Books - गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरण
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Language: HINDI
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कुण्डलिनी महाशक्ति का साक्षात्कार
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कुण्डलिनी महाशक्ति का परिचय, स्थान और स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह मूसलाधार चक्र के अग्नि कुण्ड में निवास करती है। अग्नि स्वरूप है। सुप्त-सर्पिणी की तरह सोई पड़ी है। स्वयंभू महालिंग से—शिव लिंग से लिपटी पड़ी है। इसी स्थिति की झांकी शिव प्रतिमाओं में कराई जाती है। योनि क्षेत्र में एक सर्पिणी शिवलिंग से लिपटी हुई प्रदर्शित की जाती है। शिवपूजा में इस प्रतिमा पर जल धार चढ़ाने का विधान है। रुद्राभिषेक में जल कलश के पेंदे में छिद्र करके उसे तीन टांग की तिपाई पर स्थापित करते हैं और उसमें से एक-एक बूंद पानी शिव लिंग पर टपकता रहता है। यह कुण्डलिनी का ही समग्र स्वरूप है।
सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहा गया है। उससे सोमरस टपकने का उल्लेख है। खेचरी मुद्रा में इसे ‘अमृत स्राव’ बताया गया है। यह स्राव अधोमुख है। नीचे की दशा में रिसता टपकता रहता है। कुण्डलिनी मूल तक जाता है।
कुण्डलिनी महाशक्ति की उर्ध्वगामी बनाने और अमृत सोम का आस्वादन कराने का लाभ ब्रह्मी एकता के माध्यम से ही सम्भव है। यही कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है। सुप्त सर्पिणी अग्नि कुण्ड में पड़ी-पड़ी विष उगलती रहती है और उससे जलन ही जलन उत्पन्न होती है। वासना की अग्नि शान्त नहीं हो सकती, वह शरीर और मन की दिव्य सम्पदाओं का विनाश ही करती रहती है। इसका समाधान अमृत रस को पान करने—सोम सम्पर्क से ही सम्भव होता है। यह तथ्य जन-साधारण को समझाने के लिए तीन टांग की तिपाई पर कलश स्थापित करके शिवलिंग पर अनवरत जल धार चढ़ाने की व्यवस्था की जाती है और इस आध्यात्मिक आवश्यकता का परिचय कराया जा सकता है कि जलन का समाधान मानसिक एवं आत्मिक अमृत रस पीने से—बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कृष्टता का रसास्वादन करने से ही सम्भव हो सकता है।
रुद्राभिषेक में जल कलश के नीचे जो तीन टांग की तिपाई रखी जाती है, वह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की प्रतीक है। इन्हीं तीन आधारों के सहारे कुण्डलिनी जागरण की पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होती है। अग्नि और सोम के मिलन की आवश्यकता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले देवत्व का ही प्रत्यक्षीकरण रुद्राभिषेक के कर्मकाण्डों में किया जाता है।
कुण्डलिनी परिजप में स्थान-स्थान पर स्वयंभू लिंग की चर्चा है। बहुत स्थानों पर उसे ‘कन्द’ भी कहा गया है। यह क्या है? इसे जानने के लिए स्थूल शरीर से सम्बन्धित शरीर शास्त्र और सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित अध्यात्म शास्त्र का पर्यवेक्षण किया जा सकता है। शरीर में यह घटक सुषुम्ना का—मेरुदण्ड का—नीचे वाला अन्तिम छोर है। प्रत्यक्ष हलचलों की दृष्टि से इस संस्थान का इतना महत्व नहीं जितना कि वहां से निकलने वाली उस विद्युत शक्ति का जो इस समूचे क्षेत्र के अति महत्वपूर्ण संस्थानों को प्रभावित एवं अनुप्राणित करती है।
कन्द का स्थूल शरीर में प्रतीक प्रतिनिधि तलाश करना हो तो दृष्टि ‘‘कॉडा इक्वाइना’’ पर जाकर टिकती है। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर चंचु प्रदेश की अन्तिम कशेरुकी तक जाती है और उसके बाद रेशमी धागों की भांति शुण्डाकृति हो जाती है। उसके अन्त में अगणित पतले-पतले धागे से पैदा हो जाते हैं, जिनसे नाड़ी तन्तुओं का एक सघन गुच्छा तैयार हो जाता है। इसी गुच्छक को ‘‘कॉडा इक्वाइन’’ कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का इसे प्रतिनिधि कहा जा सकता है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से यही स्वयंभू लिंग है। मूलाधार चक्र में ‘आधार’ शब्द इसी स्थान के लिए व्यवहृत हुआ है। रीढ़ की अंतिम चार अस्थियों के सम्मिलित समुच्चय को भी कई मनीषियों ने ‘कन्द’ बताया है। मलमूत्र छिद्रों के मध्य स्थान पर मूलाधार बताया गया है। उसे चमड़ी की ऊपरी सतह नहीं मान लेना चाहिये वरन् उस स्थान की सीध में ठीक ऊपर प्रायः तीन अंगुल ऊंचाई पर अवस्थित समझना चाहिये। मस्तिष्क में आज्ञाचक्र भी भ्रूमध्य भाग में कहा जाता है पर वह भी ऊपरी सतह पर नहीं तीन अंगुल गहराई पर है। ब्रह्मरंध्र भी खोपड़ी की ऊपरी सतह पर कहां है? वह भी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार को भी मल-मूत्र छिद्रों के मध्य वाली सीध पर अन्तः गह्वर में अवस्थित मानना चाहिए। यहां एक बात हजार बार समझ लेनी चाहिये कि अध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान विशुद्ध रूप से सूक्ष्म शरीर का वर्णन है। स्थूल शरीर में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़ना चाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वह दिव्य शक्तियां नहीं है जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई हैं। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्म शक्तियों का आभास मात्र पाया जा सकता है।
मूलाधार शब्द के दो खण्ड हैं। मूल+आधार। मूल अर्थात् जड़ (बेस)। आधार अर्थात् सहायक (सपोर्ट) जीवन सत्ता का मूल-भूत आधार होने के कारण उस शक्ति संस्थान को मूलाधार कहा जाता है। वह सूक्ष्म जगत में होने के कारण अदृश्य है। अदृश्यों का प्रतीक चिन्ह प्रत्यक्ष शरीर में भी रहता है। जैसे दिव्य दृष्टि के आज्ञा चक्र को पिट्युटरी और पीनियल रूपी दो आंखों में काम करते हुए देख सकते हैं। ब्रह्मचक्र के स्थान पर हृदय को गतिशील देखा जा सकता है। नाभिचक्र के स्थान पर योनि आकृति का एक गड्ढा तो मौजूद ही है। मूलाधार सत्ता को मेरुदंड के रूप में देखा जा सकता है। अपनी चेतनात्मक विशेषताओं के कारण उसे वह पर, एवं गौरव प्राप्त होना हर दृष्टि से उपयुक्त है। प्राण का उद्गम मूलाधार पर उसका विस्तार, व्यवहार और वितरण तो मेरुदण्ड माध्यम से ही सम्भव होता है।
मूलाधार के कुछ ऊपर और स्वाधिष्ठान से कुछ नीचे वाले भाग में शरीर शास्त्र के अनुसार ‘प्रोस्टेट, ग्लैण्ड’ है। शुक्र संस्थान यही होता है। इसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें काम प्रवृत्ति बन कर उभरती हैं। इसी से जो हारमोन उत्पन्न होते हैं, वे वीर्योत्पादन के लिए उत्तरदायी होते हैं। स्त्रियों का गर्भाशय भी यही होता है। सुषुम्ना के निचले भाग में लम्बर और सेक्रल पलैक्सस नाड़ी गुच्छक हैं। जननेन्द्रियों की मूत्र त्याग तथा कामोत्तेजना दोनों क्रियाओं पर इन्हीं गुच्छकों का नियन्त्रण रहता है। यहां तनिक भी गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इनमें से कोई एक अथवा दोनों ही क्रियाएं अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। बहुमूत्र, नपुंसकता, अति कामुकता आदि के कारण प्रायः यहीं से उत्पन्न होते हैं।
गर्भाशय की दीवारों से जुड़े हुए नाड़ी गुच्छक ही गर्भस्थ शिशु को उसके नाभि मार्ग से सभी उपयोगी पदार्थ पहुंचाते रहते हैं। इन गुच्छकों को यह पहचान रहती है कि कितनी आयु के भ्रूण की क्या-क्या पोषक तत्व चाहिये। गर्भाशय के सम्वेदनशील नाड़ी गुच्छक उस अनुपात का—मात्रा का—पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं और बिना राई रत्ती व्यतिक्रम किये शिशु की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं।
जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए सबसे प्रथम और सबसे आवश्यक क्रिया चूसने की होती है। बच्चे में यह प्रवृत्ति (रिफ्लेक्स) उसे माता का स्तन पान करने की उत्तेजना देता है। यही प्रवृत्ति प्रौढ़ता आने पर यौनेच्छा (सेक्स रिफ्लेक्स) के रूप में विकसित होती है। बिना किसी प्रशिक्षण के यह दोनों ही प्रवृत्तियां अपने-अपने ढंग से हर प्राणी में अन्तः प्रेरणा से ही उठती और प्रयोग में आती हैं। इन जीवनोपयोगी प्रेरणाओं का केन्द्र यही स्थान है जिसे कन्द, कुण्ड या काम बीज कहते हैं।
कन्द का एक नाम कर्म भी है। इसे कच्छपावतार का प्रतिनिधि बताया गया है। उसके पैरों को सिकुड़ने, फैलने वाले वाहन को, वहां से निसृत होने वाली शक्ति धाराओं की ओर संकेत किया गया है। कन्द की आकृति अण्डे के समान मानी गई है। उसे कछुए की उपमा भी दी गई है। समुद्र मंथन की कथा में रई मंदिराचल पर्वत की बनाई गई थी। उस पर्वत के नीचे भगवान कूर्मावतार के रूप में कच्छप बनकर बैठे थे और उस भार को अपनी पीठ पर उठाया था। यह कूर्म या कन्द की ही अलंकारिक व्याख्या है। नाड़ी गुच्छकों के अतिरिक्त कन्द की व्याख्या मेरुदण्ड की अन्तिम चार अस्थियों और उस स्थान पर बिखरे पड़े नाड़ी संस्थानों के रूप में भी की जाती है। इसे समझने के लिए मेरुदण्ड की अस्थि संरचना को समझना होगा।
