानवी प्रकृति है, जो उससे कर्म करा रही है। यदि अज्ञान से ढके हुए ज्ञान के अमृतकण ग्रहण कर लिए जाएं तो उस दुर्गति से बचा जा सकता है जो आज के आम आदमी की हो रही हैं वह तो अज्ञान से मोहित हो, शिश्नोदरपरायण जीवन जी रहा है। परमात्मा का तत्वज्ञान उस अज्ञान को नष्ट कर देता है, जो सद्ज्ञान रूपी सूर्य पर बदली बनकर छाया हुआ है अथवा शीशे पर मैल की परत के रूप में विद्यमान है। (श्लोक 16, 16) अब श्रीकृष्ण भक्तियोग की सीढ़ी पर अर्जुन को चढ़ाते है व कहते हैं कि अपनी मन-बुद्धि को वह परमात्मा में विलय कर दे, अपनी निष्ठा आदर्शों के समुच्चय परमात्मा में रखे तथा तत्परायण (उन्हीं परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से स्थित) बनने की कोशिश करें। ऐसा करने पर वह परमगति को प्राप्त होगा, बार-बार वासनाओं के वशीभूत हो उसका पुनर्जन्म नहीं होगा। ‘ज्ञान निर्धूत कल्मषाः’ को उद्धृत कर वे कहते है कि ज्ञान द्वारा पापरहित होने पर योगी के हर कर्म दिव्य कर्म बन जाते है। (श्लोक 17)
ब्रह्मणि स्थितः
बड़ी विलक्षण है इन अध्याय के उनतीस श्लोकों की यात्रा। एक-एक श्लोक मानों एक अध्याय के समान है। तुरंत अगले श्लोक में योगेश्वर कह बैठते है कि जो योगी अपनी भाँति संपूर्ण भूतों में-जीवधारियों में, गौ, हाथी, कुत्ते अथवा चाँडाल, ब्राह्मण में सभी को समभाव से देखता है, वही श्रेष्ठतम योगी है एवं सही मायने में ज्ञानी है (श्लोक 18)। आगे छठे अध्याय में हम 32 वें श्लोक में भी कुछ ऐसा ही प्रतिपादन सुनेंगे। समभाव में स्थित योगी ऐसे जीता है मानो उसने सारा संसार जीत लिया हो। वह सदैव ब्रह्म में स्थित होकर कर्म करता है। कौन-सा योगी ब्रह्म में स्थित हो सकता है। इसके लिए श्रीकृष्ण कुछ विशेषताएं भी बताते हैं- जो प्रिय को प्राप्त कर हर्षित न हो, अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, सदैव स्थिर बुद्धि से बिना की संशय के जीवन जिए। सतत कर्म करता रहे एवं अपनी बुद्धि को प्रभु के श्री चरणों में नियोजित कर समर्पित भाव से जिए। (श्लोक 19, 20)
आगे श्रीकृष्ण अक्षय आनंद की प्राप्ति का सूत्र अर्जुन को बताते हैं। आदिकाल से मानव को इसी की तो तलाश रही हैं दुर्भाग्यवश वह उसे इंद्रिय सुख में खोजता है। वहाँ से आसक्ति हटे, अंतर्मुखी हो वह ध्यान रूपी योग द्वारा सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा से एकाकार होने का प्रयास करे तो ही उसे वह आनंद मिलेगा। बुद्धिमान विवेकी पुरुष इसी कारण बहिरंग के भोग को छोड़कर अंतः के ब्रह्म में रमण करता है। (श्लोक 21, 22) सच्चे सुख की, अनिर्वचनीय आनंद एवं अक्षय शाँति की यही कुँजी है। शरीर हमारा भोगों में नष्ट हो-दुःख के हेतु बने विषयों में लिप्त हो जर्जर बन जाए, उसके पूर्व ही हमारा विवेक जाग जाना चाहिए एवं हमें काम-क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन करने हेतु स्वयं को समर्थ बना लेना चाहिए। काम और क्रोध परस्पर जुड़े हैं। दमित काम ही क्रोध के रूप में अभिव्यक्त होता है और क्रोध आदमी की सारी शक्ति को नष्ट कर डालता है। जो इन दोनों आवेगों को नियंत्रित कर ले, श्रीकृष्ण की दृष्टि में वही योगी है, वही सुखी है-(स युक्तः स सुखी नरः) (श्लोक 23)
शाँत परब्रह्म बने हमारा इष्ट
तो फिर कर्मयोगी को, जो ज्ञानी भी है एवं तत्परायण एक भक्त भी, करना चाहिए। उसे ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। आत्मा में ही रम कर, आत्मज्ञान को प्राप्त कर, अपने सभी पापों व संशयों को नष्ट कर सर्वाहितार्थय कर्म करने वाला योगी शाँत ब्रह्म को प्राप्त होता है। यह शाँत परब्रह्म ही हम सबका इष्ट है। ऐसे व्यक्ति अपने अंदर व अपने आस-पास भी शाँति का वातावरण बना देते हैं। ये युग प्रवर्तक होते है। युगनायक होते है एवं दूसरों के लिए जीते है। काम-क्रोध रूपी विकारों से ये युक्त होते हैं तथा अपने चित्त पर, स्वभावजन्य आदतों पर इनका अपना नियंत्रण होता है। ऐसे व्यक्ति परब्रह्म परमात्मा की चेतना से आपूरित होते हैं, उनका साक्षात्कार कर चुके होते है। (श्लोक 24, 25) हर व्यक्ति के अंदर ऐसे दिव्य योगी बनने की अनंत संभावनाएं मौजूद है।
प्रतिपादन की पराकाष्ठा
अब अंतिम तीन श्लोकों में श्रीकृष्ण ऐसे दिव्य योगी बनने की प्रक्रिया की एक झलक दिखाकर अपने इस कर्म-संन्यास योग नामक प्रकरण वाले अध्याय का पटाक्षेप करते है। जैसे फिल्मों के ट्रेलर्स दिखाए जाते हैं, कंप्यूटर के पॉवर पॉईंट द्वारा गहन विषय को सूत्र रूप में समझाने का प्रयास किया जाता है, ठीक उसी तरह सत्ताईसवें, अट्ठाइसवें श्लोक में ध्यान की विधि एवं मोक्ष प्राप्ति (जीवनमुक्ति-बंधनमुक्ति) कैसे की जाए, इसकी एक झलक दिखा दी गई है। इसका विस्तार छठे अध्याय में है। परंतु पहले श्लोक में जिज्ञासा व्यक्त करने वाले अर्जुन की सभी जिज्ञासाओं का समाधान कर श्रीकृष्ण अपनी पराकाष्ठा पर उनतीसवें श्लोक में पहुँचते हैं, जहाँ वे अपने भक्त की परिभाषा बताते है-अपनी विशेषताएं बताते है व भगवत्प्राप्ति से ही शाँति मिलती है, यह समझाते हैं। इस श्लोक का व्याख्या-विस्तार से इस लेख के पूर्वार्द्ध में कर दी गई। हम ईश्वर को अपना हितैषी-सर्वलोक महेश्वर मानें एवं अपने सभी यज्ञीय कर्मों, तपों का फल उन्हें सौंप दें, इस महावाक्य के साथ ही इस अध्याय का समापन हो जाता है।
(अगले अंक से छठवाँ अध्याय)