Books - परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय
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Language: HINDI
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परमार्थ द्वारा आत्मोन्नति
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वास्तव में जिस स्वार्थ की बुद्धिमान पुरुषों ने निन्दा की है वह ऐसा ही हीन कोटि का स्वार्थ होता है । उच्चकोटि का स्वार्थ वह है जिससे हमारे शरीर मन और आत्मा तीनों की उन्नति होती है । ऐसे ही स्वार्थ को परमार्थ भी कहा जाता है ।
आत्मा को समुन्नत एवं सुविकसित बनाना मानव जीवन का महत्वपूर्ण उद्देश्य है । कारण यह है कि निरन्तर सताये जाने वाले विविध प्रकार के अभाव, दुःख शोक, पाप, ताप आत्मोन्नति के बिना मिट नहीं सकते । यदि सांसारिक और मानसिक क्षेत्र में सुख शान्ति प्राप्त करनी है तो एक मात्र उपाय यही है कि आत्म-ज्ञान तथा आत्मबल की अभिवृद्धि की जाय । महान बनाने का आनन्द के चरम लक्ष्य तक पहुँचने का और कोई मार्ग नहीं है ।
आत्मोन्नति एकांगी नहीं होती, केवल एक उपाय से ही वह पूरी नहीं हो सकती वरन् तत्सम्बन्धी सभी उपकरण जुटाने पड़ते हैं । पहलवान बनने का इच्छुक व्यक्ति केवल मात्र व्यायाम पर ही जुटा रहे और पौष्टिक भोजन तेल मालिश, ब्रह्मचर्य, विश्राम आदि की उपेक्षा करे तो उसका सफल होना कठिन है । यदि दीवार ही चिनते जायँ और पटाव, किबाड़ , छत, फर्श आदि बनाने की ओर ध्यान न दिया जाय तो मकान बनकर तैयार नहीं हो सकता । डाक्टर बनने का इच्छुक व्यक्ति यदि दवाएँ बनाने में दिन रात लगा रहे तो उसका सफल डाक्टर बनना असंभव है । आत्मोन्नति के सुविख्यात साधनों के सम्बन्ध में आध्यात्म विद्या के तत्वदर्शी आचार्य सदा से सावधान रहे हैं । उन्होंने अपने शिष्यों की सर्वागीण उन्नति पर सदा से ही पूरा-पूरा ध्यान रखा है और इस सम्बन्ध में बड़े नियम, प्रतिबन्धों एवं उत्तरदायित्वों का शास्त्रों में अनेक प्रकार से वर्णन किया है । व्यवहारिक जीवन में उदारता, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, लोक सेवा एवं स्वार्थ त्याग से ओत-प्रोत आचरणों का अधिकाधिक अवसर आना उन अवसरों पर अपना उत्तरदायित्व सफलतापूर्वक पूरा किया जाना प्रत्येक साधक के लिए अत्यन्त आवश्यक है । इस प्रकार के आचरणों को भूमि निर्माण कहते हैं । अच्छी उपजाऊ, नरम, भली प्रकार जोती हुई जमीन में ही बीज बोने पर अच्छी फसल पैदा होती है । उपरोक्त प्रकार के आचरणों के अधिकाधिक अवसरों को बुलाना और उनके सम्बन्ध में अपना उत्तरदायित्व अधिक से अधिक तत्परता से पूरा करना यही आत्मिक-भूमिका का निर्माण है । ऐसी भूमि में ही साधना के बीज जमते हैं और जीवन मुक्ति एवं परमानन्द की कल्याणकारी फसल उपजती है ।
