Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-
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Language: HINDI
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समाज निष्ठा का विकास करें
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अपने आभ्यंतरिक जीवन को परिष्कृत कर गुण,कर्म, स्वभाव में सतत्वों को प्रतिष्ठित करने की क्रिया पद्धति का नाम संस्कृति साधना है। जीवन साधना का यह क्रम अपनाते हुए व्यक्ति को समाज के प्रति अपने दायित्वों, कर्तव्यों तथा निजी व्यक्तित्व के स्तर को भी साधना—संवारना चाहिए। व्यक्ति न तो अकेला रह सकता है और न उसका स्वतन्त्र कोई व्यक्तित्व ही हो सकता है। समाज में रहना और समाज में रहकर अपना तथा समाज का विकास करना ही उसकी नियति है और समाज में रहते हुए ही उसका व्यक्तित्व गठित हो पाना सम्भव है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति कितना ही महान हो, प्रतिभाशाली और विद्वान हो किन्तु वह समाज से अलग दूर कहीं एकान्त वन प्रान्तर में रहे जहां कोई और न रहता हो तो न उसकी महानता का कोई लाभ समाज को मिल पायेगा तथा न उसकी प्रतिभा का ही कोई उपयोग हो सकेगा। व्यक्ति को अपने गौरव, स्तर, तथा स्वरूप और विशेषताओं का ज्ञान भी समाज में रहकर ही होता है। क्यों कि दूसरों की स्थिति और स्तर देखकर ही अपनी विशेषताओं या कमियों का परिचय मिलता है। जब तक हम किसी के सम्पर्क में नहीं आते तब तक अपनी वस्तुस्थिति का पता नहीं चलता क्योंकि मनुष्य की आन्तरिक विशेषतायें उसके सम्पर्क और व्यवहार से ही प्रकट होती है। आन्तरिक दृष्टि से ईमानदारी के प्रति कितनी ही निष्ठा हो, जब तक किसी के व्यवहार या सम्पर्क में वह दिखाई न देगी तब तक उस निष्ठा की परिपक्वता और दृढ़ता का कैसे पता चलेगा? इसलिए यह भी आवश्यक है कि अपने व्यक्तित्व में आदर्शों के प्रति निष्ठायें जगाने के साथ लोक व्यवहार में भी उनका समावेश किया जाय। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह, नागरिकता के नियमों का पालन और दूसरों के साथ सद्व्यवहार, शिष्टाचार, इसी लोक व्यवहार—धर्म में आ जाते हैं। इन्हें सभ्यता कहा जा सकता है। समाज निष्ठा, कर्तव्य पालन, शिष्ट आचरण, सद्व्यवहार जो भी कहें व्यक्ति जब तक इन नीति नियमों का अपने जीवन क्रम में समावेश नहीं करता जीवन साधना एकांगी ही बनी रहती है। स्व का विकास करें— मनुष्य और पशु में मुख्य अन्तर यही है कि मनुष्य—समाज बनाकर सहयोग एवं सहकारिता के आधार पर बढ़ता है तथा पशु एकाकी ही अपना जीवन बिता देते हैं। वे अपनी आवश्यकतायें भी अपने अपने ढंग से पूरा कर लेते हैं। अपवाद स्वरूप पशु भी कहीं-कहीं समूह बनाकर रहते हैं और अपने शत्रुओं का सामूहिक रूप से मुकाबला करते हैं। लेकिन उस समूह को समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती जबकि सामाजिकता मनुष्य के स्वभाव का अंग है। मनुष्य का समाज बनाकर रहना पूर्णतः स्वाभाविक और प्रकृति प्रदत्त नियति है। उदाहरण के लिए अन्य प्राणियों की सन्तानें जन्म लेने के बाद शीघ्र ही अपने माता पिता से अलग हो जाती हैं, कई पशुओं के बच्चे तो जन्म लेने के बाद एकदम