Books - धन का सदुपयोग
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Language: HINDI
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ईमानदारी की कमाई ही स्थिर रहती है
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जो मनुष्य धन के विषय में अध्यात्मवेत्ताओं के दृष्टिकोण को समझ लेता है, वह उसे कभी सर्वोपरि स्थान नहीं दे सकता । इसका अर्थ यह नहीं कि वह संसार को त्याग दे अथवा निर्धनता और दरिद्रता का जीवनयापन करने लगे । हमारे कथन का आशय इतना ही है कि धन के लिए नीति और न्याय के नियमों की अवहेलना कदापि मत करो और जहाँ धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य का प्रश्न उठे वहाँ हमेशा धर्म और सत्य का पक्ष ग्रहण करो, चाहे उससे धन का लाभ होता हो और चाहे हानि । धन कमाया जाय और उसका उचित उपभोग भी किया जाय पर पूरी ईमानदारी के साथ । धन नदी के समान है । नदी सदा समुद्र की ओर अर्थात् नीचे की ओर बहती है । इसी तरह धन को भी जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए । परन्तु जैसे नदी की गति बदल सकती है, वैसे ही धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता है । कितनी ही नदियाँ इधर-उधर बहने लगती हैं और उनके आस-पास बहुत सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती है । इन्हीं नदियों में बाँध, बाँधकर जिधर आवश्यकता हो उधर उनका पानी ले जाने से वही पानी जमीन को उपजाऊ और आस-पास की वायु को उत्तम बनाता है । इसी तरह धन का मनमाना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है, गरीबी बढ़ती है । सारांश यह है कि वह धन विष तुल्य हो जाता है, पर यदि उसी धन को गति निश्चित कर दी जाय, उसका नियमपूर्वक व्यवहार किया जाय, तो बाँधी हुई नदी की तरह बह सुखप्रद बन जाता है ।
अर्थशास्त्री धन की गति के नियंत्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं । उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है, परन्तु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है । एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिकों को विष देकर लोग उनके धन से स्वयं धनी बन जाते थे । आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं, उनमें व्यापारी लोग मिलावट कर देते हैं । जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू कहवे में 'चीकरी' मक्खन में चरबी इत्यादि । यह भी विष दे कर धनवान होने के समान ही है । क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं ?
परन्तु यह समझ लेना चाहिए कि अर्थशास्त्री निरी हट से ही धनी होने की बात कहते हैं । उनकी ओर से कहना ठीक होगा कि उनका शास्त्र कानून-संगत और न्याय युक्त उपायों से धनवान होने का है, पर इस जमाने में यह भी होता है कि अनेक बातें जायज होते हुए भी न्याय बुद्धि से विपरीत होती हैं । इसलिए न्यायपूर्वक धन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता है और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की बात ठीक हो तो न्याय-अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला काम होना चाहिए । केवल लेन-देन के व्यावसायिक नियम से काम लेना या व्यापार करना काफी नहीं है । यह तो मछलियाँ, भेड़िये और चूहे भी करते हैं ।
बड़ी मछली छोटी मछली को भी खा जाती है चूहा छोटे जीव-जन्तुओं को खा जाता हैं और भेड़िया आदमी को खा डालता है । उनका यही नियम है, उन्हें दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, परन्तु मनुष्य ने ईश्वर को समझ दी है, न्याय- बुद्धि दी है । उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर उन्हें ठगकर उन्हें भिखारी बनाकर उसे धनवान न बनना चाहिए ।
धन साधन मात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों ही हो सकते हैं । यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है । खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे मान लीजिए कि गोले-बारूद बनते हैं और लोगों को सर्वनाश होता है । गोला-बारूद बनाने बाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों ही हानि उठाते और दु:ख पाते हैं ।
इस तरह हम देखते हैं कि सच्चा आदमी ही धन है । जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है । यह जमाना भोग-विलास का नहीं है । हर एक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिए ।
सोना-चाँदी एकत्र हो जाने से कुछ राज्य मिल नहीं जाता । यह स्मरण रखना चाहिए कि पश्चिम में सुधार हुए अभी सौ ही वर्ष हुए हैं । बल्कि सच पूछिये तो कहा जाना चाहिए कि इतने ही दिनों में पश्चिम की जनता वर्णशंकर-सी होती दिखाई देने लगी है ।
व्यापारी का काम भी जनता के लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य केवल अपना घर भरना है । कानून भी इसी दृष्टि से बनाये जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके । चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कम से कम दाम दे और व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक माँगे और ले । लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत डाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं । इस प्रथा को बदलने की आवश्यकता है । यह कोई नियम नहीं हो गया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ ही साधना-धन ही बटोरना चाहिए । इस तरह के व्यापार को हम व्यापार न कहकर चोरी कहेंगे । जिस तरह सिपाही राज्य के सुख के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गँवा देना चाहिए प्राण भी दे देना चाहिए । सिपाही का काम जनता की रक्षा करना है, धर्मोपदेशक का, उसको शिक्षा देना है । चिकित्सक का उसे स्वस्थ रखना है और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक माल जुटाना है । इन सबका कर्तव्य समय पर अपने प्राण भी दे देना है ।
अर्थशास्त्री धन की गति के नियंत्रण के नियम को एकदम भूल जाते हैं । उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है, परन्तु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है । एक जमाना ऐसा था जब यूरोप में धनिकों को विष देकर लोग उनके धन से स्वयं धनी बन जाते थे । आजकल गरीब लोगों के लिए जो खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं, उनमें व्यापारी लोग मिलावट कर देते हैं । जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू कहवे में 'चीकरी' मक्खन में चरबी इत्यादि । यह भी विष दे कर धनवान होने के समान ही है । क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं ?