मनुष्य में दैवी तत्वों की अपेक्षा साधारणत: पाशविक तत्वों की ही अधिकता होती है । इसलिए वह स्वयं दूसरों से अधिक लाभ उठाने और स्वयं दूसरों के लिए कुछ न करने की इच्छा रखता है । उसके अधिकांश कार्य इसी दृष्टिकोण से होते हैं । अपनी कठिनाइयों दूर करने और समृद्धियों को बढ़ाने में वह दैवी तत्वों की सहायता चाहता है, पर उन तत्वों के पोषण के लिए कुछ नहीं करना चाहता । इस पशुवृत्ति को गीता में भगवान कृष्ण ने बड़ी कड़ाई और शक्ति के साथ आड़े हाथों लिया है । 'पहले दो तब मिलेगा' के सिद्धान्त का वज्र समर्थन करते हुए गीता में कहा है-
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्रवा पुरोवाच प्रजापति: ।
अनेन प्रसविष्यव्वमेष वोऽस्त्विष्ट कामधुक् ।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परम वाप्स्यथ ।।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञ भावता: ।
तैर्दत्तान प्रदायैभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः। -गीता ३/१०/११/१२
अर्थात्-भगवान ने मनुष्य के साथ-साथ दैवी तत्वों को भी उत्पन्न किया और घोषणा की कि इसके द्वारा तुम लोग उन्नति करोगे एवं अपनी सब मनोकामनाओं को पूर्ण करोगे । परन्तु स्मरण रखो इस दैवी तत्व की उन्नति तुम्हें भी करनी है । तभी वह तुम्हारी सहायता करेगा । प्रत्युपकार के आधार पर ही कल्याण हो सकता है । जब मनुष्य देवत्व का पोषण करेंगे तब वे बदले में इष्ट भोग प्रदान करेंगे । जो प्रत्युपकार से बचना चाहता है और देवी साधना की याचना करता है वह पक्का चोर है ।
इससे आगे के श्लोकों में भी भगवान ने इस सम्बन्ध में और अधिक स्पष्टीकरण किया है । वे कहते हैं, जैसे यज्ञ से वर्षा, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है । अन्न से प्राणियों का जीवन स्थिर होता है । वैसे ही दैवी तत्व (यज्ञ) के फलस्वरूप ही आत्म कल्याण हो सकता है । अपनी शक्तियाँ देवत्व के पोषण में खर्च करो, बदले में जो मिले उसमें संतोष करो तो तुम सब पापों से छूट जाओगे । यदि अपने ही मतलब की फिराक में फिरोगे तो पाप खाओगे ।
भगवान के उपरोक्त अभिवचनों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पहल , किस ओर से होनी चाहिए । न तो मुफ्त में लेने की व्यवस्था है और न अमुक लाभ मिलने के उपरान्त अमुक बदला चुका देने की शर्त ही है । सिद्ध बाबा को चरणस्पर्श मात्र से प्रसन्न करके अष्ट सिद्धि नव निद्धि प्राप्त कर लेने की इच्छा करने वाले मुफ्तखोरों और 'बेटा हो जाय तो नारियल चढ़ाने की शर्त बदने वाले मुनाफाखोरों को गीता ने बुरी तरह लताड़ दिया है । ऐसे लोगों को आध्यात्मिक भाषा में अनधिकारी कहते हैं । अनधिकारी का तात्पर्य हैं- स्वार्थी, अनुदार, अविश्वासी, अश्रद्धालु । ऐसे लोगों के हाथ में यदि दैवी शक्ति चलीं जाय तो बे उसके द्वारा संसार में केबल अनर्थ ही उत्पन्न कर सकते हैं । इसलिए सृष्टि के आदि से ही यह सावधानी बरती जाती रही है कि अनधिकारी लोगों के हाथ में ब्रह्मशक्ति न जाने पावे ।
आत्मोन्नति की शिक्षा देने के साथ-साथ ऋषियों ने यह बराबर ध्यान रखा है कि वे अधिकारी बनते जावें, उनकी पात्रता में अभिवृद्धि होती जावे । पात्रता और साधना इन दोनों पहियों को साथ-साथ बराबर रखने में धैर्य और सावधानी से काम लेते रहे हैं । जितनी पात्रता बड़े उतना ही साधना का स्तर ऊँचा उठता जाता है । कुपात्रों को अति ऊँचे स्तर की साधना बताकर आध्यात्मिक असंतुलन उत्पन्न कर देने का परिणाम किसी के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता ।
