Books - गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरण
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Language: HINDI
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षट्-चक्र ब्रह्माण्ड व्यापी शक्तियों के रेडियो केन्द्र
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बांसुरी में सात छिद्र सात स्वर कहलाते हैं जब उनमें से आरोह अवरोह क्रम में वायु फूंकी और उन छिद्रों का व्यवस्थित संचालन किया जाता है तो एक ऐसी मधुर स्वर लहरी का गुंजार होता है जिसे सुनकर हर कोई मुग्ध हो जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण की बांसुरी के स्वर सुनकर समस्त ब्रज भाव विभोर उठता था। ऐसी ही एक बांसुरी मनुष्य के शरीर में षट्चक्रों के रूप में भी विद्यमान है। सामान्य अवस्था में यह चक्र प्रसुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। किन्तु गायत्री उपासना से जब उनका जागरण होता है तो साधकों को एक ऐसा अनहद् नाद सुनाई पड़ता है जिससे वह आत्म विभोर हो उठता है उसे ऐसी तृप्ति के दर्शन होते हैं जिसके आगे संसार की कोई भी नियामत तुच्छ लगती है।
चक्र शब्द का अर्थ पहिया ही नहीं नियमित गति में भी होता है। भाग्य चक्र, जीवन मरण चक्र, सुदर्शन चक्र, आदि चक्र संयुक्त नामों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गाड़ी के पहिए की तरह जो भी वस्तु या स्थिति घूमने वाली हो उसके लिए चक्र शब्द का प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी सहित सौर मण्डल के ग्रह एक निर्धारित कक्षा में घूमते हैं, परमाणु भी अपने छोटे और मण्डल के साथ अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं। दिन और रात की तरह शरीर में रक्ताभिषरण—श्वास-प्रश्वास क्रिया में भी आवागमन का चक्र चलता रहता है। गति और प्रगति का जो क्रम संसार में सर्वत्र दीख पड़ता है वही प्रकारान्तर से हमारे शरीर के विविध क्रिया कलापों पर भी लागू होता है। ऐसे ही क्रिया-कलापों में एक विश्वव्यापी प्राणशक्ति में से कुछ अंश शरीर में ग्रहण करने और छोड़ने का क्रम चलाने के शक्ति संस्थान विद्यमान हैं जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहा जाता है।
नदी और नहरों के किनारे आटा पीसने की पन-चक्कियां लगी होती हैं। बहता हुआ पानी जहां ऊपर से नीचे गिरता है वहां उस गिरने से उत्पन्न होने वाले दबाव से कुछ चक्के सम्बन्धित कर दिये जाते हैं और वे उस दबाव के कारण घूमने लगते हैं। इस घुमाव से चक्की के पहिए घूमने लगते हैं और आटा पीसने की मशीन अपना काम करने लगती है। विश्वव्यापी प्राणशक्ति का प्रवाह एक बड़ी नदी में बहने वाले जल प्रवाह की तरह है। मनुष्य शरीर की प्रपात से तुलना की जा सकती है। शरीर में विद्यमान कुछ सूक्ष्म चक्र इस शक्ति प्रपात के साथ जुड़े रहने के कारण उस प्रवाह जन्य दबाव को अपने भीतर ग्रहण करते हैं और वे स्वयं घूमने लगते हैं। चक्रों का परिभ्रमण सूक्ष्म शरीर के सारे अन्तरंग क्रिया-कलाप को घुमाता है और हमारी आंतरिक हलचलें अपना काम करने लगती हैं। विश्वव्यापी प्राणशक्ति की विद्युत भी हमारे सूक्ष्म चक्र ग्रहण करते हैं। जैसे बड़े बिजली घर से उत्पन्न होने वाली शक्ति को छोटे ट्रांसफार्मर अपने में ग्रहण कर लेते हैं और उससे अपने क्षेत्र की आवश्यकता पूरी करते हैं। उसी प्रकार हमारे सूक्ष्म शरीर में विद्यमान चक्र-विराट् प्राण चक्र से अपनी क्षमता के अनुरूप शक्ति प्राप्त करते हैं और उससे स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, कोशों की गतिविधियां संचालित रख सकने की क्षमता प्राप्त करते हैं। इसी क्षमता से वे स्वयं विद्युत मोटरों की तरह घूमते हैं और शरीर सत्ता के विभिन्न घटकों को गति प्रदान करते हैं।
सामान्यतया गति के तीन रूप हैं (1) चक्राकार—गोल (2) कुण्डल्याकार— पेंच की चूड़ियों की तरह (3) तरंगाकार—लहरों की तरह। साधारण जीवन क्रम में हम बाह्य जगत की तरंग प्रक्रिया से लाभान्वित होते हैं। कानों में शब्द—त्वचा पर स्पर्श—जिह्वा पर रस—नाक में गन्ध नेत्रों में रूप का अवगृहण तरंगों के रूप में ही होता है। हम प्रायः तरंगें ही फेंकते और तरंगें ही ग्रहण करते हैं। हमारी क्रियायें एवं विचारणाएं अन्तरिक्ष में जो हलचलें उत्पन्न करती हैं वे तरंग रूप में ही आगे बढ़ती हैं और शक्तियों तथा वस्तुओं को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार हम व्यापक शक्ति समुद्र में से एक तिहाई का ही उपयोग कर पाते हैं दो तिहाई धारायें तो अछूती ही बनी रहती हैं जबकि उनकी क्षमता और भी अधिक है।
दो तरंगें शरीर के अन्तःक्षेत्र में गतिशील रहती हैं। मूलाधार चक्र से मेरुदण्ड मार्ग में जो शक्ति प्रवाह चलता है वह पेंच की चूड़ी की तरह कुण्डल्याकार होता है। इसलिए धारा को कुंडलिनी कहते हैं। साधारण बन्दूकों में तो ऐसे ही गोल छेद की पोली नली होती है पर बढ़िया बन्दूकों की नली का भीतरी भाग चूड़ीदार होता है। गोली दागते समय उसे पेंचदार घुमाव की गति मिलती है फलतः वह लक्ष्य तक इसी गति से घूमती हुई पहुंचती है। जहां लगती है वहां छिद्र तो सामान्य होता है पर आगे वह अपनी पेंचदार चाल के कारण बड़ा छिद्र कर देती है। मूलाधार से उठने वाले पेंचदार प्रवाह भी ऐसे ही होते हैं और वे आगे बढ़ते बढ़ते अधिकाधिक सशक्त होते जाते हैं। मस्तिष्क के उठने वाले विद्युत प्रवाह गोलाकार होते हैं। अस्तु उसे सूर्य चन्द्र जैसे गोल ग्रह पिण्डों की उपमा दी जाती है, बूंदें भी गोल होती हैं। उसे उस प्रवाह के अमृत बिन्दुओं के समतुल्य माना जाता है और सोम रस से स्वाति बूंदों से स्मरण किया जाता है। चातक की तृप्ति स्वाति वर्षा से होती है। स्वाति बूंदों से सीप में मोती, बांस में बंश-लोचन, केला में कपूर होने की किदवन्तियां पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से सही नहीं हैं। इस अलंकार में मस्तिष्क में झरने वाले प्रवाह को ही अमृत वर्षा के नाम से पुकारा गया है। सीप, चातक, केला, बांस आदि से मूलाधार संस्थान की ओर इंगित किया गया है। मस्तिष्क और काम बीज के बीच परस्पर आकर्षण तो है पर मिलन नहीं हो पाता। इस वियोग की अतृप्ति ही जीवन क्रम में विक्षोभ, असंतोष एवं अभाव भरे रहती है। यदि दोनों का मिलन हो सके तो इस संयोग का प्रतिफल आनन्द एवं उल्लास बन कर सामने आता है। यही स्थिति उत्पन्न करना कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है।
