Magazine - Year 2003 - Version 2
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Language: HINDI
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मातृसत्ता का अवतरण एवं महाप्रयाण दिवस आइये इस वेला में विश्वमाता के ममत्व की अनुभूति करें
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महालय भाद्रपद पूर्णिमा 10 सितंबर 2003-अंग्रेजी तारीख के क्रम से, 19/09/94 को हम सबकी माँ का महाप्रयाण दिवस है। माँ भगवती का अवतरण भी इसी माह आश्विन कृष्ण चतुर्थी (14 सितंबर) को हुआ था। वंदनीया माताजी के रूप में उनकी लीला−कथा दरअसल सृष्टि की जननी के ममत्व की कथा है। यह वही कथा है जो श्री दुर्गा सप्तशती में महामंत्रों में प्रकट हुई है। जिसमें भारत राष्ट्र, राष्ट्रीय संस्कृति, मानव धर्म और माता की ममता के बहुमूल्य तत्त्व सँजोए हैं। इसे संपूर्ण विश्व व अखिल सृष्टि के मातृत्व की कथा भी कह सकते हैं। आज के दौर में इस कथा को, माता के वंदनीया स्वरूप को कहीं ज्यादा गहराई ये समझने की जरूरत हैं, क्योंकि समूचे विश्व में आज यदि कुछ टूट-दरक रहा है तो बस माँ का हृदय है।
असुरों की मदाँध सेना, आज फिर से जगन्माता के विरुद्ध खड़ी दिखाई दे रही है। आदिमाता भगवती के विरुद्ध दुर्बुद्धि असुर फिर से सिरफिरे अट्टहास कर रही हैं। महिषासुर, चंड-मुँड,रक्तबीज, शुँभ-निशुँभ सबके-सब एक साथ मिलकर सृष्टि विनाश के लिए तत्पर हैं। अपनी दुर्गति के लिए तेज हो रही उनकी दौड़ उनके कथन और कर्म से प्रकट हो रही है। आज भी वे कह रहे हैं-
केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि।
तदोशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम्॥
(देवी सप्तशती 6/23)
“उसके केश पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लाने में संदेह हो, तो युद्ध में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना।”
“आदिमाता को पकड़ लाओ, बाँध लो” ऐसी दुर्बुद्धि के साथ क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि दुनिया का कोई प्राणी सुखी हो सकेगा? नशे के गिलास पीकर, पॉप संगीत में झूमकर अथवा नाइट क्लबों में जंगली पशुओं की तरह उछल-कूद मचा लेने से सुख नहीं मिला करता। गीता माता की भाषा में ‘अशाँतस्य कुतः सुखम्‘ जब शाँति ही नहीं है, तब सुख कैसा ? सच्चा सुख डालर, रुपया अथवा पाउंड में नहीं मिल सकता। यह तो माँ की सजल ममता में है और इसकी कभी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती! शिशु के माथे पर माँ का चुँबन भला कितने डालर में खरीदा जा सकता है! जब सामान्य मानवी माता के प्यार की कोई कीमत नहीं सोची जा सकती तो फिर अखिल ब्रह्माँड में संव्याप्त माता भगवती की ममता का कोई मूल्याँकन किस तरह से किया जा सकता है?
