Books - प्राणघातक व्यसन
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Language: HINDI
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अश्लील उत्तेजक विचार
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आखिर शहर में रोग क्यों न बढे़ ? इस प्रश्न का विश्लेषण करते हुए आचार्य विनोबा भावे लिखते हैं- ''शहर के लोग ठीक व्यायाम नहीं करते, घरों में बैठे रहते हैं । उनको अच्छी हवा नहीं मिलती । अधिक कपड़े पहनते हैं, जिससे सूर्य की किरणों से वंचित रहते हैं । घर भी ऐसा बनाते हैं जिसमें प्रकृति से दूर रहना पड़ता है, काम भी ऐसा जिसमें कुदरत से कोई प्रयोजन नहीं । फिर रात को जागेंगे, सिनेमा देखेंगे, खराब किताबें पड़ेंगे । इस प्रकार अपने शरीर और मन को विकृत करते रहते हैं तो रोग बढ़ेगा ही ।''
अश्लील और गंदा विषय-भोग संबंधी साहित्य वैसा ही घातक है, जैसा भले-चंगे व्यक्ति के लिए विष । नई उमर में जब मनुष्य को जीवन और जगत का अनुभव नहीं होता, वह अश्लीलता की ओर प्रवृत्त रहता है । यौवन के उन्माद की औंधी में गंदा साहित्य सोई हुई काम-वृत्तियों को कच्ची आयु में उद्दीप्त कर देता है । आज जिधर देखो उधर उत्तेजक चित्र, वासना संबंधी हलके प्रेम की कहानियाँ, अश्लील उपन्यास, विज्ञापन इत्यादि छप रहे हैं ।
सिनेमा ने तो गजब का अँधेर मचा रखा है । आज की फिल्में हलके रोमांस से परिपूर्ण प्रेम कहानियों को लेकर निर्मित होती हैं । अनुभवहीन, यौवन की मस्ती में पागल चढ़ती उम्र के नवयुवक इसी मिथ्या जगत को सत्य मानकर स्त्रियों को आकर्षित करने की कुचेष्टा करते हैं । इससे समाज का नैतिक स्तर गिर जाता है और व्यवस्था टूट जाती है । यदि समाज में गंदे साहित्य पर रोक न लगाई जाएगी तो निश्चय ही चारों ओर स्वच्छंदता और विकार का साम्राज्य फैल जाएगा, स्त्री-पुरुष तेजहीन, लंपट और कमजोर हो जाएँगे तथा उनसे ऊँचे पारमार्थिक कार्य न हो सकेंगे ।
गंदा साहित्य नीति, धर्म का शत्रु है । यह पशुत्व की अभिवृद्धि करता है । समाज में इससे आध्यात्मिकता का लेश भी न रहने पाएगा । आवश्यकता इस बात की है कि जनता को इस गंदे साहित्य की दुष्टताओं , रोमांस की गंदी करतूतों, मानसिक व्यभिचार की त्रुटियों के प्रति सावधान कर दिया जाए ।
विचार एक प्रचंड शक्ति है । मन में, जब कोई गंदा अनर्थकारी विचार प्रविष्ट हो जाता है तो वासना उद्दीप्त हो जाती है । मन गंदगी, अश्लीलता, वासना की ओर नियंत्रण कम होते ही दौड़ जाता है । जो व्यक्ति एक बार कोई प्रेम संबंधित फिल्म, उत्तेजक दृश्य या नग्न चित्र को देख लेता है, उसकी स्मृति पर उसका एक छोटा सा स्मृति चित्र अंकित हो जाता है । यह गुप्त मन में बना रहता है और रात्रि में स्वप्नों के रूप में स्मृतिपटल पर आकर व्यक्ति को बड़ा परेशान और उद्विग्न करता है, बढ़ती हुई वासना, अदृश्य इच्छाओं, विषयी वायुमंडल की सृष्टि करता है । ऐसे माता-पिता के संसर्ग अथवा इस तरह के वातावरण में विकसित होने वाले बच्चे शीघ्र ही विषयी हो जाते है ।
