Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-
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Language: HINDI
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नैतिक मर्यादाओं का पालन कीजिये
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प्रत्येक मनुष्य की आकांक्षा रहती है कि वह सुख शान्ति सम्पन्न जीवन व्यतीत करे। सुख, शान्ति और सम्पन्नता परस्पर निर्भर हैं। साधन सम्पन्न और सुविधामय जीवन सुख-शान्ति का कारण नहीं है। सुख शान्ति और सम्पन्नता तभी अर्जित की जा सकती है जबकि जीवन प्रवाह निर्द्वन्द और निर्विघ्न हो। जीवन प्रवाह की यह स्निग्ध गति ही मनुष्य और समाज को सुखी व शान्त रख सकती है। इसी आधार पर ही सम्पन्नता का भी लाभ उठाया जा सकता है। अन्यथा सम्पन्न होने पर और भी खतरे खड़े हो जाते हैं। जिससे सुख चैन मिटने लगता है। उदाहरण के लिए समाज में चोर डाकुओं का बोलबाला हो तो सबसे पहले सम्पन्न व्यक्तियों को ही चिंता उत्पन्न होगी क्योंकि निर्विघ्न और निर्द्वन्द्व जीवन में धन छीनने चोरी चले जाने का डर हर घड़ी बना रहेगा। इस तरह के विघ्न बाहरी कारणों से ही नहीं आते। आन्तरिक जीवन में भी अशान्ति और उद्वेग उत्पन्न होते रहते हैं और सब प्रकार सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति एक एक क्षण सुख चैन के लिए कलपता तड़पता रहता है। यदि इस तरह के उद्वेग साधन हीन व्यक्ति के जीवन में उठते रहे तो सम्पन्नता अर्जित करने का अवकाश ही नहीं मिलेगा। वाह्य दृष्टि से ऐसे व्यक्ति के पास भले ही कोई कार्य न हो पर आन्तरिक दृष्टि से उसके मनःक्षेत्र में उद्वेगों, चिन्ताओं और यातनाओं का संघर्ष चलता ही रहेगा। उसे इन पीड़ाओं से अवकाश ही नहीं मिलेगा। परिस्थिति या संयोग से ऐसे व्यक्तियों को सम्पन्नता प्राप्त भी हो जाय तो उसका कोई उपयोग सम्भव नहीं हो सकेगा। जिस वस्तु या परिस्थिति का कोई उपयोग न हो, जिससे लाभ उठाने का अवसर न मिलता हो उसका होना न होना समान है। प्रश्न उठता है कि इस तरह के उद्वेग—वे बाहरी हों अथवा आन्तरिक—क्यों उठा करते हैं। गम्भीरता से विचार करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने पर ही इस तरह के विघ्न पैदा होते हैं। समाज, ग्रह-नक्षत्र, तारे, ग्रह-उपग्रह एक नियम मर्यादा के अनुसार चलते हैं। वे अपने निश्चित विधान का जरा भी व्यक्तिक्रम नहीं करते। यदि वे उस विधान का उल्लंघन करें तो क्षण भर में ही नष्ट हो जायें। यह प्रकृति की क्रूरता नहीं उसकी व्यवस्था और उदारता है। क्योंकि एक ग्रह नक्षत्र भी यदि अपना मार्ग छोड़ दे तो दूसरे ग्रह नक्षत्रों के मार्ग में भटक जायेंगे। स्वयं तो नष्ट होंगे ही दूसरों को भी नष्ट करेंगे या गड़बड़ी फैलायेंगे। प्रकृति ने अपने परिवार के समस्त सदस्यों को इस व्यवस्था मर्यादा में बांध रखा है कि वे अपना मार्ग न छोड़ें। इसीलिए सारी व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही है। सृष्टि की कोई भी इकाई इस मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती। केवल मनुष्य ही ऐसा है जो बार बार नियति के विरुद्ध जाने की धृष्टता करता है। और विघ्न बाधाओं को पाकर रोने कलपने लगता