Books - धन का सदुपयोग
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Language: HINDI
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धन विपत्ति का कारण भी ही सकता है ?
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इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान समय में संसार के अधिकांश लोगों ने धन के वास्तविक दर्जे को भूल कर उसे बहुत ऊँचे आसन पर बैठा दिया है । आजकल की अवस्था को देख कर तो हमको यही प्रतीत होता है कि मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु धन ही है यह स्वीकार करना होगा । ईसा मसीह ने गलत नहीं लिखा है कि 'धनी का स्वर्ग में प्रवेश पाना असम्भव है ।' इसका अर्थ केवल यही है कि धन मनुष्य को इतना अन्धा कर देता है कि वह संसार के सभी कर्तव्यों से गिर जाता है । धन का इसी में महत्त्व है कि वह लोक-सेवा में व्यय हो । नहीं तो धन के समान अनर्थकारी और कुछ नहीं है । श्रीमद्भागवत में कहा है-
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः। भेदोः वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च। एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्। तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोSर्थी दूरतस्त्यजेत्।
- ११/२३/१८-१९
‘‘(धन) से ही मनुष्यों में ये पन्द्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं - चोरी, हिंसा झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद बुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा लम्पटता, जुआ और शराब । इसलिए कल्याणकामी पुरुष को 'अर्थ' नामधारी-अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए ।''
आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं । भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता । अब हमको समाज में अपना स्थान कमाने में बिताना चाहिए । केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए । लख होना चाहिए कभी भी दुःखी न रहना । हरेक के जीवन में सबसे महान् प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो । हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिए । यह आदर्श पेट का धन्धा नहीं सेवा होना चाहिए । सर्वकल्याण, समाज सेवा, सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो, हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन ध्येय केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय । जीवन केवल अर्थशास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय । व्यापार के नियम बदल जायँ । एक काम के अनेक करने वाले ही और अनेक व्यक्ति एक ही काम को अपना सकें । मालिक और नौकर में काम करने के घण्टों की झिकझिक दूर हो । मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है उसकी आत्मा भी है उसका देवता भी है उसका इहलोक और परलोक भी है ।
यदि हम अपने तथा दूसरों के ह्रदय के भीतर बैठकर यह सब समझ जाँय, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जायगा, पर आज हम ऐसा नहीं करते हैं । यह क्यों? इसका कारण धन की विपत्ति है । धन की दुनियाँ में निर्धन का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है । जब तक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर न मिले आदमी सुखी नहीं हो सकता । यह सभ्यता व्यक्तित्व के विकास को रोकती है, बिना इसके विकसित हुए सुख नहीं मिल सकता । सुख बह इत्र है, जिसे दूसरों को लगाने से पहले अपने को लगाना आवश्यक होता है । यह इत्र तभी बनता है, जब हम अपने एक कार्य को दूसरे की सहायता के भाव से करें । हमें चाहे अपनी इच्छाओं का दमन ही क्यों न करना पड़े, पर हमें दूसरे के सुख का आदर करना पड़ेगा । सुख का सबसे बड़ा साधन निःस्वार्थ सेवा ही है ।
संसार में रुपये के सबसे बड़े उपासक यहूदी समझे जाते हैं, पर यहूदी समाज में भी अब धन के विरुद्ध जेहाद शुरू हो गया है । 'यरुशलम मित्र संघ की ओर से 'चूज' यानी पसन्द कर लो' शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसका लख है- 'तुम ईश्वर तथा शैतान दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते ।' इसके लेखक श्री आर्थर ई जोन्स का कहना है कि 'न जाने किस कुघडी़ में रुपया-पैसा संसार में आया, जिसने आज हमारे ऊपर ऐसा अधिकार कर लिया है कि हम उसके अंग बन गये हैं । यदि मैं यह कहूँ कि संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है, तो पुराने लोग सकपका उठेंगे । किन्तु आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है । खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि सबका कारण यही है । चूँकि सुख की सभी वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती है, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है । जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव-पेंच में लगता है । व्यापार की दुनियाँ में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते ।
विपत्ति यह है कि आदमी एक दूसरे को प्यार नहीं करते । यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिपादन की भावना हो जाय तो हर एक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय । आज लाखों आदमी हिसाब-किताब, बहीखाते के काम में परेशान हैं और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बहीखाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें । जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनियाँ में होती है । यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायँ तथा अपनी उत्पत्ति का अर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें तो संसार कितना सुखमय हो जायगा । आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है । यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनियाँ कैसी होती ? अस्पतालों में लाखों नर-नारी रुपये को मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारी धन के लिए जेल काट रहे हैं । प्राय: हर परिवार में इसका झगड़ा है । मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है । यदि धन की मर्यादा न होती, तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता ।