माता-पिता-शिक्षक इत्यादि का पुनीत कर्तव्य है-कि वे अपने बच्चे को स्वस्थ, सात्विक, आध्यात्मिक शक्ति, बल, पौरुष, सद्गुणों को विकसित करने वाला साहित्य पढ़ने के लिए दें । यह ध्यान रखें कि लुक-छिपकर बच्चे बाजार में बिकने वाली सस्ती गंदे किस्से-कहानियों की पुस्तकें न खरीदें । फिल्मों से संबंधित गंदी पत्र-पत्रिकाएँ फिल्मी अभिनेत्रियों के अर्द्धनग्न चित्र न लिए फिरें, सिनेमा के गंदे गाने न गाते फिरें ।
यदि आप स्वयं युवक हैं तो मन पर कडा़ नियंत्रण रखें, अन्यथा पतन की कोई मर्यादा नहीं है । वासना की ओर लुब्ध नेत्रों से देखने वाला किसी न किसी दिन व्यभिचारी बनेगा और मान-प्रतिष्ठा का क्षय होगा । अपने आप को ऐसी पुस्तकों के वातावरण में रखिए जिससे आपकी सर्वोच्च शक्तियों के विकास में सहायता प्राप्त हो, श्रम संकल्प दृढ़ हो, व्यायाम, दीर्घायु, पौरुष, कीर्ति, भजन- पूजन, आध्यात्मिक या सांसारिक उन्नति होती रहे ।
खाली मन शैतान की दुकान है । मन को कोई विषय ऐसा चाहिए जिस पर वह चिंतन, मनन, विचार इत्यादि शक्तियाँ एकाग्र कर सके । उसे-चिंतन के लिए आपको कोई न कोई श्रेष्ठ या निंद्य विषय देना होगा । उत्तम यह है कि आप उसे विचारने के लिए शुभ, सात्विक, उच्चकोटि के विषय दें । उत्तम बातें सोचें । देश में फैले हुए नाना विषयों को सोचें तथा उन पर निज सम्मति प्रकट करें । गंदे साहित्य से बचने का श्रेष्ठ उपाय उच्चकोटि के साहित्य में संलग्न रहना है । शुभ चिंतन, सत्संग, सद्ग्रंथावलोकन में व्यस्त रहने से हम इर्द-गिर्द के अश्लील साहित्य से बच सकते हैं ।
यह विषय इतना गंदा है कि इसकी चर्चा मात्र से हृदय काँप उठता है । इसके फल से समाज में व्यभिचार के गुप्त एवं प्रत्यक्ष पाप की कहानी हृदय दहला देने वाली है । व्यभिचार के साधन आज जितने सस्ते हैं, पहले कभी नहीं रहे । बड़े-बड़े शहरों में व्यभिचार के अड्डे पनप रहे हैं, जहाँ देश के नवयुवक यौवन, तेज, स्वास्थ्य और पौरुष को नष्ट कर रहे हैं । समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो व्यभिचार को प्रोत्साहन देते हैं या स्वयं एजेंट का निंद्य कार्य करते रहते हैं । व्यभिचार मनुष्य के द्वारा किया हुआ सबसे घिनौना पाप कर्म है, जिसकी सजा हमें इसी जन्म में मिल जाती है ।
दुराचार से होने वाले रोगों की संख्या अधिक है । वीर्यपात से गरमी, सुजाक तथा मूत्र नलिका संबंधी अनेक घृणित रोग उत्पन्न होते हैं, जिनकी पीड़ा नरकतुल्य है । इनके अतिरिक्त वेश्यागमन से शरीर अशक्त होकर उसमें सिरदर्द, बदहजमी, रीढ़ की बीमारी, मिरगी, कमजोर आँखें, हृदय की धड़कन का बढ़ जाना, पसलियों का दर्द, बहुमूत्र, पक्षाघात, वीर्यपात, शीघ्रपतन, प्रमेह, नपुंसकता, क्षय, पागलपन इत्यादि महाभयंकर व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं । जीवनीशक्ति क्रमश: क्षय होती रहती है । व्यभिचारी का समाज में सर्वत्र तिरस्कार होता है, उसका उच्च व्यक्तियों में जाना-निकलना आदि बंद हो जाता है ।