चलने फिरने और खाने-पीने लगते हैं। कुछेक महीनों में ही वे अपने भोजन की व्यवस्था भी स्वयं करने लगते हैं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसकी सन्तान अपनी आयु का दसवां भाग चलना फिरना, बोलना और स्वयं खाना-पीना सीखने में ही बिता देती है। स्वावलम्बी बनने की स्थिति तो प्रायः सभी बच्चों की लगभग 20 वर्ष की आयु में ही आ पाती है। इसके लिए भी अभिभावकों को अपने बच्चों को प्रशिक्षण देना पड़ता है। पशु-पक्षियों में परस्पर प्रेम पूर्ण भावनाओं-सम्बन्धों का अभाव इसीलिए रहता है कि उनके बच्चे जल्द स्वावलम्बी होने के कारण अपना जन्म सम्बन्ध भूल जाते हैं। मनुष्यों में परस्पर प्रेम सम्बन्ध बना रहने का एक मुख्य कारण यह है कि वह जन्म के बाद भी काफी समय अपने अभिभावकों पर निर्भर रहता है। अधिक गम्भीरता से देखा जाय तो मनुष्य की निर्भरता वयस्क होने तक ही समाप्त नहीं हो जातीं वरन उसे जीवन भर कई विषयों में समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। स्वयं का परिश्रम और पुरुषार्थ तो विकास के लिए आवश्यक हो ही जाता है लेकिन समाज न हो तो उसके वैसे परिणाम नहीं निकल सकेंगे जैसे कि समाज का अस्तित्व होने पर दिखाई देते हैं। परिवार की भावना—कुटुम्ब व्यवस्था ने ही विकसित होते होते समाज का स्वरूप धारण किया। परिवार के सदस्य परस्पर सहयोग और दायित्व बोध के आधार पर ही एक दूसरे की आवश्यकतायें पूर्ण करते हैं, स्वयं अपना विकास करते हैं। इसी पद्धति या व्यवस्था का विकसित स्वरूप समाज के रूप में सामने आता है। आज के युग में हम समाज को जिस उन्नत रूप में देख रहे हैं वह सहयोग और दायित्व बोध की प्रेरणाओं के फलस्वरूप ही है। यदि व्यक्ति अपने लिए ही परिश्रम करता है तो उसके सामने आदिम युग के स्तर पर ही सन्तोष कर लेने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। स्वयं के प्रयत्नों से—अन्य किसी का सहयोग न लेते हुए पशु-पक्षी दिन भर खोजने के बाद उदर पोषण की व्यवस्था कर पाते हैं। थोड़े से समय में भी कर लेते हैं तो शेष समय बिना किसी उपयोग के ही रह जाता है। आदिम युग का मानव भी तो यही करता था। लेकिन जैसे-जैसे उसमें बौद्धिक चेतना का विकास होता गया सामूहिकता और सामाजिकता की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी आवश्यकता को पूरा करते हुए अपने युग के युग पुरुषों ने सामाजिक लक्ष्य को सामने रखकर काम किया और उसी के परिणाम स्वरूप समाज इस उन्नत अवस्था में पहुंच सका। क्या यह मानना सही हो सकता है कि जिसने वाष्प शक्ति का उपयोग कर रेलगाड़ी की कल्पना की होगी वह अपने लिए ही रेलगाड़ी बनाना चाह रहा होगा? क्या यह सोचना ठीक हो सकता है कि प्रेस का आविष्कार करने वाले व्यक्तियों ने स्वयं के लिए पढ़ने के वास्ते ही प्रेस का निर्माण किया होगा? बड़े-बड़े आविष्कारों से लेकर छोटे-छोटे प्रयासों तक का उद्देश्य मात्र व्यक्तिगत लाभ कदापि नहीं रह सकता। कहीं व्यक्तिगत लाभ की भावना हो सकती है परन्तु वहां भी लाभ उठाने का उद्देश्य दूसरों को पहले लाभ पहुंचाने के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। हम जिन साधनों का उपयोग कर रहे हैं उसके लिए