Books - हम बदलें तो दुनिया बदले
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Language: HINDI
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व्यवहार कुशलता की आध्यात्मिक पृष्ठभूमियां
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मानव
एक
सामाजिक
प्राणी
है।
उसका
सम्बन्ध
विस्तृत
मानव
से
होता
है।
इतना
ही
नहीं
भूमण्डल
के
व्याप्त
वातावरण
से
उसका
सम्बन्ध
होता
है।
ज्यों-ज्यों
व्यक्तित्व
का
विकास
होता
जाता
है
उसके
साथ-साथ
ही
यह
सम्बन्ध
सूत्र
भी
विस्तृत
होता
जाता
है।
समाज
और
व्यक्ति
दोनों
पर
परस्पर
एक
दूसरे
का
प्रभाव
पड़ता
है।
व्यवहार
कुशलता
इन
दोनों
को
मिलाकर
प्रगति-पथ
एवं
सफलता
की
ओर
अग्रसर
करती
है।
तात्पर्य
यह
है
कि
व्यवहार
कुशलता
से
व्यक्ति
स्वयं
तो
उन्नत
एवं
सफल
होता
ही
है
किन्तु
साथ
ही
साथ
समाज
पर
भी
इसका
काफी
अच्छा
प्रभाव
पड़ता
है।
अतः
सभी
संस्कृतियों
ने
व्यवहार
कुशलता
एवं
उसके
लिए
आवश्यक
गुणों
को
मुक्त
कण्ठ
से
स्वीकार
किया
है।
व्यवहार
कुशल
बनकर
सफल
एवं
आदर्श
जीवन
का
निर्माण
करने
के
लिए
निम्न
बातों
का
पालन
करना
आवश्यकता
है।
एवं
दोष
आदि
रहते
हैं, इसके
साथ
अनेकों
गुण
भी
सर्वथा
दोषमुक्त
अथवा
निर्बलता
युक्त
व्यक्ति
मिलना
असंभव
नहीं
तो
कठिन
अवश्य
ही
है, इसी
प्रकार
सर्वगुण
सम्पन्न
व्यक्ति
भी
किन्तु
श्रेष्ठता
इसी
में
है
कि
दूसरों
के
अवगुणों, दोषों
की
उपेक्षा
कर
उनके
गुणों
को
देखा
जाय
और
उन्हें
ग्रहण
किया
जाय, दूसरों
के
सद्गुणों
को
जाने
और
उन्हें
दाद
दें
उनकी
प्रशंसा
करें।
दूसरों
का
दोष
दर्शन
अथवा
उनमें
बुराइयां
निकालना
सरल
कार्य
है।
साथ
ही
यह
एक
घटिया
मानसिक
रोग
है, जो
व्यक्ति
को
तुच्छता
एवं
पतन
की
ओर
ले
जाता
है।
ऐसा
व्यक्ति
जीवन
में
सफल
एवं
उन्नत
नहीं
हो
सकता
न उसे
किसी
का
सहयोग
अथवा
सहायता
मिल
सकती
है।
अतः
दूसरों
में
सद्गुणों,
श्रेष्ठता
आदि
का
दर्शन
कीजिए।
उसकी
विशेषताओं
को
समझकर
उनकी
प्रशंसा
कीजिए
और
अपने
जीवन
में
उन्हें
उतारिये
भी।
इससे
आदर्श
एवं
उन्नतिशील
जीवन
का
निर्माण, होगा
दूसरों
का
आपको
सहयोग
मिलेगा
और
आपको
सच्चे
मित्र
प्राप्त
होंगे।
स्वभाववश
किसी
की
बुराई
भी
ध्यान
में
आये
तो
उसे
भुलाकर