परन्तु यह समझ लेना चाहिए कि अर्थशास्त्री निरी हट से ही धनी होने की बात कहते हैं । उनकी ओर से कहना ठीक होगा कि उनका शास्त्र कानून-संगत और न्याय युक्त उपायों से धनवान होने का है, पर इस जमाने में यह भी होता है कि अनेक बातें जायज होते हुए भी न्याय बुद्धि से विपरीत होती हैं । इसलिए न्यायपूर्वक धन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता है और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की बात ठीक हो तो न्याय-अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला काम होना चाहिए । केवल लेन-देन के व्यावसायिक नियम से काम लेना या व्यापार करना काफी नहीं है । यह तो मछलियाँ, भेड़िये और चूहे भी करते हैं ।
बड़ी मछली छोटी मछली को भी खा जाती है चूहा छोटे जीव-जन्तुओं को खा जाता हैं और भेड़िया आदमी को खा डालता है । उनका यही नियम है, उन्हें दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, परन्तु मनुष्य ने ईश्वर को समझ दी है, न्याय- बुद्धि दी है । उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर उन्हें ठगकर उन्हें भिखारी बनाकर उसे धनवान न बनना चाहिए ।
धन साधन मात्र है और उससे सुख तथा दुःख दोनों ही हो सकते हैं । यदि वह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है । खराब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उससे मान लीजिए कि गोले-बारूद बनते हैं और लोगों को सर्वनाश होता है । गोला-बारूद बनाने बाला राष्ट्र और जिस पर इनका प्रयोग होता है वे दोनों ही हानि उठाते और दु:ख पाते हैं ।
इस तरह हम देखते हैं कि सच्चा आदमी ही धन है । जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है । यह जमाना भोग-विलास का नहीं है । हर एक आदमी को जितनी मेहनत-मजदूरी हो सके उतनी करनी चाहिए ।
सोना-चाँदी एकत्र हो जाने से कुछ राज्य मिल नहीं जाता । यह स्मरण रखना चाहिए कि पश्चिम में सुधार हुए अभी सौ ही वर्ष हुए हैं । बल्कि सच पूछिये तो कहा जाना चाहिए कि इतने ही दिनों में पश्चिम की जनता वर्णशंकर-सी होती दिखाई देने लगी है ।
व्यापारी का काम भी जनता के लिए जरूरी है, पर हमने मान लिया है कि उसका उद्देश्य केवल अपना घर भरना है । कानून भी इसी दृष्टि से बनाये जाते हैं कि व्यापारी झपाटे के साथ धन बटोर सके । चाल भी ऐसी ही पड़ गई है कि ग्राहक कम से कम दाम दे और व्यापारी जहाँ तक हो सके अधिक माँगे और ले । लोगों ने खुद ही व्यापार में ऐसी आदत डाली और अब उसे उसकी बेईमानी के कारण नीची निगाह से देखते हैं । इस प्रथा को बदलने की आवश्यकता है । यह कोई नियम नहीं हो गया है कि व्यापारी को अपना स्वार्थ ही साधना-धन ही बटोरना चाहिए । इस तरह के व्यापार को हम व्यापार न कहकर चोरी कहेंगे । जिस तरह सिपाही राज्य के सुख के लिए जान देता है उसी तरह व्यापारी को जनता के सुख के लिए धन गँवा देना चाहिए प्राण भी दे देना चाहिए । सिपाही का काम जनता की रक्षा करना है, धर्मोपदेशक का, उसको शिक्षा देना है । चिकित्सक का उसे स्वस्थ रखना है और व्यापारी का उसके लिए आवश्यक माल जुटाना है । इन सबका कर्तव्य समय पर अपने प्राण भी दे देना है ।