Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-
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Language: HINDI
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व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बनायें
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प्रारम्भ में मनुष्य एक अबोध शिशु के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। तब न उसमें अपना भला बुरा सोचने की क्षमता होती है और न किसी तथ्य को समझने, परिस्थितियों से लाभ उठाने या अपने गुण कर्म स्वभाव को परिष्कृत करने की शक्ति। मनुष्य की जीवन यात्रा किसी पाठशाला में भर्ती कराये गये छोटे से बालक की तरह ही आरम्भ होती है। उस समय उसे जो कुछ सिखा दिया जाय, समझा दिया जाय उसी के अनुरूप वह आगे बढ़ता रहता है। उस समय व्यक्तित्व की आधार शिला रखने का उत्तरदायित्व अभिभावकों का है। परन्तु जब कुछ सोचने समझने लायक स्थिति हो जाती है और व्यक्ति अपना भला बुरा देखने लगता है तब अपना व्यक्तित्व इस प्रकार गढ़ना आरम्भ कर देना चाहिए जिससे कि जीवन साधना के सफल साधक होने का गर्व और गौरव अनुभव किया जा सके। पहले बताया जा चुका है कि व्यक्ति का निजी जीवन सुसंस्कृत बनाना जीवन साधना का एक अंग है तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को सुघड़ता पूर्वक पूरा करना, समाज में अपना व्यवहार सम्बन्धों का स्तर स्थापित करना दूसरा अंग है। इन्हीं का नाम संस्कृति और सभ्यता है। भारतीय मनीषियों ने आरम्भ से ही जीवन साधना के इन दोनों पक्षों पर समुचित जोर दिया है और इसी आधार पर भव्य समाज की रूपरेखा तैयार की है। समूचा भारतीय वांग्मय जीवन साधना के इन दोनों पक्षों का विवेचन विश्लेषण करने के लिये ही तैयार किया गया है। जीवन साधना का स्वरूप समझने के लिए ही धर्म और अध्यात्म का समग्र कलेवर तैयार किया गया है। अध्यात्म अर्थात् अपने आपका विकास अपना निर्माण और आत्मोत्कर्ष। धर्म अर्थात् कर्तव्य निष्ठा, समाज सेवा, सामाजिकता, सद्व्यवहार सहयोग। नीति शास्त्र और समाज शास्त्र का उद्देश्य भी निजी व्यक्तित्व का उत्कर्ष तथा समाज का उत्थान है। व्यक्ति और समाज कोई भिन्न सत्तायें नहीं हैं। एक इकाई है तो दूसरा समुच्चय। व्यक्ति इकाई है और समाज व्यक्तियों का समूह। इसलिए समाज की स्थिति व्यक्तियों के स्तर पर निर्भर करती है। फिर भी व्यक्ति को स्वयं के प्रति और समाज के प्रति दूरदर्शिता के दृष्टिकोण से सोचना तथा जीवन साधना का स्वरूप निर्धारित करना पड़ेगा। व्यक्ति स्वयं के प्रति कितना सजग, सद्गुणी, संस्कारवान, तथा चरित्रनिष्ठ है यह जीवन साधना की पहली सीढ़ी या एक पक्ष है, जिसे संस्कृति कहा जा सकता है। जीवन साधना का दूसरा पक्ष समाज के प्रति व्यक्ति की रीति नीति से सम्बद्ध है, जिसमें सद्व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिकता, सहकार आदि प्रवृत्तियां आती हैं, इस रीति नीति का निर्धारण सभ्यता के अन्तर्गत आता है। व्यक्ति को सुसंस्कृत बनने के लिए अपने गुण, कर्म और स्वभाव के परिष्कार की प्रक्रिया पद्धति अपनानी चाहिए। कहा जा चुका है कि व्यक्ति जन्म तो निरे अबोध