Books - धन का सदुपयोग
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Language: HINDI
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धन की तृष्णा से बचिए
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धन कोई बुरी चीज नहीं है और खासकर वर्तमान समय में दुनियाँ का स्वरूप ही ऐसा हो गया है कि बिना धन के मनुष्य का जीवन - निर्वाह संभव नहीं, पर धन तभी तक शुभ और हितकारी है जब तक उसे ईमानदारी के साथ कमाया जाय और उसका सदुपयोग किया जाय । इसके विपरीत यदि हम धन कमाने और चारों तरफ से उसे बटोर कर अपनी तिजोरी में बन्द करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं, अथवा यह समझकर कि हम अपनी सम्पत्ति का चाहे जैसा उपयोग करें, उसे दुर्व्यसनों की प्रति में खर्च करते हैं तो वह हमारे लिए अभिशाप स्वरूप बन जाता है । ऐसा मनुष्य अपना पतन तो करता ही है, साथ ही दूसरे लोगों को उनके उचित अधिकार से वंचित करके उनकी विपत्ति का कारण भी बनता है । आजकल तो हम यही देख रहे हैं कि जिसमें चतुरता एवं शक्ति की तनिक भी अधिकता है वह कोशिश करता है कि मैं संसार की अधिक से अधिक सुख - सामग्री अपने कब्जे में कर लूँ । अपनी इस हविस को पूरा करने के लिए वह अपने पड़ोसियों के अधिकारों के ऊपर हमला करता है और उनके हाथ की रोटी मुख के ग्रास छीनकर खुद मालदार बनता है ।
एक आदमी के मालदार बनने का अर्थ है अनेकों का क्रन्दन अनेकों का शोषण, अनेकों का अपहरण । एक ऊँचा मकान बनाया जाय तो उसके लिए, बहुत-सी मिट्टी जमा करनी पड़ेगी और जहाँ-जहाँ से वह मिट्टी उठाई जायगी, वहाँ-वहाँ गड्ढा पड़ना निश्चित है । इस संसार में जितने प्राणी हैं उसी हिसाब से वस्तुएँ भी परमात्मा उत्पन्न करता है । यदि एक आदमी अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ जमा करता है तो इसका अर्थ-दूसरों की जरूरी चीजों का अपहरण ही हुआ । गत द्वितीय महायुद्ध में सरकारों ने तथा पूँजीपतियों ने अन्न का अत्यधिक स्टाक जमा कर लिया, फलस्वरूप दूसरी जगह अन्न की कमी पड़ गई और बंगाल जैसे प्रदेशों में लाखों आदमी भूखे मर गये । गत शताब्दी में ब्रिटेन की धन सम्पन्नता भारत जैसे पराधीन देशों के दोहन से हुई थी । जिन देशों का शोषण हुआ था वे बेचारे दीनदशा में गरीबी, बेकारी, भुखमरी और बीमारी से तबाह हो रहे थे ।
वस्तुएँ संसार में उतनी ही हैं, जिससे सब लोग समान रूप से सुखपूर्वक रह सकें । एक व्यक्ति मालदार बनता है, तो यह हो नहीं सकता कि उसके कारण अनेकों को गरीब न बनना पड़े, यह महान सत्य हमारे पूजनीय पूर्वजों को भलीभाँति विदित था इसलिए उन्होंने मानव धर्म में अपरिग्रह को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था । वस्तुओं का कम से कम संग्रह करना यह भारतीय सभ्यता का आदर्श सिद्धान्त था । ऋषिगण कम से कम वस्तुएँ जमा करते थे । वे कोपीन लगाकर फूँस के झोपड़ों में रहकर गुजारा करते थे । जनक जैसे राजा अपने हाथों खेती करके अपने पारिवारिक निर्वाह के लायक अन्न कमाते थे । प्रजा का सामूहिक पैसा-राज्य कोष केवल प्रजा के कामों में ही खर्च होता था। व्यापारी लोग अपने आप को जनता के धन का ट्रस्टी समझते थे और जब आवश्यकता पड़ती थी उस धन को बिना हिचकिचाहट के जनता को सौंप देते थे । भामाशाह ने राणाप्रताप को प्रचुर सम्पदा दी थी जनता की थाती को, जनता की आवश्यकता के लिए बिना हिचकिचाहट सौंप देने के असंख्यों उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं ।
आज का दृष्टिकोण दूसरा है । लोग मालदार बनने की धुन में अन्धे हो रहे हैं । नीति-अनीति का, उचित-अनुचित का, धर्म-अधर्म का प्रश्न उठा कर ताक पर रख दिया गया है और यह कोशिशें हो रही है कि किस प्रकार जल्द से जल्द धनपति बन जाये । धन! अधिक धन!! जल्दी धन! धन!! धन !! इस रट को लगाता हुआ, मनुष्य होश-हवास भूल गया है । पागल सियार की तरह धन की खोज में उन्मत्त-सा होकर चारों ओर दौड़ रहा है ।