यह सत्य है कि संसार से पैसा एकदम उठ जाय, ऐसी सम्भावना नहीं है, पर पैसे का विकास, उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है । इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर पदार्थ, समृद्धि के झूँठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी । नहीं तो आज की हाय-हाय जो हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है । हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है ।
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः। भेदोः वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च। एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्। तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोSर्थी दूरतस्त्यजेत्।
- ११/२३/१८-१९
‘‘(धन) से ही मनुष्यों में ये पन्द्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं - चोरी, हिंसा झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, मद, भेद बुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा लम्पटता, जुआ और शराब । इसलिए कल्याणकामी पुरुष को 'अर्थ' नामधारी-अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए ।''
आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं । भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता । अब हमको समाज में अपना स्थान कमाने में बिताना चाहिए । केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए । लख होना चाहिए कभी भी दुःखी न रहना । हरेक के जीवन में सबसे महान् प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो । हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिए । यह आदर्श पेट का धन्धा नहीं सेवा होना चाहिए । सर्वकल्याण, समाज सेवा, सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो, हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन ध्येय केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय । जीवन केवल अर्थशास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय । व्यापार के नियम बदल जायँ । एक काम के अनेक करने वाले ही और अनेक व्यक्ति एक ही काम को अपना सकें । मालिक और नौकर में काम करने के घण्टों की झिकझिक दूर हो । मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है उसकी आत्मा भी है उसका देवता भी है उसका इहलोक और परलोक भी है ।
यदि हम अपने तथा दूसरों के ह्रदय के भीतर बैठकर यह सब समझ जाँय, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जायगा, पर आज हम ऐसा नहीं करते हैं । यह क्यों? इसका कारण धन की विपत्ति है । धन की दुनियाँ में निर्धन का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है । जब तक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर न मिले आदमी सुखी नहीं हो सकता । यह सभ्यता व्यक्तित्व के विकास को रोकती है, बिना इसके विकसित हुए सुख नहीं मिल सकता । सुख बह इत्र है, जिसे दूसरों को लगाने से पहले अपने को लगाना आवश्यक होता है । यह इत्र तभी बनता है, जब हम अपने एक कार्य को दूसरे की सहायता के भाव से करें । हमें चाहे अपनी इच्छाओं का दमन ही क्यों न करना पड़े, पर हमें दूसरे के सुख का आदर करना पड़ेगा । सुख का सबसे बड़ा साधन निःस्वार्थ सेवा ही है ।
संसार में रुपये के सबसे बड़े उपासक यहूदी समझे जाते हैं, पर यहूदी समाज में भी अब धन के विरुद्ध जेहाद शुरू हो गया है । 'यरुशलम मित्र संघ की ओर से 'चूज' यानी पसन्द कर लो' शीर्षक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसका लख है- 'तुम ईश्वर तथा शैतान दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते ।' इसके लेखक श्री आर्थर ई जोन्स का कहना है कि 'न जाने किस कुघडी़ में रुपया-पैसा संसार में आया, जिसने आज हमारे ऊपर ऐसा अधिकार कर लिया है कि हम उसके अंग बन गये हैं । यदि मैं यह कहूँ कि संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है, तो पुराने लोग सकपका उठेंगे । किन्तु आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है । खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि सबका कारण यही है । चूँकि सुख की सभी वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती है, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है । जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव-पेंच में लगता है । व्यापार की दुनियाँ में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते ।
विपत्ति यह है कि आदमी एक दूसरे को प्यार नहीं करते । यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिपादन की भावना हो जाय तो हर एक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय । आज लाखों आदमी हिसाब-किताब, बहीखाते के काम में परेशान हैं और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बहीखाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें । जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनियाँ में होती है । यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायँ तथा अपनी उत्पत्ति का अर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें तो संसार कितना सुखमय हो जायगा । आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है । यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनियाँ कैसी होती ? अस्पतालों में लाखों नर-नारी रुपये को मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारी धन के लिए जेल काट रहे हैं । प्राय: हर परिवार में इसका झगड़ा है । मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है । यदि धन की मर्यादा न होती, तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता ।
यह सत्य है कि संसार से पैसा एकदम उठ जाय, ऐसी सम्भावना नहीं है, पर पैसे का विकास, उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है । इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर पदार्थ, समृद्धि के झूँठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी । नहीं तो आज की हाय-हाय जो हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है । हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है ।