Books - हम बदलें तो दुनिया बदले
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Language: HINDI
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हमारा समाज असभ्य एवं अविवेकी न हो?
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असभ्य
समाज
में, अविवेकी
लोगों
में
रहने
वाला
कोई
श्रेष्ठ
व्यक्ति
भी
शान्ति
लाभ
नहीं
कर
सकता।
कोई
असाधारण
मनस्वी
उन्हें
सुधारने
में
अपनी
असाधारण
प्रतिभा
व्यय
करते
हुए
कुछ
अनुकूलता
तो
उत्पन्न
कर
सकता
है, और
ऐसा
भी
हो
सकता
है
कि
सर्पों
के
लिपटे
रहने
पर
भी
अप्रभावित
रहने
वाले
चन्दन
वृक्ष
की
तरह
अपनी
मानसिक
शान्ति
को
स्थिर
रख
सके।
पर
ऐसा
होता
कम
ही
है, कोई
विरले
ही
लोग
इस
उच्च
स्थिति
के
होते
हैं।
महात्मा
इमर्सन
जैसे
लोग
उंगलियों
पर
गिनने
लायक
ही
होते
हैं
जो
यह
दावा
कर
सकें
कि—‘‘मुझे
नरक
में
भेजदो, मैं
अपने
लिए
वहां
भी
स्वर्ग
बना
लूंगा।’’
बुरे
लोगों
के
बीच
रहते
हुए
सज्जनों
को
भी
कष्ट
ही
होता
है।
जहां
नर
बलि
चढ़ाने
की
प्रथा
है
उन
निर्दय, अविवेकी,
जंगली,
असभ्य
लोगों
की
बस्ती
में
रहने
वाले
भले
मानुस
को
भी
अपनी
सुरक्षा
कहां
अनुभव
होगी? बेचारा
डरता
ही
रहेगा
कि
किसी
दिन
मेरा
ही
नम्बर
न आ
जाय।
गन्दे
लोगों
के
मुहल्ले
में
रहने
वाले
सफाई
पसन्द
व्यक्ति
का
भी
कल्याण
कहां
है।
चारों
ओर
गन्दगी
सड़
रही
होगी
बदबू
उठ
रही
होगी
तो
अपने
एक
घर
की
सफाई
रखने
से
भी
क्या
काम
चलेगा।
दूसरों
के
द्वारा
उत्पन्न
की
हुई
गन्दगी
हवा
के
साथ
उड़
कर
उस
स्वच्छ
प्रकृति
मनुष्य
को
भी
प्रसन्न
न
रहने
देगी।
बाजार
में
हैजा
फैले
तो
स्वास्थ्य
के
नियमों
का
पालन
करने
वाले
भी
उसकी
चपेट
में
आते
हैं।
मुहल्ले
में
आग
लगे
तो
अपना
छप्पन
भी
उसकी
लपटों
में
आता
है।
एक
गांव
के
कुछ
लोग
साम्प्रदायिक
दंगा
करें
या
कोई
और
उपद्रव
करें
तो
सरकार
उसका
सामूहिक
जुर्माना
सारे
गांव
पर
करती
है
और
शान्ति-प्रिय
लोगों
को
भी
वह
दंड
चुकाना
होता
है।
तब
शान्ति
प्रिय
लोगों
को
भी
कानून
में
निर्दोष
नहीं
माना
जाता।
क्योंकि
किसी
व्यक्ति
का
