Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-
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विचार शक्ति की सिद्धि कीजिए
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विचार ही कर्म के प्रेरक हैं। किसी वस्तु को प्राप्त करने की आकांक्षा उसकी पूर्ति की दिशा में अग्रसर होती है तो सर्व प्रथम विचार जगत में ही उसकी हलचल होती है। मस्तिष्क उसके लिए योजना बनाता है, बुद्धि आकांक्षा पूर्ति के उपाय खोजती है और विचार चिन्तन के रूप में कर्म का बीजारोपण होने लगता है। आकांक्षा और विचार इस रूप में तो एक ही विषय के दो पहलू और एक ही दिशा के अगले चरण हैं। परन्तु विचार चेतना एक स्वतन्त्र चेतना भी है और उसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक विचार किसी आकांक्षा की पूर्ति के लिए ही उठे। आकांक्षायें वस्तुतः व्यक्तित्व का एक अंग है। विचार उसकी पूर्ति या परिष्कार का माध्यम है आकांक्षायें उठती हैं, तो उन्हें आगे बढ़ने का उपक्रम भी विचार शक्ति के द्वारा ही बनती है। विचारशक्ति आकांक्षाओं को पूरा करने के साथ व्यक्तित्व का गठन तथा उनकी दिशा का निर्धारण भी करती है। इसीलिए कहा गया है कि मनुष्य की शक्ति उसके विचारों में ही रहती है। जिसके जैसे विचार होंगे उसकी वैसी ही गति और स्थिति होगी। इस कारण यह एक स्वयं सिद्ध मान्यता है कि विचार यदि अच्छे और सही होंगे तो प्रगति तथा सफलता सुनिश्चित है। सही विचारशीलता अपनाकर अपने लक्ष्य तक सरलता पूर्वक पहुंचा जा सकता है और इसके विपरीत विचारों की अशुद्धि मनुष्य को योग्यता,साधन सम्पन्नता और प्रतिभा होते हुए भी असफल बना देती है। विचार शक्ति का महत्व यदि देखना हो तो संसार की उन्नति, सुविधा साधनों की अभिवृद्धि, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य तथा कला कौशल के विपुल विकास के रूप में देखा जा सकता है। जिन महामानवों ने भी समाज की इन उपलब्धियों का भण्डार बढ़ाया है वे विचार शक्ति पर अखण्ड विश्वास लेकर आगे बढ़े। उन्होंने विश्वास किया मनुष्य अपनी विचार शक्ति के कारण संसार का सर्व श्रेष्ठ प्राणी है और इस शक्ति के आधार पर वह सब कुछ कर सकने में समर्थ है। मनुष्य की सफलता असफलता उसके विश्वासों और विचारों पर ही निर्भर करती है। एक ही विचार का बार-बार अभ्यास करने पर वही विचार विश्वास के रूप में परिणत हो जाता है। इसीलिए सफलता एवं श्रेय के महत्वाकांक्षी व्यक्ति अपने पास प्रतिकूल विचारों को एक क्षण भी नहीं ठहरने देते। बड़ी से बड़ी आपत्ति आ जाने और संकट का सामना होने पर भी न तो वे कभी यह सोचते हैं कि उनका भाग्य खोटा है और न आसन्न संकट में भयभीत ही होते हैं। वे अपनी शक्ति का सही मूल्यांकन करते हुए आपत्तियों से लोहा लेने के लिए समीचीन व्यवस्था बनाकर साहस पूर्वक डट जाते हैं। अस्तु जीवन सफलता के साधकों को अपने विचारों में परिपक्वता, शक्ति और तीव्रता लाना चाहिए। यह अद्भुत विचार शक्ति संसार में सभी मनुष्यों को मिली है और वह अपने अनुरूप विभिन्न दिशाओं तथा क्षेत्रों में गतिशील भी होती है। लेकिन दुर्बल विचार