रेडियो यन्त्र में लगी सुई को अलग नम्बरों पर लगा देने से, उसमें लगे बैण्ड बदल देने से अगल अलग ब्रॉडकास्ट स्टेशनों का सम्बन्ध बनता और बदलता है रेडियो यन्त्र में ऐसी व्यवस्था है कि उसके विभिन्न पुर्जे थोड़ी फेर बदलने से अन्तरिक्ष में विभिन्न फ्रीक्वेन्सियों पर चल रहे शब्द प्रवाहों को पकड़ सकें। इसी व्यवस्था के आधार पर हम अपने रेडियो पर अभीष्ट प्रोग्राम सुन सकते हैं। मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों में ऐसी विशेषता है कि वे अनन्त आकाश में बह रही विभिन्न स्तर की चेतनात्मक शक्ति धाराओं के साथ सम्पर्क बना सकें। इन्हीं धाराओं को देवसत्ता कहते हैं। चक्रों के अधिपति विभिन्न देवता बताये गये हैं। इनका तात्पर्य है कि चक्रों के साथ चेतन जगत की महत्वपूर्ण फ्रीक्वेंसियां सम्बन्धित हैं। उनका सम्पर्क एवं अनुदान प्राप्त कर सकना हर दृष्टि से मनुष्य के लिए उपयोगी ही सिद्ध हो सकता है।
हमारा रेडियो यन्त्र ग्रहण करने का एक ही कार्य सम्पन्न कर पाता है। उसमें प्रेषण की— ब्रॉडकास्टिंग की क्षमता नहीं है। प्रेषण और ग्रहण का दुहरा काम कर सकने की क्षमता मेरुदण्ड स्थित चक्र संस्थान में पाई जाती है। वे अन्तरिक्ष के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्तरों के साथ सम्पर्क बनाने एवं आदान प्रदान का द्वार खोलने में समर्थ हो सकते हैं। प्रसुप्त चक्र अविज्ञात एवं अनावश्यक स्थिति में उपेक्षित पड़े रहते हैं पर यदि उन्हें जागृत किया जा सके तो जीवन विकास में उनका महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। संसार को परमाणुओं से बना हुआ एक खिलौना कहें तो अत्युक्ति न होगी। कुछ सीमित तत्वों के परमाणु ही विराट जगत में परिभ्रमण करते और नाना प्रकार के ब्रह्मांड पदार्थ और परिस्थितियों की उत्पत्ति करते हैं। जीवन की सात अवस्थायें भी वस्तुतः इन परमाणुओं के संयोग से विनिर्मित सृष्टि क्रम ही है।
पाश्चात्य अध्यात्मवेत्ता चेतना के साथ शरीर मानते हैं। एक प्रत्यक्ष छह अप्रत्यक्ष। (1) भौतिक शरीर को वे (फिजीकल बॉडी) कहते हैं। इससे आगे के क्रमशः (2) आकाश शरीर—(इथरिक बॉडी) (3) सूक्ष्म शरीर (एस्ट्रल बॉडी) (4) मनस् शरीर—(मेन्ट बॉडी) (5) आत्म शरीर (स्प्रिचुअल बॉडी) (6) ब्रह्म शरीर—(कॉस्मिक बॉडी) (7) निर्वाण शरीर—इसे वे शरीर कहते हुए भी आत्मसत्ता कहते हैं और शरीर न कहकर ‘‘बीइंग एण्ड नोनबीइंग’’ की संज्ञा देते हैं। यह ‘अनिर्वचनीय’ जैसा शब्द है।
(1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपूर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञाचक्र यह षट्चक्र वर्ग में आते हैं। सातवां सहस्रार इनका अधिपति एक सूत्र संचालक है। मानवी काया में अवस्थित यही परम तेजस्वी सप्त ऋषि हैं। जिनकी पीठ पर—जिनके समर्थन में—सात ऋषि होंगे उन्हें किसी प्रकार का अनुभव न होगा। निद्रित स्थिति में तो मनुष्य भी मृत तुल्य पड़ा रहता है। ऋषियों का अस्तित्व आत्मसत्ता के अन्तर्गत होते हुए भी यदि वे प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं तो उनका समुचित लाभ मिल सकना सम्भव न होगा।
आत्म सूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केन्द्रों के रूप में वर्णन किये गये हैं—(1) प्राण (2) चक्षु (3) जिह्वा (4) त्वचा (5) कान (6) मन (7) बुद्धि इन सातों को अश्व संज्ञा दी गई है।
दिव्य जीव सत्ता में इन सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है (1) देव (2) ऋषि (3) गन्धर्व (4) पन्नग (5) अप्सरा (6) यज्ञ (7) राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है—(1) प्रजापति (2) अर्यमा (3) पूषा (4) त्वष्टा (5) वरुण (6) इन्द्र (7) मित्र। छन्द शास्त्र की दृष्टि से इनका उल्लेख जिन सात छन्दों में किया गया है वे (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रिष्टुप और (7) जगती है।
गान विद्या के सप्त स्वर प्रसिद्ध हैं—स, रे, ग, म, प, ध नि के नाम से इन्हें संगीत शास्त्र के आरम्भिक छात्र भी जानते हैं। सूर्य की सात किरणें (1) बैंगनी (2) जामुनी (3) नीले (4) हरे (5) पीले (6) नारंगी (7) लाल रंग की है। इन्हें रंगों के प्रभाव से पदार्थों और प्राणियों में तरह-तरह के उभार एवं उतार चढ़ाव आते रहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार अपने प्रत्यक्ष शरीर में सप्त धातुएं हैं—(1) रस (2) रक्त (3) मांस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) मेरु (7) शुक्र। इन्हीं के सहारे काया का क्रिया-कलाप चलता है। सूक्ष्म शरीर का ढांचा भी सात आधारों पर ही खड़ा है। (1) पांच तत्व (2) पांच प्राण (3) पांच ज्ञानेन्द्रियां (4) पांच कर्मेन्द्रियां (5) पांच तन्मात्राएं (6) अन्तःकरण चतुष्टय (7) आकांक्षा संस्कार।
स्थूल शरीर के आधारों को प्रत्यक्ष आंखों से देखा जा सकता है सूक्ष्म शरीर के आधार भी सूक्ष्म होते हैं अस्तु वे दृष्टिगोचर तो नहीं होते पर अस्तित्व उन सबका बना रहता है। भाप बनकर आकाश में उड़ जाने पर भी पदार्थ बना तो रहता है पर उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता सूक्ष्म शरीर की सत्ता भूत-प्रेतों के रूप में, स्वप्न में, छाया पुरुष में, स्वर्ग-नरक भोगने में स्थूल शरीरधारियों की तरह की काम करती है, पर उसका अस्तित्व स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता। दिव्यात्माएं भी ऐसा ही सूक्ष्म कलेवर धारण करके इतना काम करती है जो स्थूल शरीर की तुलना में अत्यधिक होता है।