शरीर विज्ञान के अनुसार मेरुदण्ड छोटे बड़े 33 विरूपस्थि खण्डों या कशेरूओं—वर्ट्रीब्री से मिल कर बना है। आकृति में वह सर्पाकार है। प्रत्येक दो कशेरू के मध्य में एक मांस निर्मित गद्दी सी रहती है। जिस पर प्रत्येक कशेरू टिका और सूत्रों से कसा हुआ है। इसी कारण यह लचीला है और अपनी धुरी पर हर दिशा में घूम सकता है। उसे पांच भागों में बांटा जा सकता है।
(1) ग्रीवा—सर्वाइकल—7 कशेरू (2) पीठ-थोरेक्स—12 कशेरू (3) कटिप्रदेश—लम्बर—5 कशेरू (4) वस्तिगह्वर—त्रिक प्रदेश—सेक्रल—5 कशेरू (5) पुच्छिकास्थि—चंचु—कॉक्सीक्स 4 कशेरू। सब मिला कर इन तेतीस खण्डों को तेतीस देवता कहा गया है। इनमें से प्रत्येक में सन्निहित दिव्य क्षमता को देवता माना गया है। मेरु दण्ड पोला तो है पर ढोल की तरह खोखला नहीं। उसमें मस्तिष्कीय मज्जा भरी हुई है। प्रत्येक कशेरू के पिछली ओर दांये-बांये अर्ध वृत्ताकार छिद्र होता है जिसमें से छोटे नाड़ी सूत्रों से निर्सित बड़ी नाड़ियां बाहर निकलती हैं। मेरुदण्ड का निचला भाग शंकु के आकार का है जिसे—फाइनम टर्मीलेन कहते हैं।
चंचु प्रदेश के कशेरू जितने छोटे हैं, उतने ही चौड़े हैं। वे अन्दर से पोले भी नहीं हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह चार कशेरू मिल कर अड्डे की आकृति वाला अथवा फूल की कली के सदृश आकार बनता है। इसे ‘कॉक्सीक्स’ कहते हैं। इस गोलक को कुण्डलिनी योग में ‘कन्द’ एवं स्वयंभू लिंग के नाम से पुकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी के इर्द-गिर्द सर्पिणी की तरह लिपटी मानी गई है।
नाड़ी गुच्छकों एवं मेरुदण्ड के निम्न भाग के अस्थि समूहों के ऊपर एक सूक्ष्म शक्ति छाई हुई है उसी को मूलाधार का, नाभिक (न्यूक्लियस) समझा जाना चाहिए। उसी के प्रभाव से उस क्षेत्र में बिखेरे पड़े अनेक संस्थान अपना-अपना काम करते और एक से एक बड़े-बड़े प्रभाव उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। कमर से लेकर पेडू और जननेन्द्रिय मूल तक का पूरा क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य माना गया है और वहां किसी भी क्षेत्र में जो कुछ होता है उस सब पर मूलाधार का प्रभाव आंका जा सकता है नाभि, गुर्दे, मूत्राशय, यौन संस्थान, पौरुष ग्रन्थियां आदि की समस्त गतिविधियों को—प्रजनन प्रक्रिया को उसी दिव्य केन्द्र को अनुदान एवं चमत्कार कह सकते हैं। जीवनी-शक्ति का, क्रियाशक्ति का उमंग उत्साह का केन्द्र इसी को कहा गया है। कन्द के स्वरूप और महत्व का वर्णन अध्यात्म शास्त्रों से इस प्रकार हुआ है—
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्ति शुभमोक्षप्रदायनी । बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स वेदवित् ।। —गोरक्ष पद्धति
मंगलमय मोक्ष प्रदायिनी कुण्डलिनी शक्ति ‘कन्द’ के ऊर्ध्व भाग में अवस्थित है। वही प्रसुप्त होने पर मूढ मति लोगों को बन्धन में बांधे हुए है। इस मर्म को जो जानता है वही वास्तविकता को जानने वाला ज्ञानवान है। गुदाद्वय गुलतश्चोध्व मेढ्रैकांगुलतस्त्वधः । एव चास्ति समं कन्दं समता चतुरंगुलम् ।। —शिव संहिता
गुदा से दो अंगुल ऊपर और अर्थात् लिंग मूल से एक अंगुल नीचे चार अंगुल विस्तार कन्द का प्रमाण है।
पश्चिमाभिमुखी योनिगुर्दमेढ्रान्तरालगा । तम् कन्दं समाख्यातं तमास्ति कुन्डली सदा ।। —शिव संहिता 5।75
गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो यानि है वह पश्चिमाभिमुखी अर्थात् पीछे को मुख है, उसी स्थान में कन्द है और इसी स्थान में सर्वदा कुंडलिनी स्थित है।
तन्मध्ये लिंगरूपीं द्रुतकनक- कलाकोमलः पश्चिमास्यो । ज्ञानध्यानप्रकाशः प्रथम, किसलयाकाररूपः स्वयम्भुः । विद्युत्पूणेन्दुविम्बुप्रकरकरचय- स्निग्धसन्तानहासी काशो । वासी विलासी विलसति, सरिदावर्त्तरूप प्रकारः ।। तस्योर्द्ध्वे विसतन्तुसोदर- लसत्स्क्ष्मा जगन्मोहिनी ब्रह्मद्वारमुख मुखेनं मधुरं, सछादयन्ती स्वयम् । शंखावर्तनिभा नीवनचपला- मालाविलासास्पदा सुप्ता सर्पसमा शिवोपरि, लसत्सार्द्धत्रिवृत्ताकृतिः ।। —षट्चक्र निरूपण
अर्थात्—‘‘त्रिकोण के भीतर स्वयम्भू लिंग है जिसका वर्ण स्वर्ण के समान है और जिसका सिर नीचे की ओर है। उस नूतन किशलय के समान देव का प्रकाश ज्ञान-ध्यान द्वारा ही सम्भव है। विद्युत और पूर्ण चंद्रमा के समान ही वह स्निग्ध सौन्दर्ययुक्त है। इस स्वयम्भू लिंग पर कमल-तन्तु के समान अति सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सो रही है। वह जगत को मोहित करने वाली है और ब्रह्मद्वार के मुख को अपने मुख से ढके हुए है। शंख की चक्रवत् रेखाओं के समान उसकी चमकीली सर्पाकार आकृति शिव लिंग के चारों ओर साढ़े तीन फेरे लिए हुए है।
कुण्डलिनी की तुलना तो विद्युत शक्ति, ऊर्जा एवं आभा से की गई है। ‘‘तडिल्लता समरुचिर्विद्युल्लेखेव ‘‘भास्वरा’’ सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसी ज्योर्तिमय बनाया गया है। उसी प्रकार अन्यत्र उसका उल्लेख ‘‘तडिल्लेखा तन्वी तपनशर्षि वैश्वानरमयी’’ के रूप में किया गया है। उसे प्रचण्ड अग्नि शिखा एवं दिव्य वैश्वानर के समतुल्य कहा गया है।
मूलाधारस्य ब्रह्मयात्म तेजो मध्ये व्यवस्थिता । जीव शक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तेजसी ।। —योग कुण्डलिल्पुनिषद्
मूलाधार के मध्य वह आत्म तेज, ब्रह्म तेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती है। वही जीव शक्ति, प्राण शक्ति है। वह तेज रूप है।
आधार शक्त्यावधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्ति पदास्पदः । —वृहज्जावालोपनिषद्
मूलाधार (चक्र) की शक्ति से धारण की हुई यह कालाग्नि ऊर्ध्वगामी है और उसी प्रकार सोभ निम्नगामी है, जो शिव शक्तिमय कहलाता है।
मूलाधारस्य वहवयात्भ तेजो मध्ये व्यवस्थिता । जीवशक्तिः कुंडलाख्या प्राणाकारण तैजसी ।। —योग कुण्डव उपनिषद्
कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नि तेज के मध्य में अवस्थित है। वह जीव की जीवनी शक्ति है, तेजस् और प्राणाकार है।
मूलाधारभिधं चक्रं प्रथमं समुदीरितम् । तत ध्येयं स्वरूप तु पावकाकारमुच्यते ।। स्वाधिष्ठानाभिधं चक्र द्वितीयं चोपरिस्थितम् । प्रवालाङ्कुर तुल्य तु तत्र ध्येयं निगद्यते ।। तृतीयं नाभिचक्रे तु ध्येयं रूपं तडिन्निभम् । तुर्ये हदयचक्रे तु ज्योतिर्लिङ्गाकृतीर्य्यते ।। पञ्चमे कन्ठचक्रेतु सुषुम्ना श्वेतवर्णिनी । ध्येय षष्ठे तालुचक्रे शून्यचित्तलयार्थकम् ।। भ्रू चक्रे सप्तमे ध्येयंदापाङ्गुष्टप्रमाणकम् । आज्ञाचक्रेऽष्ठमे ध्येय रूपं थूम्रशिखाकृतिः ।। आकाशचक्रे नवमे परशुः स्वोद्र्ध्व शक्तिकः । एव क्रमेण चक्राणि ध्येयरूपाणि विद्धि च ।। अखण्डैकरसत्वेन ध्येयस्यैक्येऽप्युपाधितः । आकारा विविधायुक्ता नोपाधिश्चेतरः स्वतः ।। विद्याशक्ति विलासेन पावकात् विस्फुलिंगवत् । अकस्मात् ब्रह्मणोऽखंडात् विविधाकृतयोऽभवन् ।। —महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में आत्म ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुरे सी प्रतीत होती है। मणिपूर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभिचक्र में वह बिजली जैसी चमकती है। हृदय कमल के अनाहत चक्र में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कंठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्र में शून्याकार एकरस अनुभव में आती है। भ्रू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती हुई दीप शिखा जैसी भासती है। आज्ञाचक्र में धूम्रशिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दीखती है। यह सभी ज्योतियां एक ही हैं। सभी आत्म ज्योति हैं। सभी परम आनन्ददायिनी हैं। विद्या शक्ति कुण्डलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीत होती हैं।
अपाने चोर्ध्वगे याते संप्राप्ते वह्निमण्डले । ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता ।। ततो यातौ वह्नय्पानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् । तनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा ।। तेन कुन्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सप्रबुध्यते । दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋजुतां ब्रजेत् ।। —योग कुण्डल्युपनिषद् 1/43, 44, 45
उस अग्नि मण्डल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुंडलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुसकार कर उठती है वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जागृत होती है।