इतना
ही
कर्तव्य
नहीं
है
कि
वह
शान्ति
के
साथ
सभ्यतापूर्वक
स्वयं
रहे
वरन्
यह
भी
उसका
कर्तव्य
है
कि
जो
दूसरे
उपद्रवकारी
हैं
उन्हें
समझावे
या
रोके, न
रुकते
हों
तो
प्रतिरोध
करें।
यदि
किसी
ने
अपने
तक
ही
शान्ति
को
सीमित
रखा
है, दूसरे
उपद्रवियों
को
नहीं
रोका
है
तो
यह
न
रोकना
भी
नागरिक
शास्त्र
के
अनुसार, मानवीय
कर्तव्य
शस्त्र
के
अनुसार, एक
अपराध
है
और
उस
अपराध
का
दण्ड
यदि
सामूहिक
जुर्माने
के
रूप
में
वसूल
किया
जाता
है
तो
उस
शान्तिप्रिय
व्यक्ति
की
यह
दलील
निकम्मी
मानी
जायगी
कि
मैं
क्या
करूं? मेरा
क्या
कसूर
है? कोई
मैंने
थोड़े
ही
अपराध
किया
है।
हमें
स्मरण
रखना
चाहिए
कि
स्वयं
अपराध
न
करना
ही
हमारी
निर्दोषिता
का
प्रमाण
नहीं
है।
अपराधों
और
बुराइयों
को
रोकना
भी
प्रत्येक
सभ्य
एवं
प्रबुद्ध
नागरिक
का
कर्तव्य
है।
यदि
किसी
की
आंखों
के
आगे
हत्या, लूट,
चोरी,
बलात्कार
आदि
नृशंस
कृत्य
होते
रहें
और
वह
मौन
पत्थर
की
तरह
चुपचाप
खड़े
देखते
रहें, कोई
प्रतिरोध
न
करें
तो
यह
निष्क्रियता
एवं
अकर्मण्यता
भी
कानूनन
अपराध
मानी
जायगी
और
न्यायाधीश
इस
जड़ता
के
लिए
भी
दण्ड
देगा।
इसे
कायरता
और
मानवीय
कर्तव्यों
की
उपेक्षा
माना
जायगा।
गांवों
में
जिनके
पास
बन्दूकें
रहती
हैं
उनका
यह
कर्तव्य
भी
हो
जाता
है
कि
यदि
गांव
में
दूसरों
के
जहां
डकैती
पड़े
तो
डाकुओं
से
मुकाबला
करने
के
लिए
उन
बन्दूकों
का
उपयोग
करें।
यदि
वे
बन्दूक
वाले
डरके
मारे
अपने
घरों
में
चुपचाप
जान
बचाये
बैठे
रहें
और
डकैती
बिना
प्रतिरोध
पड़ती
रहे
तो
इस
काण्ड
में
डकैतों
की
तरह
उन
डरपोक
बन्दूकधारियों
को
भी
अपराधी
माना
जायगा
और
सरकार
उनकी
बन्दूकें
जब्तकर
लेगी।
समाज
शास्त्र
के
अनुसार
प्रत्येक
सभ्य
नागरिक
का
यह
पवित्र
कर्तव्य
है
कि
बुराइयों
से
वह
स्वयं
बचे
और
दूसरों
को
बचावे।
अपराध
न तो
स्वयं
करे
और
न
करने
दे
जो
स्वयं
तो
पाप
नहीं
करता
पर
पापियों
का
प्रतिरोध
नहीं
करता
वह
एक
प्रकार
से
पाप
का
पोषण
ही
करता
है।
क्योंकि
जब
कोई
बाधा
देने
वाला
ही
न
होगा
तो
पाप
और
भी
तीव्र
गति
से
बढ़ेगा!