रखने वाले, भाग्य और दैव के सहारे बैठे रहने वाले व्यक्ति उस शक्ति का लाभ नहीं उठा पाते और सफलता के सौभाग्य से वंचित ही रह जाते हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य का अस्तित्व अगर कहीं है भी तो वह विचारों में ही है। विचारों की विकृति ही दुर्भाग्य एवं विचारों की सुकृति ही सौभाग्य है। विचारों के बाहर दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य का कोई स्थान नहीं है। मनुष्य का भाग्य लिखने वाली विचारों के अतिरिक्त अन्य कोई शक्ति भी नहीं है। मनुष्य अपने विचारों के माध्यम से स्वयं अपना भाग्य लिखा करता है। जिस प्रकार के विचार होंगे, भाग्य की भाषा भी उसी प्रकार की होगी। भाग्य यदि कोई निश्चित विधान होता और उसका रचने वाला भी कोई दूसरा होता, तो कंगाली एवं गरीबी की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में जन्म लेने वाला कोई भी मनुष्य आज तक उन्नति एवं विकास के पथ पर चलकर सौभाग्यवान न बना होता। उसे तो निश्चित भाग्य दोष से यथा स्थिति में ही मर खप कर चला जाना चाहिये था। किन्तु सत्य इसके विपरीत देखने में आता है। बहुतायत ऐसे ही लोगों की है जो गरीबी से बढ़कर ऊंची स्थिति में पहुंचे हैं, कठिनाइयों को पार करके ही श्रेयवान बने हैं। महापुरुषों के उदाहरण से इस बात में कोई शंका नहीं रह जाती कि भाग्य न तो कोई निश्चित विधान है और न उसका रचियता ही कोई दूसरा है। विचारों की परिणति ही का दूसरा नाम भाग्य है जिसका कि विधायक मनुष्य स्वयं ही है। सद्विचारों का सृजन किया जाय उन्नत विचारों को ही मस्तिष्क में स्थान दिया जाय तो सौभाग्यशाली बनकर श्रेय प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता होते हुए भी केवल वैचारिक त्रुटियों के कारण दुर्भाग्य का शिकार बनना पड़ता है क्योंकि वैचारिक विकृति अपने को क्षुद्र, तुच्छ एवं हेय मानने से ही आरम्भ होती है। उसके व्यक्तित्व पर उसके विचार हावी हो जाते हैं और जन जन को यह सूचना देते रहते हैं कि यह व्यक्ति निराशावादी तथा गिरे हुए विचारों का है। इसलिए हम अपने को जिस प्रकार का बनाना चाहते हैं उसी प्रकार के विचारों का सृजन करना चाहिए। विचारों का प्रभाव निश्चित रूप से आचरण पर पड़ता है। बल्कि यों कहना चाहिए कि आचरण विचारों का ही क्रियात्मक रूप है। जिस दिशा में विचार चलते हैं शरीर और उसकी क्रियायें भी उसी दिशा में गतिशील हो जाती हैं। यही कारण है सभी मनुष्यों को विचार बुद्धि और विवेकतत्व मिला है फिर भी किसी का विज्ञान की और झुकाव होता है तो कोई व्यापार में उन्मुख होता है। कहने का अर्थ यह है कि विचार शक्ति ही मनुष्य के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाती है और नीचा गिराती है। यदि ऊंचे उठने, आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने का लक्ष्य हो तो अपने विचारों को भी तदनुरूप विकसित करना चाहिए जीवन में सफलता, समाज में प्रतिष्ठा और आत्मा में सन्तोष प्राप्त करना है तो सबसे पहले विचारों भावनाओं और चिन्तन को आशावादी और उदार परिष्कृत बनाना चाहिए। यदि निराशा, संकीर्णता