है। प्रकृति की मर्यादाओं—नियत नियमों की अनुकूल दिशा में चल कर ही सुखी शान्त और सम्पन्न रहा जा सकता है। इसी को नैतिकता भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार प्रकृति की व्यवस्था में प्राणियों से लेकर ग्रह नक्षत्रों का अस्तित्व, जीवन और गति प्रगति सुरक्षित है। उसी प्रकार मनुष्य जो करोड़ों अरबों की संख्या वाले मानव समाज का एक सदस्य है नैतिक नियमों का पालन कर सुखी व सम्पन्न रह सकता है तथा समाज में भी वैसी परिस्थितियां उत्पन्न करने में सहायक हो सकता है। नैतिकता इसीलिए आवश्यक है कि अपने हितों को साधते हुए उन्हें सुरक्षित रखते हुये दूसरों को भी आगे बढ़ने दिया जाय। एक व्यक्ति बेईमानी करता है और उसके देखा देखी दूसरे व्यक्ति बेईमानी करने लगें तो किसी के लिए भी सुविधा पूर्वक जी पाना असम्भव हो जायगा। इसी कारण ईमानदारी को नैतिकता के अन्तर्गत रखा गया है कि व्यक्ति उसे अपना कर अपनी प्रामाणिकता, दूरगामी हित, तात्कालिक लाभ और आत्म संतोष प्राप्त करता रहे तथा दूसरों के जीवन में भी कोई व्यतिक्रम उत्पन्न न करे। नैतिकता का अर्थ सार्वभौम नियम भी किया जा सकता है। सार्वभौम नियम अर्थात् वे नियम जिनका सभी पालन कर सकें और किसी को कोई हानि न हो प्रत्युत लाभ ही मिले। जैसे दूसरों के स्वत्व को ग्रहण न करना सार्वभौम नियम हो सकता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकार की वस्तु या सुविधा मिले यह उचित ही है इससे व्यवस्था में कहीं व्यक्तिक्रम नहीं आता वरन् उससे कौशल और सुघड़ता ही आती है। किन्तु दूसरों के अधिकार या उनके अधिकार की वस्तुएं छीनने का क्रम चल पड़े तो बड़ी भारी अव्यवस्था उत्पन्न हो जायगी। कोई भी व्यक्ति अपने श्रम का लाभ उठाने के लिए निश्चित रूप से आशावान् नहीं हो सकेगा। फिर तो जानवरों की तरह ताकतवर कमजोर को दबा देगा और उसकी वस्तुएं छीन लेगा और ताकतवर को भी उससे अधिक ताकतवर व्यक्ति दबा देगा। इस आधार पर ही समाज में नैतिक मर्यादायें निर्धारित हुई हैं। तथा उनके पालन द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपना विकास करने की सुविधा मिली हैं। ऐसा नहीं कि कोई इन मर्यादाओं को तोड़ता ही नहीं है। दुष्ट बुद्धि और निकृष्ट स्वार्थी व्यक्ति इन मर्यादाओं का उल्लंघन करते देखे जाते हैं। मर्यादाओं का उल्लंघन करके लोग तात्कालिक थोड़ा लाभ उठा भी लेते हैं। दूरगामी परिणामों को न सोचकर लोग तुरन्त लाभ को देखते हैं। बेईमानी से धन कमाने, दम्भ से अहंकार बढ़ाने और अनुपयुक्त भोगों के भोगने से जो क्षणिक सुख मिलता है वह परिणाम में भारी विपत्ति बनकर सामने आता है। मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट कर डालने और आध्यात्मिक महत्ता एवं विशेषताओं को समाप्त करने में सबसे बड़ा कारण आत्म प्रतारणा है। ओले पड़ने से जिस प्रकार खेत की फसल नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आत्मप्रताड़ना की चोटें पड़ते रहने से मन और अन्तःकरण के सभी श्रेष्ठ तत्व नष्ट हो जाते हैं और ऐसा मनुष्य प्रेत-पिशाचों जैसी श्मशान मनोभूमि लेकर निरन्तर विक्षुब्ध विचरता रहता है। धर्म कर्तव्यों की मर्यादा को तोड़ने वाले उच्छृंखल कुमार्गगामी मनुष्य