पाप एक छूत की बीमारी है । जो एक से दूसरे को लगती और फैलती है । एक को धनी बनने के लिए यह अन्धाधुन्धी मचाते हुए देखकर और अनेकों की भी वैसी ही इच्छा होती है । अनुचित रीति से धन जमा करने वाले लुटेरों की संख्या बढ़ती है-फिर लुटने वाले और लुटने वालों में संघर्ष होता है । उधर लूटने वालों में प्रतिद्वन्दिता का संघर्ष होता है । इस प्रकार तीन मोर्चों पर लड़ाई ठन जाती है । घर-घर में गाँव-गाँव में जाति में, वर्ग में तनातनी हो रही है । जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने, व्यक्तिगत सम्पन्नता को प्रधानता देने, का एक ही निश्चित परिणाम है कलह । जिसे हम अपने चारों ओर ताण्डव नृत्य करता हुआ देख रहे हैं ।
इस गतिविधि को जब तक मनुष्य जाति न बदलेगी तब तक उसकी कठिनाइयों का अन्त न होगा । एक गुत्थी सुलझने न पावेगी तब तक नई गुत्थी पैदा हो जायगी । एक संघर्ष शान्त न होने पावेगा तब तक नया संघर्ष आरम्भ हो जावेगा । न लूटने वाला सुख की नींद सो सकेगा और न लुटने वाला चैन से बैठेगा । एक का धनी बनना अनेकों के मन में ईर्ष्या की, डाह की जलन की आग लगाना है । यह सत्य सूर्य-सा प्रकाशवान् है कि एक का धनी होना अनेकों को गरीब रखना है । इस बुराई को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपरिग्रह का स्वेच्छा स्वीकृत शासन स्थापित किया था । आज की दुनियाँ राज-सत्ता द्वारा समाजवादी प्रणाली की स्थापना करने जा रही है ।
वस्तुत: जीवनयापन के लिए एक नियत मात्रा में धन की आवश्यकता है । यदि छूट-खसोट बन्द हो जाय तो बहुत थोड़े प्रयत्न से मनुष्य अपनी आवश्यक वस्तुएँ कमा सकता है । शेष समय में विविध प्रकार की उन्नतियों की साधना की जा सकती है । आत्मा मानव शरीर को धारण करने के लिए जिस लोभ से तैयार होती है, प्रयत्न करती है, उस रस को अनुभव करना उसी दशा में सम्भव है, जब धन संचय का बुखार उतर जाय और उस बुखार के साथ-साथ जो अन्य अनेकों उपद्रव उठते हैं उनका अन्त हो जाय ।
परमात्मा समदर्शी है । वह सब को समान सुविधा देता है । हमें चाहिए कि भौतिक पदार्थों का उतना ही संचय करें जितना उचित रीति से कमाया जा सके और वास्तविक आवश्यकताओं के लिए काफी हो । इससे अधिक सामग्री के संचय की तृष्णा न करें क्योंकि यह तृष्णा ईश्वरीय इच्छा के विपरीत तथा कलह उत्पन्न करने वाली है ।
एक आदमी के मालदार बनने का अर्थ है अनेकों का क्रन्दन अनेकों का शोषण, अनेकों का अपहरण । एक ऊँचा मकान बनाया जाय तो उसके लिए, बहुत-सी मिट्टी जमा करनी पड़ेगी और जहाँ-जहाँ से वह मिट्टी उठाई जायगी, वहाँ-वहाँ गड्ढा पड़ना निश्चित है । इस संसार में जितने प्राणी हैं उसी हिसाब से वस्तुएँ भी परमात्मा उत्पन्न करता है । यदि एक आदमी अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुएँ जमा करता है तो इसका अर्थ-दूसरों की जरूरी चीजों का अपहरण ही हुआ । गत द्वितीय महायुद्ध में सरकारों ने तथा पूँजीपतियों ने अन्न का अत्यधिक स्टाक जमा कर लिया, फलस्वरूप दूसरी जगह अन्न की कमी पड़ गई और बंगाल जैसे प्रदेशों में लाखों आदमी भूखे मर गये । गत शताब्दी में ब्रिटेन की धन सम्पन्नता भारत जैसे पराधीन देशों के दोहन से हुई थी । जिन देशों का शोषण हुआ था वे बेचारे दीनदशा में गरीबी, बेकारी, भुखमरी और बीमारी से तबाह हो रहे थे ।