और क्षुद्रता की विचार विकृतियों को ही प्रश्रय दिया जाता रहा तो महान बनने की इच्छा स्वप्न मात्र बनकर रह जायगी, न स्वयं को सन्तोष मिलेगा और न समाज में प्रतिष्ठा। विचार शक्ति के इस महत्व को बहुत से लोग नहीं जानते और अकारण खिन्न, दुखी या पिछड़े हुए ही बने रहते हैं। कई लोग विचार शक्ति के महत्व को जानते भी हैं किन्तु उसे कैसे साधा जाय यह न जानने के कारण विचार साधना के लाभों से वंचित ही रह जाते हैं। एक कलाकार अपनी तूलिका से एक सुन्दर चित्र बनाता है। उसी तूलिका से कोई सामान्य व्यक्ति साधारण चित्र भी नहीं बना पाता। कारण कि तूलिका को किस प्रकार चलाना चाहिए और कहां कैसे घुमाना चाहिए इसका उन्हें कोई अभ्यास नहीं रहता। विचारों को साधने का अभ्यास तूलिका चलाने के अभ्यास से भी अधिक श्रम साध्य है। किन्तु विचारों को यदि साध लिया जाय तो उसके जो सत्परिणाम सामने आयेंगे वे किये गए श्रम की तुलना में बहुत अधिक होंगे। अस्त व्यस्त विचारो के कारण बहुधा लोगों को दुखी होते देखा जा सकता है। जैसे बहुत से व्यक्ति एक ही दिशा में सोच विचार करते रहते हैं या काल्पनिक संकटों का ही चिन्तन किया करते हैं। बहुधा ऐसे विषयों को लेकर चिन्तायें भी उठती रहती हैं जिनकी यथार्थ में कोई सम्भावना ही नहीं है। फिर भी लोग उन विषयों को लेकर इस प्रकार चिन्तित बने रहते हैं कि वह चिन्ता ही अपने आप में समस्या बन जाती है। बहुत बार हम देखते हैं कि इस प्रकार के विचार अकारण ही हमें दुखी कर रहे हैं और लगता भी है कि इन्हें रोकना चाहिए परन्तु लाख प्रयत्न करने पर न उस तरह के विचारों से छुटकारा मिलता है और न तज्जन्य दुखों और पीड़ाओं से ही मुक्ति मिल पाती है। विचारों पर नियन्त्रण न कर पाने से ही इन अनचाही अनपेक्षित दिशाओं में हमारे विचार भटकते रहते हैं। स्पष्ट है कि विचारों के इन भटकावों का दुष्परिणाम अपनी कार्यक्षमता घटने तथा पल पल में दुखी और खिन्न होने के रूप में सामने आता है। खीझ, उत्तेजना, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकार विचार शक्ति के अनियन्त्रित बहाव से ही उत्पन्न होते हैं और अपना मानसिक सन्तुलन डगमगाने लगता है। किसी कार्य में निश्चिन्तता और पूर्णता पूर्वक तभी लगा जा सकता है जब कि हमारा मानसिक सन्तुलन स्थिर और ठीक हो। अस्थिर चित्त से कोई काम भलीभांति सम्पन्न नहीं किया जा सकता और खीझ, उत्तेजना, जलन, आवेश आदि विकार मानसिक सन्तुलन को बिगाड़कर कार्य तथा जीवन में अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं। खीझ तब उत्पन्न होती है जब कोई बाहरी दबाव या विवशता पैदा हो गई हो। यदि हम मानसिक दृष्टि से सशक्त और सन्तुलित हैं तो बाहरी दबाव तथा विवशता से निबटने का भी उपाय किया जा सकता है। लेकिन खीझ दुर्बलता के कारण ही उत्पन्न होती है। कमजोर और बीमार व्यक्तियों में इसलिए चिड़चिड़ापन आ जाता है कि वे परिस्थितियों का मुकाबला करना तो दूर रहा उन्हें सहन भी नहीं कर पाते। वह दुर्बलता परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित न कर पाने और सही दिशा में नहीं सोच पाने