उसके
सद्गुणों
पर
विचार
कीजिए।
जिससे
अपना
दृष्टिकोण
परिमार्जित
बनेगा।
2—सहिष्णुता
— व्यवहार
कुशल
बनने
के
लिए
दूसरी
आवश्यकता
है
सहिष्णु
बनने
की
है—दैनिक
व्यवहार
में
सहनशील
बनिये।
आप
में
जितनी
सहनशीलता
होगी
उतना
ही
आप
सफल
जीवन
का
निर्माण
कर
सकेंगे।
मानव
जीवन
में
भिन्न-भिन्न
परिस्थितियां,
वातावरण,
उतार-चढ़ाव,
संयोग-वियोग
आते
रहते
हैं।
तरह-तरह
के
व्यक्तियों
से
सम्पर्क
होता
है, क्रोधी,
उत्तेजित,
झगड़ालू,
विरोधी,
दुष्ट
प्रकृति
के
व्यक्तियों
से
लेकर
अच्छे
भले
व्यक्तियों
से
आपका
पाला
पड़ता
है, घर,
घर
से
बाहर
एवं
समाज
में
आपको
अव्यवस्था
नजर
आती
है, लोग
आपकी
आलोचना
करते
हैं, गम्भीर
समस्यायें
आपको
रुकावट
डालती
हैं।
किन्तु
इन
सबको
अपने
विस्तृत
हृदय
में, दृढ़ता
और
साहस
में
क्षमाशीलता
में, मानसिक
गंभीरता
में
समा
लीजिये, सहनशीलता
में
परिणित
कर
दीजिये, इनसे
उत्तेजित
न
हूजिये।
चिड़चिड़ाहट
न
लाइये।
उक्त
विषय
आपकी
शांति,
आत्म–निर्भरता,
गम्भीरता
दृढ़ता
एवं
सहनशीलता
को
विचलित
न कर
सकें
इसके
लिए
पूरा-पूरा
ध्यान
रखें।
आप
देखेंगे
कि
यह
सहिष्णुता,
सहनशीलता
आपके
उज्ज्वल
भविष्य
का
मार्ग
खोल
देगी।
परिस्थितियों,
समस्याओं
के
वातावरण,
संयोग-वियोग
आदि
में
विचलित
हो
जाना, उनके
प्रवाह
से
अपने
आपको
विचलित
कर
देना
मानसिक
कमजोरी
है, जो
सफलता
से
दूर
रखती
है।
अतः
इसे
छोड़िये।
प्रत्येक
वस्तु
प्रत्येक
परिस्थिति,
प्रत्येक
वातावरण
में
आपको
ढालने
की
क्षमता
रखिये।
आप
देखेंगे
की
शुरू
से
अन्त
तक
आपकी
स्थिति, प्रगति
प्रवाह
की
ओर
बढ़ती
रहेगी।
सारी
विपरीतता
विरोध,
परिस्थितियां
अन्धकार
के
गर्त
में
समाप्त
हो
जायेंगी
और
आप
सफल
जीवन
की
उच्च
मंजिल
को
पार
कर
लेंगे।
3—निरहंकारवृत्ति
— व्यवहार
कुशलता
के
लिए
निरहंकारिता
का
होना
भी
अत्यावश्यक
है।
मनुष्य
की
यह
एक
मानसिक
कमजोरी
है
कि
वह
अपने
शरीर, स्वरूप
धन, वैभव,
विद्या,
सम्पन्नता,
कीर्ति
आदि
का
गर्व
करके
अपने
बड़प्पन
और
अहंकार
के
समक्ष
दूसरों
को
तुच्छता
की
दृष्टि
से
देखता
है।
यह
अव्यवहारिक
एवं
तुच्छता
का
चिन्ह
माना
गया।
संसार
में
ऐ से
एक
बढ़ा
हुआ
धनी, मानी
सम्पन्न
विद्वान
योग्य
बैठे
हुए
हैं।
फिर
किस
बात
की
अहंमन्यता!