प्राणस्थान ततो वह्नि प्राणापानौ च सत्वरम् । मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः ।। तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता । प्रसाय स्वशरीर तु सुषूम्नाबदनान्तरे ।। —योग कुण्डल्युपनिषद् 1/65, 66
अग्नि स्थान में प्राण के पहुंचने से उष्णता से संतप्त कुण्डलिनी अपनी कुण्डली छोड़कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।
योगिनां हृदयाम्भोजे नृत्यन्तौ नित्यमञ्जसा । आधारे सर्व्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युदाकृतिः ।। —शारदा तिलक
वह कुण्डलिनी शक्ति योगियों के हृदय में नृत्य ही नृत्य करती है। बिजली की तरह स्फुरण करती है। वही सम्पूर्ण प्राणियों का आधार है।
मूलाधारे स्मरेद्दिव्यं त्रिकोणं तेजसां निधिम् । शिखा आनीय तस्याग्नेरथ उर्ध्वं व्यवस्थिता ।। तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः । स ब्रह्म स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट् ।। स एव विष्णुः स प्राण स कालोऽग्निः चन्द्रमाः । इति कुंडलिनी ध्यात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। —कलिकोपनिषद्
मूलाधार में दिव्य त्रिकोण तेज-पुंज, ऊर्ध्वगामी तेज-शिखा के मध्य, परब्रह्म अवस्थित है। वह तेज ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, अक्षर, काल, अग्नि, चन्द्रमा, प्राण आदि है। ऐसा कुण्डलिनी ध्यान करना चाहिए।
ध्यात्वैतन्मूलचक्रान्तरविवर लसत्कोटिसूर्यप्रकाशां वाचामीशो नरेन्द्रः स भवति सहसा सवविद्याविनोदी । आरोग्यं तस्य नित्यं निरवधि च महानन्दचित्तान्तरात्मा वाक्यैः काव्यप्रबन्धैः सकलसुरगुरून् सेवते शुद्धशीलः । —षटचक्र निरूपणम 14
मूलाधार चक्र में कोटि सूर्य जैसे प्रकाश से युक्त कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान रखने पर वाणी की सिद्धि होती है, वह मनुष्यों का नेतृत्व करता है। विद्यावान बनता है। आरोग्य बनता है। चित्त में आनन्द रहता है। ऐसा शीलवान साधक देवताओं द्वारा पूजित होता है।
निर्वाणाभ्यन्तरगता बह्नि रूपा निवोधिता । नारेऽव्यक्तस्त दुपरिक्रोट्याछित्य सन्निभा । अत्रैव कुण्डली शक्ति विहरेत् विश्वव्यापिनी ।। —कौलामृत
वह कुण्डलिनी शक्ति अग्नि रूप है। कोटि सूर्य के समान चमकती है। पर परम शक्ति है। विश्व में विस्तृत विहार करती है।
मूलाधारे मूल विद्यां विद्युत्कोटि सम प्रभाम् । —ज्ञानार्णव तन्त्र
मूलाधार चक्र में वह मूल विद्या कोटि विद्युत के समान चमकती है।
कोटि सौदामिनीभासां स्वयंभू लिंग वेष्टिनाम् । —तन्त्रसार
स्वयंभू लिंग में लिपटी हुई वह कुण्डलिनी शक्ति कोटि विद्युत की तरह चमकती है।
हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी पर्वत पर निकलने वाली अग्नि शिखा को देवस्थान की शक्ति पीठ माना गया है। वहां आराधना उपासना के लिए दूर दूर से भक्तजन जाते हैं। अग्नि ज्वाला को दैवी शक्ति मानने के पीछे यह कुण्डलिनी अग्नि का ही तारतम्य है। यज्ञाग्नि में अग्निहोत्र करने, धृतधारा चढ़ाने के पीछे भी अग्नि एवं सौम के संयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन है। ब्रह्माग्नि के संयोग को कुण्डलिनी साधना कहा गया है।
अग्नि की उत्पत्ति का स्कन्द पुराण में एक मनोरंजक उपाख्यान आता है। सनत्कुमार की अग्निजन्य जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं—प्रजापति ने सृष्टि के आदि में दिव्य शत वर्षों की अवधि तक महान तप किया। इसमें ‘भूः भुवः स्वः शब्द उत्पन्न हुआ। इसका मन के साथ समावेश होने से अग्नि उत्पन्न हुई। वह नीचे गिरा तो भूमि जलने लगी, ऊपर उठी तो आकाश जलने लगा। वह शब्द रूप स्फुल्लिंगों से युक्त, स्वर्णिम आभा वाला परम दिव्य था।
अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा—‘मैं भूख से स्वयं जला जा रहा हूं। मुझे आहार दीजिए।’ ब्रह्माजी ने अपने शरीर के एक-एक करके सभी अवयव उसे खिला दिये। तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई और भूखा-भूखा ही चिल्लाता रहा। कोई और उपाय न देख कर ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा—जो व्यक्ति कामुकता से अभिभूत हो तू उनकी देह में घुस जा और उनकी समस्त धातुओं का भक्षण किया कर।
रोरूयमणि चाग्नौ तु पुनर्व्रह्मा कृपान्वितः आह कामाभि भूतानां भुंक्ष्वं त्वं देह धातवः । ते काले लब्ध कामस्य सावृत्तिः सम्प्रकल्पिता । —स्कन्द पुराण
रुदन करते हुए अग्नि से ब्रह्माजी ने कृपा पूर्वक कहा तू कामुकों के शरीर में घुस कर उनके धातु संस्थान को खालिमा कर।
अग्नि ऐसा ही करने लगा किन्तु तो भी उसकी तृप्ति न हुई। इस पर ब्रह्माजी ने उसे मुनियों और देवताओं के अन्तःकरण में प्रवेश करने के लिए कहा। तब कहीं अग्नि की तृप्ति हुई और शांति मिली।
तब ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा—तू ऋषियों के आश्रम में रह। देवों के भीतर और बाहर निवार कर। इस आदेश को प्राप्त कर अग्नि प्रसन्न हुआ और सन्तोष पूर्वक रहने लगा।
यही जीवन सत्ता में ओत-प्रोत प्राण शक्ति-कालाग्नि एवं कामाग्नि है। इसको अधोगामी बनाने से मनुष्य जलता और गलता है। किन्तु यदि उसे ऊर्ध्वगामी बना लिया जाय तो वही ब्रह्म तेजस् बनकर योगाग्नि एवं प्राणाग्नि बनकर प्रज्वलित होती है। जीव को परम तेजस्वी बनाती है और उसे लौकिक, भौतिक एवं आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न बनाती है। महाशक्ति कुण्डलिनी का स्तवन करते हुये शक्ति उपासक तत्ववेत्ता की अभिव्यक्ति है—
मेरुदण्डे वह्निना शब्दात् पदं तेजोमयीति च । सिद्धिः प्राप्ति पदात् सिद्धिः सर्वकाम पदात् पुनः । सर्वेशा परिपूरेति चक्र स्वामिनीति च । गुप्त योनिन्यनंगा च कुसुमेऽनंग मेखल । सर्व मन्त्रमयीत्युक्ता सर्व द्वन्द्व क्षयकरी । सर्व सौभाग्यदाचेति सर्व विघ्न निवारिणी । सर्वज्ञानमयीत्युक्तात्वा सर्व व्याधि विनाशिनी । सर्वानन्दमयी देवि, सर्व रक्षा स्वरूपिणी । महाशक्ते महागुप्ते ततश्चैव महा-महा । कुल कुण्डलिनी देवि, कन्दे मूले निवासिनी । —स्तोत्र समुच्चय
मेरुदण्ड में अग्नि रूप, शब्द पद, तेजोमयी, सिद्धि प्रदान करने वाली, काम पद, सर्वव्यापक, चक्र संस्थानों की स्वामिनी, गुप्त योनि, काम शक्ति अनग मेखला, समस्त मन्त्रों की शक्ति युक्त समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाली, आनन्दमयी, संरक्षक, महाशक्ति, रहस्यमयी, महानतम कुंडलिनी देवी, कन्द मूल में निवास करती है। उपरोक्त प्रतिपादन यह सुनिश्चित करते हैं कि कुण्डलिनी साधना एक प्रकार से शरीर में प्राण एवं संकल्प के आघात द्वारा परमाणु ऊर्जा उत्पन्न करने, उसे प्रखर बनाने और उसका नियंत्रण नियमन करने की विद्या का नाम है। परमाणु-भौतिकी की सैद्धान्तिक जानकारी वस्तुतः देश के अनेक विज्ञान के विद्यार्थी भी जानते होंगे किन्तु उसके विखंडन का व्यवहारिक ज्ञान डा. भाभा, डा. मेघनाथ साहा जैसे थोड़े से वैज्ञानिकों को रहा है। क्योंकि यह अति दुस्तर और संकट भरा प्रयोग होता है। कुंडलिनी साधना की स्थिति भी ऐसी ही है। उसके कई विधान तो इतने जटिल व कठिन हैं कि अनजान अभ्यासी भूल में पड़कर पागल हो सकता है। शरीर के किसी अंग का विस्फोट हो सकता है। मृत्यु तक हो सकती है। अतएव वह विधान चाहे जिसे बता देने, चाहे कहीं लिख देने की परम्परा नहीं है। ब्रह्मवर्चस शांति कुंज में इन साधनाओं के शिक्षण और अभ्यास की व्यवस्था की है और उस पर शोध का प्रबंध भी है।
सैकड़ों साधक यहां आकर उनकी जानकारी प्राप्त करते हैं। इन साधनाओं में प्राण-संधान की क्रिया प्रमुख रहती है। इसलिए कुंडलिनी साधना में प्राणायाम का विशिष्ट स्थान है। इसी शृंखला की गायत्री की प्राण प्रक्रिया पुस्तक में कुछ निरापद प्राणायाम तथा पंचकोशी साधनाओं में कुछ सरल अभ्यास बताये गये हैं वह घर पर रह कर भी किये जा सकते हैं। जो इन कठिन साधनाओं में प्रवेश करना न चाहें वे यदि नियमित गायत्री उपासना करते रहें तो भी वही अपेक्षायें पूर्ण होती हैं। सांसारिक जीवन इस विकास क्रम में कहीं भी बाधक नहीं होता।
सोऽहम जप, शक्तिचालिनी मुद्रा, त्राटक नाद योग विन्दु साधना आदि अनेक प्रकार के अभ्यास कुण्डलिनी जागरण के लिये किये जाते हैं। प्राणायाम में लोम विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम का सर्वाधिक अभ्यास करना पड़ता है। इसमें एक बार बांये एक बार दाहिने स्वर से वायु लेने और छोड़ने की क्रिया लगातार करनी पड़ती है। इस मंथन का ‘प्रहार’ मूलाधार में प्रसुप्त महा अग्नि पर प्रसुप्त सर्पिणी पर करना पड़ता है। ऑक्सीजन के सहयोग में अग्नि भड़कती है। प्राण की अभीष्ट मात्रा प्रसुप्त अग्नि चिनगारी को मिलते रहने से उसके भड़कने और दावानल का रूप धारण करने में देर नहीं लगती। यही प्राण प्रहार प्रक्रिया सूर्य भेदन प्राणायाम का मुख्य प्रयोजन है। अग्नि और प्राण के संयोग एवं प्रहार क्रम को प्रहार प्रताड़ना आदि नाम दिये गये हैं। जागरण के इस प्रयोग का उल्लेख इस प्रकार मिलता है।