शिशु के रूप में लेता है। प्रारम्भ के कुछ वर्ष तक वह अपने अभिभावकों पर निर्भर रहता है। विचार क्षमता, विवेक और चेतना जागृत होते ही उसे अपने व्यक्तित्व निर्माण में लगना चाहिए। क्योंकि सुसंस्कृत व्यक्तित्व से ही परिस्थितियों का लाभ उठाया तथा जीवन को ऊंचा बनाया जा सकता है। असंस्कृत और फूहड़ व्यक्तित्व अनुकूल परिस्थितियों से भी लाभ नहीं उठा पाते जबकि संस्कृत व्यक्तित्व से प्रतिकूलताओं को भी सहायक बनाया जा सकता है और राह के पत्थर को भी सीढ़ी बनाकर ऊंचा उठाया जा सकता है। व्यक्तित्व का गठन गुण कर्म और स्वभाव से मिलकर बनता है। लम्बे समय तक अभ्यास में आते रहने पर गुण ही स्वभाव बन जाते हैं। और स्वभाव में आयी विशेषतायें ही गुण कहलाती हैं। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति ईमानदारी के गुण का अभ्यास शुरू करता है। विगत जीवन में अनीति उपार्जन करने के बाद भी ईमानदारी का महत्व समझ में आ जाय और उसे जीवन नीति बनाने की आकांक्षा उत्पन्न हो तो प्रारम्भ में उसका अभ्यास गुण की भांति ही करना पड़ता है। प्रलोभन के अवसर प्रस्तुत होने पर भी दृढ़ रहा जाय तथा लम्बे समय तक ईमानदारों को जीवन क्रम में शामिल रखा जाय तो एक स्थिति ऐसी आती है जब कि यह गुण अपने स्वभाव में सम्मिलित हो जाता है। स्वभाव में सम्मिलित होने के बाद उस अभ्यास को तोड़ना मुश्किल हो जाता है। गुणों के अभ्यास द्वारा स्वभाव का परिष्कार करने के साथ अपने व्यक्तित्व को सुगठित करने के लिए इच्छाओं भावनाओं और क्रियाओं को परिष्कृत करना आवश्यक है। कुशल माली जिस प्रकार बगीचे में लगाये गये पेड़ पौधों को काट-छांट कर एक सुन्दर स्वरूप प्रदान करता है उसी प्रकार जीवन साधक को अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू सजाने संवारने और परिष्कृत करने चाहिए। मनुष्य स्थूल शरीर तक सीमित नहीं है उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का तथ्य सर्व विदित है। इस आधार पर व्यक्तित्व को भी तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। स्थूल शरीर अर्थात् कर्म, सूक्ष्म शरीर अर्थात् विचार और कारण शरीर अर्थात् भावनायें-आकांक्षायें। जीवन साधक को अपने तीनों शरीरों की गतिविधियों क्रियाओं, विचारणाओं, एवं आकांक्षाओं का परिष्कार सतत करते रहना ही चाहिए, ताकि सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सके। क्रिया पद्धति में सुघड़ता लायें—मनुष्य की गतिविधियों में उसके आन्तरिक स्तर की झांकी मिलती है। कार्य की प्रखरता प्रामाणिकता तथा प्रभावशालीता पर भी चिन्तन का—कर्ता के दृष्टिकोण का भारी प्रभाव पड़ता है। बाहर से एक जैसे दिखने वाले कार्यों की उपलब्धियों में भारी अन्तर हो सकता है चाहे वह लोक व्यवहार के सन्दर्भ में किया गया बर्ताव हो अथवा आजीविका उपार्जन के लिए किया जाने वाला व्यवसाय हो, उन सभी पर यह बात लागू होती है। जीवन साधना के साधक को क्रिया का स्थूल ही नहीं सूक्ष्म पक्ष भी देखना-सम्भालना पड़ता है। कल्पना करें एक मन्दिर बन रहा है, उसमें कई मजदूर कार्य कर रहे हैं। उनमें से एक आलसी प्रकृति का व्यक्ति मजबूरी में पेट भरने के लिए कार्य कर रहा है दूसरा सज्जनोचित जीवन जीने के लिए आजीविका उपार्जन कर रहा। और तीसरा देव मन्दिर को कल्याणकारी कार्य मानकर उसमें आ लगा है। स्थूल दृष्टि से तो तीनों ही कार्य कर रहे हैं और पारिश्रमिक भी पा रहे हैं। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से उनकी उपलब्धियों में जमीन आसमान का अन्तर होगा। पहला व्यक्ति कार्य में उपेक्षा बरतेगा तथा मानसिक असन्तोष तनाव की स्थिति में रहेगा। दूसरा व्यक्ति सहज भाव से मेहनत करता हुआ लौकिक सन्तोष प्राप्त करेगा। तीसरे व्यक्ति के साथ एक हितकारी, श्रेष्ठ कार्य में सहयोग के नाते गौरव की पुण्य भावना की आनन्दानुभूति भी जुड़ी रहेगी। कार्य के प्रति अपना दृष्टिकोण कैसा है उसे हम कितना महत्व देते हैं, इसी आधार पर कार्य करते समय वाली बोझिलता अथवा प्रसन्नता अनुभव की जा सकती है। अतः जीवन साधक को प्रत्येक कार्य बोझ मानकर नहीं जिम्मेदारी समझकर और ऊंचा दृष्टिकोण रखते हुए करने का अभ्यास बनाना चाहिए। यदि कार्य को पूजा समझा जाय तो तुलाधार वैश्य की तरह दुकानदारी करते हुए भी ईश्वरीय अनुग्रह और उसके सान्निध्य की अनुभूति की जा सकती है। तथा पूजा को भी उपेक्षित और अनमने ढंग से किया जाये तो उसका स्तर अनचाहे बोझ की तरह हो जाता है, जिसे पेट भरने की मजबूरी के लिए करना पड़ रहा है। वह भी एक व्यवसाय से अधिक महत्व नहीं रखता। उत्तरदायित्व ही नहीं पूजा समझ कर कार्य करने की शैली और उसे जिम्मेदारी तथा मनोयोग के साथ सम्पन्न करने की रीति-नीति अपने आन्तरिक स्तर को ही नहीं ऊंचा उठाती वरन् कार्य के स्थूल परिणामों को भी अधिक प्रभावशाली बना देती है। स्पष्ट है कि किसी काम को आधे अधूरे मन से किया जाय तो उसके परिणाम भी आधे अधूरे ही निकलेंगे। पढ़ते समय विद्यार्थी विद्याध्ययन को अपना पवित्र कर्तव्य समझते हैं तो अध्ययन का लाभ कुछ और ही ढंग का होगा। परीक्षा पास करने के लिए पढ़ने वाले छात्र परीक्षा पास भले ही कर लें पर कर्तव्य भावना से अध्ययन करने वाले विद्यार्थी की तरह अपने विषय में पारंगतता नहीं पा सकते। इसके विपरीत अभिभावकों के भय से या दूसरे दबावों से विवश होकर पढ़ने वाले छात्रों का परीक्षा में पास होना भी संदिग्ध बना रहता है। तीनों तरह के विद्यार्थी पढ़ते हैं परन्तु कर्तव्य भावना, व पास भर होना और बाहरी दबावों की बला भर टालना तीन भिन्न परिणाम प्रस्तुत करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें कोई कम ज्यादा श्रम करना पड़ रहा हो। श्रम तीनों को लगभग बराबर करना पड़ता है किन्तु पहले विद्यार्थी का श्रम प्रफुल्लता प्रदान करता है, दूसरे विद्यार्थी को श्रम थका डालता है और तीसरे में ऊब पैदा कर देता है। हमें अपने श्रम को थकाने या ऊबाने वाला नहीं प्रफुल्लता प्रदान करने वाला बनाना चाहिए। यह उपलब्धि कार्य में डूब जाने, उत्तरदायित्व अनुभव करने और कार्य को पूजा समझकर करने से ही प्राप्त हो सकती है। ये विशेषतायें केवल कहने भर से नहीं आतीं। लाख कहा जाय कि हम कार्य को पूजा समझ कर कर रहे हैं परन्तु काम करने का ढंग वस्तुस्थिति को उघाड़े बिना नहीं रहता। यदि कार्य के प्रति पूजा की निष्ठा विकसित की गई तो सुनिश्चित रूप से वह निष्ठा