इस
प्रकार
की
अहंकारिता
प्रगतिशीलता
के
मार्ग
को
अवरुद्ध
कर
देती
है
और
मनुष्य
को
आगे
नहीं
बढ़ने
देती।
साथ
ही
इस
प्रकार
अहंकार
समाज
में
सम्मानास्पद
न
माना
जायगा
उसके
कारण
दूसरे
असंतुष्ट
होंगे
और
उदास
होकर
असहयोग
करने
लगेंगे।
इसलिये
मिथ्या
अहंकार
का
त्याग
कीजिये।
अपनी
योग्यता,
सम्पन्नता
आदि
को
छोटा
मानकर
और
वृद्धि
के
लिये
प्रयत्न
कीजिये।
अहंकार
शून्य
होकर
दूसरों
को
बड़प्पन,
महत्व,
प्रदान
कीजिये, इसी
में
आपका
भी
बड़प्पन
एवं
महत्व
है।
निरहंकारिता
के
लिए
आवश्यक
है
दूसरों
के
दृष्टिकोण
का
आदर
एवं
सम्मान
करना
सीखा
जाय।
कोई
उत्तम
बात
कहे
तो
उसे
स्वीकार
करना
ही
चाहिए
किन्तु
अन्य
कोई
व्यक्ति
अपनी
हठधर्मी
एवं
अहंमन्यता
वश
अपने
गलत
दृष्टिकोण
पर
भी
जोर
दे
रहा
हो
तो
उस
समय
उसका
भी
सम्मान
कीजिये
और
सद्भावना
प्रकट
कीजिये
फिर
एकान्त
में
उससे
मिलकर
विचार
परामर्श
कीजिये
वह
अपने
गलत
दृष्टिकोण
को
वापस
लेकर
आपका
सहयोगी
बन
जायगा।
अतः
दूसरों
के
दृष्टिकोण
का
आदर
कीजिये।
बरबस,
जबरन
आपका
सही
दृष्टिकोण
भी
किसी
पर
थोपने
की
चेष्टा
न
कीजिये।
यह
भी
अहंकारक
वृत्ति
का
सूचक
है।
आप
केवल
नम्रता
भरे
शब्दों
में
अपना
सुझाव
एवं
राय
दे
सकते
हैं।
उस
पर
आप
भी
व्यक्तिगत
कोई
जोर
न
दें।
दूसरे
व्यक्तियों
को
तर्क
से
आपके
विषय
अथवा
सुझाव
को
मानने
दीजिये।
इस
प्रकार
की
वृत्ति
सफल
जीवन
एवं
दूसरों
के
सहयोग
और
मित्रता
की
वृद्धि
करती
है।
अनावश्यक
उपदेश
देने
का
प्रयत्न
भी
मत
करिये
समाज
आप
से
जबरन
उपदेश
ग्रहण
नहीं
करेगा
न
उसका
आदर
ही
करेगा।
आप
अपना
सुझाव
और
विचार
पेश
कीजिये
जनता
को
तर्क
एवं
विचार
बल
से
उस
पर
अमल
करने
दीजिये।
दूसरों
के
साथ
अनधिकार
चेष्टा
करना
भी
अहंकार
में
ही
सम्मिलित
है।
बिना
मतलब, अपनी
योग्यता
का
प्रदर्शन
करने
के
लिये
या
दूसरों
को
अपने
कार्य
में
अयोग्य
समझते
हुए
अनावश्यक
हस्तक्षेप
मत
कीजिये।
इसे
प्रतिपक्षी
लोग
कभी
अच्छा
न
समझेंगे
और
आपके
प्रति
उनके
विचार
अच्छे
न
होंगे।
आवश्यकता
से
अधिक
न
बोलिये।
ज्यादा
बोलना
मूर्खता
एवं
घमण्ड
का
प्रदर्शन
करना
है।
बातूनी, शेखीखोर,
टीपटाप
लगाकर
बोलने
वाला
व्यक्ति
घटिया
दर्जे
का
माना
जाता
है
ऐसा
व्यक्ति
काम
भी