के कारण आती है। फिर खीज के साथ जो काम किये जाते हैं वे काम समझ कर नहीं बला टालने के लिए ही होते हैं। स्वाभाविक है उनमें अपूर्णता और कमियां भरी पड़ी होंगी तथा किये गये कार्यों के सत्परिणाम, आत्मसन्तोष, प्रगति, योग्यता वृद्धि आदि उद्देश्य भी अधूरे ही रह जायेंगे। विचारशीलता की नीति अपनाकर खीझ व उत्तेजना जैसे हानिकारक विकारों से बचा जा सकता है। खीझ की तरह उत्तेजना भी मानसिक दुर्बलता विचार विकृति के परिणाम स्वरूप ही उत्पन्न होती है। उत्तेजित व्यक्ति अपनी शक्तियों को एक दिशा में सही ढंग से लगा नहीं पाता और उन्हें अव्यवस्थित ढंग से खर्च करने लगता है। अग्नि को हवा का संस्पर्श मिलते ही वह बेकाबू होकर फैलने लगती है मनुष्य की शक्तियां भी उत्तेजना की आंधी से बेकाबू होकर विध्वंस ही उत्पन्न करती हैं। इसी तरह के अन्यान्य दोष केवल मस्तिष्क पर नियन्त्रण न होने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। छोटा सा कारण हुआ तो उसी में खीझ उठे या बहकने लगे। इस कमजोरी को मस्तिष्कीय शक्तियों पर नियन्त्रण क्षमता का अभाव ही कहा जायगा। अपने मानसिक आवेगों को नियन्त्रण और सन्तुलित रखने का एक ही उपाय है—विवेकपूर्ण गम्भीरता, विवेकपूर्णता का अर्थ है परिस्थितियों को समझने और उनकी वास्तविकता देखकर निर्णय लेने की सूझ बूझ। यह सूझ बूझ किसी भी बात पर तुरन्त निर्णय लेते हुए विकसित नहीं की जा सकती तुरन्त निर्णय लेने की उतावली तो अधीरता जनित गल्तियां ही करवायेगी। इसलिए मानसिक सन्तुलन स्थिर करने के लिए प्रत्येक स्थिति में गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए अपनी योग्यता, अनुभव और ज्ञान द्वारा क्या उचित है तथा क्या अनुचित? इसका नीर क्षीर अन्तर करना चाहिए। इस नीति को अपनाते हुए यदि अपने मनःक्षेत्र में उठने वाले विचारों का भी निरीक्षण किया जाता रहे तो अनिष्टकर विचारों तथा चिन्तन धारा की भ्रान्तियों से बचा जा सकता है। विवेक के द्वारा ही व्यक्ति विचारों के सागर में से अपने लिए उपयोगी विचार कण चुन सकता है। अन्यथा मस्तिष्क में तो कई तरह के विचार आते रहते हैं उनमें निरर्थक भी होते हैं और असंगत भी। और ये निरर्थक असंगत विचार ही मनुष्य की अधिकांश शक्ति बर्बाद करते तथा मानसिक सन्तुलन बिगाड़ते हैं। उदाहरण के लिए मस्तिष्क में यह विचार आया कि अमुक व्यक्ति कहीं मेरा अनिष्ट तो नहीं सोचता। यदि बिना कुछ सोचे समझे, तथ्य का अवलोकन किये बिना ही उस विचार को प्रश्रय दे दिया गया तो अपना समय और शक्ति का ह्रास तो होता ही है,उस विचार के कारण मानसिक सन्तुलन भी बिगड़ जाता है और उसकी परिणति अमुक व्यक्ति को वास्तव में अपना बैरी बना लेने के रूप में होती है। मानसिक असन्तुलन का एक कारण अपने को दीन हीन समझना भी है। व्यक्ति रह रह कर अपनी कमजोरियों के बारे में सोचता है और अवास्तविक स्थितियों की कल्पना करता रहता है। परिणाम स्वरूप उसी तरह के विचार मस्तिष्क में घर करने लगते हैं। मनोवैज्ञानिकों का भी मत है कि मनुष्य के विचारों में एक आकर्षण शक्ति होती है जिसके द्वारा वह वायु मण्डल में फैले