षट्चक्रों का नाम भ्रामक है। वस्तुतः उन्हें सप्तचक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इस चक्र शृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना है। उनके स्वरूप निर्धारण की जो व्याख्या विवेचना है उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये हैं—(1) तत्व बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग-अलग विभेद किये गये हैं। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं और प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।
शरीर एक समूचा ब्रह्माण्ड है। जो कुछ इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में है उसे बीज रूप से मानवी पिण्ड में संजो दिया गया है। साधना द्वारा इन बीजों को अंकुरित और पल्लवित किया जाता है। ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सत्ता एक जैसी बताते हुए कहा गया है—
ब्रह्माण्ड संत्तके देहे यथा देशं व्यवस्थितः । —शिव संहिता
यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी मौजूद हैं।
नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप आदि भी सात-सात ही गिनाये गये हैं। भूगोल के हिसाब से इनकी संगति नहीं बैठती। संसार में हजारों नदियां हैं। इसी प्रकार पर्वत भी सैकड़ों हैं। पृथ्वी पर महाद्वीप पांच हैं। छोटे द्वीपों की संख्या तो लाखों तक पहुंचेगी। समुद्र भी सात कहां हैं। इस प्रकार भौगोलिक गणना के आधार पर यह ब्रह्माण्ड विवरण सही नहीं बैठता। किन्तु पिण्ड ब्रह्माण्ड की प्रमुख शक्तियों को इन रूपकों के माध्यम से समझाने वाले अलंकारिक संकेत का रहस्य समझा जा सकें तो यह सभी सप्तक सही बैठते हैं। सात पर्वत यह हैं—(1) विद्रुम (2) हिमिशैल (3) द्युतिमान (4) पुष्पवान (5) कुशेशय (6) हरिशैल (7) मन्दराचल।
सात नदियों के नाम हैं—(1) जलधर (2) दैवत (3) श्यामक (4) उद्रक (5) अम्बिकेय (6) रभ्य (7) केशरी।
सात चक्रों की सप्त अग्नियां तथा सात सोम संस्थाओं के रूप में भी वर्णन हुआ है। सोम संस्थाओं के नाम ब्राह्मण ग्रन्थों में इस प्रकार गिनाये गये हैं—(1) आत्माग्नि स्टोम (2) उष्टवक्य (3) थोडसी (4) वाजपेयक (5) अति रात्र (6) आप्त (7) याम।
अग्नि पुराण में सात चरु यज्ञ एवं सात हवि यज्ञों का वर्णन है। चरु यज्ञ हैं (1) पुरोष्टक (2) पार्वण (3) श्रावणी (4) अग्रहायणी (5) चैत्र (6) अश्व (7) युजी। हवि यज्ञ भी सात हैं—(1) अग्न्याधेय (2) अग्निहोत्र (3) दर्श (4) पौर्णमास (5) चातुर्मास्य (6) आग्रहायण (7) निरुढ।
सात अग्नियां हैं—(1) ब्रह्माग्नि (2) आत्माग्नि (3) योगाग्नि (4) कालाग्नि (5) सूर्याग्नि (6) वैश्वानर (7) आतप।
मुन्डक उपनिषद् के अनुसार अग्नि देव की सात जिह्वायें हैं—(1) काली (2) कराली (3) मनोजवा (4) लोहिता (5) धूम्रवर्णा (6) स्फुल्लिंगिनी (7) विश्वरुचि। सात समुद्रों और सात द्वीपों के नाम मार्कण्डेय पुराण में इस प्रकार गिनाये गये हैं।
समुद्र—(1) लवण सागर (2) इक्षुसागर (3) सुरासागर (4) दुग्ध सागर (5) दधि सागर (6) घृत सागर (7) जल सागर। द्वीप—(1) जम्बू द्वीप (2) प्लक्ष द्वीप (3) शाल्मलि द्वीप (4) कुश द्वीप (5) क्रौच द्वीप (6) शाक द्वीप (7) पुष्कर द्वीप।
इन सभी प्रतिपादनों में यह संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप से अपने भीतर विद्यमान है यदि उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाय तो व्यक्ति उच्चस्तरीय स्थिति तक निरन्तर बढ़ता चल सकता है और प्रगति के उच्च स्तर तक पहुंच सकता है। बीज का अस्तित्व और फल का परिणाम सुनिश्चित है। आवश्यकता उस कृषि कर्म की—बागवानी की रीति नीति जानने अपनाने की है जिसे अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं।
प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के साथ सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्। यह सात व्याहृतियां हैं। इन्हें सात ऋषि एवं सात लोक भी कहा गया है।
अग्नि पुराण में सात ऋषियों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं—
वशिष्ठः काश्यपोऽतथात्रिर्जमदग्निः स गोतमः विश्वामित्र भरद्वाजो मुनयः सप्त साम्प्रतम् । (1) वशिष्ठ (2) कश्यप (3) अत्रि (4) जमदग्नि (5) गौतम (6) विश्वामित्र (7) भारद्वाज। इन सातों की सत्ता सप्त चक्रों में विद्यमान है। इन सातों की शक्ति इन्द्रियों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है। प्राणाः वा ऋषयः । इमौ एव गौतम भरद्वाजौ । अयमेव गौतमः अयं भरद्वाजः । इमौ एव विश्वामित्र जमद्रग्नि । अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः । इमौ एव वशिष्ठ कश्यपौ अयमेव वशिष्ठः अय कश्यपः वागेवात्रिः । —श्रुति
सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज हैं। दो आंखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और कश्यप हैं। वाक् अत्रि हैं। सात लोक आकाश में ढूंढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं हैं, वरन् आत्म सत्ता में सप्त चक्रों के रूप में ही उनका अस्तित्व है। कहा गया है—
मूलाधारे तु भूर्लोको स्वाधिष्ठाने भुवस्ततः स्वर्लोको नाभि देशे च हृदये तु महस्तथा । जनः लोके कंठ देशे, तपो लोकं ललाटके । सत्य लोक महारन्ध्रे इति लोका पृथक् पृथक् । —महायोग विज्ञान
(1) भू-लोक मूलाधार में (2) भुवः लोक स्वाधिष्ठान में (3) स्वः लोक नाभि स्थान में (4) मह लोक हृदय में (5) जन लोक कण्ठ में (6) तप लोक ललाट में (7) सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान है। जहां स्थान मात्र गिना दिये गये हैं वहां उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिये।
उपनिषद्कार ने मानवी काया को ‘छै अरे’ एवं ‘सात-चक्र’ लगा हुआ विलक्षण रथ कहा है—यह षटचक्रों का सप्त चक्रों का ही संकेत है—
‘‘ऊथेमे अन्य उपरे विलक्षणं सप्त चक्रे शब्दर आहुरर्पितम् ।’’ अन्य लोक उस विलक्षण को सात चक्र और छै अरों वाला कहते हैं।