इस प्रकार के जघन्य आचरण के क्या कारण हैं । उत्तर में कहा जा सकता है कि हमारी सदोश विवाह पद्धति, स्त्रियों का वास्तविक गौरव न जानना, पौरुष की मिथ्या कल्पना, परदा, गरीबी, अंध-धार्मिकता, हमारी जड़वादिता, संकुचितता, कामोत्तेजना तथा अनिष्टकर वातावरण व्यभिचार की वृद्धि में सहायक हो रहा है । भक्ति के नाम पर मठ-मंदिरों में भलीभाँति स्त्रियों पर पापाचार किया जाता है । जो लोग विवाहित हैं, वे पत्नी से अतिसहवास में लिप्त होकर कामुक और भ्रष्ट बनकर निस्तेज वीर्यहीन बन रहे हैं । व्यभिचारी पुरुष का दाम्पत्य जीवन कपट, धूर्तता, मायाचार और छल से परिपूर्ण होता है । वह अवसर पड़ने पर अपनी पत्नी तक को धोखा देता है ।
इस प्रकार कुकर्म प्राय: चोरी, भय, लज्जा और पाप की झिझक के साथ किया जाता है, बाहर के स्त्री-पुरुषों से यौन संबंध स्थापित करने के पाप-प्रपंच उसके मन में उठा करते हैं । यह पाप-वृत्तियाँ कुछ समय लगातार अभ्यास में आते रहने पर मनुष्य के मन में गहरी उतर जाती हैं और जड़ जमा लेती हैं । फिर उसके स्वभाव में यौन संबंधी बातों में दिलचस्पी, गंदे शब्दों का प्रयोग, बात- बात में गाली देना, गुह्य अंगों का पुन:-पुन: स्पर्श, पराई स्त्रियों को वासनात्मक कुदृष्टि से देखना, मन में गंदे विचारों व पापमयी कल्पनाओं के कारण खींचतान, अस्थिरता, आकर्षण-विकर्षण निरंतर चला करते हैं । यही कारण है कि व्यभिचारी व्यक्ति प्राय: चोर, निर्लज्ज, दुस्साहसी, कायर, झूठे और ठग होते हैं । अपने व्यापार तथा व्यवहार में अपनी इन कुप्रवृत्तियों का परिचय देते रहते हैं । लोगों के मन में उनके लिए विश्वास, प्रतिष्ठा, आदर की भावना नहीं रहती, सच्चा सहयोग नहीं मिलता और फलस्वरूप जीवन-विकास के महत्त्वपूर्ण मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं ।
व्यभिचार की पापपूर्ण वृत्तियों के मन में जम जाने से अंतःकरण कलुषित हो जाता है । मनुष्य की प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता स्वयं अपनी ही नजरों में कम हो जाती है तथा प्रत्येक क्षेत्र में सच्ची मैत्री या सहयोग की भावना का अभाव मिलता है । ये सब बातें नरक की दारुण यातना के समान कष्टकर हैं । व्यभिचारी को निज कुकर्म का दुष्परिणाम इसी जीवन में उपर्युक्त प्रकारों से नित्य ही भुगतना पड़ता है ।
ऐसे नीच प्रवृत्ति के पुरुषों के संपर्क से अनेक प्रकार के रोग और दोष स्त्री की निर्बल अंतश्चेतना को विकृत कर देते हैं । व्यभिचारी पुरुष की लंपटता, वासना, घृणा, ईर्ष्या, उत्तेजना तथा स्त्री के नाना प्रकार के गुण, कर्म, स्वभाव परस्पर टकराते हैं, जिससे उसकी मनोभूमि विकृत हो जाती है ।