की गतिविधियों को रोकने के लिये, उन्हें दण्ड देने के लिए समाज और शासन की ओर से जो प्रतिरोधात्मक व्यवस्था हुई है उससे सर्वथा बचे रहना सम्भव नहीं। धूर्तता के बल पर आज कितने ही अपराधी प्रवृत्ति के लोग सामाजिक भर्त्सना से और कानूनी दंड से बच निकलने में सफल होते रहते हैं पर यही चाल सदा सफल होती रहेगी ऐसी बात नहीं है। असत्य का आवरण अन्ततः फटता ही है और अनीति अपनाने वाले के सामने न सही पीछे उनकी निन्दा होती ही है। जन मानस में व्याप्त घृणा का सूक्ष्म प्रभाव उस मनुष्य पर अदृश्य रूप से पड़ता है जिससे अहितकर परिणाम ही सामने आते हैं। राजदण्ड से बचे रहने के लिये ऐसे लोग रिश्वत में बहुत खर्च करते हैं। निरन्तर डरे और दबे रहते हैं। उनका कोई सच्चा मित्र नहीं रहता। जो लोग उनसे लाभ उठाते हैं। वे भीतर ही भीतर घृणा करते हैं और समय आने पर शत्रु बन जाते है। जिसका आत्मा धिक्कारेगा उसके लिये देर-सवेरे में सभी कोई धिक्कारने वाले बन जायेंगे ऐसी धिक्कार एकत्रित करके यदि मनुष्य जीवित रहा तो उसका जीवन न जीने के बराबर है। विपुल साधन सम्पन्न होते हुए भी व्यक्ति इसी कारण सुख शान्ति पूर्वक नहीं रह पाते कि उन उपलब्धियों के मूल में छुपी अनैतिकता व्यक्ति की चेतना को विक्षुब्ध किए रहती है। इसे ही आत्म प्रताड़ना भी कहते हैं। सार्वजनिक जीवन में अनीति अवांछनीयता के उत्पात किस प्रकार विध्वंस पैदा कर सकते हैं इसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। अतः नैतिक कसौटी के आधार पर स्वयं को इस प्रकार खरा सिद्ध करते हुए अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए कि उसमें अव्यवस्था और असन्तोष उत्पन्न न हों। विश्वव्यापी नैतिक विधान एक अकाट्य और अनिवार्य नियम है जो संसार के समस्त कार्यकलापों का संचालन करता है। वह एक सर्वव्याप्त व्यवस्था है उसके अनुकूल हुए कार्य सुव्यवस्था, स्थिरता, शान्ति, स्निग्धता और जीवन को बनाये रखने में सफल होते हैं तो उसके प्रतिकूल क्रियाकलाप इन सत्परिणामों से वंचित रखते हुए अव्यवस्था अशांति, कटुता, उद्विग्नता और हानि उत्पन्न करते हैं। इस नैतिक विधान के अन्तर्गत जड़ पदार्थों और अविकसित प्राणियों का तो स्वतः नियमन होता है। प्रकृति के माध्यम से मिलने वाली प्रेरणाओं के अनुसार उसका आवरण भी सहज नियन्त्रित रहता है। किन्तु मनुष्य विकसित और बुद्धि प्रधान प्राणी है अतः उसके लिए नैतिक विधान का निर्धारण ही किया गया है उसके लिए चुनाव की सुविधा भी है। और तदनुसार अच्छा बुरा परिणाम प्राप्त होने की सम्भावना भी। समाज उसके अच्छे बुरे कार्यों का परिणाम पुरस्कार और दण्ड के रूप में देता है तो उसकी चेतना आत्मसन्तोष व आत्म प्रताड़ना के रूप में। इस नैतिक विधान की व्याख्या करने के लिए प्रत्येक महापुरुष ने अपने समय और वातावरण के अनुरूप जन समाज को मार्ग दर्शन दिया है। सूत्र रूप में भी उसका मर्म बताया जाता रहा है। जैसे महाभारतकार ने कहा है। ‘‘आत्मनः प्रति कूलानि परेषां न समाचरेत।’’ अर्थात्—’’तुम्हें जो व्यवहार अपने लिए पसन्द नहीं उसे दूसरों के प्रति मत करो।’ महात्मा ईसा ने कहा—’’दूसरों के लिए वैसा ही आचरण करो जैसाकि तुम चाहते हो दूसरे तुम्हारे साथ करें।’’ दूसरों के प्रति हमारा आचरण नैतिक है अथवा अनैतिक इसका निर्णय उपरोक्त सूत्रों के अनुसार बड़ी आसानी से किया जा सकता है। उदाहरण के लिए कोई यह नहीं चाहता कि उसके अधिकार का हनन किया जाय। यह हनन भी तो व्यक्तियों द्वारा ही होता है। अतः स्वयं भी किसी को उसके अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए। कोई नहीं चाहता कि किसी के द्वारा हमें हानि पहुंचे। स्वयं भी इस अपेक्षा को दूसरों के लिए पूरा करना चाहिए। नैतिक आचरण की एक कसौटी यह भी है कि किसी कार्य को करते समय अपनी अन्तरात्मा की साक्षी ले ली जाय। यकायक किसी में अनैतिक आचरण का दुस्साहस पैदा नहीं होता। जब भी कोई व्यक्ति किसी बुरे काम में प्रवृत्त होता है उसका हृदय धक् धक् करने लगता है। शरीर से पसीना छूटता है और प्रतीत होता है कि कोई उसे इस कार्य से रोक रहा है। ऐसे अवसर पर अपनी अन्तरात्मा के आदेशों का अनुसरण करना चाहिये। परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य में एक मार्ग दर्शक चेतना की प्रतिष्ठा की है। वह उसे कर्म करने की प्रेरणा एवं अनुचित कार्य करने से पूर्व रोकने तथा करने के बाद प्रताड़ना देने का कार्य करती है। अच्छे कार्य करने पर तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता और शान्ति का अनुभव होता है यह उस मार्गदर्शक चेतना द्वारा दिये गये प्रोत्साहन और की गयी प्रशंसा की ही फल श्रुति हैं। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बढ़ता गया, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया तो लज्जा, ग्लानि, संकोच, पश्चाताप, भय और अशान्ति का जो अनुभव होता है वह अन्तरात्मा द्वारा धिक्कारने के परिणाम स्वरूप ही है। अनैतिक आचरण वाले और अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति इसीलिए नशेबाजी का सहारा लेते हैं और बेहोश पड़े रहते हैं। क्योंकि उस समय उन्हें जो आत्म प्रताड़ना मिलती है, उसे वे सह नहीं पाते हैं। नैतिकता के मार्ग पर चलते समय प्रायः लोगों से यह भूल हो जाती है कि वे नैतिक जीवन का अर्थ नैतिक आदर्शों के चरम स्तर से लगाते हैं। उदाहरण के लिए ब्रह्मचर्य की कल्पना जब भी किसी के मन में उठती होगी तो उस आदर्श के प्रतीक भीष्म और हनुमान के चरित्र से कम स्तर की बात ही नहीं सूझती। किसी के द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत लेने की बात सुनते ही मन उसकी तुलना भीष्म और हनुमान से करने लगता है। और जब भी कभी उस व्यक्ति का चरित्र भीष्म तथा हनुमान से राई रत्ती भर भी कम मालूम होने लगा तो ब्रह्मचर्य की सारी धारणा ही खण्डित हो जाती है। सत्यनिष्ठा की कल्पना करेंगे तो हरिश्चन्द्र के स्तर से कम में उसकी कोई कल्पना ही नहीं उठती और वह स्तर हम छू नहीं पाते तो लगता है कि उच्चादर्श केवल कहने सुनने के लिए ही है व्यावहारिकता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि नैतिक आदर्शों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाय और शुभारम्भ छोटे छोटे व्रतों से किया जाय तो चरम कल्पना के कारण अव्यवहारिक लगने वाले आदर्श व्यावहारिक जीवन में सरलता पूर्वक आने लगेंगे। फिर नैतिक आदर्शों के अभाव में अपना व्यक्तित्व