हम
सब
एक
नाव
में
बैठे
हैं
यदि
इन
बैठने
वालों
में
से
कोई
नाव
के
पेंदे
में
छेद
करे
या
उछलकूद
मचा
कर
नाव
को
डगमगाये
तो
बाकी
बैठने
वालों
का
कर्तव्य
है
कि
उसे
ऐसा
करने
से
रोकें।
यदि
न
रोका
जायगा
तो
नाव
का
डूबना
और
सब
लोगों
का
संकट
में
पड़ना
संभव
है।
यदि
उस
उपद्रवी
व्यक्ति
को
अन्य
लोग
नहीं
रोकते
हैं
तो
उन्हें
यह
कहने
का
अधिकार
नहीं
है
कि
क्या
करें, हमारा
क्या
कसूर
है, हमने
नाव
में
छेद
थोड़े
ही
किया
था।
छेद
करने
वाले
को
न
रोकना
भी
स्वयं
छेद
करने
के
समान
ही
घातक
है।
मनुष्य
समाज
परस्पर
इतनी
घनिष्ठता
से
जुड़ा
हुआ
है
कि
अपना
स्वयं
का
पाप
ही
नहीं, दूसरों
का
पाप
भी
दूसरों
को
भुगतना
पड़ता
है।
जयचन्द्र
और
मीरजाफर
की
गद्दारी
से
सारे
भारत
की
जनता
को
कितने
लम्बे
समय
की
गुलामी
की
यातनाएं
सहनी
पड़ीं।
हमारे
समाज
में
यदि
चारों
ओर
अज्ञान, अविवेक,
कुसंस्कार,
अन्धविश्वास,
अनैतिकता,
अशिष्टता
का
वातावरण
फैला
रहेगा
तो
उसका
प्रभाव
हमारे
अपने
ऊपर
न सही
तो
अपने
परिवार
के
अल्प
विकसित
लोगों
पर
अवश्य
पड़ेगा।
जिस
स्कूल
के
बच्चे
गन्दी
गालियां
देते
हैं
उसमें
पढ़ने
जाने
पर
हमारा
बच्चा
भी
गालियां
देना
सीखकर
आवेगा।
गन्दे
गीत, गन्दे
फिल्म, गंदे
प्रदर्शन,
गंदी
पुस्तकें,
गंदे
चित्र
कितने
असंख्य
अबोध
मस्तिष्कों
पर
अपना
प्रभाव
डालते
हैं
और
उन्हें
कितना
गंदा
बना
देते
हैं, इसे
हम
प्रत्यक्ष
अपनी
आंखों
से
देख
सकते
हैं।
दो
वेश्याएं
किसी
मुहल्ले
में
आकर
रहती
है
और
वे
सारे
मुहल्ले
में
शारीरिक
या
मानसिक
व्यभिचार
के
कीटाणु
फैला
देती
हैं।
शारीरिक
न
सही, मानसिक
व्याभिचार
तो
उस
मुहल्ले
के
अधिकांश
निवासियों
के
मस्तिष्क
में
घूमने
लगता
है।
यदि
मुहल्ले
वाले
उन
वेश्याओं
को
हटाने
का
प्रयत्न
न
करें
तो
उनके
अपने
नौजवान
लड़के
बर्बाद
हो
जावेंगे।
बुराई
की
उपेक्षा
करना
पर्याप्त
नहीं
है, पाप
की
ओर
से
आंखें
बन्द
किये
रहना
सज्जनता
की
निशानी
नहीं
है।
इससे
तो
अनाचार
की
आग
फैलेगी
और
उसकी
लपटों
से
हम
स्वयं
भी
अछूते
न रह
सकेंगे।
समाज
में
पनपने
वाली
दुष्प्रवृत्तियों
को
रोकना
केवल
सरकार
का
ही
काम
नहीं
है, वरन्
उसका
पूरा
उत्तरदायित्व
सभ्य
नागरिकों
पर
है।
प्रबुद्ध
और
मनस्वी
लोग
जिस
बुराई
के
विरुद्ध
आवाज
उठाते
हैं
वह
आज
नहीं
तो
कल
मिटकर
रहती
हैं।
अंग्रेजों
के
फौलादी
चंगुल
में