पद्म पुराण में भागवत माहात्म्य वर्णन सन्दर्भ में धुंधकारी प्रेत की मोक्ष उस कथा श्रवण के फल स्वरूप होने का उल्लेख है। यह प्रेत बांस की गांठों को फोड़ता हुआ नीचे से ऊपर चला था और गांठें तोड़कर प्रेत योनि से छूटा तथा परम पद का अधिकारी बना था। अध्याय 5 श्लोक 64 में यह बांसों की गांठ बंधे जाने का रहस्योद्घाटन करते हुए इसे योगिक ग्रन्थि भेद बताया है। कहा गया है।
जडस्य शुष्क वंशस्य यत्र ग्रन्थि विभेदनम् । चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथा श्रवात् ।।
इसमें सूखे और जड़ बांस की गांठें फटने का तात्पर्य चित्त की ग्रन्थियां खुलना बताया गया है।
भागवत पुराण के स्कन्ध 2, अध्याय 2 के 19, 20, 21 श्लोकों में महर्षि शुक्राचार्य ने विहंगम मार्ग से ब्रह्म निष्ठ योगियों के प्राण त्याग का विधान बताया है। इसमें षट्चक्र वेधन विधान की ही प्रक्रिया है। छहों चक्रों का वेधन करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्राण को लय करते हुये प्राण त्याग करने की विधि समझाई गई है।7 यह सप्त ऋषि जिस पर अनुग्रह करते हैं उन्हें सद्गुणों की सात विभूतियां प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि सद्गुण ही वे देव अनुग्रह हैं जिनके मूल्य पर भौतिक और आत्मिक, सम्पदाएं सफलताएं खरीदी जाती हैं। यह भ्रान्तियां निरस्त की जानी चाहिए कि उपासना के फलस्वरूप सीधी सम्पदाएं मिलती हैं। सच्ची साधना के फलस्वरूप अन्तरंग में उत्कृष्टता उभरती है और सज्जनोचित सद्भावों का विस्तार होता है। बहिरंग में सत्प्रवृत्तियां सक्रिय होती हैं और क्रिया-कलापों में महामानवों जैसी प्रतिभा व्यवस्था एवं शालीनता की मात्रा बढ़ती है। जहां आत्म विकास का यह स्वरूप दृष्टिगोचर हो समझना चाहिए कि यहां सच्ची साधना की गई और उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व में परिष्कार बन कर देव अनुग्रह अवतरित हुआ। व्यक्तित्व निखरने के फलस्वरूप ही भौतिक और आत्मिक सफलताओं के—ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वे प्रतिफल प्राप्त होते हैं जिनका माहात्म्य साधनाओं की सफलता के रूप में वर्णन किया गया है।
न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् । यस्तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संयोजयन्तितम् ।। —महाभारत
ग्वाले जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।
सप्त ऋषियों का अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता की प्रतीक आत्म सत्ता पर अपना अधिकार आधिपत्य मिलता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझना चाहिए उसे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य मिल गया।
सात यज्ञ, सात अग्नि, सात सोम आदि की उपासना से जो प्रतिफल मिलते बताये गये हैं उन्हें भी उन्हीं सात ऋषियों के वरदान समझना चाहिए जो अपने आत्म सत्ता के हिमालय में निरन्तर निवास और तप करते हैं। इन्हीं शक्ति धाराओं को साधना विज्ञान में सात चक्र कहा गया है। प्रत्येक चक्र प्रत्येक ऋषि के एक वरदान एक एक सद्गुण के रूप में प्राप्त होता है। वे ही ऋद्धि-सिद्धियों के साथ में जीवन को देवोमय बनाते हैं और स्वर्गीय उपलब्धियों से सुसम्पन्न करते हैं।
यों पौराणिक गाथाओं में ऋषि, व्यक्ति—विशेष थे। महामानवों के रूप में योग और तप में निरत—स्व पर कल्याण में संलग्न जीवनयापन करते हुए उनका वर्णन किया गया है। पर आत्म विज्ञान में ऋषि तत्व जागृत एवं प्रखर प्राण सत्ता को कहा गया है वे सूर्य के समान एक कहे जा सकते हैं। अथवा सप्त किरणों के रूप में उनके सात नाम दिये जा सकते हैं और सुविधा के लिए सात वर्गों में विभाजित करके सात व्याख्याएं की जा सकती हैं। सृष्टि के आदि में जब जीव सत्ता प्रकट हुई तो उसका स्वरूप ‘ऋषि प्राण’ के रूप में था। यह जीवात्मा का शुद्ध स्वरूप है। उसी स्थिति में पहुंचने पर आत्मा को देवात्मा एवं परमात्मा के रूप में परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। शतपथ में इस रहस्य का इस प्रकार उल्लेख है—
असद्वा इदमग्न आसीत् तदाहुः कि तदसदासी दित्यृष्यों वा व तेऽमेऽ सदासीत तदाहुः के ते ऋषय इति, प्राणां वा ऋषय । —शतपथ 6।1।1।1
पहले सृष्टि से पूर्व में यह असत् था। तब कहा—वह असत् क्या था? उत्तर—वे ऋषि ही थे। वे सृष्टि से पूर्व असत थे। तब कहा—वे ऋषि क्या थे? प्राण ही ऋषि थे। सप्त ऋषि मरते नहीं, वे आकाश में सात तारागणों की शृंखला के रूप में भी चमकते हैं और हमारी जीवन सत्त में भी सप्त चक्र बन कर विद्यमान हैं। जो इन ऋषियों के सान्निध्य में रहने की—उनका अनुग्रह प्राप्त करने की साधना करता है वह उन ऋषियों की तरह ही ब्रह्म वर्चस् सम्पन्न बन जाता है। अथर्व वेद इस तथ्य की साक्षी इस प्रकार देता है—
तद्ब्रह्म च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्मवर्चस्यु पजीव नीयो भवति य एवं वेद । —अथर्व 8।13,16।10।4
8।13,16।10।4 सप्त ऋषि तप और बल ब्रह्म के आधार पर जीवित रहते हैं। जो इस रहस्य को जानता है वह ब्रह्मवर्चस् और जीवन प्राप्त करता है। सात चक्रों को सप्त प्राण केन्द्र कहा गया है। इन्हीं को, सात यज्ञ, सात समिधा, सात लोक आदि कहा गया है। ये सभी सात सात अन्तर्गुहा में निहित हैं। इस रहस्य को मुण्डकोपनिषद् 2।1।8 में प्रकट किया गया है।
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समधिः सप्त होमाः । सप्त इमे लोका येषु चत्न्ति प्राणाः, गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।8।। —मुण्डक 2।1।8
सात चक्रों में समस्त तीर्थ प्रतिनिधि रूप में विद्यमान हैं। इनका अवगाहन करने से समस्त तीर्थों का पुण्य फल साधक को प्राप्त होता है।
ऐसे अनेक तथ्यों पर विचार करके तत्वज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुण्डलिनी के चक्र एक प्रकार की फ्रीक्वेंसियां हैं जो ब्रह्माण्ड व्यापी विशिष्ट शक्तियों से चेतना का सम्बन्ध जोड़ती हैं। इस संयोग का नाम ही सिद्धि है। वह शक्तियां ही देवता, ऋषि और लोक कहलाती हैं। उनकी उपलब्धि जंग लगे लौह जीवन को भी खरा कुंदन सामान्य मनुष्य को सम्राटों जैसा ऐश्वर्यवान बना देती है। सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं शेष रहता जो इन चक्रों को जागृत कर लेने के बाद मिल न सकता हो।