सजातीय विचारों का प्रभाव भी खींच लेते हैं। अपने प्रति दीनता, हीनता, निरुपायता, निष्क्रियता आदि का विचार बनते ही वायु मण्डल में बिखरे हुए हेयता के सारे तत्व आकर्षित होकर इकट्ठे हो जायेंगे। जिनके दबाव से मानसिक सन्तुलन बनाये रखने वाली नियन्त्रण चेतना चरमरा कर टूट जाती है। नियन्त्रण के अभाव में चलने वाला निरन्तर चिंतन उपासना की तरह प्रभाव डालता है। निरन्तर चिन्तन एक प्रकार की उपासना ही है। जिस देवता की चिन्तन द्वारा निरन्तर उपासना की जाती है वह प्रसन्न होकर अपने अनुरूप वरदान प्रदान करता है। यदि क्षुद्र विचारों का ही निरन्तर चिन्तन किया जाय तो निश्चित रूप से क्षुद्रता चाहे अनचाहे जीवन में स्थान बना लेगी। इसके विपरीत जब मनुष्य अपने प्रति शुभ विचार रखता है और निरन्तर उसी दिशा में सोचता रहता है तो एक दिन वह विचार साधना उसके जीवन में अवश्य ही अपना प्रभाव उत्पन्न करती है। केवल उपयोगी और सृजनात्मक चिन्तन मानसिक सन्तुलन बनाये रहने का अत्युत्तम साधन है। अभ्युदय, समुन्नति, एवं आत्मकल्याण चाहने वालों को चाहिए कि वे अपने प्रति न कोई हीन भावना रखें और न परिस्थितियों से विकल हों। यह विचार मन में ही नहीं आने देना चाहिए कि मैं ‘‘कमजोर हूं, साधनहीन हूं, क्या कर सकता हूं अथवा आसन्न परिस्थितियों का किस प्रकार सामना कर सकता हूं।’’ इसके विपरीत आशाजनक, प्रफुल्लतादायी और अपने आपके प्रति विश्वास पूर्ण निष्ठा रखने से मनुष्य प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आगे बढ़ सकता है। मनुष्य में आखिर कमी किस बात की है। उसमें परमात्मा के सारे तत्व उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार एक अंजलि जल में समुद्र के अनन्त और अथाह जल के सम्पूर्ण तत्व। वह संसार के हर काम को करने की क्षमता रखता है। हम उपयोगी और आशावादी विचारों को विकसित व स्थापित क्यों नहीं कर पाते। कारण एक ही है अभ्यास का अभाव और विचार साधना की बारीकियों का अज्ञान। कौतुक प्रियता—प्रायः अधिकांश की कमजोरी होती है और मस्तिष्क भी उस दिशा में रह रह कर दौड़ने लगता है। प्रायः यह भी होता है कि जो विचार हमें सबसे ज्यादा प्रिय लगते हैं वे भी रह रह कर दिमाग में दौड़ते हैं। मस्तिष्क में अच्छे और प्रिय लगने वाले विचार स्थान पायें यह तो ठीक है लेकिन उनकी उपयोगिता और फलश्रुति को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए उठने वाले बेचारों को ही लें। बुद्धि उस वस्तु को पाने के उपाय खोजती है और मन उसकी प्राप्ति के आनन्द की कल्पना करता रहता है वह वस्तु या स्थिति कल्याणकर और लाभदायक है अथवा नहीं यह निश्चित करना विवेक का कार्य है। अन्यथा हर उस वस्तु की प्राप्ति के लिए आकांक्षा जागेगी, कल्पना बढ़ेगी और योजना बनने लगेगी जो जरा भी आकर्षक या लुभावनी है। संसार की सभी वस्तुएं किसी के लिए भी प्राप्त करना सम्भव नहीं है और न हर किसी के लिए हर कुछ आवश्यक ही है। अतः आवश्यकता और उपयोगिता के आधार पर ही अपना ध्येय बनाकर किसी वस्तु के लिए विचार करना या योजना बनानी चाहिए। भले ही कोई स्थिति प्राप्त करना