जकड़ी
हुई
भारत
की
स्वाधीनता
को
मुक्त
कराने
के
लिए—गुलामी
के
बंधन
तोड़ने
के
लिए
जब
प्रबुद्ध
लोगों
ने
आवाज
उठाई
तो
क्या
वह
आवाज
व्यर्थ
चली
गई? देर
लगी, कष्ट
आये
पर
वह
मोर्चा
सफल
ही
हुआ।
समाजगत
अनैतिकता,
अविवेक,
अन्धविश्वास
और
असभ्यता
इस
लिए
जीवित
है
कि
उनका
विरोध
करने
के
लिए।
वैसी
जोरदार
आवाजें
नहीं
उठतीं
जैसी
राजनैतिक
गुलामी
के
विरुद्ध
उठीं
थीं।
यदि
उसी
स्तर
का
प्रतिरोध
उत्पन्न
किया
जा
सके
तो
हमारी
सामाजिक
गंदगी
निश्चय
ही
दूर
हो
सकती
है, सभ्य
समाज
के
सभ्य
नागरिक
कहलाने
का
गौरव
हम
निश्चय
ही
प्राप्त
कर
सकते
हैं।
हम
अपनी
सामाजिक
कुरीतियों
पर
ध्यान
दें
तो
लगता
है
कि
लोहे
की
गरम
सलाखों
से
बनी
हुई
जंजीरों
की
तरह
वे
हमें
जकड़े
हुए
हैं
और
हर
घड़ी
हमारी
नस-नस
को
जलाती
रहती
हैं।
घर
में
तीन
चार
कन्याएं
जन्म
ले
लें
तो
माता
पिता
की
नींद
हराम
हो
जाती
है।
वे
जैसे-जैसे
बढ़ने
लगती
है
वैसे
ही
वैसे
अभिभावकों
का
खून
सूखता
चला
जाता
है।
विवाह-विवाह-विवाह—कन्या
का
विवाह
उनके
माता-पिता
के
यहां
डकैती, लूट,
बर्बादी
होने
के
समान
है।
आजकल
साधारण
नागरिकों
की
आमदनी
ही
मुश्किल
से
हो
पाती
है
कि
वे
अपना
पेट
पाल
सकें।
जितना
धन
दहेज
के
लिए
चाहिए
उतना
जमा
करना
तभी
संभव
है
जब
या
तो
कोई
आदमी
अपना
पेट
काटे, नंगा
रहे, दवा
दारू
के
बिना
भाग्य
भरोसे
बीमारी
से
निपटे, बच्चों
को
शिक्षा
न दे
या
फिर
कहीं
से
बेईमानी
करके
लावे।
इन
उपायों
के
अतिरिक्त
सामान्य
श्रेणी
के
नागरिक
के
लिए
उतना
धन
जमा
करना
कैसे
संभव
हो
सकता
है, जितने
की
कि
कन्या
के
विवाह
में
जरूरत
पड़ती
है—मांगा
जाता
है।
यह
संकट
कौन
कन्या
का
पिता
किस
पीड़ा
और
चिन्ता
के
साथ
पार
करता
है, इसके
पीछे
लम्बी
करुण
कहानी
छिपी
रहती
है।
कर्ज
का
ब्याज, भावी
जीवन
में
अंधेरा
शेष
बच्चों
की
शिक्षा
एवं
प्रगति
में
गतिरोध
जैसी
आपत्तियों
को
कन्या
का
विवाह
अपने
पिता
और
छोटे
भाई
बहिनों
के
लिए
छोड़
जाता
है।
विवाह
का
पत्थर
छाती
पर
से
हटा
तो
अर्थ
संकट
का
आरा
अपनी
काट
शुरू
कर
देता
है।
कई
कन्याएं
हैं
तब
तो
जीवित
ही
मृत्यु
है।
मृत्यु
एक
दिन
कष्ट
देकर
शांति
की
गोद
में
सुला
देती
है
पर
यह
जीवित
मृत्यु
तो
पग-पग
पर
काटती, नोंचती,
छेदती
और
चीरती
ही
रहती
है।
हमारे
हिन्दू
समाज
विवाह
शादी
के
अवसर
पर
जैसा
अन्धापन
और
बावलापन
छा
जाता