उनकी ममता सभी सीमाओं से परे हैं। जब वह देह धारण करके हम सबके बीच में साकार होती ही, तब भी उनकी ममता अखिल सृष्टि में संव्याप्त होती है और जब वह देहातीत हो निराकार होती है, तब भी उनकी ममता सभी श्वास में घुली होती है। हम सब प्राणी उन्हीं के द्वारा रचे, बनाए और पाले गए है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हम इस सचाई को न तो समझ पाते है और न ही समझने की कोशिश करते हैं हम पलते है, बड़े हो जाते है, किंतु संसार की चकाचौंध में, इच्छाओं की उलझन में, कामनाओं की उधेड़-बुन में अपनी माँ को, सृष्टि जननी को भूल जाते है। अपनी चेतना पर छाए तमस के सघन घन यह होश ही नहीं आने देते कि एक बार माँ को देखें, उसे जानें। वह माँ, जो हमें जन्म देने वाली माँ की भी माँ हैं। सृष्टि के कण-कण में उस माँ को पहचानें, उसे याद करें, उसकी अनुभूति पाने की कोशिश करें।
‘एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीय का ममापरा’ (देवी सप्तशती 10/5), मैं अकेली ही हूँ। इस संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन है। माँ के इन वचनों को आज का संकीर्ण, जड़ और धर्मविहीन विज्ञान समझने में असमर्थ हैं आज के युग की साइंस तो प्रकृति को, कुछ अलग ही परिभाषित कर रही है। अणु-परमाणुओं में सेल और जीन में सृष्टि के अवयवों को बाँटने वाली उसकी यह परिभाषा भी बड़ी बंटी-बिखरी हैं। विज्ञान की समझ में इंसान बस देह और दैहिक क्रियाओं में सिमटा हुआ एक जैव उपक्रम भर है।
यह उलटी सोच उसने सृष्टि के साथ भी अपनाई है। तभी संसार के लोग प्रकृति को माँ पुकारना भूलते जो रहे है। भारत भूमि के महर्षियों ने समूची सृष्टि और प्रकृति को माँ के रूप में देखा था। उसे माँ कहकर पुकारा था। परिणाम में वह माँ उन्हें भरपूर वात्सल्य देती रही। आसुरी प्रवृत्तियां तो बस उस प्रकृति माँ को अपने अधीन करने में विश्वास रखती हैं परिणाम में भाव वत्सला माता भगवती भी उनके लिए अपना सौम्य रूप छोड़कर महाकाली चंडी और चामुँडा का रौद्र रूप धारण कर लेती है। आसुरी प्रवृत्तियों के कुकर्म ही मौत की छाया बनकर उन पर मंडराने लगते हैं।
आज यत्र-तत्र यही हो रहा है। इस संकट का मूल कारण एक ही है कि जगदंबा के स्वरूप को अब तक न तो देखा गया है और न उनके साथ भावभरा संबंध बन पाया है। यह स्थिति विश्व स्तर पर भी है और घर-परिवार के तर पर भी। नारी को, स्त्री को यदि माँ के रूप में देखने की दृष्टि नहीं होगी तो कष्ट घटने की बजाय बढ़ेगा। वात्सल्य, स्नेह और ममता की सजल धारा सदा सूखी ही रहेगी। आज के दौर में बिखरते परिवारों के दर्द का अहसास प्रायः सभी को है। इसके समाधान के लिए मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री बहुतेरी बातें कहते हैं, पर क्या केवल मानवता की दुहाई देकर आर्थिक लोभ या कानून की धाराओं के बंधन में बाँधकर संबंध निभाए जा सकते है।?
सभी तरह के संबंधों को निभाना और इन्हें प्रगाढ़ बनाना तो भावों की सजलता से ही संभव है। इसके लिए सबसे पहले माँ, उसकी ममता और उसके वात्सल्य की उस विमल भावधारा को समझना पड़ेगा, जो परिवार के छोटे दायरे से लेकर लोक-लोकाँतर तक व्याप्त है। यह माता ही सृष्टि संचालन और परिवार संचालन करने वाली आधारभूत संरचना का कारण है। यही आनंद और सुख का वास्तविक स्रोत है। अपनी संतानों की माँ में, अपनी माँ में, अपने पिता और माता की माँ में उन्हीं जगज्जननी माता भगवती की ममता की धारा बह रही है। वे देहधारी होते हुए भी देहातीत थी और अब देहातीत होते हुए भी समस्त देहधारियों में संव्याप्त है।