दुराचारिणी स्त्रियों का स्वभाव भी दूषित हो जाता है । उनमें चिड़चिड़ापन, झुँझलाहट, घबराहट, आवेश, अस्थिरता, रूठना, काम, लोलुपता, असत्य, छल, अतृप्ति आदि दुर्गुणों की मात्रा में अभिवृद्धि हो जाती है । उनके शरीर में सिरदर्द, कब्ज, पीठ में दर्द, खुश्की, प्यास, अनिद्रा, थकावट, दु:स्वप्न, दुर्गंध आदि विकार बढ़ने लगते हैं । वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों का सान्निध्य अनिष्टकर होता है । पाठको! व्यभिचार की ओर आकर्षित मत होना । यह जितना ही लुभावना है, उतना ही दु:खदायी है । अग्नि की तरह यह सुनहरा- सुनहरा चमकता है, पर जरा सी भूल से यह विनाश करने वाला है । तनिक सा इसकी लपेट में आने पर यह विनाश के मार्ग पर ले जाता है । इस सर्वनाश के मार्ग पर मत चलना, क्योंकि इसकी ओर जिसने भी कदम बढ़ाया है, उसे भारी रोग, क्षति और विपत्ति का सामना करते हुए हाथ मल- मलकर पछताना पड़ा है । व्यभिचार सबसे बड़ा विश्वासघात है । क्योंकि किसी स्त्री के समीप तुम तभी पहुँच पाते हो, जब उसके घर वाले तुम्हारा विश्वास करते हैं । ऐसा कौन है, जो किसी अपरिचित के गृह में निधड़क पदार्पण कर सके और उससे मनचाही बातचीत करे । अत: पाप से डरो और संसार तथा अपनी लोक-लाज का ध्यान रखो । क्या व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले पाप, घृणा, बदनामी, कलंक, रोगों से तुम्हें तनिक भी भय नहीं ?
सद्गृहस्थ वह है जो पड़ोसी की स्त्री के रूप में अपनी पुत्री या माता की छाया देखता है । वीर वह है जो पराई स्त्री को पाप की दृष्टि से नहीं देखता । स्वर्ग के वैभव का अधिकारी वह है, जो स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री समझता हुआ उनके चरणों में प्रणाम करता है । व्यभिचार जैसे घृणित पाप से सावधान! सावधान!! ।
अश्लील और गंदा विषय-भोग संबंधी साहित्य वैसा ही घातक है, जैसा भले-चंगे व्यक्ति के लिए विष । नई उमर में जब मनुष्य को जीवन और जगत का अनुभव नहीं होता, वह अश्लीलता की ओर प्रवृत्त रहता है । यौवन के उन्माद की औंधी में गंदा साहित्य सोई हुई काम-वृत्तियों को कच्ची आयु में उद्दीप्त कर देता है । आज जिधर देखो उधर उत्तेजक चित्र, वासना संबंधी हलके प्रेम की कहानियाँ, अश्लील उपन्यास, विज्ञापन इत्यादि छप रहे हैं ।
सिनेमा ने तो गजब का अँधेर मचा रखा है । आज की फिल्में हलके रोमांस से परिपूर्ण प्रेम कहानियों को लेकर निर्मित होती हैं । अनुभवहीन, यौवन की मस्ती में पागल चढ़ती उम्र के नवयुवक इसी मिथ्या जगत को सत्य मानकर स्त्रियों को आकर्षित करने की कुचेष्टा करते हैं । इससे समाज का नैतिक स्तर गिर जाता है और व्यवस्था टूट जाती है । यदि समाज में गंदे साहित्य पर रोक न लगाई जाएगी तो निश्चय ही चारों ओर स्वच्छंदता और विकार का साम्राज्य फैल जाएगा, स्त्री-पुरुष तेजहीन, लंपट और कमजोर हो जाएँगे तथा उनसे ऊँचे पारमार्थिक कार्य न हो सकेंगे ।