है
उसे
देखकर
हैरत
होती
है।
पृथ्वी
के
एक
कोने
से
लेकर
दूसरे
कोने
तक
घूम
जाइए
कोई
भी
देश, कोई
भी
धर्म, कोई
भी
समाज
ऐसा
न
मिलेगा
जहां
विवाह
शादियों
के
अवसर
पर
पैसे
की
ऐसी
होली
जलाई
जाती
हो
जैसी
हमारे
यहां
पर
जलाई
जाती
है।
बरात
की
निकासी,
आतिशबाजी,
बाजे,
नाच,
स्वांग,
दावत,
जाफत
देखकर
ऐसा
लगता
है
कि
यह
शादी
वाले
कोई
लखपती, करोड़पती
हैं
और
अपने
अनाप
शनाप
पैसे
का
कोई
उपयोग
न
देखकर
उसकी
होली
जला
देने
पर
उतर
आये
हैं।
जिन्हें
अपने
बच्चों
का
लालन-पालन
और
शिक्षण
दुर्लभ
है
वे
यदि
ऐसे
स्वांग
बनावें
जैसे
कि
विवाह
के
दिनों
में
आमतौर
से
बनाये
जाते
हैं
तो
उसे
समझदारी
की
कसौटी
पर
केवल
‘उन्माद’
ही
कहा
जा
सकता
है।
सारी
दुनिया
में
कहीं
भी
ऐसा
‘सत्यानाशी
विवाहोन्माद’
नहीं
देखा
जाता।
मामूली-सी
रस्म
की
तरह, एक
बहुत
छोटे
घरेलू
उत्सव
की
तरह
लोग
विवाह
शादी
कर
लेते
हैं।
भार
किसी
को
नहीं
पड़ती
तैयारी
किसी
को
नहीं
करनी
पड़ती।
पर
एक
यह
हैं
जिनके
जीवन
में
बच्चों
का
विवाह
ही
जीवन
भर
भारी
समस्या
बना
रहता
है
और
इसी
उलझन
को
सुलझाते-सुलझाते
मर
खप
जाते
हैं।
यह
एक
कुरीति
की
चर्चा
हुई।
ऐसी
अगणित
कुरीतियां
हमें
घेरे
हुए
हैं।
स्वास्थ्य
सुधर
के
लिए, शिक्षा
के
लिए, मनोरंजन
के
लिए, दूसरों
की
भलाई
के
लिए, आत्म
कल्याण
के
लिए
हम
कुछ
कर
नहीं
पाते।
आधे
से
अधिक
कमाई
उन
व्यर्थ
की
बातों
में
बर्बाद
हो
जाती
है
जिनका
कोई
प्रयोजन
नहीं, कोई
लाभ
नहीं, कोई
परिणाम
नहीं।
धर्म
के
नाम
पर
हमारे
मनों
में
जो
उच्चकोटि
की
भावनाएं
उठती
हैं।
दान
देने
की
जो
श्रद्धा
उत्पन्न
होती
है
उनका
लाभ
ज्ञान
और
धर्म
बढ़ाने
वाले, पीड़ित
पतितों
की
राहत
देने
वाले
कार्यों
की
वृद्धि
के
रूप
में
विकसित
होना
चाहिए
था
पर
होता
इससे
सर्वथा
विपरीत
है।
काल्पनिक
सब्जवाग
दिखाकर
संडे
मुसंडे
लाल-पीले
कपड़े
पहनकर
लोगों
को
ठगते
रहते
हैं।
भोले
लोग
समझते
हैं
धर्म
हो
गया, पुण्य
कमा
लिया, पर
वास्तविकता
ऐसी
कहां
होती
है।
धूर्त
लोगों
को
गुलछर्रे
उड़ाने
के
लिए
दिया
हुआ
धन
भला
धर्म
कैसे
हो
जायगा? पुण्य
कर्म
कैसे
माना
जायगा? जिसका
परिणाम
न तो
ज्ञान
की
सत्प्रवृत्तियों
की
अभिवृद्धि
हो
और
न
पीड़ितों
को
कोई
राहत
मिले, वह
कार्य
पाखंड
ही
रहेगा, धर्म
नहीं।
आज
धर्म
के
नाम
पर
पाखंड
का
बोलवाला
है
और
भोली
जनता
अपनी
गाढ़ी