अनिवार्य रूप से उनके निर्माताओं और आविष्कर्ताओं के ऋणी हैं। यह ठीक है कि साधनों का उपयोग उनका मूल्य चुका कर दिया जाता है परन्तु अपने चिन्तन को यहीं तक सीमित रखना मानवीय आदर्शों के विरुद्ध है। मनुष्यता का अस्तित्व सहयोग के आधार पर टिका हुआ है और उससे भी ज्यादा विशुद्ध परमार्थ भावनाओं पर टिका हुआ है। क्योंकि जिन महापुरुषों ने भी समाज के लिए उपयोगी अनुदान दे जाने का लक्ष्य अपने सामने रखा उन्होंने अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं पर बहुत थोड़ा सा ध्यान दिया अथवा उस ओर से उदासीन ही रहे। लेकिन सामान्य व्यक्ति अपने लाभ—अपने हित और अपने स्वार्थ को ही प्रधानता देते हुए सामाजिक हितों का जरा भी ध्यान नहीं रखते। इसी का नाम असामाजिकता है। स्मरण रखा जाना चाहिए स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, पद, मनोरंजन की जो भी सुविधायें हमें उपलब्ध हैं उसके लिए हम समाज के ऋणी हैं। उस ऋण से उऋण होने के लिए प्रयत्नशील रहना ही चाहिए। समाज का सहयोग यदि न मिला होता तो एकांगी रहकर इन विभूतियों को प्राप्त कर सकना कदापि सम्भव नहीं होता। इस दशा में प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि दूसरों ने—समाज ने उसके विकास में जो सहयोग दिया है उसका बदला चुकाने के लिए समाज निष्ठा का विकास करें। यह आकांक्षा रखना और इस बात के लिए प्रयत्नशील रहना कि जहां से, जैसे भी, जितना कुछ प्राप्त किया जा सके उतना प्राप्त कर लें और उसका उपयोग स्वयं करें अथवा अपने कुटुम्बियों को करने दें। इस रीति का नाम ही संकीर्णता है। क्योंकि उसके लिए अच्छे बुरे सभी तरीके अपनाने पड़ते हैं और नैतिक पतन, चरित्र भ्रष्टता जैसी बुराइयां उत्पन्न होती हैं। आत्यंतिक स्वार्थ परता के कारण ही धूर्तता, मक्कारी और भ्रष्टाचारी, दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती हैं तथा अपराधी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है। निरन्तर स्वार्थ साधन के लिए उचित-अनुचित उपाय करते रहने से दूषित संस्कारों के रूप में उसके मनो-दर्पण पर ढेरों मैल इकट्ठा हो जाता है जिससे वह अन्दर ही अन्दर अशान्त और दुःखी रहता है। स्वार्थ और लालच की संकीर्णताओं में रहते हुए यदि अमीरी और सम्पन्नता प्राप्त कर भी ली जाती है, तो हित की जगह अहितकर ही सिद्ध होती है। उससे व्यक्तिगत जीवन में अशान्ति और सामाजिक जीवन में अस्तव्यस्तता के दुष्परिणाम ही पनपते देखे जाते हैं। अतएव आवश्यक है कि स्वार्थ और संकीर्णता के दायरे से बाहर निकला जाय। अपने साथ रहने वाले स्वजनों के प्रति कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए समाज के प्रति भी कौटुम्बिकता की भावना जगायी जाय। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’— हमारे मनीषियों ने व्यक्तित्व के विकास का रहस्य समझाते हुए यही उद्घोष किया था कि सम्पूर्ण वसुधा ही हमारा परिवार है। यदि संसार को एक कुटुम्ब के रूप में देखा जा सके, सभी व्यक्तियों से पारिवारिक स्नेह के सम्बन्ध विकसित किये जा सकें, तो व्यक्तिगत जीवन में जो प्रफुल्लता, आत्म संतोष, आनन्द, और शान्ति की अनुभूति होगी वह अन्य किसी माध्यम से सम्भव नहीं है। अपने हित की साधना का भाव तो पशु-पक्षियों तक में पाया जाता है। अतः इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं हो सकती कि मनुष्य सम्पूर्ण जीवन केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ण प्रवंचनाओं में बिता दे। इससे अन्त तक मानवीय शक्तियां प्रसुप्त बनी रहती हैं। प्रेम और आत्मीयता की भावनाओं का परिष्कार नहीं हो पाता। स्वार्थपरता एवं संकीर्णता के कारण मनुष्य का जीवन कितना दुःखमय, कितना कठोर हो सकता है, यह सर्वविदित है। सामान्यतः हम लोग एक ही माता-पिता से उत्पन्न सन्तान को परस्पर भाई बहिन समझते हैं। लौकिक दृष्टि से यह सही भी है क्योंकि इसी आधार पर कर्तव्य विभाजन और उनका क्षेत्र निर्धारण सुविधा पूर्वक किया जा सकता है। किन्तु भावनात्मक दृष्टि से इतने से ही सन्तोष नहीं मिलता। तब हमें यह मानकर चलना पड़ता है कि एक परमात्मा से ही जीवात्मा उत्पन्न और उसी से सम्बद्ध है, वही हमारा माता-पिता सर्वस्व है। इस आधार पर संसार के सभी जीवधारियों को अपने से भिन्न नहीं कह सकते। एक पिता जिस तरह अपने बच्चों को प्रगाढ़ स्नेह और प्रेम के सूत्र में बंधा देखना चाहता है वैसी ही सदिच्छा परमात्मा को भी हमसे हो सकती है। इस सत्य से ही एकता की वृद्धि होती है। समाज की पूर्ण विकसित रचना के उद्देश्य से महापुरुष सदैव इस बात पर जोर देते रहे हैं कि मनुष्य अपने आपको विश्व समाज का सदस्य माने। आज भी यह आवश्यकता ज्यों की त्यों विद्यमान है। समाज के ऋणी होने और सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाने की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी अभ्यास न होने के कारण लोग सामाजिक गुणों का विकास नहीं कर पाते। इसका पहला कारण यह है कि व्यक्ति प्रारम्भ से ही अपने स्वार्थ को प्रधानता देने की शिक्षा पाता है अथवा सामाजिक गुणों के विकास की—शिक्षण की कोई व्यवस्था न होने पर अनायास ही स्वार्थ को प्रधानता देने लगता है। सामाजिक हितों को बलि चढ़ा कर अपने स्वार्थ को पूरा करने की दुष्प्रवृत्ति इसी कारण उत्पन्न होती और बढ़ती है कि उस दिशा में प्रेरित होने का कोई आधार ही नहीं है। जो भी हो, व्यक्तित्व की सुघड़ता और मनुष्य का गौरव तभी चरितार्थ हो पाता है जबकि व्यक्तिगत हितों के साथ-साथ सामाजिक हितों को पूरा करने का भी ध्यान रखा जाय। सामान्य दृष्टि से विचार करने पर सामाजिकता का अर्थ समाज के हितों का भी ध्यान रखना ही प्रतीत होता है। लेकिन सामाजिकता का अर्थ इतना मात्र ही नहीं है। समाज हित के लिए एकाकी प्रयास भी किये जा सकते हैं। प्राचीन काल में ऋषि महर्षि अपना सारा जीवन ही घने जंगलों में बिता देते थे। और समाज का स्तर किस प्रकार ऊंचा उठे इसके लिए विचार करते और योजनायें बनाया करते थे। समाज को ऊंचा उठाने के लिए अपना जीवन ही होम देने के आदर्श स्तुत्य हैं किन्तु क ख ग से आरम्भ करने वाले जीवन साधक के लिए अचानक उस स्थिति की कल्पना करना अव्यावहारिक ही होगा। इसका अर्थ समाज के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वालों का गौरव घटाना नहीं हैं। कहा इतना भर जा रहा है कि हमें आरम्भ सामाजिक