कम
करता
है
अतः
इतना
बोलिये
जो
आवश्यक
हो
जिससे
आपका
तथा
दूसरों
का
कुछ
हित
साधन
हो
सके।
बेकार
बकवास
करने
से
आपके
व्यक्तित्व
का
मूल्य
घट
जायेगा
और
आपकी
शक्तियों
का
क्षय
होगा।
4—चुटि
का
स्वीकार
करना
और
उसका
प्रायश्चित
— यह
स्वाभाविक
ही
है
कि
प्रयत्न
करने
पर
भी
कभी-कभी
व्यवहार
कुशलता
में
मनुष्य
चूक
जाता
है
और
कुछ
न कुछ
गलती
कर
बैठता
है।
किन्तु
इसके
लिये
अपने
दोष
और
गलतियों
को
विनम्र
भाव
से
स्वीकार
कर
लेना
आवश्यक
है।
जिसके
साथ
आपने
कुछ
अव्यवहारिकता
की
हो
उसके
पास
जाकर
आप
अपनी
धृष्टता
को
स्वीकार
करते
हुए
उसके
लिये
क्षमा
याचना
कीजिये।
इससे
लोग
आपके
हो
जायेंगे।
अपनी
गलती
को
स्वीकार
कर
लेने
में
कभी
संकोच
नहीं
करना
चाहिये।
न
किसी
तरह
का
भय
ही।
अपनी
अव्यवहारिकता
के
लिये
न
केवल
स्वीकार
अथवा
क्षमा
याचना
करके
ही
रह
जाना
चाहिये
वरन्
भविष्य
में
उस
प्रकार
की
हरकत
न
करने
की
प्रतिज्ञा
करनी
चाहिए
तथा
उसके
प्रायश्चित
के
लिये
स्वयं
को
कुछ
न कुछ
दण्ड
भी
देना
चाहिए
ताकि
भविष्य
में
ऐसा
कभी
भी
हो।
5—सबसे
प्रेम
का
व्यवहार
— अपने
स्वभाव, विचार
में
स्थित
ईर्ष्या, द्वेष
एवं
तत्सम्बन्धी
भावनाओं
को
निकाल
कर
प्रेम
का
स्रोत
बहाइये।
मानव
मात्र
से, प्राणि
मात्र
से, प्रेम
कीजिये।
प्रेम
भी
निस्वार्थ
हो।
उनसे
आत्म
सम्बन्ध
कायम
करके
एक
दूसरे
के
दुःख
दर्द
में
आवश्यकता
पड़ने
पर
काम
आइये।
परस्पर
प्रेम, सहानुभूति,
सहायता
विनम्रता
सेवा
के
पवित्र
सूत्रों
से
सम्बन्ध
बनाइये।
इस
संसार
रूपी
नाव
में
हम
सब
यात्रा
कर
रहे
हैं।
अपने-अपने
गन्तव्य
स्थान
पर
सब
उतर
जायेंगे।
कोई
कुछ
भी
एक
दूसरे
से
छीनकर
नहीं
ले
जायगा।
जो
जैसे
आया
वैसे
ही
जायगा, अतः
फिर
क्यों
खींचातानी,
ईर्ष्या
द्वेष, डाह
जलन
कुढ़न
हो? इन
दूषित
तत्वों
को
निकाल
फेंकिये।
आपका
जीवन
शुद्ध
प्रेम
से
सराबोर
हो।
आप
देखेंगे
कि
हिंसक
प्राणी
भी
आपके
सहायक
हो
जायेंगे
सारी
विपरीतता
अनुकूलता
में
परिणित
हो
जायगी।
आपके
कदम
प्रगति
सफलता
एवं
विकास
की
ओर
अग्रसर
हो
उठेंगे।
आप
जीवन
में
सफलता
प्राप्त
करेंगे।
आत्मलक्ष्य
प्राप्त
करेंगे
और
करेंगे
वह
सब
कुछ
जिसके
लिये
आपका
अवतरण
मां
वसुन्धरा
के
पवित्र
अंक
में
हुआ
है।