चक्र मध्ये स्थिता देवाः कम्पतिवायु ताडनात् । कुन्डल्यपि महामाया कैलाशे सा विलीयते ।। —शिव संहिता
प्राणवायु के आघात से चक्रों के मध्य रहने वाले देवता जागते हैं और महामाया कुण्डलिनी कैलाश पति शिव से जा मिलती है।
योगाभ्यासेन मरुता साग्निना बोधिता सती । स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपा महोज्ज्वला ।। —हत्रिशिखब्राह्मणोपनिषद्
योगाभ्यास द्वारा प्राण वायु तथा अग्नि से प्रदीप्त यह महासती कुण्डलिनी ऊपर उठकर हृदयाकाश में पहुंचती है और वहां अत्यन्त प्रकाशपूर्ण नाग के रूप में स्फुरित होती है।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् । मुखेनाच्खाद्यं तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी । प्रवुद्धा बह्नियोगेन मनसा मरुता सह ।। सूचिवद्गुणमादायं प्रजत्यूर्ध्व सुषुम्नया । उद्धाटयेत्कपाट तु यथा कुञ्चिकया हठात् ।। कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभैदयेत् ।। —ध्यानबिन्दूपनिषद्
जिस मार्ग से ब्रह्मस्थान तक सुगमता से जाया जा सकता है, उस मार्ग का द्वार परमेश्वरी कुण्डलिनी अपने मुंह से ढंके सोयी हुई है। अग्नि तथा मन प्रेरित प्राणवायु के सम्मिलित योग से वह जागृत होती है और जैसे सुई के साथ धागा जाता है, उसी प्रकार प्राणवायु के साथ वह कुण्डलिनी सुषुम्ना पथ के ऊपर जाती है। जैसे कुंजी से हठात् द्वार खोल दिया जाता है, वैसे ही योगी कुण्डलिनी शक्ति से मोक्षद्वार को भेदते हैं।
ज्वलनाघातपवना घादोरुन्निद्रितोऽहितोऽहिराट् । ब्रह्मग्रन्थि ततो भित्वा विष्णुग्रन्थि भिनत्त्यतः । रुद्र ग्रन्थि च भित्त्वैव कमलानि भिनत्ति षट् । सहस्रकमले शक्तिः शिवेन सह मोदते ।। सैवावस्था परा ज्ञेवा सैव निर्वृतिकारणा ।। —योगकुंडल्युपनिषद्
अग्नि और प्राणवायु दोनों के आघात से सुप्ता कुण्डलिनी जाग पड़ता है और ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि तथा षट्चक्र का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में जा पहुंचती है। वहां यह शक्ति शिव के साथ मिलकर आनन्द की स्थिति में निवास करती है। वही श्रेष्ठ परा स्थिति है यही मोक्ष का कारण है।
प्राण स्थानं ततोवह्निः प्राणापानौ च सत्वरम् । मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः । तेनाग्नाच संतृप्ता पवने परिचालिता । प्रसाय स्व शरीरे तु सुषुम्नावदनान्तरे । —योग कुण्डल्युपनिषद्
प्राण और अपान के संयोग से महाअग्नि दीप्तिवान होती है और कुंडलिनी जगती है। प्राणवायु में तीव्रता आने से अग्नि भी तीव्र होती जाती है और अपना क्षेत्र विस्तार करती है।
ततो वह्नि प्रतापेन प्राणसंघर्षणेन च । दन्डाहता भुजंगीव कुण्डली संप्रबुद्यते ।। —योग रसायनम्
अग्नि के ताप तथा प्राण के संघर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से कुंडली प्रबुद्ध होकर वैसे ही सीधी हो जाती है जैसे दण्ड से आहत सर्पिणी।
तदानिल शिखा दीर्घा जायते वायुनाहता । तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता संप्रबुध्यते । —हठयोग प्रदीपिका
प्राणवायु के प्रहार से अग्नि शिखा प्रदीप्त होती है और उसकी गर्मी से प्रसुप्त कुंडलिनी जाग पड़ती है।
सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा अग्नि उत्पन्न करने के जिन उपकरणों से रगड़ उत्पन्न करनी पड़ती है वे इड़ा और पिंगला नामक दो प्राण प्रवाह हैं। जो सुषुम्ना के—मेरुदंड के मध्य में रहते हैं। सामान्यतया उनकी गतिशीलता इतनी ही रहती है कि शरीर निर्वाह के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ऊर्जा उत्पन्न होती रहे। अधिक मात्रा में प्राण उत्पादन अभीष्ट हो तो इन प्रवाहों को अधिक सक्रिय करना पड़ता है। मन्दी आग पर कुछ पकाना हो तो चूल्हे में सामान्य गर्मी बनाये रहने से काम चल जाता है किन्तु यदि खौलने योग्य ताप की आवश्यकता हो तो अधिक ईंधन डालने तथा हवा धोंकने का प्रबन्ध करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए इड़ा और पिंगला को अधिक गतिशील बनाने के लिए सूर्यवेधन प्राणायाम का आश्रय लिया जाता है। इड़ा, पिंगला का महत्व बताते हुए कहा गया है।
शक्तिरूपः स्थितश्चन्दो वामनाडी प्रवाहकः । दक्षनाडी प्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः । —शिव स्वरोदय
वाम नाड़ी का प्रवाह करने वाला चन्द्रमा शक्तिरूप से और दक्षिण नाड़ी का प्रवाहक सूर्य शिव रूप से स्थित रहता है।
मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्णे मध्ये नाड़ी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा । धुस्तूरस्मेरपुष्पग्रथिततमवपुः कन्दमध्याच्छिरःस्था वज्राख्या मेढ्रदेशाच्छिरसि परिगता मध्यमेऽस्या ज्ज्वलन्ती ।। —षट्चक्र निरूपणम्-2
मेरुदंड के बाहर बांई ओर चन्द्रमा के प्रकाश के समान इड़ा नाड़ी, सूर्य के प्रकाश के समान पिंगला नाड़ी है। इड़ा से शक्ति रूप और पिंगला से शिवरूप का बोध होता है। मेरुदंड के भीतर अग्नि रूप सुषुम्ना है। भ्रू मध्य भाग में इन तीनों का संगम होता है। यह तीनों नाड़ियां जननेन्द्रिय मूल में स्थित धतूरे के पुष्प के समान कन्द से उत्पन्न होकर ऊपर मस्तक तक जाती हैं।
प्राणायाम में श्वास को खींचना फेंकना भर ही नहीं होता वरन् उसके आवागमन की गति को नियन्त्रित रखना होता है। उनकी चाल एक जैसी रहनी चाहिए। कुम्भक के प्रहार रुकने का समय और वापसी की प्रवाह प्रक्रिया इन सब में समय एवं गति की क्रमबद्धता बनी रहनी आवश्यक है। अस्त–व्यस्तता से अनियमितता और नियन्त्रण न रहने से प्राण योग का आधार ही नष्ट हो जाता है और वह मात्र गहरी सांस लेने की—डीप ब्रीदिंग की सामान्य व्यायाम परिपाटी मात्र बन कर स्वल्प फलदायक रह जाती है। तात्त्विकी प्राणायामों में श्वास क्रिया की एक सुनिश्चित क्रम व्यवस्था बना कर उसमें ‘ताल’ उत्पन्न किया जाता है। संगीत शास्त्र के जानकार समझते हैं कि ‘ताल’ किसे कहते हैं? उसके आधार पर ही ताल वाद्य बजाने की शिक्षा दी जाती है और स्वर लहरी का सौंदर्य निखरता है। ताल का ज्ञान न होने पर ढोलक, तबला, मजीरा, करताल आदि बजाये जायं तो उससे कर्ण कटु कर्कशता ही उत्पन्न होगी और सुनने वालों के कानों को अखरेगी। महत्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए की गई प्राण योग की साधना में जहां श्रद्धा विश्वास भरी संकल्प शक्ति का समावेश करना है वहां उसकी ताल बद्धता का अभ्यास करना भी आवश्यक होता है।
ताल से कितनी प्रचंड शक्ति उत्पन्न होती है उसे विज्ञान वेत्ता भली प्रकार जानते हैं। पुलों पर से सेना को लेफ्टराइट करते हुए नहीं निकलने दिया जाता है। उन पर से गुजरते हुए वे चाल को अस्त-व्यस्त रखते हैं। ताल बद्ध कदम पड़ने से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगें पुल में दरारें डाल सकतीं हैं। एक भारी गार्डर छत में लटका दिया जाय और उस पर कार्क जैसी हलकी वस्तु के तालबद्ध आघात पड़ते रहने की यान्त्रिक व्यवस्था करदी जाय तो उन स्वल्प आघातों से भी उत्पन्न प्रचण्ड शक्ति के फलस्वरूप गार्डर में थरथराहट दृष्टिगोचर होने लगेगी।
एक नियत गति से कांच के गिलास के पास ध्वनि की जाय तो वह उन आघातों से टूट जायगा। संगीत का शारीरिक और मानसिक प्रभाव होता है उसका स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिये—रोग निवारण के लिए सफल प्रयोग हो रहा है। पशुओं का दूध और पक्षियों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने में क्रमबद्ध संगीत के लाभ देखे गये हैं। पेड़-पौधों को कृषि उपज को बढ़ाने में भी संगीत का उत्साहवर्धक उपयोग होता है।
‘स्टोन हैव्स’ के पुराने अवशेष में यह विशेषता है कि मध्यम स्वर लहरी के ध्वनि प्रवाह से वे कांपने लगते हैं। अस्तु उस क्षेत्र में न केवल बजाना वरन् गाना भी मना है। चेतावनी के रूप में वहां यह सूचना टंगी है कि ताल बद्धता इन अवशेषों को गिरा सकती है इसलिए यहां वैसा कुछ न किया जाय।
लोम विलोम प्राणायाम क्रम में यह ताल प्रक्रिया विशेष रूप से उत्पन्न होती है। एक ही क्रम बना रहने से घुमावदार सर्किट बनता है। पर उलट-पुलट का क्रम दुहराने से ‘ताल’ की उत्पत्ति होती है। सूर्यवेधन प्राणायाम में ताल बद्धता का उत्पन्न करना स्थूल शरीरगत ऊर्जा को एकत्रित, प्रज्ज्वलित और प्रखर बनाता है। संकल्प शक्ति के आधार पर खींचा हुआ दिव्य प्राण आत्म प्राण की मूलाधार स्थिति को प्रज्वलित करता है। इसी आधार पर प्रसुप्ति जागृति में परिणित होती है और साध को आत्म सत्ता के अन्तर्गत दिव्य ऊर्जा का अभिवर्धन दृष्टिगोचर होता है। योग शास्त्र में दिव्य प्राण को देवता—कुंडलिनी अग्नि को दिव्य अग्नि कहा गया है और उसके जागरण से अनेकों दिव्य लाभ मिलने की बात कही गई है।