कमाई
का
अरबों
रुपया
उसी
पाखंड
पर
स्वाहा
कर
देती
है।
पाखंडों
पर
खर्च
होने
वाला
समय
और
धन
यदि
उपयोगी
कार्यों
में
लगे
तो
उसका
कितना
बड़ा
सत्परिणाम
उत्पन्न
हो।
मृत्युभोज,
पशुबलि,
बालविवाह,
नीच-ऊंच,
स्याने,
दिवाने,
भूत
पलीत, कन्या
विक्रय,
स्त्रियों
द्वारा
गाये
जाने
वाले
गन्दे
गन्दे
गीत, पर्दा,
होली
में
कीचड़
उछालना, दिवाली
पर
जुआ
खेलना
आदि
अगणित
ऐसी
कुरीतियां
हमारे
समाज
में
प्रचलित
हैं, जिनके
कारण
अनेक
रोगों
से
ग्रसित
रोगी
की
तरह
हम
सामाजिक
दृष्टि
से
दिन-दिन
दुर्बल
होते
चले
जा
रहे
हैं।
ऊपर
धार्मिक
मान्यताओं
के
आधार
पर
प्रचलित
कुरीतियों
की
कुछ
चर्चा
की
गई
हैं।
राष्ट्रीय
दृष्टि
से
स्वार्थपरता,
व्यक्तिवाद,
असहयोग,
संकीर्णता
हमारा
एक
प्रमुख
दोष
हैं।
सारी
दुनिया
परस्पर
सहयोग
के
आधार
पर
आगे
बढ़
रही
है।
मनुष्य
सामाजिक
प्राणी
है, वह
परस्पर
सहयोग
के
आधार
पर
ही
बढ़ा, और
समुन्नत
हुआ
है।
जहां
प्रेम, ममता,
एकता,
आत्मीयता,
सहयोग
और
उदारता
है
वहीं
स्वर्ग
रहेगा।
समाजवाद
और
साम्यवाद
की
मान्यता
यही
है
कि
व्यक्ति
को
अपने
लिए
नहीं
समाज
के
लिए
जीवित
रहना
चाहिए।
सामूहिक
सुख-शान्ति
बढ़ाने
के
लिए
अपनी
समृद्धि
और
सुविधा
का
त्याग
करना
चाहिए।
धर्म
और
अध्यात्म
की
शिक्षा
भी
यही
है
कि
व्यक्ति
अपने
लिए
धन, वैभव
जमा
न
करके
अपनी
प्रतिभा,
बुद्धि,
क्षमता
और
सम्पदा
को
जीवन
निर्वाह
की
अनिवार्य
आवश्यकताओं
के
लिए
ही
उपयोग
करे
और
शेष
जो
कुछ
बचता
हो
सबको
सामूहिक
उत्थान
में
लगादे।
जिस
समाज
में
ऐसे
परमार्थी
लोग
होंगे
वही
फलेगा, फूलेगा
और
वही
सुखी
रहेगा।
जहां
स्वार्थपरता,
जमाखोरी
की
प्रवृत्ति
पनप
रही
होगी
वहां
अनैतिकता
के
सभी
कुकर्म
बढ़ेंगे
और
फैलेंगे।
सामान्य
नागरिकों
के
स्तर
से
अत्यधिक
ऊंचे
स्तर
का
सुखोपभोग
करने
की
प्रवृत्ति
जहां
भी
पनपेगी
वहीं
शोषण, अन्याय,
दुराचार,
द्वेष,
संघर्ष,
ईर्ष्या
आदि
बुराइयां
विकसित
होंगी।
प्राचीन
काल
में
जिनकी
प्रतिभा
अधिक
कमाने
की
होती
थी
वे
अपनी
राष्ट्रीय
स्तर
से
अधिक
उपलब्ध
धन
को
लोकहित
के
कार्यों
में
दान
कर
देते
थे।
जीवन
की
सार्थकता,
सेवा
कार्यों
में
लगी
हुई
शक्ति
के
आधार
पर
ही
आंकी
जाती
थी।
आज
जो
जितना
धनी
है
वह
उतना
बड़प्पन
पाता
है
यह
मूल्यांकन
गलत
है।
जितने
राष्ट्रीय
स्तर
से
जितना
अधिक
जमा
कर
रखा
है
वह
उतनी