इन चक्रों के जागरण के लिये नियमित जप के अतिरिक्त पंचकोशों की अनावरण साधना का उच्चस्तरीय अभ्यास भी करना पड़ता है। यों सामान्य जप उपासना से भी उनका विकास होता है और शनैः शनै इन चक्रों में सन्निहित शक्तियों का लाभ मिलता है पर यदि उस शक्ति की अधिक मात्रा अभीष्ट हो तो उच्च स्तरीय साधना का अभ्यास करना पड़ता है। वह अभ्यास कठिन तो है पर उनसे साधक को वह शक्तियां मिलती हैं जिन्हें पाकर वह इन्द्र जैसी सामर्थ्य, कुबेर जैसी सम्पन्नता और ऋषियों जैसी त्रिकाल दर्शी सिद्धि का आनन्द लाभ प्राप्त करता है।
चक्र शब्द का अर्थ पहिया ही नहीं नियमित गति में भी होता है। भाग्य चक्र, जीवन मरण चक्र, सुदर्शन चक्र, आदि चक्र संयुक्त नामों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गाड़ी के पहिए की तरह जो भी वस्तु या स्थिति घूमने वाली हो उसके लिए चक्र शब्द का प्रयोग किया जाता है। पृथ्वी सहित सौर मण्डल के ग्रह एक निर्धारित कक्षा में घूमते हैं, परमाणु भी अपने छोटे और मण्डल के साथ अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं। दिन और रात की तरह शरीर में रक्ताभिषरण—श्वास-प्रश्वास क्रिया में भी आवागमन का चक्र चलता रहता है। गति और प्रगति का जो क्रम संसार में सर्वत्र दीख पड़ता है वही प्रकारान्तर से हमारे शरीर के विविध क्रिया कलापों पर भी लागू होता है। ऐसे ही क्रिया-कलापों में एक विश्वव्यापी प्राणशक्ति में से कुछ अंश शरीर में ग्रहण करने और छोड़ने का क्रम चलाने के शक्ति संस्थान विद्यमान हैं जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहा जाता है।
नदी और नहरों के किनारे आटा पीसने की पन-चक्कियां लगी होती हैं। बहता हुआ पानी जहां ऊपर से नीचे गिरता है वहां उस गिरने से उत्पन्न होने वाले दबाव से कुछ चक्के सम्बन्धित कर दिये जाते हैं और वे उस दबाव के कारण घूमने लगते हैं। इस घुमाव से चक्की के पहिए घूमने लगते हैं और आटा पीसने की मशीन अपना काम करने लगती है। विश्वव्यापी प्राणशक्ति का प्रवाह एक बड़ी नदी में बहने वाले जल प्रवाह की तरह है। मनुष्य शरीर की प्रपात से तुलना की जा सकती है। शरीर में विद्यमान कुछ सूक्ष्म चक्र इस शक्ति प्रपात के साथ जुड़े रहने के कारण उस प्रवाह जन्य दबाव को अपने भीतर ग्रहण करते हैं और वे स्वयं घूमने लगते हैं। चक्रों का परिभ्रमण सूक्ष्म शरीर के सारे अन्तरंग क्रिया-कलाप को घुमाता है और हमारी आंतरिक हलचलें अपना काम करने लगती हैं। विश्वव्यापी प्राणशक्ति की विद्युत भी हमारे सूक्ष्म चक्र ग्रहण करते हैं। जैसे बड़े बिजली घर से उत्पन्न होने वाली शक्ति को छोटे ट्रांसफार्मर अपने में ग्रहण कर लेते हैं और उससे अपने क्षेत्र की आवश्यकता पूरी करते हैं। उसी प्रकार हमारे सूक्ष्म शरीर में विद्यमान चक्र-विराट् प्राण चक्र से अपनी क्षमता के अनुरूप शक्ति प्राप्त करते हैं और उससे स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय, कोशों की गतिविधियां संचालित रख सकने की क्षमता प्राप्त करते हैं। इसी क्षमता से वे स्वयं विद्युत मोटरों की तरह घूमते हैं और शरीर सत्ता के विभिन्न घटकों को गति प्रदान करते हैं।
सामान्यतया गति के तीन रूप हैं (1) चक्राकार—गोल (2) कुण्डल्याकार— पेंच की चूड़ियों की तरह (3) तरंगाकार—लहरों की तरह। साधारण जीवन क्रम में हम बाह्य जगत की तरंग प्रक्रिया से लाभान्वित होते हैं। कानों में शब्द—त्वचा पर स्पर्श—जिह्वा पर रस—नाक में गन्ध नेत्रों में रूप का अवगृहण तरंगों के रूप में ही होता है। हम प्रायः तरंगें ही फेंकते और तरंगें ही ग्रहण करते हैं। हमारी क्रियायें एवं विचारणाएं अन्तरिक्ष में जो हलचलें उत्पन्न करती हैं वे तरंग रूप में ही आगे बढ़ती हैं और शक्तियों तथा वस्तुओं को प्रभावित करती हैं। इस प्रकार हम व्यापक शक्ति समुद्र में से एक तिहाई का ही उपयोग कर पाते हैं दो तिहाई धारायें तो अछूती ही बनी रहती हैं जबकि उनकी क्षमता और भी अधिक है।
दो तरंगें शरीर के अन्तःक्षेत्र में गतिशील रहती हैं। मूलाधार चक्र से मेरुदण्ड मार्ग में जो शक्ति प्रवाह चलता है वह पेंच की चूड़ी की तरह कुण्डल्याकार होता है। इसलिए धारा को कुंडलिनी कहते हैं। साधारण बन्दूकों में तो ऐसे ही गोल छेद की पोली नली होती है पर बढ़िया बन्दूकों की नली का भीतरी भाग चूड़ीदार होता है। गोली दागते समय उसे पेंचदार घुमाव की गति मिलती है फलतः वह लक्ष्य तक इसी गति से घूमती हुई पहुंचती है। जहां लगती है वहां छिद्र तो सामान्य होता है पर आगे वह अपनी पेंचदार चाल के कारण बड़ा छिद्र कर देती है। मूलाधार से उठने वाले पेंचदार प्रवाह भी ऐसे ही होते हैं और वे आगे बढ़ते बढ़ते अधिकाधिक सशक्त होते जाते हैं। मस्तिष्क के उठने वाले विद्युत प्रवाह गोलाकार होते हैं। अस्तु उसे सूर्य चन्द्र जैसे गोल ग्रह पिण्डों की उपमा दी जाती है, बूंदें भी गोल होती हैं। उसे उस प्रवाह के अमृत बिन्दुओं के समतुल्य माना जाता है और सोम रस से स्वाति बूंदों से स्मरण किया जाता है। चातक की तृप्ति स्वाति वर्षा से होती है। स्वाति बूंदों से सीप में मोती, बांस में बंश-लोचन, केला में कपूर होने की किदवन्तियां पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से सही नहीं हैं। इस अलंकार में मस्तिष्क में झरने वाले प्रवाह को ही अमृत वर्षा के नाम से पुकारा गया है। सीप, चातक, केला, बांस आदि से मूलाधार संस्थान की ओर इंगित किया गया है। मस्तिष्क और काम बीज के बीच परस्पर आकर्षण तो है पर मिलन नहीं हो पाता। इस वियोग की अतृप्ति ही जीवन क्रम में विक्षोभ, असंतोष एवं अभाव भरे रहती है। यदि दोनों का मिलन हो सके तो इस संयोग का प्रतिफल आनन्द एवं उल्लास बन कर सामने आता है। यही स्थिति उत्पन्न करना कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है।