कुंडलिनी योग की सिद्धि में प्राण शक्ति की प्रधान भूमिका सबने मानी है। प्राणतत्व का इतना उच्चस्तरीय परिष्कार, उसमें असामान्य प्रखरता पैदा करने की क्षमता ‘गायत्री’ साधना में निश्चित रूप से है। गायत्री शब्द स्वयं इस तथ्य को घोषित करता है। ‘गय’ कहते हैं प्राण को, त्री अर्थात् त्राण करना। गायत्री की प्राण प्रक्रिया का साक्षात्कार ही प्रकारांतर से कुंडलिनी योग की सिद्धि है। साधक इस साक्षात्कार से आत्म विभोर हो उठता है। यह ऐसी दिव्य अनुभूति है, जिसका एक कण भी चखने को मिल जाय तो मनुष्य उसके लिये बड़े से बड़ा साम्राज्य भी त्याग सकता है।
सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहा गया है। उससे सोमरस टपकने का उल्लेख है। खेचरी मुद्रा में इसे ‘अमृत स्राव’ बताया गया है। यह स्राव अधोमुख है। नीचे की दशा में रिसता टपकता रहता है। कुण्डलिनी मूल तक जाता है।
कुण्डलिनी महाशक्ति की उर्ध्वगामी बनाने और अमृत सोम का आस्वादन कराने का लाभ ब्रह्मी एकता के माध्यम से ही सम्भव है। यही कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है। सुप्त सर्पिणी अग्नि कुण्ड में पड़ी-पड़ी विष उगलती रहती है और उससे जलन ही जलन उत्पन्न होती है। वासना की अग्नि शान्त नहीं हो सकती, वह शरीर और मन की दिव्य सम्पदाओं का विनाश ही करती रहती है। इसका समाधान अमृत रस को पान करने—सोम सम्पर्क से ही सम्भव होता है। यह तथ्य जन-साधारण को समझाने के लिए तीन टांग की तिपाई पर कलश स्थापित करके शिवलिंग पर अनवरत जल धार चढ़ाने की व्यवस्था की जाती है और इस आध्यात्मिक आवश्यकता का परिचय कराया जा सकता है कि जलन का समाधान मानसिक एवं आत्मिक अमृत रस पीने से—बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कृष्टता का रसास्वादन करने से ही सम्भव हो सकता है।
रुद्राभिषेक में जल कलश के नीचे जो तीन टांग की तिपाई रखी जाती है, वह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना की प्रतीक है। इन्हीं तीन आधारों के सहारे कुण्डलिनी जागरण की पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होती है। अग्नि और सोम के मिलन की आवश्यकता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले देवत्व का ही प्रत्यक्षीकरण रुद्राभिषेक के कर्मकाण्डों में किया जाता है।
कुण्डलिनी परिजप में स्थान-स्थान पर स्वयंभू लिंग की चर्चा है। बहुत स्थानों पर उसे ‘कन्द’ भी कहा गया है। यह क्या है? इसे जानने के लिए स्थूल शरीर से सम्बन्धित शरीर शास्त्र और सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित अध्यात्म शास्त्र का पर्यवेक्षण किया जा सकता है। शरीर में यह घटक सुषुम्ना का—मेरुदण्ड का—नीचे वाला अन्तिम छोर है। प्रत्यक्ष हलचलों की दृष्टि से इस संस्थान का इतना महत्व नहीं जितना कि वहां से निकलने वाली उस विद्युत शक्ति का जो इस समूचे क्षेत्र के अति महत्वपूर्ण संस्थानों को प्रभावित एवं अनुप्राणित करती है।
कन्द का स्थूल शरीर में प्रतीक प्रतिनिधि तलाश करना हो तो दृष्टि ‘‘कॉडा इक्वाइना’’ पर जाकर टिकती है। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर चंचु प्रदेश की अन्तिम कशेरुकी तक जाती है और उसके बाद रेशमी धागों की भांति शुण्डाकृति हो जाती है। उसके अन्त में अगणित पतले-पतले धागे से पैदा हो जाते हैं, जिनसे नाड़ी तन्तुओं का एक सघन गुच्छा तैयार हो जाता है। इसी गुच्छक को ‘‘कॉडा इक्वाइन’’ कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का इसे प्रतिनिधि कहा जा सकता है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से यही स्वयंभू लिंग है। मूलाधार चक्र में ‘आधार’ शब्द इसी स्थान के लिए व्यवहृत हुआ है। रीढ़ की अंतिम चार अस्थियों के सम्मिलित समुच्चय को भी कई मनीषियों ने ‘कन्द’ बताया है। मलमूत्र छिद्रों के मध्य स्थान पर मूलाधार बताया गया है। उसे चमड़ी की ऊपरी सतह नहीं मान लेना चाहिये वरन् उस स्थान की सीध में ठीक ऊपर प्रायः तीन अंगुल ऊंचाई पर अवस्थित समझना चाहिये। मस्तिष्क में आज्ञाचक्र भी भ्रूमध्य भाग में कहा जाता है पर वह भी ऊपरी सतह पर नहीं तीन अंगुल गहराई पर है। ब्रह्मरंध्र भी खोपड़ी की ऊपरी सतह पर कहां है? वह भी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार को भी मल-मूत्र छिद्रों के मध्य वाली सीध पर अन्तः गह्वर में अवस्थित मानना चाहिए। यहां एक बात हजार बार समझ लेनी चाहिये कि अध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान विशुद्ध रूप से सूक्ष्म शरीर का वर्णन है। स्थूल शरीर में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़ना चाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वह दिव्य शक्तियां नहीं है जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई हैं। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्म शक्तियों का आभास मात्र पाया जा सकता है।
मूलाधार शब्द के दो खण्ड हैं। मूल+आधार। मूल अर्थात् जड़ (बेस)। आधार अर्थात् सहायक (सपोर्ट) जीवन सत्ता का मूल-भूत आधार होने के कारण उस शक्ति संस्थान को मूलाधार कहा जाता है। वह सूक्ष्म जगत में होने के कारण अदृश्य है। अदृश्यों का प्रतीक चिन्ह प्रत्यक्ष शरीर में भी रहता है। जैसे दिव्य दृष्टि के आज्ञा चक्र को पिट्युटरी और पीनियल रूपी दो आंखों में काम करते हुए देख सकते हैं। ब्रह्मचक्र के स्थान पर हृदय को गतिशील देखा जा सकता है। नाभिचक्र के स्थान पर योनि आकृति का एक गड्ढा तो मौजूद ही है। मूलाधार सत्ता को मेरुदंड के रूप में देखा जा सकता है। अपनी चेतनात्मक विशेषताओं के कारण उसे वह पर, एवं गौरव प्राप्त होना हर दृष्टि से उपयुक्त है। प्राण का उद्गम मूलाधार पर उसका विस्तार, व्यवहार और वितरण तो मेरुदण्ड माध्यम से ही सम्भव होता है।
मूलाधार के कुछ ऊपर और स्वाधिष्ठान से कुछ नीचे वाले भाग में शरीर शास्त्र के अनुसार ‘प्रोस्टेट, ग्लैण्ड’ है। शुक्र संस्थान यही होता है। इसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें काम प्रवृत्ति बन कर उभरती हैं। इसी से जो हारमोन उत्पन्न होते हैं, वे वीर्योत्पादन के लिए उत्तरदायी होते हैं। स्त्रियों का गर्भाशय भी यही होता है। सुषुम्ना के निचले भाग में लम्बर और सेक्रल पलैक्सस नाड़ी गुच्छक हैं। जननेन्द्रियों की मूत्र त्याग तथा कामोत्तेजना दोनों क्रियाओं पर इन्हीं गुच्छकों का नियन्त्रण रहता है। यहां तनिक भी गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इनमें से कोई एक अथवा दोनों ही क्रियाएं अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। बहुमूत्र, नपुंसकता, अति कामुकता आदि के कारण प्रायः यहीं से उत्पन्न होते हैं।
गर्भाशय की दीवारों से जुड़े हुए नाड़ी गुच्छक ही गर्भस्थ शिशु को उसके नाभि मार्ग से सभी उपयोगी पदार्थ पहुंचाते रहते हैं। इन गुच्छकों को यह पहचान रहती है कि कितनी आयु के भ्रूण की क्या-क्या पोषक तत्व चाहिये। गर्भाशय के सम्वेदनशील नाड़ी गुच्छक उस अनुपात का—मात्रा का—पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं और बिना राई रत्ती व्यतिक्रम किये शिशु की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं।
जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए सबसे प्रथम और सबसे आवश्यक क्रिया चूसने की होती है। बच्चे में यह प्रवृत्ति (रिफ्लेक्स) उसे माता का स्तन पान करने की उत्तेजना देता है। यही प्रवृत्ति प्रौढ़ता आने पर यौनेच्छा (सेक्स रिफ्लेक्स) के रूप में विकसित होती है। बिना किसी प्रशिक्षण के यह दोनों ही प्रवृत्तियां अपने-अपने ढंग से हर प्राणी में अन्तः प्रेरणा से ही उठती और प्रयोग में आती हैं। इन जीवनोपयोगी प्रेरणाओं का केन्द्र यही स्थान है जिसे कन्द, कुण्ड या काम बीज कहते हैं।
कन्द का एक नाम कर्म भी है। इसे कच्छपावतार का प्रतिनिधि बताया गया है। उसके पैरों को सिकुड़ने, फैलने वाले वाहन को, वहां से निसृत होने वाली शक्ति धाराओं की ओर संकेत किया गया है। कन्द की आकृति अण्डे के समान मानी गई है। उसे कछुए की उपमा भी दी गई है। समुद्र मंथन की कथा में रई मंदिराचल पर्वत की बनाई गई थी। उस पर्वत के नीचे भगवान कूर्मावतार के रूप में कच्छप बनकर बैठे थे और उस भार को अपनी पीठ पर उठाया था। यह कूर्म या कन्द की ही अलंकारिक व्याख्या है। नाड़ी गुच्छकों के अतिरिक्त कन्द की व्याख्या मेरुदण्ड की अन्तिम चार अस्थियों और उस स्थान पर बिखरे पड़े नाड़ी संस्थानों के रूप में भी की जाती है। इसे समझने के लिए मेरुदण्ड की अस्थि संरचना को समझना होगा।
शरीर विज्ञान के अनुसार मेरुदण्ड छोटे बड़े 33 विरूपस्थि खण्डों या कशेरूओं—वर्ट्रीब्री से मिल कर बना है। आकृति में वह सर्पाकार है। प्रत्येक दो कशेरू के मध्य में एक मांस निर्मित गद्दी सी रहती है। जिस पर प्रत्येक कशेरू टिका और सूत्रों से कसा हुआ है। इसी कारण यह लचीला है और अपनी धुरी पर हर दिशा में घूम सकता है। उसे पांच भागों में बांटा जा सकता है।