प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करने से ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मज्ञान के शिक्षकों ने अपने छात्रों को परम उपयोगी अमृतमयी शिक्षा देने के साथ-साथ उनके सद्गुणों का विकास करने वाले कष्टसाध्य अवसर उत्पन्न करने में कभी भी झिझक नहीं की है । क्योंकि देवत्व का पोषण करके तब दिव्य लाभ प्राप्त करने की सनातन नीति का अवलम्बन किए बिना वे सफल हो नहीं सकते थे । इसलिए वे कष्ट उनके लिए आवश्यक थे । उद्दालक, धौम्य, अरुणि, उपमन्यु, कच, श्लीमुख, जरुत्कार नचकेता, शैण, विरोचन, जावालि, सुमनस, अम्बरीष आदि अनेक शिष्यों की कथाएँ सर्वविदित हैं । उन्होंने अपने गुरुओं के आदेशानुसार बड़े-बड़े कष्ट सहे और बताये हुए कार्यों को पूरा किया । दशरथ का अपने प्राणप्रिय बच्चों का दे देना, हरिश्चन्द्र का असाधारण कष्ट सहना, मोरध्वज का अनौखा आदर्श उपस्थित करना गुरुओं के आदेशानुसार ही हुआ था । स्थूल दृष्टि से यह कार्य उनके गुरुओं की हृदयहीनता के परिचायक कहे जा सकते हैं पर सच्ची बात यह है कि उन कष्ट साध्य परीक्षाओं ने ही काल के चबेना, तुच्छ मानव प्राणियों को इतना महान बनाया था । इन कष्टों से वे एक अवज्ञा, मात्र से हो आसानी से बच सकते थे पर तब वे ऐश-आराम से दिन काटते हुए मर जाने वाले असंख्य कीट-पतंगों की तरह विस्मृति के अन्धकार में लुप्त हो जाते और चौरासी के चक्र में घूमते रहते! उन गुरुओं की हृदय हीनता में कितनी अपार दया भरी थी उसका अनुमान लगाना कठिन है ।
राजा दिलीप संतान रहित थे । गुरु के आश्रम में गये किं प्रभो । हमारा वंश डूबने से बचाया जाना चाहिए । वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, देवी सहायता प्राप्त करने के लिए दैवत्व का पोषण आवश्यक है । रानी सहित यहाँ आकर रहो और हमारी गौएँ चराने के लिए ग्वाले का काम करो । दिलीप जानते थे कि स्वार्थपरता की बनी हुई मूल मानसिक ग्रन्थियाँ ही जीवन में अभाव और दुःख उत्पन्न करती हैं । उन ग्रन्थियाँ का शमन त्याग उदारता और परमार्थ का आचरण करने से ही हो सकता है । उन्होंने ऋषि की आज्ञा में अपना कल्याण समझा और राजपाट छोड़कर गौएँ चराने लगे, एक दिन तो सिंह से गौ बचाने के लिए उन्हें अपना प्राण तक अर्पण करने का साहस दिखाना पड़ा । ऐसे ही साहसों से वे मनोग्रन्थियाँ, संस्कार पिण्डकाएँ फूटती हैं जो संतान न होने जैसे अभावों का मूल कारण होती हैं ।
दिलीप ने यथासमय सन्तान पाई । कोई आज का आध्यात्मिक साधक होता तो वशिष्ठ जी की चापलूसी करने में सारी चालाकी खर्च कर देता पर त्याग के नाम पर घण्टे भर का समय या कानी कौड़ी का नुकसान उठाने को भी तैयार न होता । वह सीधी उँगली घी न निकलने पर डराता धमकाता, यजमान न रहने की घौंस बताता निन्दा करता या फिर यह शर्त पेश करता कि मेरे बेटा हो जायगा तो उसके ब्याह में आपको कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य दूँगा । इस प्रकार के व्यक्ति दैवी सहायताओं द्वारा कितने लाभान्वित हो सकते हैं इस संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता ।