गंदा साहित्य नीति, धर्म का शत्रु है । यह पशुत्व की अभिवृद्धि करता है । समाज में इससे आध्यात्मिकता का लेश भी न रहने पाएगा । आवश्यकता इस बात की है कि जनता को इस गंदे साहित्य की दुष्टताओं , रोमांस की गंदी करतूतों, मानसिक व्यभिचार की त्रुटियों के प्रति सावधान कर दिया जाए ।
विचार एक प्रचंड शक्ति है । मन में, जब कोई गंदा अनर्थकारी विचार प्रविष्ट हो जाता है तो वासना उद्दीप्त हो जाती है । मन गंदगी, अश्लीलता, वासना की ओर नियंत्रण कम होते ही दौड़ जाता है । जो व्यक्ति एक बार कोई प्रेम संबंधित फिल्म, उत्तेजक दृश्य या नग्न चित्र को देख लेता है, उसकी स्मृति पर उसका एक छोटा सा स्मृति चित्र अंकित हो जाता है । यह गुप्त मन में बना रहता है और रात्रि में स्वप्नों के रूप में स्मृतिपटल पर आकर व्यक्ति को बड़ा परेशान और उद्विग्न करता है, बढ़ती हुई वासना, अदृश्य इच्छाओं, विषयी वायुमंडल की सृष्टि करता है । ऐसे माता-पिता के संसर्ग अथवा इस तरह के वातावरण में विकसित होने वाले बच्चे शीघ्र ही विषयी हो जाते है ।
माता-पिता-शिक्षक इत्यादि का पुनीत कर्तव्य है-कि वे अपने बच्चे को स्वस्थ, सात्विक, आध्यात्मिक शक्ति, बल, पौरुष, सद्गुणों को विकसित करने वाला साहित्य पढ़ने के लिए दें । यह ध्यान रखें कि लुक-छिपकर बच्चे बाजार में बिकने वाली सस्ती गंदे किस्से-कहानियों की पुस्तकें न खरीदें । फिल्मों से संबंधित गंदी पत्र-पत्रिकाएँ फिल्मी अभिनेत्रियों के अर्द्धनग्न चित्र न लिए फिरें, सिनेमा के गंदे गाने न गाते फिरें ।
यदि आप स्वयं युवक हैं तो मन पर कडा़ नियंत्रण रखें, अन्यथा पतन की कोई मर्यादा नहीं है । वासना की ओर लुब्ध नेत्रों से देखने वाला किसी न किसी दिन व्यभिचारी बनेगा और मान-प्रतिष्ठा का क्षय होगा । अपने आप को ऐसी पुस्तकों के वातावरण में रखिए जिससे आपकी सर्वोच्च शक्तियों के विकास में सहायता प्राप्त हो, श्रम संकल्प दृढ़ हो, व्यायाम, दीर्घायु, पौरुष, कीर्ति, भजन- पूजन, आध्यात्मिक या सांसारिक उन्नति होती रहे ।
खाली मन शैतान की दुकान है । मन को कोई विषय ऐसा चाहिए जिस पर वह चिंतन, मनन, विचार इत्यादि शक्तियाँ एकाग्र कर सके । उसे-चिंतन के लिए आपको कोई न कोई श्रेष्ठ या निंद्य विषय देना होगा । उत्तम यह है कि आप उसे विचारने के लिए शुभ, सात्विक, उच्चकोटि के विषय दें । उत्तम बातें सोचें । देश में फैले हुए नाना विषयों को सोचें तथा उन पर निज सम्मति प्रकट करें । गंदे साहित्य से बचने का श्रेष्ठ उपाय उच्चकोटि के साहित्य में संलग्न रहना है । शुभ चिंतन, सत्संग, सद्ग्रंथावलोकन में व्यस्त रहने से हम इर्द-गिर्द के अश्लील साहित्य से बच सकते हैं ।