क्रिया पद्धति में तन्मयता, उत्साह, तत्परता और मनोयोग के रूप में परिलक्षित होगी। प्रगाढ़ निष्ठायें नैष्ठिक व्यक्ति के क्रिया कलापों में उपरोक्त विशेषतायें सुनिश्चित रूप से लाती ही हैं। माता का अपने पुत्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होता है, उस प्रेम वात्सल्य की वह प्रगाढ़ता ही बच्चे के पालन पोषण और देखभाल में उत्साह तन्मयता तथा तत्परता का इस कदर समावेश ला देती है कि कहा नहीं जा सकता। भक्त की भगवान के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा उसकी पूजा अर्चा और सेवा साधना में उसी स्तर के अनुरूप तन्मयता तल्लीनता ला देती है। काम के प्रति पूजा निष्ठा का विकास किया जाय तो उसका परिचय कहने, स्वीकार करने से नहीं काम करते समय उसमें तल्लीन हो जाने, पूरी शक्ति से कार्य में लगने से मिलता है। कर्मयोग इसी का नाम है। कार्य को जिम्मेदारी के साथ ईश्वर की पूजा समझ कर करने की कर्म साधना किसी भी योग साधना से कम सत्परिणाम देने वाली नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि इस ढंग से काम करने पर कोई घाटा उठाना पड़ता हो या किसी तरह की हानि होती हो। प्रत्युत इस पद्धति से किये गये कार्य अन्य तरीकों से किये जाने वाले कार्यों की अपेक्षा अधिक ही प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। मनोयोग, लगन और तत्परता से कार्य करने वालों को हर कोई पसन्द करता और हाथों हाथ लेता है। जबकि जी चुराकर, आधे मन से काम करने वालों को उपेक्षित ही रहना पड़ता है। वे किसी के अधीन काम करते भी हैं तो उनके कार्य की गति और अनुत्साह को देखकर लोग उनसे शीघ्र पिण्ड छुड़ाने की बात सोचने लगते हैं। जबकि तत्परता के साथ जिम्मेदारी समझकर कार्य करने वालों को सम्मान और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है और उनके आत्म सन्तोष की यह अनुभूति कार्यों के परिणाम को ही नहीं स्वयं कार्य को भी आनन्दप्रद बना देती है। व्यावहारिक जीवन में कर्मयोग को बड़ी आसानी से उतारा जा सकता है। जो कर्म करते समय भी आनन्द दे और परिणाम में भी सुखद हो—वही शैली कर्मयोग की साधना है। इस पद्धति को अपनाने में बाधक केवल दो ही तत्व हैं—आलस्य और प्रमाद। कार्य करते समय शरीर का शिथिल होना, पर्याप्त परिश्रम न करना आलस्य है और उसमें मानसिक तत्परता का उपयोग न करना प्रमाद है। आलस्य को शारीरिक कहा जाय तो प्रमाद को मानसिक कमजोरी कहा जा सकता है। शरीर आलसी बनता है तो मन प्रमादग्रस्त रहता है। इन दोनों अवरोधक तत्वों को श्रमशीलता और जागरूकता के अभ्यास द्वारा दूर करना चाहिए। किसी कार्य में लगते समय मन को आग्रह पूर्वक उसी कार्य में लगाये रहकर तथा मुस्तैदी से कार्यरत रहकर आलस्य प्रमाद को मिटाया जा सकता है। सही बात तो यह है कि इसके लिए कर्म के प्रति प्रखर रूप से निष्ठा ही विकसित की जानी चाहिए। कर्मनिष्ठ व्यक्तियों के जीवन में आलस्य और प्रमाद का अभाव ही रहता है। बहुत बार चाहने पर भी अभीष्ट कार्य में पर्याप्त समय और आवश्यक श्रम नहीं लगाया जा सकता। अलस्य भी नहीं आता, प्रमाद भी नहीं है फिर भी समय का अभाव किसी कार्य को भली भांति सम्पन्न करने के लिए