(1) ग्रीवा—सर्वाइकल—7 कशेरू (2) पीठ-थोरेक्स—12 कशेरू (3) कटिप्रदेश—लम्बर—5 कशेरू (4) वस्तिगह्वर—त्रिक प्रदेश—सेक्रल—5 कशेरू (5) पुच्छिकास्थि—चंचु—कॉक्सीक्स 4 कशेरू। सब मिला कर इन तेतीस खण्डों को तेतीस देवता कहा गया है। इनमें से प्रत्येक में सन्निहित दिव्य क्षमता को देवता माना गया है। मेरु दण्ड पोला तो है पर ढोल की तरह खोखला नहीं। उसमें मस्तिष्कीय मज्जा भरी हुई है। प्रत्येक कशेरू के पिछली ओर दांये-बांये अर्ध वृत्ताकार छिद्र होता है जिसमें से छोटे नाड़ी सूत्रों से निर्सित बड़ी नाड़ियां बाहर निकलती हैं। मेरुदण्ड का निचला भाग शंकु के आकार का है जिसे—फाइनम टर्मीलेन कहते हैं।
चंचु प्रदेश के कशेरू जितने छोटे हैं, उतने ही चौड़े हैं। वे अन्दर से पोले भी नहीं हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह चार कशेरू मिल कर अड्डे की आकृति वाला अथवा फूल की कली के सदृश आकार बनता है। इसे ‘कॉक्सीक्स’ कहते हैं। इस गोलक को कुण्डलिनी योग में ‘कन्द’ एवं स्वयंभू लिंग के नाम से पुकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी के इर्द-गिर्द सर्पिणी की तरह लिपटी मानी गई है।
नाड़ी गुच्छकों एवं मेरुदण्ड के निम्न भाग के अस्थि समूहों के ऊपर एक सूक्ष्म शक्ति छाई हुई है उसी को मूलाधार का, नाभिक (न्यूक्लियस) समझा जाना चाहिए। उसी के प्रभाव से उस क्षेत्र में बिखेरे पड़े अनेक संस्थान अपना-अपना काम करते और एक से एक बड़े-बड़े प्रभाव उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। कमर से लेकर पेडू और जननेन्द्रिय मूल तक का पूरा क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य माना गया है और वहां किसी भी क्षेत्र में जो कुछ होता है उस सब पर मूलाधार का प्रभाव आंका जा सकता है नाभि, गुर्दे, मूत्राशय, यौन संस्थान, पौरुष ग्रन्थियां आदि की समस्त गतिविधियों को—प्रजनन प्रक्रिया को उसी दिव्य केन्द्र को अनुदान एवं चमत्कार कह सकते हैं। जीवनी-शक्ति का, क्रियाशक्ति का उमंग उत्साह का केन्द्र इसी को कहा गया है। कन्द के स्वरूप और महत्व का वर्णन अध्यात्म शास्त्रों से इस प्रकार हुआ है—
कन्दोर्ध्वे कुण्डलीशक्ति शुभमोक्षप्रदायनी । बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स वेदवित् ।। —गोरक्ष पद्धति
मंगलमय मोक्ष प्रदायिनी कुण्डलिनी शक्ति ‘कन्द’ के ऊर्ध्व भाग में अवस्थित है। वही प्रसुप्त होने पर मूढ मति लोगों को बन्धन में बांधे हुए है। इस मर्म को जो जानता है वही वास्तविकता को जानने वाला ज्ञानवान है। गुदाद्वय गुलतश्चोध्व मेढ्रैकांगुलतस्त्वधः । एव चास्ति समं कन्दं समता चतुरंगुलम् ।। —शिव संहिता
गुदा से दो अंगुल ऊपर और अर्थात् लिंग मूल से एक अंगुल नीचे चार अंगुल विस्तार कन्द का प्रमाण है।
पश्चिमाभिमुखी योनिगुर्दमेढ्रान्तरालगा । तम् कन्दं समाख्यातं तमास्ति कुन्डली सदा ।। —शिव संहिता 5।75
गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो यानि है वह पश्चिमाभिमुखी अर्थात् पीछे को मुख है, उसी स्थान में कन्द है और इसी स्थान में सर्वदा कुंडलिनी स्थित है।
तन्मध्ये लिंगरूपीं द्रुतकनक- कलाकोमलः पश्चिमास्यो । ज्ञानध्यानप्रकाशः प्रथम, किसलयाकाररूपः स्वयम्भुः । विद्युत्पूणेन्दुविम्बुप्रकरकरचय- स्निग्धसन्तानहासी काशो । वासी विलासी विलसति, सरिदावर्त्तरूप प्रकारः ।। तस्योर्द्ध्वे विसतन्तुसोदर- लसत्स्क्ष्मा जगन्मोहिनी ब्रह्मद्वारमुख मुखेनं मधुरं, सछादयन्ती स्वयम् । शंखावर्तनिभा नीवनचपला- मालाविलासास्पदा सुप्ता सर्पसमा शिवोपरि, लसत्सार्द्धत्रिवृत्ताकृतिः ।। —षट्चक्र निरूपण
अर्थात्—‘‘त्रिकोण के भीतर स्वयम्भू लिंग है जिसका वर्ण स्वर्ण के समान है और जिसका सिर नीचे की ओर है। उस नूतन किशलय के समान देव का प्रकाश ज्ञान-ध्यान द्वारा ही सम्भव है। विद्युत और पूर्ण चंद्रमा के समान ही वह स्निग्ध सौन्दर्ययुक्त है। इस स्वयम्भू लिंग पर कमल-तन्तु के समान अति सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सो रही है। वह जगत को मोहित करने वाली है और ब्रह्मद्वार के मुख को अपने मुख से ढके हुए है। शंख की चक्रवत् रेखाओं के समान उसकी चमकीली सर्पाकार आकृति शिव लिंग के चारों ओर साढ़े तीन फेरे लिए हुए है।
कुण्डलिनी की तुलना तो विद्युत शक्ति, ऊर्जा एवं आभा से की गई है। ‘‘तडिल्लता समरुचिर्विद्युल्लेखेव ‘‘भास्वरा’’ सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसी ज्योर्तिमय बनाया गया है। उसी प्रकार अन्यत्र उसका उल्लेख ‘‘तडिल्लेखा तन्वी तपनशर्षि वैश्वानरमयी’’ के रूप में किया गया है। उसे प्रचण्ड अग्नि शिखा एवं दिव्य वैश्वानर के समतुल्य कहा गया है।
मूलाधारस्य ब्रह्मयात्म तेजो मध्ये व्यवस्थिता । जीव शक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तेजसी ।। —योग कुण्डलिल्पुनिषद्
मूलाधार के मध्य वह आत्म तेज, ब्रह्म तेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती है। वही जीव शक्ति, प्राण शक्ति है। वह तेज रूप है।
आधार शक्त्यावधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्ति पदास्पदः । —वृहज्जावालोपनिषद्
मूलाधार (चक्र) की शक्ति से धारण की हुई यह कालाग्नि ऊर्ध्वगामी है और उसी प्रकार सोभ निम्नगामी है, जो शिव शक्तिमय कहलाता है।
मूलाधारस्य वहवयात्भ तेजो मध्ये व्यवस्थिता । जीवशक्तिः कुंडलाख्या प्राणाकारण तैजसी ।। —योग कुण्डव उपनिषद्
कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नि तेज के मध्य में अवस्थित है। वह जीव की जीवनी शक्ति है, तेजस् और प्राणाकार है।
मूलाधारभिधं चक्रं प्रथमं समुदीरितम् । तत ध्येयं स्वरूप तु पावकाकारमुच्यते ।। स्वाधिष्ठानाभिधं चक्र द्वितीयं चोपरिस्थितम् । प्रवालाङ्कुर तुल्य तु तत्र ध्येयं निगद्यते ।। तृतीयं नाभिचक्रे तु ध्येयं रूपं तडिन्निभम् । तुर्ये हदयचक्रे तु ज्योतिर्लिङ्गाकृतीर्य्यते ।। पञ्चमे कन्ठचक्रेतु सुषुम्ना श्वेतवर्णिनी । ध्येय षष्ठे तालुचक्रे शून्यचित्तलयार्थकम् ।। भ्रू चक्रे सप्तमे ध्येयंदापाङ्गुष्टप्रमाणकम् । आज्ञाचक्रेऽष्ठमे ध्येय रूपं थूम्रशिखाकृतिः ।। आकाशचक्रे नवमे परशुः स्वोद्र्ध्व शक्तिकः । एव क्रमेण चक्राणि ध्येयरूपाणि विद्धि च ।। अखण्डैकरसत्वेन ध्येयस्यैक्येऽप्युपाधितः । आकारा विविधायुक्ता नोपाधिश्चेतरः स्वतः ।। विद्याशक्ति विलासेन पावकात् विस्फुलिंगवत् । अकस्मात् ब्रह्मणोऽखंडात् विविधाकृतयोऽभवन् ।। —महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में आत्म ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुरे सी प्रतीत होती है। मणिपूर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभिचक्र में वह बिजली जैसी चमकती है। हृदय कमल के अनाहत चक्र में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कंठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्र में शून्याकार एकरस अनुभव में आती है। भ्रू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती हुई दीप शिखा जैसी भासती है। आज्ञाचक्र में धूम्रशिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दीखती है। यह सभी ज्योतियां एक ही हैं। सभी आत्म ज्योति हैं। सभी परम आनन्ददायिनी हैं। विद्या शक्ति कुण्डलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीत होती हैं।
अपाने चोर्ध्वगे याते संप्राप्ते वह्निमण्डले । ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता ।। ततो यातौ वह्नय्पानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् । तनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा ।। तेन कुन्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सप्रबुध्यते । दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋजुतां ब्रजेत् ।। —योग कुण्डल्युपनिषद् 1/43, 44, 45
उस अग्नि मण्डल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुंडलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुसकार कर उठती है वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जागृत होती है।
प्राणस्थान ततो वह्नि प्राणापानौ च सत्वरम् । मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः ।। तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता । प्रसाय स्वशरीर तु सुषूम्नाबदनान्तरे ।। —योग कुण्डल्युपनिषद् 1/65, 66
अग्नि स्थान में प्राण के पहुंचने से उष्णता से संतप्त कुण्डलिनी अपनी कुण्डली छोड़कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।
योगिनां हृदयाम्भोजे नृत्यन्तौ नित्यमञ्जसा । आधारे सर्व्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युदाकृतिः ।। —शारदा तिलक