मनुष्य में पशुता स्वार्थपरता अधिक होने के कारण सद्गुरु इस बात के लिए प्रयत्नशील रहते है कि शिष्य को परमार्थ के लिए प्रेरित करने में अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग किया जाय । जो त्याग और उदारता का छोटा-सा बोझा भी नहीं उठाना चाहता है धीरे-धीरे करके उसे कुछ न कुछ करने को अवश्य तत्पर किया जाय । सभी जानते हैं कि अपरिग्रही ब्रह्यपरायण एवं अपनी आत्मशक्ति से संसार पर शासन करने वाले ऋषि कल्प ब्रह्मवेत्ता का भोजन उसकी झोंपडी पर पहुँच सकता है पर वे इसे पसन्द नही करते वरन् लोगों के घरों पर जाकर भिक्षा माँगते थे ताकि लोगों को अपनी दान वृत्ति चरितार्थ करने का अवसर मिले । गुरु दक्षिणा के नाम पर भी लोग अधिक से अधिक त्याग करते थे । निर्लोभ ऋषियों को स्वर्ण और मिट्टी बराबर था, वे प्राप्त धन को चिकित्सा यज्ञ विद्याध्ययन आदि लोकहित के कार्यो में ही खर्च करते थे । उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ इतनी स्वल्प थीं कि उसके लिए किसी धन या दान की आवश्यकता नहीं पड़ती दान का धन तो अमानत है जिसे सत्पुरुष एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ खर्च कर देते हैं । आज भिक्षा की पुण्य परम्परा अत्यन्त ही दूषित हो गई है । कुपात्र एवं हरामखाऊ लोगों ने इसे अपना व्यवसाय बना लिया है । ऐसे लोगों को दान देते समय बहुत सोच-विचार करने की आवश्यकता है परन्तु वस्तुत: भिक्षा का मूल उद्देश्य अत्यन्त पवित्र था । जो स्वेच्छा से नहीं देना चाहता उसे कोई अवसर उपस्थित करके देने के लिए तत्पर करना यह भी तो आत्मोन्नति की एक साधना कराने का ही प्रयत्न है ।
राम-लक्ष्मण की ही भाँति दान-पुण्य की जोड़ी है । हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ कर्म, धार्मिक कृत्य ऐसा नहीं है, जिसके साथ-साथ परमार्थ का प्रत्यक्ष उदाहरण उपस्थित न करना पड़ता हो । ब्राह्मण भोजन गौ, अन्न, वस्त्र, पुस्तक आदि का दान, प्रसाद वितरण आदि किसी न किसी अंश में त्याग करना अनिवार्य माना गया है । कहा गया है कि बिना दक्षिण का यज्ञ निष्फल होता है । कारण यही है कि साधनाओं का आध्यात्मिक व्यायाम करने के साथ साधक अपनी मनोभूमि को उपजाऊ बनाने के लिए , देवत्व के पोषण के लिए उदारता एवं परमार्थ का अभ्यास डालने के लिए कुछ क्रियात्मक कार्य भी करता चले । इस कार्य प्रणाली को अपनाने से साधना में प्रगति द्विगुणित वेग से होती है पात्रता तेजी से बढ़ती है फलस्वरूप आत्मकल्याण के आनन्दमय लक्ष्य को प्राप्त करना सुलभ हो जाता है । हमारी साधना उभयपक्षीय चलनी चाहिए । जप, व्रत, उपवास, ध्यान, पूजा, अर्चना, वन्दना, हम नित्य श्रद्धा और भक्तिपूर्वक करें, साथ ही अपनी उदारता, कृतज्ञता, प्रत्युपकार, त्याग, परमार्थ एवं देवत्व के पोषण की भावना को समुन्नत करने के लिए भी कुछ न कुछ अवश्य करते रहें ।