रेडियो यन्त्र में लगी सुई को अलग नम्बरों पर लगा देने से, उसमें लगे बैण्ड बदल देने से अगल अलग ब्रॉडकास्ट स्टेशनों का सम्बन्ध बनता और बदलता है रेडियो यन्त्र में ऐसी व्यवस्था है कि उसके विभिन्न पुर्जे थोड़ी फेर बदलने से अन्तरिक्ष में विभिन्न फ्रीक्वेन्सियों पर चल रहे शब्द प्रवाहों को पकड़ सकें। इसी व्यवस्था के आधार पर हम अपने रेडियो पर अभीष्ट प्रोग्राम सुन सकते हैं। मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों में ऐसी विशेषता है कि वे अनन्त आकाश में बह रही विभिन्न स्तर की चेतनात्मक शक्ति धाराओं के साथ सम्पर्क बना सकें। इन्हीं धाराओं को देवसत्ता कहते हैं। चक्रों के अधिपति विभिन्न देवता बताये गये हैं। इनका तात्पर्य है कि चक्रों के साथ चेतन जगत की महत्वपूर्ण फ्रीक्वेंसियां सम्बन्धित हैं। उनका सम्पर्क एवं अनुदान प्राप्त कर सकना हर दृष्टि से मनुष्य के लिए उपयोगी ही सिद्ध हो सकता है।
हमारा रेडियो यन्त्र ग्रहण करने का एक ही कार्य सम्पन्न कर पाता है। उसमें प्रेषण की— ब्रॉडकास्टिंग की क्षमता नहीं है। प्रेषण और ग्रहण का दुहरा काम कर सकने की क्षमता मेरुदण्ड स्थित चक्र संस्थान में पाई जाती है। वे अन्तरिक्ष के विभिन्न क्षेत्रों एवं स्तरों के साथ सम्पर्क बनाने एवं आदान प्रदान का द्वार खोलने में समर्थ हो सकते हैं। प्रसुप्त चक्र अविज्ञात एवं अनावश्यक स्थिति में उपेक्षित पड़े रहते हैं पर यदि उन्हें जागृत किया जा सके तो जीवन विकास में उनका महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। संसार को परमाणुओं से बना हुआ एक खिलौना कहें तो अत्युक्ति न होगी। कुछ सीमित तत्वों के परमाणु ही विराट जगत में परिभ्रमण करते और नाना प्रकार के ब्रह्मांड पदार्थ और परिस्थितियों की उत्पत्ति करते हैं। जीवन की सात अवस्थायें भी वस्तुतः इन परमाणुओं के संयोग से विनिर्मित सृष्टि क्रम ही है।
पाश्चात्य अध्यात्मवेत्ता चेतना के साथ शरीर मानते हैं। एक प्रत्यक्ष छह अप्रत्यक्ष। (1) भौतिक शरीर को वे (फिजीकल बॉडी) कहते हैं। इससे आगे के क्रमशः (2) आकाश शरीर—(इथरिक बॉडी) (3) सूक्ष्म शरीर (एस्ट्रल बॉडी) (4) मनस् शरीर—(मेन्ट बॉडी) (5) आत्म शरीर (स्प्रिचुअल बॉडी) (6) ब्रह्म शरीर—(कॉस्मिक बॉडी) (7) निर्वाण शरीर—इसे वे शरीर कहते हुए भी आत्मसत्ता कहते हैं और शरीर न कहकर ‘‘बीइंग एण्ड नोनबीइंग’’ की संज्ञा देते हैं। यह ‘अनिर्वचनीय’ जैसा शब्द है।
(1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपूर (4) अनाहत (5) विशुद्ध (6) आज्ञाचक्र यह षट्चक्र वर्ग में आते हैं। सातवां सहस्रार इनका अधिपति एक सूत्र संचालक है। मानवी काया में अवस्थित यही परम तेजस्वी सप्त ऋषि हैं। जिनकी पीठ पर—जिनके समर्थन में—सात ऋषि होंगे उन्हें किसी प्रकार का अनुभव न होगा। निद्रित स्थिति में तो मनुष्य भी मृत तुल्य पड़ा रहता है। ऋषियों का अस्तित्व आत्मसत्ता के अन्तर्गत होते हुए भी यदि वे प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं तो उनका समुचित लाभ मिल सकना सम्भव न होगा।
आत्म सूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केन्द्रों के रूप में वर्णन किये गये हैं—(1) प्राण (2) चक्षु (3) जिह्वा (4) त्वचा (5) कान (6) मन (7) बुद्धि इन सातों को अश्व संज्ञा दी गई है।
दिव्य जीव सत्ता में इन सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है (1) देव (2) ऋषि (3) गन्धर्व (4) पन्नग (5) अप्सरा (6) यज्ञ (7) राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है—(1) प्रजापति (2) अर्यमा (3) पूषा (4) त्वष्टा (5) वरुण (6) इन्द्र (7) मित्र। छन्द शास्त्र की दृष्टि से इनका उल्लेख जिन सात छन्दों में किया गया है वे (1) गायत्री (2) उष्णिक् (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रिष्टुप और (7) जगती है।
गान विद्या के सप्त स्वर प्रसिद्ध हैं—स, रे, ग, म, प, ध नि के नाम से इन्हें संगीत शास्त्र के आरम्भिक छात्र भी जानते हैं। सूर्य की सात किरणें (1) बैंगनी (2) जामुनी (3) नीले (4) हरे (5) पीले (6) नारंगी (7) लाल रंग की है। इन्हें रंगों के प्रभाव से पदार्थों और प्राणियों में तरह-तरह के उभार एवं उतार चढ़ाव आते रहते हैं। आयुर्वेद के अनुसार अपने प्रत्यक्ष शरीर में सप्त धातुएं हैं—(1) रस (2) रक्त (3) मांस (4) मज्जा (5) अस्थि (6) मेरु (7) शुक्र। इन्हीं के सहारे काया का क्रिया-कलाप चलता है। सूक्ष्म शरीर का ढांचा भी सात आधारों पर ही खड़ा है। (1) पांच तत्व (2) पांच प्राण (3) पांच ज्ञानेन्द्रियां (4) पांच कर्मेन्द्रियां (5) पांच तन्मात्राएं (6) अन्तःकरण चतुष्टय (7) आकांक्षा संस्कार।
स्थूल शरीर के आधारों को प्रत्यक्ष आंखों से देखा जा सकता है सूक्ष्म शरीर के आधार भी सूक्ष्म होते हैं अस्तु वे दृष्टिगोचर तो नहीं होते पर अस्तित्व उन सबका बना रहता है। भाप बनकर आकाश में उड़ जाने पर भी पदार्थ बना तो रहता है पर उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता सूक्ष्म शरीर की सत्ता भूत-प्रेतों के रूप में, स्वप्न में, छाया पुरुष में, स्वर्ग-नरक भोगने में स्थूल शरीरधारियों की तरह की काम करती है, पर उसका अस्तित्व स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता। दिव्यात्माएं भी ऐसा ही सूक्ष्म कलेवर धारण करके इतना काम करती है जो स्थूल शरीर की तुलना में अत्यधिक होता है।
षट्चक्रों का नाम भ्रामक है। वस्तुतः उन्हें सप्तचक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इस चक्र शृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना है। उनके स्वरूप निर्धारण की जो व्याख्या विवेचना है उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये हैं—(1) तत्व बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग-अलग विभेद किये गये हैं। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं और प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।