अड़चन पैदा करता है। वहां देखना चाहिए कि समय का अभाव इसलिए तो नहीं है कि हम अन्य व्यर्थ के कार्यों में समय नष्ट कर रहे हैं। सम्पदायें और विभूतियां भले ही किसी को कम ज्यादा मिली हों पर समय एक ऐसी सम्पदा है जो सबको समान रूप से मिली है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए दिन और रात में चौबीस घण्टे हैं। किसी को कम या ज्यादा नहीं। विचार किया जाना चाहिए कि दूसरे व्यक्ति इसी समय में अपने आवश्यक कार्य निपटाते हुए अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी कर लेते हैं तो क्या कारण है कि हम अपने आवश्यक कार्य ही पूरे नहीं कर पाते। इस दृष्टि से अपनी दिनचर्या का अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जायेगा कि हमारा कितना समय उपयोगी कार्यों में लगता है तथा कितना व्यर्थ के कामों में खर्च होता है। अधिकांश व्यक्ति अस्त-व्यस्त दिनचर्या होने के कारण ही अपनी समय सम्पदा का सदुपयोग नहीं कर पाते। जबकि सफल व्यक्ति समय के महत्व को जानते और एक-एक क्षण का सदुपयोग करने के लिए जागरूक रहते हैं। जीवन साधक को भी अपनी दिनचर्या व्यवस्थित रखनी चाहिए तथा मिनट-मिनट के उपयोग द्वारा कार्य सम्पादन और योग्यता अभिवृद्धि करनी चाहिए। अस्त व्यस्त दिनचर्या की भांति कार्यों की अस्त-व्यस्तता भी व्यक्ति को पंगु और असफल बना देती है किसी काम का विचार उठा, प्रारम्भ तो बड़े उत्साह पूर्वक किया लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह ठण्डा पड़ गया और काम को बीच में ही छोड़ दिया। इस प्रकार एक कार्य पूरा नहीं हो पाता कि दूसरा आरम्भ हो जाता है। दूसरा पूरा होने से पूर्व ही तीसरा आरम्भ हो जाता है। काम पूरा होने से पहले दूसरा काम हाथ में लेने और उसे शुरू कर देने की पद्धति व्यक्ति को कहीं भी नहीं पहुंचाती। जीवन साधक जो भी काम आरम्भ करें उसे पूर्णता तक पहुंचाने के बाद ही कोई नया काम हाथ में लें, तभी किसी अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। काम को पूर्णता तक पहुंचाने के साथ-साथ उसे कलात्मक ढंग से करना भी जीवन साधना का एक अंग है। फूहड़ता या बेढंगेपन से किये गये कार्य अपना उद्देश्य भी पूरा नहीं करते और दूसरों को भी उन्हें देखकर अप्रसन्नता ही होती है। उदाहरण के लिए घर की सफाई को ही लें। यदि यों ही कहीं झाड़ू लगाई, कहीं नहीं लगायी, जो चीज जहां रखी थी वो वहीं पड़ी रहने दी उपयुक्त स्थान पर नहीं रखी तब सफाई का उद्देश्य तो पूरा नहीं होता, जो देखता है उसके मन में भी सफाई करने वाले की फूहड़ता बुरा प्रभाव डालती है। इसलिए कोई भी कार्य करते समय कलापक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए। कार्य को सुव्यवस्थित ढंग से करना चाहिए। अपने कार्यों में समय तथा श्रम के उपयोग में ये विशेषतायें अभ्यास और पैनी दृष्टि रखने से होती हैं। प्रत्येक कार्य को करते समय अपना यह माप सामने रखना चाहिए कि—कार्य एक पूजा है जिसके द्वारा हम जीवन देवता की आराधना करते हैं। समय और श्रम जीवन देवता की सौंपी हुई अमूल्य अमानतें हैं, आलस्य और प्रमाद के कारण उन्हें बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।