Books - परमार्थ और स्वार्थ का समन्वय
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
स्वार्थ-त्याग में अनन्त आनन्द
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
संसार में सबसे बड़ी चीज आनन्द माना गया है । दुनियाँ में सब जगह जितनी भाग-दौड़ दिखलाई पड़ती है और जितने भी प्रयत्न किए जाते हैं उन सबका अन्तिम उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति ही होता है पर अधिकांश लोग यह नहीं समझते कि आनन्द भौतिक पदार्थो से कदापि नहीं मिल सकता । वह तो आत्मा का गुण है और इसलिए उसकी प्राप्ति आध्यात्मिक प्रयत्नों द्वारा ही संभव है ।
यदि मनुष्य वास्तव में आत्मिक सुख को खरीदना चाहे तो उसे इसके बदले में उसी के समकक्ष चीज देनी होगी । यदि वास्तव में हम संयम, सहिष्णुता, धैर्य, सहानुभूति और प्रेम को अपने हृदय में उत्पन्न करना चाहें तो हमें इनके बदले में अपनी मनोवृत्तियों की उच्छृंखलता, स्वार्थ ,लम्पटता और मानसिक चपलता से विदा लेनी होगी । लोभी मनुष्य का द्रव्य से चाहे कितना ही प्रेम क्यों न हो यदि वह अपने शारीरिक आराम को चाहता है, तो उसे अपना द्रव्य अवश्य खर्च करना पड़ेगा । इसी भाँति स्वार्थ का त्याग करने में हमें कितना ही कष्ट क्यों न हो, बिना उससे छुटकारा पाये हम आत्मिक उन्नति प्राप्त नहीं कर सकते । धन का सच्चा उपयोग यही है कि उसके द्वारा मनुष्य जाति को अपनी सुख-सुविधा जुटाने में सुविधा हो । वह कृपण, जो लक्ष-लक्ष मुद्राओं के रहते भी द्रव्य-प्रेम के कारण आवश्यक सामग्रियों को नहीं जुटाता, निस्संदेह दया का पात्र है । इसी भाँति चैतन्य जगत में जो व्यक्ति अपनी मानसिक वृत्तियों के बदले में सच्चे सुख और शान्ति को प्राप्त करने में हिचकिचाता है वह मूढ़ बुद्धि है । प्रकृति ने मनुष्य के हृदय में क्रोध की सृष्टि इसीलिए की है कि उस पर विजय प्राप्त करके क्षमा कर दी जाय । स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य दूसरों की सुख-सामग्री को छीन-छीन कर अपने सुख के लिए एकत्र करता है। दूसरों की उसे जरा भी चिन्ता नहीं रहती । अतएव वह कृपण मनुष्य के सदृश्य अपना द्रव्य अपने ही पास रखना चाहता है परन्तु धर्म का, सिद्धान्त इसके विपरीत है । धर्म चाहता है कि मनुष्य अपने सुख का उपभोग स्वत: भी करे और दूसरे मनुष्यों को सुख देने के लिए भी तत्पर रहे ।
वे आत्मिक शक्तियाँ कौन-कौन हैं-जिनकी वृद्धि के लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए । दयालुता, मैत्रीभाव, समवेदना, संयम, धैर्य, सत्य, शान्ति और विश्वव्यापी प्रेम । ये सारे भाव जिस समय मनुष्य के हृदय में पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं उसी समय उसकी आत्मा विस्तीर्ण होते-होते सारे विश्व में फैल जाती है । यदि इन भावों की प्राप्ति करना चाहते हो तो अधीरता, कोध, निर्दयता, घृणा और स्वार्थ तथा अपनी वृत्तियों को दमन करने का प्रण कर लो । ज्यों-ज्यों इनकी मात्रा हृदय सें घटती जायगी, त्यों-त्यों ही सुख और शान्ति की मात्रा बढ़ती चलेगी ।