शरीर एक समूचा ब्रह्माण्ड है। जो कुछ इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में है उसे बीज रूप से मानवी पिण्ड में संजो दिया गया है। साधना द्वारा इन बीजों को अंकुरित और पल्लवित किया जाता है। ब्रह्माण्ड और पिण्ड की सत्ता एक जैसी बताते हुए कहा गया है—
ब्रह्माण्ड संत्तके देहे यथा देशं व्यवस्थितः । —शिव संहिता
यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी मौजूद हैं।
नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप आदि भी सात-सात ही गिनाये गये हैं। भूगोल के हिसाब से इनकी संगति नहीं बैठती। संसार में हजारों नदियां हैं। इसी प्रकार पर्वत भी सैकड़ों हैं। पृथ्वी पर महाद्वीप पांच हैं। छोटे द्वीपों की संख्या तो लाखों तक पहुंचेगी। समुद्र भी सात कहां हैं। इस प्रकार भौगोलिक गणना के आधार पर यह ब्रह्माण्ड विवरण सही नहीं बैठता। किन्तु पिण्ड ब्रह्माण्ड की प्रमुख शक्तियों को इन रूपकों के माध्यम से समझाने वाले अलंकारिक संकेत का रहस्य समझा जा सकें तो यह सभी सप्तक सही बैठते हैं। सात पर्वत यह हैं—(1) विद्रुम (2) हिमिशैल (3) द्युतिमान (4) पुष्पवान (5) कुशेशय (6) हरिशैल (7) मन्दराचल।
सात नदियों के नाम हैं—(1) जलधर (2) दैवत (3) श्यामक (4) उद्रक (5) अम्बिकेय (6) रभ्य (7) केशरी।
सात चक्रों की सप्त अग्नियां तथा सात सोम संस्थाओं के रूप में भी वर्णन हुआ है। सोम संस्थाओं के नाम ब्राह्मण ग्रन्थों में इस प्रकार गिनाये गये हैं—(1) आत्माग्नि स्टोम (2) उष्टवक्य (3) थोडसी (4) वाजपेयक (5) अति रात्र (6) आप्त (7) याम।
अग्नि पुराण में सात चरु यज्ञ एवं सात हवि यज्ञों का वर्णन है। चरु यज्ञ हैं (1) पुरोष्टक (2) पार्वण (3) श्रावणी (4) अग्रहायणी (5) चैत्र (6) अश्व (7) युजी। हवि यज्ञ भी सात हैं—(1) अग्न्याधेय (2) अग्निहोत्र (3) दर्श (4) पौर्णमास (5) चातुर्मास्य (6) आग्रहायण (7) निरुढ।
सात अग्नियां हैं—(1) ब्रह्माग्नि (2) आत्माग्नि (3) योगाग्नि (4) कालाग्नि (5) सूर्याग्नि (6) वैश्वानर (7) आतप।
मुन्डक उपनिषद् के अनुसार अग्नि देव की सात जिह्वायें हैं—(1) काली (2) कराली (3) मनोजवा (4) लोहिता (5) धूम्रवर्णा (6) स्फुल्लिंगिनी (7) विश्वरुचि। सात समुद्रों और सात द्वीपों के नाम मार्कण्डेय पुराण में इस प्रकार गिनाये गये हैं।
समुद्र—(1) लवण सागर (2) इक्षुसागर (3) सुरासागर (4) दुग्ध सागर (5) दधि सागर (6) घृत सागर (7) जल सागर। द्वीप—(1) जम्बू द्वीप (2) प्लक्ष द्वीप (3) शाल्मलि द्वीप (4) कुश द्वीप (5) क्रौच द्वीप (6) शाक द्वीप (7) पुष्कर द्वीप।
इन सभी प्रतिपादनों में यह संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप से अपने भीतर विद्यमान है यदि उन्हें जागृत करने का प्रयत्न किया जाय तो व्यक्ति उच्चस्तरीय स्थिति तक निरन्तर बढ़ता चल सकता है और प्रगति के उच्च स्तर तक पहुंच सकता है। बीज का अस्तित्व और फल का परिणाम सुनिश्चित है। आवश्यकता उस कृषि कर्म की—बागवानी की रीति नीति जानने अपनाने की है जिसे अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं।
प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के साथ सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्। यह सात व्याहृतियां हैं। इन्हें सात ऋषि एवं सात लोक भी कहा गया है।
अग्नि पुराण में सात ऋषियों के नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं—
वशिष्ठः काश्यपोऽतथात्रिर्जमदग्निः स गोतमः विश्वामित्र भरद्वाजो मुनयः सप्त साम्प्रतम् । (1) वशिष्ठ (2) कश्यप (3) अत्रि (4) जमदग्नि (5) गौतम (6) विश्वामित्र (7) भारद्वाज। इन सातों की सत्ता सप्त चक्रों में विद्यमान है। इन सातों की शक्ति इन्द्रियों के रूप में भी दृष्टिगोचर होती है। प्राणाः वा ऋषयः । इमौ एव गौतम भरद्वाजौ । अयमेव गौतमः अयं भरद्वाजः । इमौ एव विश्वामित्र जमद्रग्नि । अयमेव विश्वामित्रः अयं जमदग्निः । इमौ एव वशिष्ठ कश्यपौ अयमेव वशिष्ठः अय कश्यपः वागेवात्रिः । —श्रुति
सात प्राण ही सात ऋषि हैं। दो कान गौतम और भारद्वाज हैं। दो आंखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं। दो नासिका छिद्र वशिष्ठ और कश्यप हैं। वाक् अत्रि हैं। सात लोक आकाश में ढूंढ़ना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं हैं, वरन् आत्म सत्ता में सप्त चक्रों के रूप में ही उनका अस्तित्व है। कहा गया है—
मूलाधारे तु भूर्लोको स्वाधिष्ठाने भुवस्ततः स्वर्लोको नाभि देशे च हृदये तु महस्तथा । जनः लोके कंठ देशे, तपो लोकं ललाटके । सत्य लोक महारन्ध्रे इति लोका पृथक् पृथक् । —महायोग विज्ञान
(1) भू-लोक मूलाधार में (2) भुवः लोक स्वाधिष्ठान में (3) स्वः लोक नाभि स्थान में (4) मह लोक हृदय में (5) जन लोक कण्ठ में (6) तप लोक ललाट में (7) सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान है। जहां स्थान मात्र गिना दिये गये हैं वहां उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिये।
उपनिषद्कार ने मानवी काया को ‘छै अरे’ एवं ‘सात-चक्र’ लगा हुआ विलक्षण रथ कहा है—यह षटचक्रों का सप्त चक्रों का ही संकेत है—
‘‘ऊथेमे अन्य उपरे विलक्षणं सप्त चक्रे शब्दर आहुरर्पितम् ।’’ अन्य लोक उस विलक्षण को सात चक्र और छै अरों वाला कहते हैं।
पद्म पुराण में भागवत माहात्म्य वर्णन सन्दर्भ में धुंधकारी प्रेत की मोक्ष उस कथा श्रवण के फल स्वरूप होने का उल्लेख है। यह प्रेत बांस की गांठों को फोड़ता हुआ नीचे से ऊपर चला था और गांठें तोड़कर प्रेत योनि से छूटा तथा परम पद का अधिकारी बना था। अध्याय 5 श्लोक 64 में यह बांसों की गांठ बंधे जाने का रहस्योद्घाटन करते हुए इसे योगिक ग्रन्थि भेद बताया है। कहा गया है।
जडस्य शुष्क वंशस्य यत्र ग्रन्थि विभेदनम् । चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथा श्रवात् ।।
इसमें सूखे और जड़ बांस की गांठें फटने का तात्पर्य चित्त की ग्रन्थियां खुलना बताया गया है।