वह कुण्डलिनी शक्ति योगियों के हृदय में नृत्य ही नृत्य करती है। बिजली की तरह स्फुरण करती है। वही सम्पूर्ण प्राणियों का आधार है।
मूलाधारे स्मरेद्दिव्यं त्रिकोणं तेजसां निधिम् । शिखा आनीय तस्याग्नेरथ उर्ध्वं व्यवस्थिता ।। तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः । स ब्रह्म स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट् ।। स एव विष्णुः स प्राण स कालोऽग्निः चन्द्रमाः । इति कुंडलिनी ध्यात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। —कलिकोपनिषद्
मूलाधार में दिव्य त्रिकोण तेज-पुंज, ऊर्ध्वगामी तेज-शिखा के मध्य, परब्रह्म अवस्थित है। वह तेज ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, अक्षर, काल, अग्नि, चन्द्रमा, प्राण आदि है। ऐसा कुण्डलिनी ध्यान करना चाहिए।
ध्यात्वैतन्मूलचक्रान्तरविवर लसत्कोटिसूर्यप्रकाशां वाचामीशो नरेन्द्रः स भवति सहसा सवविद्याविनोदी । आरोग्यं तस्य नित्यं निरवधि च महानन्दचित्तान्तरात्मा वाक्यैः काव्यप्रबन्धैः सकलसुरगुरून् सेवते शुद्धशीलः । —षटचक्र निरूपणम 14
मूलाधार चक्र में कोटि सूर्य जैसे प्रकाश से युक्त कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान रखने पर वाणी की सिद्धि होती है, वह मनुष्यों का नेतृत्व करता है। विद्यावान बनता है। आरोग्य बनता है। चित्त में आनन्द रहता है। ऐसा शीलवान साधक देवताओं द्वारा पूजित होता है।
निर्वाणाभ्यन्तरगता बह्नि रूपा निवोधिता । नारेऽव्यक्तस्त दुपरिक्रोट्याछित्य सन्निभा । अत्रैव कुण्डली शक्ति विहरेत् विश्वव्यापिनी ।। —कौलामृत
वह कुण्डलिनी शक्ति अग्नि रूप है। कोटि सूर्य के समान चमकती है। पर परम शक्ति है। विश्व में विस्तृत विहार करती है।
मूलाधारे मूल विद्यां विद्युत्कोटि सम प्रभाम् । —ज्ञानार्णव तन्त्र
मूलाधार चक्र में वह मूल विद्या कोटि विद्युत के समान चमकती है।
कोटि सौदामिनीभासां स्वयंभू लिंग वेष्टिनाम् । —तन्त्रसार
स्वयंभू लिंग में लिपटी हुई वह कुण्डलिनी शक्ति कोटि विद्युत की तरह चमकती है।
हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी पर्वत पर निकलने वाली अग्नि शिखा को देवस्थान की शक्ति पीठ माना गया है। वहां आराधना उपासना के लिए दूर दूर से भक्तजन जाते हैं। अग्नि ज्वाला को दैवी शक्ति मानने के पीछे यह कुण्डलिनी अग्नि का ही तारतम्य है। यज्ञाग्नि में अग्निहोत्र करने, धृतधारा चढ़ाने के पीछे भी अग्नि एवं सौम के संयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन है। ब्रह्माग्नि के संयोग को कुण्डलिनी साधना कहा गया है।
अग्नि की उत्पत्ति का स्कन्द पुराण में एक मनोरंजक उपाख्यान आता है। सनत्कुमार की अग्निजन्य जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं—प्रजापति ने सृष्टि के आदि में दिव्य शत वर्षों की अवधि तक महान तप किया। इसमें ‘भूः भुवः स्वः शब्द उत्पन्न हुआ। इसका मन के साथ समावेश होने से अग्नि उत्पन्न हुई। वह नीचे गिरा तो भूमि जलने लगी, ऊपर उठी तो आकाश जलने लगा। वह शब्द रूप स्फुल्लिंगों से युक्त, स्वर्णिम आभा वाला परम दिव्य था।
अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा—‘मैं भूख से स्वयं जला जा रहा हूं। मुझे आहार दीजिए।’ ब्रह्माजी ने अपने शरीर के एक-एक करके सभी अवयव उसे खिला दिये। तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई और भूखा-भूखा ही चिल्लाता रहा। कोई और उपाय न देख कर ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा—जो व्यक्ति कामुकता से अभिभूत हो तू उनकी देह में घुस जा और उनकी समस्त धातुओं का भक्षण किया कर।
रोरूयमणि चाग्नौ तु पुनर्व्रह्मा कृपान्वितः आह कामाभि भूतानां भुंक्ष्वं त्वं देह धातवः । ते काले लब्ध कामस्य सावृत्तिः सम्प्रकल्पिता । —स्कन्द पुराण
रुदन करते हुए अग्नि से ब्रह्माजी ने कृपा पूर्वक कहा तू कामुकों के शरीर में घुस कर उनके धातु संस्थान को खालिमा कर।
अग्नि ऐसा ही करने लगा किन्तु तो भी उसकी तृप्ति न हुई। इस पर ब्रह्माजी ने उसे मुनियों और देवताओं के अन्तःकरण में प्रवेश करने के लिए कहा। तब कहीं अग्नि की तृप्ति हुई और शांति मिली।
तब ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा—तू ऋषियों के आश्रम में रह। देवों के भीतर और बाहर निवार कर। इस आदेश को प्राप्त कर अग्नि प्रसन्न हुआ और सन्तोष पूर्वक रहने लगा।
यही जीवन सत्ता में ओत-प्रोत प्राण शक्ति-कालाग्नि एवं कामाग्नि है। इसको अधोगामी बनाने से मनुष्य जलता और गलता है। किन्तु यदि उसे ऊर्ध्वगामी बना लिया जाय तो वही ब्रह्म तेजस् बनकर योगाग्नि एवं प्राणाग्नि बनकर प्रज्वलित होती है। जीव को परम तेजस्वी बनाती है और उसे लौकिक, भौतिक एवं आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न बनाती है। महाशक्ति कुण्डलिनी का स्तवन करते हुये शक्ति उपासक तत्ववेत्ता की अभिव्यक्ति है—
मेरुदण्डे वह्निना शब्दात् पदं तेजोमयीति च । सिद्धिः प्राप्ति पदात् सिद्धिः सर्वकाम पदात् पुनः । सर्वेशा परिपूरेति चक्र स्वामिनीति च । गुप्त योनिन्यनंगा च कुसुमेऽनंग मेखल । सर्व मन्त्रमयीत्युक्ता सर्व द्वन्द्व क्षयकरी । सर्व सौभाग्यदाचेति सर्व विघ्न निवारिणी । सर्वज्ञानमयीत्युक्तात्वा सर्व व्याधि विनाशिनी । सर्वानन्दमयी देवि, सर्व रक्षा स्वरूपिणी । महाशक्ते महागुप्ते ततश्चैव महा-महा । कुल कुण्डलिनी देवि, कन्दे मूले निवासिनी । —स्तोत्र समुच्चय
मेरुदण्ड में अग्नि रूप, शब्द पद, तेजोमयी, सिद्धि प्रदान करने वाली, काम पद, सर्वव्यापक, चक्र संस्थानों की स्वामिनी, गुप्त योनि, काम शक्ति अनग मेखला, समस्त मन्त्रों की शक्ति युक्त समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाली, आनन्दमयी, संरक्षक, महाशक्ति, रहस्यमयी, महानतम कुंडलिनी देवी, कन्द मूल में निवास करती है। उपरोक्त प्रतिपादन यह सुनिश्चित करते हैं कि कुण्डलिनी साधना एक प्रकार से शरीर में प्राण एवं संकल्प के आघात द्वारा परमाणु ऊर्जा उत्पन्न करने, उसे प्रखर बनाने और उसका नियंत्रण नियमन करने की विद्या का नाम है। परमाणु-भौतिकी की सैद्धान्तिक जानकारी वस्तुतः देश के अनेक विज्ञान के विद्यार्थी भी जानते होंगे किन्तु उसके विखंडन का व्यवहारिक ज्ञान डा. भाभा, डा. मेघनाथ साहा जैसे थोड़े से वैज्ञानिकों को रहा है। क्योंकि यह अति दुस्तर और संकट भरा प्रयोग होता है। कुंडलिनी साधना की स्थिति भी ऐसी ही है। उसके कई विधान तो इतने जटिल व कठिन हैं कि अनजान अभ्यासी भूल में पड़कर पागल हो सकता है। शरीर के किसी अंग का विस्फोट हो सकता है। मृत्यु तक हो सकती है। अतएव वह विधान चाहे जिसे बता देने, चाहे कहीं लिख देने की परम्परा नहीं है। ब्रह्मवर्चस शांति कुंज में इन साधनाओं के शिक्षण और अभ्यास की व्यवस्था की है और उस पर शोध का प्रबंध भी है।
सैकड़ों साधक यहां आकर उनकी जानकारी प्राप्त करते हैं। इन साधनाओं में प्राण-संधान की क्रिया प्रमुख रहती है। इसलिए कुंडलिनी साधना में प्राणायाम का विशिष्ट स्थान है। इसी शृंखला की गायत्री की प्राण प्रक्रिया पुस्तक में कुछ निरापद प्राणायाम तथा पंचकोशी साधनाओं में कुछ सरल अभ्यास बताये गये हैं वह घर पर रह कर भी किये जा सकते हैं। जो इन कठिन साधनाओं में प्रवेश करना न चाहें वे यदि नियमित गायत्री उपासना करते रहें तो भी वही अपेक्षायें पूर्ण होती हैं। सांसारिक जीवन इस विकास क्रम में कहीं भी बाधक नहीं होता।
सोऽहम जप, शक्तिचालिनी मुद्रा, त्राटक नाद योग विन्दु साधना आदि अनेक प्रकार के अभ्यास कुण्डलिनी जागरण के लिये किये जाते हैं। प्राणायाम में लोम विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम का सर्वाधिक अभ्यास करना पड़ता है। इसमें एक बार बांये एक बार दाहिने स्वर से वायु लेने और छोड़ने की क्रिया लगातार करनी पड़ती है। इस मंथन का ‘प्रहार’ मूलाधार में प्रसुप्त महा अग्नि पर प्रसुप्त सर्पिणी पर करना पड़ता है। ऑक्सीजन के सहयोग में अग्नि भड़कती है। प्राण की अभीष्ट मात्रा प्रसुप्त अग्नि चिनगारी को मिलते रहने से उसके भड़कने और दावानल का रूप धारण करने में देर नहीं लगती। यही प्राण प्रहार प्रक्रिया सूर्य भेदन प्राणायाम का मुख्य प्रयोजन है। अग्नि और प्राण के संयोग एवं प्रहार क्रम को प्रहार प्रताड़ना आदि नाम दिये गये हैं। जागरण के इस प्रयोग का उल्लेख इस प्रकार मिलता है।
चक्र मध्ये स्थिता देवाः कम्पतिवायु ताडनात् । कुन्डल्यपि महामाया कैलाशे सा विलीयते ।। —शिव संहिता
प्राणवायु के आघात से चक्रों के मध्य रहने वाले देवता जागते हैं और महामाया कुण्डलिनी कैलाश पति शिव से जा मिलती है।
योगाभ्यासेन मरुता साग्निना बोधिता सती । स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपा महोज्ज्वला ।। —हत्रिशिखब्राह्मणोपनिषद्