ही
बड़ी
गलती
कर
रहा
है।
इस
गलती
को
प्रोत्साहित
नहीं, निरुत्साहित
किया
जाना
चाहिए, अन्यथा
हर
व्यक्ति
अधिक
धनी, अधिक
सुख
उत्पन्न, अधिक
विलासी
होने
की
इच्छा
करेगा।
इससे
संघर्ष
और
पाप
बढ़ेंगे।
सहयोग, प्रेम,
त्याग,
उदारता
और
परमार्थ
की
सत्प्रवृत्तियों
का
उन्मूलन
व्यक्तिगत
स्वार्थ
परता
ही
कर
रही
है।
इसे
हटाने
और
उदारता,
सहकारिता,
लोकहित,
परमार्थ
की
भावनाओं
को
पनपाने
के
लिए
हमें
शक्ति
पर
प्रयत्न
करना
होगा, तभी
हमारा
समाज
सभ्य
बनेगा
अन्यथा
शोषण
और
विद्रोह
की, जमाखोरी
और
चोरी
की, असभ्यता
फैलती
ही
रहेगी
और
मानव
जाति
का
दुख
बढ़ता
ही
रहेगा।
समाज
निष्ठा, व्यवहार
आत्म
गौरव
जैसे
सद्गुणों
का
नाम
ही
सभ्यता
है।
इसी
को
संस्कृति
या
भारतीय
संस्कृति
कहते
हैं।
भारतीय
संस्कृति
तो
निश्चित
रूप
से
यही
है।
इसी
के
आधार
पर
हम
प्राचीन
काल
में
महान
थे।
और
जब
कि
अपने
प्राचीन
अतीत
को
पुनः
वापिस
लाने
के
लिए, युग
निर्माण
के
लिए
हम
अग्रसर
हो
रहे
हैं
तो
हमें
व्यक्ति
और
समाज
में
उन्हीं
गुणों
को
आविर्भाव
एवं
विकास
करना
होगा।
पोशाक, वेश-भूषा,
शिक्षा,
धन, पद,
आदि
की
दृष्टि
से
हम
भले
ही
अपने
को
सभ्य
मानते
रहें
पर
यह
तो
विडम्बना
मात्र
है।
सच्ची
सभ्यता
मानवीय
गुणों
के
सामूहिक
विस्तार
पर
भी
निर्भर
रहती
है
और
उसी
के
आधार
पर
कोई
समाज
या
राष्ट्र
फलता-फूलता
है
और
तभी
उससे
संबंधित
नागरिकों
का
सच्चा
हित
साधन
होता
है।
सामाजिक
कुरीतियों
और
सामूहिक
दुष्प्रवृत्तियों
का
कायम
रहना
सज्जनों
के
लिए
भी
विपत्ति
का
कारण
ही
रहेगा।
व्यक्ति, कितनी
ही
उन्नति
करले
पतित
वातावरण
में
वह
उन्नति
भी
बालू
की
भीति
की
तरह
अस्थिर
रहेगी।
जैसे
हमें
जितनी
व्यक्तिगत
उन्नति
की
चिन्ता
है
उतनी
ही
सामाजिक
उन्नति
का
भी
ध्यान
रखना
होगा
और
उसके
लिए
हर
संभव
प्रयत्न
करना
होगा।
इस
दिशा
में
की
हुई
उपेक्षा
हमारे
अपने
लिये
ही
घातक
होगी।
अपने
समाज
के
सुधार
पर
ध्यान
देना
उतना
ही
आवश्यक
है
जितना
अपना
स्वास्थ्य
एवं
उपार्जन
की
समस्याओं
का
सुलझाना।
समाजगत
पापों
से
हम
निर्दोष
होते
हुए
भी
पापी
बनते
हैं।
भूकम्प
दुर्भिक्ष
युद्ध, महामारी
आदि
के
रूप
में
ईश्वर
भी
हमें
सामूहिक
दण्ड
दिया
करता
है
और
सचेत
करता
है
कि
हम
अपने
को
ही
नहीं
सारे
समाज
को
भी
सुधारें।
स्वयं
ही
सभ्य
न
बनें, सारे
समाज
को
भी
सभ्य
बनावें।