भागवत पुराण के स्कन्ध 2, अध्याय 2 के 19, 20, 21 श्लोकों में महर्षि शुक्राचार्य ने विहंगम मार्ग से ब्रह्म निष्ठ योगियों के प्राण त्याग का विधान बताया है। इसमें षट्चक्र वेधन विधान की ही प्रक्रिया है। छहों चक्रों का वेधन करते हुए अन्त में सहस्रार चक्र में प्राण को लय करते हुये प्राण त्याग करने की विधि समझाई गई है।7 यह सप्त ऋषि जिस पर अनुग्रह करते हैं उन्हें सद्गुणों की सात विभूतियां प्रदान करते हैं। स्पष्ट है कि सद्गुण ही वे देव अनुग्रह हैं जिनके मूल्य पर भौतिक और आत्मिक, सम्पदाएं सफलताएं खरीदी जाती हैं। यह भ्रान्तियां निरस्त की जानी चाहिए कि उपासना के फलस्वरूप सीधी सम्पदाएं मिलती हैं। सच्ची साधना के फलस्वरूप अन्तरंग में उत्कृष्टता उभरती है और सज्जनोचित सद्भावों का विस्तार होता है। बहिरंग में सत्प्रवृत्तियां सक्रिय होती हैं और क्रिया-कलापों में महामानवों जैसी प्रतिभा व्यवस्था एवं शालीनता की मात्रा बढ़ती है। जहां आत्म विकास का यह स्वरूप दृष्टिगोचर हो समझना चाहिए कि यहां सच्ची साधना की गई और उसके फलस्वरूप व्यक्तित्व में परिष्कार बन कर देव अनुग्रह अवतरित हुआ। व्यक्तित्व निखरने के फलस्वरूप ही भौतिक और आत्मिक सफलताओं के—ऋद्धि-सिद्धि के रूप में वे प्रतिफल प्राप्त होते हैं जिनका माहात्म्य साधनाओं की सफलता के रूप में वर्णन किया गया है।
न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् । यस्तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संयोजयन्तितम् ।। —महाभारत
ग्वाले जिस प्रकार लाठी लेकर पशुओं की रक्षा करते हैं उस तरह देवता किसी की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि को सन्मार्ग पर नियोजित कर देते हैं।
सप्त ऋषियों का अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता की प्रतीक आत्म सत्ता पर अपना अधिकार आधिपत्य मिलता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझना चाहिए उसे ब्रह्माण्ड का आधिपत्य मिल गया।
सात यज्ञ, सात अग्नि, सात सोम आदि की उपासना से जो प्रतिफल मिलते बताये गये हैं उन्हें भी उन्हीं सात ऋषियों के वरदान समझना चाहिए जो अपने आत्म सत्ता के हिमालय में निरन्तर निवास और तप करते हैं। इन्हीं शक्ति धाराओं को साधना विज्ञान में सात चक्र कहा गया है। प्रत्येक चक्र प्रत्येक ऋषि के एक वरदान एक एक सद्गुण के रूप में प्राप्त होता है। वे ही ऋद्धि-सिद्धियों के साथ में जीवन को देवोमय बनाते हैं और स्वर्गीय उपलब्धियों से सुसम्पन्न करते हैं।
यों पौराणिक गाथाओं में ऋषि, व्यक्ति—विशेष थे। महामानवों के रूप में योग और तप में निरत—स्व पर कल्याण में संलग्न जीवनयापन करते हुए उनका वर्णन किया गया है। पर आत्म विज्ञान में ऋषि तत्व जागृत एवं प्रखर प्राण सत्ता को कहा गया है वे सूर्य के समान एक कहे जा सकते हैं। अथवा सप्त किरणों के रूप में उनके सात नाम दिये जा सकते हैं और सुविधा के लिए सात वर्गों में विभाजित करके सात व्याख्याएं की जा सकती हैं। सृष्टि के आदि में जब जीव सत्ता प्रकट हुई तो उसका स्वरूप ‘ऋषि प्राण’ के रूप में था। यह जीवात्मा का शुद्ध स्वरूप है। उसी स्थिति में पहुंचने पर आत्मा को देवात्मा एवं परमात्मा के रूप में परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। शतपथ में इस रहस्य का इस प्रकार उल्लेख है—
असद्वा इदमग्न आसीत् तदाहुः कि तदसदासी दित्यृष्यों वा व तेऽमेऽ सदासीत तदाहुः के ते ऋषय इति, प्राणां वा ऋषय । —शतपथ 6।1।1।1
पहले सृष्टि से पूर्व में यह असत् था। तब कहा—वह असत् क्या था? उत्तर—वे ऋषि ही थे। वे सृष्टि से पूर्व असत थे। तब कहा—वे ऋषि क्या थे? प्राण ही ऋषि थे। सप्त ऋषि मरते नहीं, वे आकाश में सात तारागणों की शृंखला के रूप में भी चमकते हैं और हमारी जीवन सत्त में भी सप्त चक्र बन कर विद्यमान हैं। जो इन ऋषियों के सान्निध्य में रहने की—उनका अनुग्रह प्राप्त करने की साधना करता है वह उन ऋषियों की तरह ही ब्रह्म वर्चस् सम्पन्न बन जाता है। अथर्व वेद इस तथ्य की साक्षी इस प्रकार देता है—
तद्ब्रह्म च तपश्च सप्तऋषय उपजीवन्ति ब्रह्मवर्चस्यु पजीव नीयो भवति य एवं वेद । —अथर्व 8।13,16।10।4
8।13,16।10।4 सप्त ऋषि तप और बल ब्रह्म के आधार पर जीवित रहते हैं। जो इस रहस्य को जानता है वह ब्रह्मवर्चस् और जीवन प्राप्त करता है। सात चक्रों को सप्त प्राण केन्द्र कहा गया है। इन्हीं को, सात यज्ञ, सात समिधा, सात लोक आदि कहा गया है। ये सभी सात सात अन्तर्गुहा में निहित हैं। इस रहस्य को मुण्डकोपनिषद् 2।1।8 में प्रकट किया गया है।
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समधिः सप्त होमाः । सप्त इमे लोका येषु चत्न्ति प्राणाः, गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ।।8।। —मुण्डक 2।1।8
सात चक्रों में समस्त तीर्थ प्रतिनिधि रूप में विद्यमान हैं। इनका अवगाहन करने से समस्त तीर्थों का पुण्य फल साधक को प्राप्त होता है।
ऐसे अनेक तथ्यों पर विचार करके तत्वज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुण्डलिनी के चक्र एक प्रकार की फ्रीक्वेंसियां हैं जो ब्रह्माण्ड व्यापी विशिष्ट शक्तियों से चेतना का सम्बन्ध जोड़ती हैं। इस संयोग का नाम ही सिद्धि है। वह शक्तियां ही देवता, ऋषि और लोक कहलाती हैं। उनकी उपलब्धि जंग लगे लौह जीवन को भी खरा कुंदन सामान्य मनुष्य को सम्राटों जैसा ऐश्वर्यवान बना देती है। सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं शेष रहता जो इन चक्रों को जागृत कर लेने के बाद मिल न सकता हो।
इन चक्रों के जागरण के लिये नियमित जप के अतिरिक्त पंचकोशों की अनावरण साधना का उच्चस्तरीय अभ्यास भी करना पड़ता है। यों सामान्य जप उपासना से भी उनका विकास होता है और शनैः शनै इन चक्रों में सन्निहित शक्तियों का लाभ मिलता है पर यदि उस शक्ति की अधिक मात्रा अभीष्ट हो तो उच्च स्तरीय साधना का अभ्यास करना पड़ता है। वह अभ्यास कठिन तो है पर उनसे साधक को वह शक्तियां मिलती हैं जिन्हें पाकर वह इन्द्र जैसी सामर्थ्य, कुबेर जैसी सम्पन्नता और ऋषियों जैसी त्रिकाल दर्शी सिद्धि का आनन्द लाभ प्राप्त करता है।