योगाभ्यास द्वारा प्राण वायु तथा अग्नि से प्रदीप्त यह महासती कुण्डलिनी ऊपर उठकर हृदयाकाश में पहुंचती है और वहां अत्यन्त प्रकाशपूर्ण नाग के रूप में स्फुरित होती है।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् । मुखेनाच्खाद्यं तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी । प्रवुद्धा बह्नियोगेन मनसा मरुता सह ।। सूचिवद्गुणमादायं प्रजत्यूर्ध्व सुषुम्नया । उद्धाटयेत्कपाट तु यथा कुञ्चिकया हठात् ।। कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभैदयेत् ।। —ध्यानबिन्दूपनिषद्
जिस मार्ग से ब्रह्मस्थान तक सुगमता से जाया जा सकता है, उस मार्ग का द्वार परमेश्वरी कुण्डलिनी अपने मुंह से ढंके सोयी हुई है। अग्नि तथा मन प्रेरित प्राणवायु के सम्मिलित योग से वह जागृत होती है और जैसे सुई के साथ धागा जाता है, उसी प्रकार प्राणवायु के साथ वह कुण्डलिनी सुषुम्ना पथ के ऊपर जाती है। जैसे कुंजी से हठात् द्वार खोल दिया जाता है, वैसे ही योगी कुण्डलिनी शक्ति से मोक्षद्वार को भेदते हैं।
ज्वलनाघातपवना घादोरुन्निद्रितोऽहितोऽहिराट् । ब्रह्मग्रन्थि ततो भित्वा विष्णुग्रन्थि भिनत्त्यतः । रुद्र ग्रन्थि च भित्त्वैव कमलानि भिनत्ति षट् । सहस्रकमले शक्तिः शिवेन सह मोदते ।। सैवावस्था परा ज्ञेवा सैव निर्वृतिकारणा ।। —योगकुंडल्युपनिषद्
अग्नि और प्राणवायु दोनों के आघात से सुप्ता कुण्डलिनी जाग पड़ता है और ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि तथा षट्चक्र का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में जा पहुंचती है। वहां यह शक्ति शिव के साथ मिलकर आनन्द की स्थिति में निवास करती है। वही श्रेष्ठ परा स्थिति है यही मोक्ष का कारण है।
प्राण स्थानं ततोवह्निः प्राणापानौ च सत्वरम् । मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः । तेनाग्नाच संतृप्ता पवने परिचालिता । प्रसाय स्व शरीरे तु सुषुम्नावदनान्तरे । —योग कुण्डल्युपनिषद्
प्राण और अपान के संयोग से महाअग्नि दीप्तिवान होती है और कुंडलिनी जगती है। प्राणवायु में तीव्रता आने से अग्नि भी तीव्र होती जाती है और अपना क्षेत्र विस्तार करती है।
ततो वह्नि प्रतापेन प्राणसंघर्षणेन च । दन्डाहता भुजंगीव कुण्डली संप्रबुद्यते ।। —योग रसायनम्
अग्नि के ताप तथा प्राण के संघर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से कुंडली प्रबुद्ध होकर वैसे ही सीधी हो जाती है जैसे दण्ड से आहत सर्पिणी।
तदानिल शिखा दीर्घा जायते वायुनाहता । तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता संप्रबुध्यते । —हठयोग प्रदीपिका
प्राणवायु के प्रहार से अग्नि शिखा प्रदीप्त होती है और उसकी गर्मी से प्रसुप्त कुंडलिनी जाग पड़ती है।
सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा अग्नि उत्पन्न करने के जिन उपकरणों से रगड़ उत्पन्न करनी पड़ती है वे इड़ा और पिंगला नामक दो प्राण प्रवाह हैं। जो सुषुम्ना के—मेरुदंड के मध्य में रहते हैं। सामान्यतया उनकी गतिशीलता इतनी ही रहती है कि शरीर निर्वाह के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ऊर्जा उत्पन्न होती रहे। अधिक मात्रा में प्राण उत्पादन अभीष्ट हो तो इन प्रवाहों को अधिक सक्रिय करना पड़ता है। मन्दी आग पर कुछ पकाना हो तो चूल्हे में सामान्य गर्मी बनाये रहने से काम चल जाता है किन्तु यदि खौलने योग्य ताप की आवश्यकता हो तो अधिक ईंधन डालने तथा हवा धोंकने का प्रबन्ध करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए इड़ा और पिंगला को अधिक गतिशील बनाने के लिए सूर्यवेधन प्राणायाम का आश्रय लिया जाता है। इड़ा, पिंगला का महत्व बताते हुए कहा गया है।
शक्तिरूपः स्थितश्चन्दो वामनाडी प्रवाहकः । दक्षनाडी प्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः । —शिव स्वरोदय
वाम नाड़ी का प्रवाह करने वाला चन्द्रमा शक्तिरूप से और दक्षिण नाड़ी का प्रवाहक सूर्य शिव रूप से स्थित रहता है।
मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्णे मध्ये नाड़ी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा । धुस्तूरस्मेरपुष्पग्रथिततमवपुः कन्दमध्याच्छिरःस्था वज्राख्या मेढ्रदेशाच्छिरसि परिगता मध्यमेऽस्या ज्ज्वलन्ती ।। —षट्चक्र निरूपणम्-2
मेरुदंड के बाहर बांई ओर चन्द्रमा के प्रकाश के समान इड़ा नाड़ी, सूर्य के प्रकाश के समान पिंगला नाड़ी है। इड़ा से शक्ति रूप और पिंगला से शिवरूप का बोध होता है। मेरुदंड के भीतर अग्नि रूप सुषुम्ना है। भ्रू मध्य भाग में इन तीनों का संगम होता है। यह तीनों नाड़ियां जननेन्द्रिय मूल में स्थित धतूरे के पुष्प के समान कन्द से उत्पन्न होकर ऊपर मस्तक तक जाती हैं।
प्राणायाम में श्वास को खींचना फेंकना भर ही नहीं होता वरन् उसके आवागमन की गति को नियन्त्रित रखना होता है। उनकी चाल एक जैसी रहनी चाहिए। कुम्भक के प्रहार रुकने का समय और वापसी की प्रवाह प्रक्रिया इन सब में समय एवं गति की क्रमबद्धता बनी रहनी आवश्यक है। अस्त–व्यस्तता से अनियमितता और नियन्त्रण न रहने से प्राण योग का आधार ही नष्ट हो जाता है और वह मात्र गहरी सांस लेने की—डीप ब्रीदिंग की सामान्य व्यायाम परिपाटी मात्र बन कर स्वल्प फलदायक रह जाती है। तात्त्विकी प्राणायामों में श्वास क्रिया की एक सुनिश्चित क्रम व्यवस्था बना कर उसमें ‘ताल’ उत्पन्न किया जाता है। संगीत शास्त्र के जानकार समझते हैं कि ‘ताल’ किसे कहते हैं? उसके आधार पर ही ताल वाद्य बजाने की शिक्षा दी जाती है और स्वर लहरी का सौंदर्य निखरता है। ताल का ज्ञान न होने पर ढोलक, तबला, मजीरा, करताल आदि बजाये जायं तो उससे कर्ण कटु कर्कशता ही उत्पन्न होगी और सुनने वालों के कानों को अखरेगी। महत्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए की गई प्राण योग की साधना में जहां श्रद्धा विश्वास भरी संकल्प शक्ति का समावेश करना है वहां उसकी ताल बद्धता का अभ्यास करना भी आवश्यक होता है।
ताल से कितनी प्रचंड शक्ति उत्पन्न होती है उसे विज्ञान वेत्ता भली प्रकार जानते हैं। पुलों पर से सेना को लेफ्टराइट करते हुए नहीं निकलने दिया जाता है। उन पर से गुजरते हुए वे चाल को अस्त-व्यस्त रखते हैं। ताल बद्ध कदम पड़ने से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगें पुल में दरारें डाल सकतीं हैं। एक भारी गार्डर छत में लटका दिया जाय और उस पर कार्क जैसी हलकी वस्तु के तालबद्ध आघात पड़ते रहने की यान्त्रिक व्यवस्था करदी जाय तो उन स्वल्प आघातों से भी उत्पन्न प्रचण्ड शक्ति के फलस्वरूप गार्डर में थरथराहट दृष्टिगोचर होने लगेगी।
एक नियत गति से कांच के गिलास के पास ध्वनि की जाय तो वह उन आघातों से टूट जायगा। संगीत का शारीरिक और मानसिक प्रभाव होता है उसका स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिये—रोग निवारण के लिए सफल प्रयोग हो रहा है। पशुओं का दूध और पक्षियों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने में क्रमबद्ध संगीत के लाभ देखे गये हैं। पेड़-पौधों को कृषि उपज को बढ़ाने में भी संगीत का उत्साहवर्धक उपयोग होता है।
‘स्टोन हैव्स’ के पुराने अवशेष में यह विशेषता है कि मध्यम स्वर लहरी के ध्वनि प्रवाह से वे कांपने लगते हैं। अस्तु उस क्षेत्र में न केवल बजाना वरन् गाना भी मना है। चेतावनी के रूप में वहां यह सूचना टंगी है कि ताल बद्धता इन अवशेषों को गिरा सकती है इसलिए यहां वैसा कुछ न किया जाय।
लोम विलोम प्राणायाम क्रम में यह ताल प्रक्रिया विशेष रूप से उत्पन्न होती है। एक ही क्रम बना रहने से घुमावदार सर्किट बनता है। पर उलट-पुलट का क्रम दुहराने से ‘ताल’ की उत्पत्ति होती है। सूर्यवेधन प्राणायाम में ताल बद्धता का उत्पन्न करना स्थूल शरीरगत ऊर्जा को एकत्रित, प्रज्ज्वलित और प्रखर बनाता है। संकल्प शक्ति के आधार पर खींचा हुआ दिव्य प्राण आत्म प्राण की मूलाधार स्थिति को प्रज्वलित करता है। इसी आधार पर प्रसुप्ति जागृति में परिणित होती है और साध को आत्म सत्ता के अन्तर्गत दिव्य ऊर्जा का अभिवर्धन दृष्टिगोचर होता है। योग शास्त्र में दिव्य प्राण को देवता—कुंडलिनी अग्नि को दिव्य अग्नि कहा गया है और उसके जागरण से अनेकों दिव्य लाभ मिलने की बात कही गई है।
कुंडलिनी योग की सिद्धि में प्राण शक्ति की प्रधान भूमिका सबने मानी है। प्राणतत्व का इतना उच्चस्तरीय परिष्कार, उसमें असामान्य प्रखरता पैदा करने की क्षमता ‘गायत्री’ साधना में निश्चित रूप से है। गायत्री शब्द स्वयं इस तथ्य को घोषित करता है। ‘गय’ कहते हैं प्राण को, त्री अर्थात् त्राण करना। गायत्री की प्राण प्रक्रिया का साक्षात्कार ही प्रकारांतर से कुंडलिनी योग की सिद्धि है। साधक इस साक्षात्कार से आत्म विभोर हो उठता है। यह ऐसी दिव्य अनुभूति है, जिसका एक कण भी चखने को मिल जाय तो मनुष्य उसके लिये बड़े से बड़ा साम्राज्य भी त्याग सकता है।