वस्तुएँ संसार में उतनी ही हैं, जिससे सब लोग समान रूप से सुखपूर्वक रह सकें । एक व्यक्ति मालदार बनता है, तो यह हो नहीं सकता कि उसके कारण अनेकों को गरीब न बनना पड़े, यह महान सत्य हमारे पूजनीय पूर्वजों को भलीभाँति विदित था इसलिए उन्होंने मानव धर्म में अपरिग्रह को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था । वस्तुओं का कम से कम संग्रह करना यह भारतीय सभ्यता का आदर्श सिद्धान्त था । ऋषिगण कम से कम वस्तुएँ जमा करते थे । वे कोपीन लगाकर फूँस के झोपड़ों में रहकर गुजारा करते थे । जनक जैसे राजा अपने हाथों खेती करके अपने पारिवारिक निर्वाह के लायक अन्न कमाते थे । प्रजा का सामूहिक पैसा-राज्य कोष केवल प्रजा के कामों में ही खर्च होता था। व्यापारी लोग अपने आप को जनता के धन का ट्रस्टी समझते थे और जब आवश्यकता पड़ती थी उस धन को बिना हिचकिचाहट के जनता को सौंप देते थे । भामाशाह ने राणाप्रताप को प्रचुर सम्पदा दी थी जनता की थाती को, जनता की आवश्यकता के लिए बिना हिचकिचाहट सौंप देने के असंख्यों उदाहरण भारतीय इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित हैं ।
आज का दृष्टिकोण दूसरा है । लोग मालदार बनने की धुन में अन्धे हो रहे हैं । नीति-अनीति का, उचित-अनुचित का, धर्म-अधर्म का प्रश्न उठा कर ताक पर रख दिया गया है और यह कोशिशें हो रही है कि किस प्रकार जल्द से जल्द धनपति बन जाये । धन! अधिक धन!! जल्दी धन! धन!! धन !! इस रट को लगाता हुआ, मनुष्य होश-हवास भूल गया है । पागल सियार की तरह धन की खोज में उन्मत्त-सा होकर चारों ओर दौड़ रहा है ।
पाप एक छूत की बीमारी है । जो एक से दूसरे को लगती और फैलती है । एक को धनी बनने के लिए यह अन्धाधुन्धी मचाते हुए देखकर और अनेकों की भी वैसी ही इच्छा होती है । अनुचित रीति से धन जमा करने वाले लुटेरों की संख्या बढ़ती है-फिर लुटने वाले और लुटने वालों में संघर्ष होता है । उधर लूटने वालों में प्रतिद्वन्दिता का संघर्ष होता है । इस प्रकार तीन मोर्चों पर लड़ाई ठन जाती है । घर-घर में गाँव-गाँव में जाति में, वर्ग में तनातनी हो रही है । जैसे बने वैसे जल्दी से जल्दी धनी बनने, व्यक्तिगत सम्पन्नता को प्रधानता देने, का एक ही निश्चित परिणाम है कलह । जिसे हम अपने चारों ओर ताण्डव नृत्य करता हुआ देख रहे हैं ।
इस गतिविधि को जब तक मनुष्य जाति न बदलेगी तब तक उसकी कठिनाइयों का अन्त न होगा । एक गुत्थी सुलझने न पावेगी तब तक नई गुत्थी पैदा हो जायगी । एक संघर्ष शान्त न होने पावेगा तब तक नया संघर्ष आरम्भ हो जावेगा । न लूटने वाला सुख की नींद सो सकेगा और न लुटने वाला चैन से बैठेगा । एक का धनी बनना अनेकों के मन में ईर्ष्या की, डाह की जलन की आग लगाना है । यह सत्य सूर्य-सा प्रकाशवान् है कि एक का धनी होना अनेकों को गरीब रखना है । इस बुराई को रोकने के लिए हमारे पूर्वजों ने अपरिग्रह का स्वेच्छा स्वीकृत शासन स्थापित किया था । आज की दुनियाँ राज-सत्ता द्वारा समाजवादी प्रणाली की स्थापना करने जा रही है ।
वस्तुत: जीवनयापन के लिए एक नियत मात्रा में धन की आवश्यकता है । यदि छूट-खसोट बन्द हो जाय तो बहुत थोड़े प्रयत्न से मनुष्य अपनी आवश्यक वस्तुएँ कमा सकता है । शेष समय में विविध प्रकार की उन्नतियों की साधना की जा सकती है । आत्मा मानव शरीर को धारण करने के लिए जिस लोभ से तैयार होती है, प्रयत्न करती है, उस रस को अनुभव करना उसी दशा में सम्भव है, जब धन संचय का बुखार उतर जाय और उस बुखार के साथ-साथ जो अन्य अनेकों उपद्रव उठते हैं उनका अन्त हो जाय ।
परमात्मा समदर्शी है । वह सब को समान सुविधा देता है । हमें चाहिए कि भौतिक पदार्थों का उतना ही संचय करें जितना उचित रीति से कमाया जा सके और वास्तविक आवश्यकताओं के लिए काफी हो । इससे अधिक सामग्री के संचय की तृष्णा न करें क्योंकि यह तृष्णा ईश्वरीय इच्छा के विपरीत तथा कलह उत्पन्न करने वाली है ।