यह विषय इतना गंदा है कि इसकी चर्चा मात्र से हृदय काँप उठता है । इसके फल से समाज में व्यभिचार के गुप्त एवं प्रत्यक्ष पाप की कहानी हृदय दहला देने वाली है । व्यभिचार के साधन आज जितने सस्ते हैं, पहले कभी नहीं रहे । बड़े-बड़े शहरों में व्यभिचार के अड्डे पनप रहे हैं, जहाँ देश के नवयुवक यौवन, तेज, स्वास्थ्य और पौरुष को नष्ट कर रहे हैं । समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं जो व्यभिचार को प्रोत्साहन देते हैं या स्वयं एजेंट का निंद्य कार्य करते रहते हैं । व्यभिचार मनुष्य के द्वारा किया हुआ सबसे घिनौना पाप कर्म है, जिसकी सजा हमें इसी जन्म में मिल जाती है ।
दुराचार से होने वाले रोगों की संख्या अधिक है । वीर्यपात से गरमी, सुजाक तथा मूत्र नलिका संबंधी अनेक घृणित रोग उत्पन्न होते हैं, जिनकी पीड़ा नरकतुल्य है । इनके अतिरिक्त वेश्यागमन से शरीर अशक्त होकर उसमें सिरदर्द, बदहजमी, रीढ़ की बीमारी, मिरगी, कमजोर आँखें, हृदय की धड़कन का बढ़ जाना, पसलियों का दर्द, बहुमूत्र, पक्षाघात, वीर्यपात, शीघ्रपतन, प्रमेह, नपुंसकता, क्षय, पागलपन इत्यादि महाभयंकर व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं । जीवनीशक्ति क्रमश: क्षय होती रहती है । व्यभिचारी का समाज में सर्वत्र तिरस्कार होता है, उसका उच्च व्यक्तियों में जाना-निकलना आदि बंद हो जाता है ।
इस प्रकार के जघन्य आचरण के क्या कारण हैं । उत्तर में कहा जा सकता है कि हमारी सदोश विवाह पद्धति, स्त्रियों का वास्तविक गौरव न जानना, पौरुष की मिथ्या कल्पना, परदा, गरीबी, अंध-धार्मिकता, हमारी जड़वादिता, संकुचितता, कामोत्तेजना तथा अनिष्टकर वातावरण व्यभिचार की वृद्धि में सहायक हो रहा है । भक्ति के नाम पर मठ-मंदिरों में भलीभाँति स्त्रियों पर पापाचार किया जाता है । जो लोग विवाहित हैं, वे पत्नी से अतिसहवास में लिप्त होकर कामुक और भ्रष्ट बनकर निस्तेज वीर्यहीन बन रहे हैं । व्यभिचारी पुरुष का दाम्पत्य जीवन कपट, धूर्तता, मायाचार और छल से परिपूर्ण होता है । वह अवसर पड़ने पर अपनी पत्नी तक को धोखा देता है ।
इस प्रकार कुकर्म प्राय: चोरी, भय, लज्जा और पाप की झिझक के साथ किया जाता है, बाहर के स्त्री-पुरुषों से यौन संबंध स्थापित करने के पाप-प्रपंच उसके मन में उठा करते हैं । यह पाप-वृत्तियाँ कुछ समय लगातार अभ्यास में आते रहने पर मनुष्य के मन में गहरी उतर जाती हैं और जड़ जमा लेती हैं । फिर उसके स्वभाव में यौन संबंधी बातों में दिलचस्पी, गंदे शब्दों का प्रयोग, बात- बात में गाली देना, गुह्य अंगों का पुन:-पुन: स्पर्श, पराई स्त्रियों को वासनात्मक कुदृष्टि से देखना, मन में गंदे विचारों व पापमयी कल्पनाओं के कारण खींचतान, अस्थिरता, आकर्षण-विकर्षण निरंतर चला करते हैं । यही कारण है कि व्यभिचारी व्यक्ति प्राय: चोर, निर्लज्ज, दुस्साहसी, कायर, झूठे और ठग होते हैं । अपने व्यापार तथा व्यवहार में अपनी इन कुप्रवृत्तियों का परिचय देते रहते हैं । लोगों के मन में उनके लिए विश्वास, प्रतिष्ठा, आदर की भावना नहीं रहती, सच्चा सहयोग नहीं मिलता और फलस्वरूप जीवन-विकास के महत्त्वपूर्ण मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं ।