अपने लिए सम्भव नहीं किन्तु विचारों पर विवेक का नियन्त्रण न रहने से व्यक्ति स्वप्नजीवी बन जाता है। और एक स्थान पर बैठा बैठा मानसिक महल बनाता बिगाड़ता रहता है। उसे अपनी कल्पना की दुनिया में इस सीमा तक रस आने लगता है कि उसे सहज दुनिया का भी कुछ ध्यान नहीं रहता। निरन्तर इसी स्थिति के बने रहने से मनुष्य की कल्पना और उसके स्वप्निल विचारों से उसकी भावुकता भी जुड़ जाती है जिससे वह अपने मनोवांछित काल्पनिक लोकों को पाने के लिए लालायित हो उठता है और जब कभी वह यथार्थ के कठोर एवं विषम धरातल पर चरण रखता है तो एक गहरा धक्का लगता है जिससे घबड़ा कर वह फिर अपने काल्पनिक स्वर्ग में भाग जाता है। इस प्रकार की निरर्थक भाग दौड़ से केवल मनुष्य की शक्तियों का क्षय ही होता है। कल्पना लोक में रहने के अतिरिक्त अनागत प्रतिकूलतायें और विपत्तियों से भयभीत रहना भी विकृत विचार स्थिति का ही परिणाम है। एक बार मन में कोई अप्रिय विचार उठा तो वह इस तरह मस्तिष्क पर हावी होने लगता है कि फिर अन्य विचार सूझते ही नहीं। अनागत प्रतिकूलतायें और परिस्थितियां, अनपेक्षित चिन्तायें, काल्पनिक भय आदि बहुत तरह के विचार हैं जिनसे व्यक्ति दूर रहना चाहता है किन्तु रह-रह कर ये विचार घुमड़ते हैं। निश्चित ही यह कच्ची मनोभूमि और असधे विचारों के कारण ही होता है। ढालू और चिकनी सड़क पर, या पहाड़ों की ढलान पर चलते समय लोग एक बार फिसलते हैं तो फिसलते ही चले जाते हैं। जबकि सधे हुए व्यक्ति गिरते ही तुरन्त संभल जाते हैं, एक पैर फिसलने पर दूसरे को सम्हाल कर इस तरह रख लेते हैं कि फिसलना रुक जाय और उठकर फिर चलने लगा जा सके। जो लोग अपने विचार तन्त्र को विवेक और अभ्यास के द्वारा साध लेते हैं वे विचारों की फिसलन पर उसी सूझ-बूझ और अभ्यास का सहारा लेते हैं तथा एक बार मस्तिष्क में आये अवांछनीय विचार को तुरन्त निकाल बाहर कर उसके स्थान पर उपयोगी तथा सृजनात्मक चिन्तन आरम्भ कर देते हैं। विचार साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए चतुर्विधि साधनक्रम बहुत सहायक होता है। यदि उसका अभ्यास किया जाने लगे तो विचारशक्ति की सिद्धि की जा सकती है और इसी जीवन में महामानवों की सी स्थिति प्राप्त की जा सकती है। इस अभ्यास क्रम में प्रतिदिन यह निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हमें अधिकांशतः किस तरह के विचार आते हैं। इसे आत्म समीक्षा भी कहा जा सकता है। प्रतिदिन मस्तिष्क में ज्यादा देर तक बने रहने वाले विचारों को नोट किया जाय तथा उनमें उचित अनुचित का विवेक करते रहा जाय। जो अवांछनीय हैं, अनावश्यक हैं और हानिकारक हैं उन्हें निरस्त करने की योजना बनाई जाय। अनुपयोगी और हानिकारक विचारों के स्थान पर उपयोगी तथा उत्कर्ष में सहायक विचारों को विकसित करने की योजना बनाये। आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार और आत्म निर्माण के चार चरणों को पूरा करते हुए विचार शक्ति को साधने सिद्ध करने में यदि सफलता प्राप्त करली जाय तो इसी जीवन में सफलता और स्वर्ग मोक्ष की सी स्थिति प्राप्त की जा सकती है।