जो हीन बना रहता है, और उसमें विकास परिष्कार नहीं हो पाता वह स्थिति भी नहीं रहेगी। सामान्य जीवन क्रम में नैतिक आदर्शों का समावेश करने के लिए आत्म चिन्तन, आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार और आत्म-निर्माण की चतुर्विध साधना पद्धति अपनानी चाहिए। आत्म समीक्षा के समय यह विचार करना चाहिए कि हममें कौन सी कमियां हैं और किन नैतिक गुणों के विकास की आवश्यकता है। कौन सी बुराइयां हमारे स्वभाव में घुसी पड़ी है। जिनके कारण हमारा नैतिक स्तर मानवता के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। इस समीक्षा के बाद जो कमियां दिखाई दें उन्हें दूर करने और नैतिक गुणों के विकास करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। स्मरण रखा जाना चाहिए कि आरम्भ में ही कोई ऊंची कूद लगाकर चरम-स्तर पर नहीं पहुंचा जाता। विद्वान बनने के लिए सीखने की शुरूआत वर्णाक्षरों को पहचानने और उन्हें लिखने के अभ्यास से करना पड़ती है। पहलवानी का अभ्यास दण्ड बैठक लगाने से ही शुरू करना पड़ता है और उस अभ्यास को आरम्भ करने के बाद अखाड़े में कुश्तियां जीतते हुए बड़े पहलवान को सफलता मिलती है। शुरू में कोई विश्व विजेता पहलवान अथवा गामा, चन्दगीराम नहीं बन जाता। आरम्भ से ही इस तरह की कल्पना करने वालों को स्वदशी ही कहा जा सकता है। फिर क्या कारण है कि नैतिक आदर्शों को अपनाने के लिए शुरूआत से ही चरम स्थिति प्राप्त करने की अपेक्षा की जाय और वैसा न होने पर निराश हताश होकर बैठ जाया जाय। नैतिक आदर्शों को जीवन में आत्मसात् करने के लिए व्यावहारिक स्तर बना कर अगले कदम उठाने चाहिए। लक्ष्य बड़ा और ऊंचा रखा जाय परन्तु प्रयास तो शक्ति और स्थिति के अनुसार ही उठा पाना सम्भव है। मंजिल भले ही मीलों दूर हो पर यहां तक पहुंचने के लिए एक-एक कदम ही उठाना पड़ता है। उच्च नैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भी इसी प्रकार छोटे छोटे व्रतों से शुभारम्भ करना चाहिए। नैतिक आदर्शों और मर्यादाओं का पालन करते हुए जब अपने व्यक्तित्व को ऊंचा उठाया जाता है तो जीवन में सुख शान्ति समाज में प्रतिष्ठा व्यक्तिगत उपलब्धि के रूप में और समाज में सुव्यवस्था सामाजिक उपलब्धि के रूप में मिलना आरम्भ हो जाती है। नैतिक जीवन के विकास और आचरण में सामाजिकता की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है कि आन्तरिक जीवन में सुधार और अनुशासन में नैतिक साधना का अभ्यास आरम्भ किया जाय। यदि नैतिक नियमों के अनुसार कार्य करते रहा जाय तो जीवन में आने वाली अनिश्चित घटनाओं, तूफान, उलझनपूर्ण समस्याओं के बीच भी सम्पूर्ण सुरक्षा, शान्ति और विश्वास के साथ जीवन में समृद्धि व विकास का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। जीवन को एकांगी बनाकर चलने वाले न तो इन सत्यों-तथ्यों को समझ ही पाते हैं और न उनको महत्व ही दे पाते हैं। जीवन साधना का साधक जीवन की सर्वांगीणता को समझता है। उसे उसके अनुरूप ही जीवन के हर पक्ष को विकसित एवं व्यवस्थित बनाना ही चाहिए। नैतिक मूल्यों को मान्यता देना तथा उनकी मर्यादा बनाये रखना जीवन को सार्थक, सुखी एवं समुन्नत बनाने के लिए अनिवार्य है।