पिंड से ब्रह्माँड तक फैली हुई उन माता भगवती की ममता का अनुभव करने के बाद भी क्या कोई पराया हो सकता है? इस अनुभूति के बाद तो सभी अपने ही नजर आएंगे। फिर किससे हो पाएगी बेईमानी? किससे पनपेगा ईर्ष्या-द्वेष? यह भाव-बंधन तो व्यक्ति-व्यक्ति को अपने आप ही निःस्वार्थ जोड़ देगा। इस की नींव पर व्यक्ति, परिवार, समाज और विश्व का जो ढाँचा खड़ा होगा वह न केवल सौहार्द्रपूर्ण बल्कि स्थाई भी होगा। यदि विज्ञान और वैज्ञानिकता की भी नींव यही होगी तो अपने आप ही मानव जीवन की अनुकूलता का वातावरण विकसित होगा। विश्वमंगल की राहें उजली होगी।
सिर्फ अधिकार पाने की होड़, दौड़ और द्वंद्व से अशाँति और आतंक ही पनप सकते है। आज हो भी यही रहा है। हमें हमारी अपनी माँ का वात्सल्य और धर्म भूल गया हैं। धर्म में भूल ही जीवन का शूल बनती है। धर्मविहीन जीवन चाहे जितनी विधाओं से भरा-पूरा हो, पर उसमें खडडडड नहीं अंकुरित हो पाता। आज की वैश्विक परिस्थितियों के नियमन एवं संचालन के लिए इसका बोध निहायत जरूरी हैं। दुनिया भर में सुख को पाने के लिए भौतिक विकास की दौड़ और होड़ हो रही है। रोज नए विकास के दावे किए जा रहे है, पर दुःख के पहाड़ टूट-टूटकर न केवल जिंदगी को बल्कि दूसरे जीवों और वनस्पतियों की जिंदगी तबाह कर रहे है। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। क्यों? इसलिए कि सुख के लिए किया जा रहा विकास दिशाहीन, धर्मविहीन और माता प्रकृति की ममता से विहीन है।
आज आर्थिक वैश्वीकरण के आधार पर विश्वग्राम और वैश्विक जीवनशैली को विकसित करने की बातें की जा रही है। सूचना तकनीक को इसका संवाहन माना जा रहा है, पर सच यह है इसके कारण सुसंस्कारों को नहीं विकृतियों को ही बढ़ावा मिल रहा है। आत्मीयता घट रही है, भावनाएं मुरझा रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसके संचालन में धर्म के सार्वभौमिक एवं सनातन स्वरूप की सार्थक भूमिका नहीं हैं। विश्वमाता की ममता इसमें संचारित नहीं हो रही है। मजहब और विश्वासों की अलग-अलग पहचान बनाकर खड़ी मान्यताएं मनुष्य को गिरोह बंद तो कर सकती है, पर उसे सार्वभौमिक धर्म तो वह है, जिसमें अलग-अलग आस्थाओं का एक विश्व दर्शन हो। जिसमें विश्वमाता की सच्ची विचार संवेदना झंकृत हो। किसी भी मजहबी आस्था को स्वीकारते हुए जिसका अनुकरण किया जा सके, साथ ही जिसमें विश्वकल्याण के भाव भी कूट-कूटकर भरें हो।
विश्वमाता की ममता की अनुभूति करके ही विश्व दर्शन विकसित हो सकता है और इसी से विश्वबंधुत्व, विश्वशाँति, वसुधैव कुटुँबकम् के भाव पनप सकते है। यही मात्र विश्वग्राम एवं सच्ची जीवन शैली को विकसित करने में समर्थ हो सकता है। इस तरह के वैश्विक जीवन में विश्व जीवन की विविधता का नाश नहीं होगा, बल्कि उसे पोषण मिलेगा। विविधता में एकता का दर्शनीय स्वरूप निखरेगा। एकात्मता के इस बोध से ही वैश्वीकरण का आधार और मार्ग विनिर्मित हो सकता है।
भारतभूमि में चिर अतीत से इसकी भावभरी साधना की जाती रही है। यहाँ के महर्षियों ने विश्व जीवन की एकात्मता और समरसता को सदा से अनुभव किया है। यहाँ के दिव्यदर्शियों ने विश्वमाता के वैभव के रूप में पूरे विश्व जीवन को देखा और जाना है। विश्वमाता की संतानों के रूप में समूचे विश्व को अपनाया जाना है। विश्व जननी की भक्ति करने वाले भारत देश का यह वैश्वीकरण न तो स्वार्थ प्रेरित है और न ही विनाशकारी, अपितु इसमें तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के महान भाव भरे है। आज इसे फिर से नवजीवन देने की आवश्यकता है। माता भगवती अपने परमवंदनीया स्वरूप में इसी हेतु हम सबके बीच प्रकट हुई और इसी हेतु अपनी संतानों के अनेकानेक कष्टों को स्वयं सहकर 19 सितम्बर 1994 को उन्होंने महाप्रयाण किया। उनके द्वारा बताए, दर्शाए गए धर्मबोध को आज प्रत्येक देश के प्रत्येक मनुष्य को धारण करने की जरूरत है, क्योंकि इसमें हर एक के लिए निःश्रेयस और अभ्युदय के लिए राह है। इसमें उनकी ममता है, सहभागिता है, संरक्षण है और सदा-सदा के लिए अपनी सभी संतानों पर प्यार लुटाने का आश्वासन भी है।