बनने से करना चाहिए। जिसमें समाज के हितों को ध्यान में रखने से लेकर समाज में रहने और समाज के अन्य सदस्यों से तालमेल बिठाने के विभिन्न साधना पक्ष हैं। स्वयं क्रिया कुशल और सक्षम होने के बावजूद भी कितने ही व्यक्ति अन्य औरों से तालमेल न बिठा पाने के कारण अपनी प्रतिभा का लाभ समाज को नहीं दे पाते। उदाहरण के लिए फुटबाल का कोई खिलाड़ी अपने खेल में इतना पारंगत है कि वह घण्टों गेंद को जमीन पर न गिरने दे परंतु यह भी हो सकता है कि टीम के साथ खेलने पर अन्य खिलाड़ियों से तालमेल न बिठा पाने के कारण वह साधारण स्तर का भी न खेल सके। समाज में रहकर अन्य लोगों से तालमेल बिठाने तथा अपनी क्षमता योग्यता का लाभ समाज को देने की स्थिति भी सामाजिकता से ही प्राप्त हो सकती है। बहुधा यह भी होता है कि कई व्यक्ति अकेले तो कोई जिम्मेदारी आसानी से निभा लेते हैं किन्तु उनके साथ दो चार व्यक्तियों को और जोड़ दिया जाय तथा कोई बड़ा काम सौंप दिया तो वे जिम्मेदारी से कतराने लगते हैं। बहुधा ही नहीं प्रायः ऐसा ही होता है। कुछ व्यक्तियों को यदि किसी कार्य की जिम्मेदारी सौंप दी जाय तो हर व्यक्ति यह सोचकर अपने दायित्व से उपराम होने की सोचने लगता है कि दूसरे लोग इसे पूरा कर लेंगे। बौद्ध साहित्य में सामूहिक जिम्मेदारी के अभाव का एक अच्छा प्रसंग आता है। किसी प्रदेश के राजा ने कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए राजधानी के निवासियों को निर्देश दिया कि सभी लोग मिल कर नगर के बाहर तैयार किये गये हौज में एक एक लोटा दूध डालें। हौज को ढक दिया गया था और सभी पुरवासियों द्वारा निर्देश उपचार सम्पन्न कर लेने के बाद हौज उघाड़ना निश्चित किया गया। जब सभी नागरिक निवृत्त हो चुके और हौज का ढक्कन हटाया गया तो पता चला कि हौज दूध से भरने के स्थान पर पानी से भरा है। कारण का पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति ने यह सोचकर दूध के स्थान पर पानी डाला था कि केवल मैं ही तो पानी डाल रहा हूं अन्य और लोग तो दूध ही डाल रहे हैं। सामूहिक उत्तरदायित्वों के प्रति अवहेलना या उपेक्षा का भाव मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है। इसका दुष्प्रभाव व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ता है और सार्वजनिक जीवन पर भी। उदाहरण के लिए दस्यु पीड़ित क्षेत्र में कुछ साहसी व्यक्ति सामुहिक आत्मरक्षा की योजना बनायें और उसे क्रियान्वित करने के लिए अपने साथियों सहयोगियों सहित कदम उठायें। परंतु उनमें से ही कुछ व्यक्ति इसे सामूहिक उत्तरदायित्व से पीछे हटने लगें, इस कार्य के प्रति लापरवाही बरतने लगें तो समय आने पर उनके दुष्परिणाम सभी लोगों के लिए हानि पहुंचाने वाले होंगे। समाज के हितों का ध्यान रखना, समाज में रहते हुए अन्य लोगों से तालमेल बिठाना तथा सामूहिक उत्तरदायित्वों को अनुभव कर उन्हें पूरा करने के लिए तत्पर रहना अपने व्यक्तित्व को सामाजिक बनाने की दिशा में अग्रसर करना ही है। जीवन उत्कर्ष के सभी इच्छुकों और प्रयासियों को सामाजिक गुणों के विकास की आवश्यकता और महत्ता ध्यान में रखनी चाहिए तथा उन गुणों को अर्जित करते चलना चाहिए।