व्यभिचार की पापपूर्ण वृत्तियों के मन में जम जाने से अंतःकरण कलुषित हो जाता है । मनुष्य की प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता स्वयं अपनी ही नजरों में कम हो जाती है तथा प्रत्येक क्षेत्र में सच्ची मैत्री या सहयोग की भावना का अभाव मिलता है । ये सब बातें नरक की दारुण यातना के समान कष्टकर हैं । व्यभिचारी को निज कुकर्म का दुष्परिणाम इसी जीवन में उपर्युक्त प्रकारों से नित्य ही भुगतना पड़ता है ।
ऐसे नीच प्रवृत्ति के पुरुषों के संपर्क से अनेक प्रकार के रोग और दोष स्त्री की निर्बल अंतश्चेतना को विकृत कर देते हैं । व्यभिचारी पुरुष की लंपटता, वासना, घृणा, ईर्ष्या, उत्तेजना तथा स्त्री के नाना प्रकार के गुण, कर्म, स्वभाव परस्पर टकराते हैं, जिससे उसकी मनोभूमि विकृत हो जाती है ।
दुराचारिणी स्त्रियों का स्वभाव भी दूषित हो जाता है । उनमें चिड़चिड़ापन, झुँझलाहट, घबराहट, आवेश, अस्थिरता, रूठना, काम, लोलुपता, असत्य, छल, अतृप्ति आदि दुर्गुणों की मात्रा में अभिवृद्धि हो जाती है । उनके शरीर में सिरदर्द, कब्ज, पीठ में दर्द, खुश्की, प्यास, अनिद्रा, थकावट, दु:स्वप्न, दुर्गंध आदि विकार बढ़ने लगते हैं । वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों का सान्निध्य अनिष्टकर होता है । पाठको! व्यभिचार की ओर आकर्षित मत होना । यह जितना ही लुभावना है, उतना ही दु:खदायी है । अग्नि की तरह यह सुनहरा- सुनहरा चमकता है, पर जरा सी भूल से यह विनाश करने वाला है । तनिक सा इसकी लपेट में आने पर यह विनाश के मार्ग पर ले जाता है । इस सर्वनाश के मार्ग पर मत चलना, क्योंकि इसकी ओर जिसने भी कदम बढ़ाया है, उसे भारी रोग, क्षति और विपत्ति का सामना करते हुए हाथ मल- मलकर पछताना पड़ा है । व्यभिचार सबसे बड़ा विश्वासघात है । क्योंकि किसी स्त्री के समीप तुम तभी पहुँच पाते हो, जब उसके घर वाले तुम्हारा विश्वास करते हैं । ऐसा कौन है, जो किसी अपरिचित के गृह में निधड़क पदार्पण कर सके और उससे मनचाही बातचीत करे । अत: पाप से डरो और संसार तथा अपनी लोक-लाज का ध्यान रखो । क्या व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले पाप, घृणा, बदनामी, कलंक, रोगों से तुम्हें तनिक भी भय नहीं ?
सद्गृहस्थ वह है जो पड़ोसी की स्त्री के रूप में अपनी पुत्री या माता की छाया देखता है । वीर वह है जो पराई स्त्री को पाप की दृष्टि से नहीं देखता । स्वर्ग के वैभव का अधिकारी वह है, जो स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री समझता हुआ उनके चरणों में प्रणाम करता है । व्यभिचार जैसे घृणित पाप से सावधान! सावधान!! ।