Books - प्राणघातक व्यसन
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Language: HINDI
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सभ्यता का विष चाय
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चाय एवं काफी सभ्य संसार में पनपने वाले मादक पदार्थ हैं । सभ्य जगत ने और नशीली चीजों की तरह इन्हें भी अपना लिया है । वास्तव में ये दोनों जीवनीशक्ति का ह्रास करते हैं । इनके प्रयोग से शरीर से निकलने वाले कार्बोलिक एसिड का परिणाम बढ़ जाता है ।
प्रथम हानि पाचनशक्ति का ह्यास है । बदहजमी, भूख की कमी, अपच में चाय बड़ी सहायक होती है । सर विलियम राबर्ट लिखते हैं- ''थोड़ी मात्रा में भी चाय और काफी का सेवन करने से हमारे शरीर के पाचन रस कमजोर हो जाते हैं, जिससे अन्न के पौष्टिक तत्वों के सत्वों को हमारा शरीर नहीं खींच सकता, दूसरे शब्दों में यही अग्निमांद्य अथवा अजीर्ण होता है ।''
दाँतों के रोग में वृद्धि का एक कारण गरम-गरम चाय का व्यवहार ही है । गरम पानी लगने से दाँतों की जड़ें निर्बल पड़ जाती हैं । देखने में दाँत काले मैले गंदगी से भरे हुए दिखाई देने लगते हैं ।
चाय क्षणिक उत्तेजना देती है । उत्तेजना समाप्त होने के पश्चात मनुष्यों को स्वाभाविक शक्ति कम मालूम होने लगती है । यह शक्ति बढ़ाती नहीं, पुरानी शक्ति को क्षणभर के लिए उत्तेजित मात्र कर देती है । मस्तिष्क में रक्त का संचालन अधिक हो जाने से उसमें नई स्फूर्ति सी आ जाती है । चाय या काफी पीने वालों को कोई न कोई उत्तेजना अवश्य चाहिए । बिना उत्तेजना के वे कोई भी कार्य संपन्न नहीं कर पाते । प्राय: देखा जाता है कि लोग चाय का प्याला पीते रहते हैं, तभी तक उनका मन कार्य में लगता है । जहाँ चाय समाप्त हुई कि कार्य करने की प्रवृत्ति नहीं रहती । चाय सिगरेट जैसी आदत बन जाती है ।
चाय से सर में दर्द बना रहता है । लोगों में यह भ्रांतिमूलक धारणा बैठ गई है कि चाय से भोजन हजम हो जाता है । वास्तव में इससे उलटे पाचनक्रिया में व्यवधान उपस्थित हो जाता है । दिल की धड़कन की शिकायत बढ़ जाती है और अंग भारी रहते हैं ।
अनेक गणमान्य चिकित्सकों का कथन है कि चाय और काफी हृदय के कार्य को बढ़ा देती हैं । फेंफड़ों को बहुत अधिक कार्बोलिक एसिड गैस बाहर निकालना पड़ती है, शरीर में उष्णता की न्यूनता हो जाती है तथा गुर्दों के कार्य में अभिवृद्धि हो जाती है । यदि चाय तथा काफी में कहवाइन (कड़ुवा विष) का अंश बहुत अधिक रहता है तो मनुष्य का जी मिचलाता है, बहुत चक्कर आते हैं और अंत में मनुष्य बेहोश हो जाता है । अधिक तेज काली-काली कहवाइन विष से भरी हुई चाय से मनुष्य मर भी सकता है ।
चाय में दो प्रकार के विषैले पदार्थों का अस्तित्व है- ( १) टेनिन (२) कहवाइन । चाय पीते समय हम जो कसैला-कसैला स्वाद अनुभव करते हैं, वह टेनिन है तथा शरीर के लिए हानिकारक है । यह चमड़े का तनाव बढ़ा देता है । जब यह मानव शरीर के भीतर प्रविष्ट होता है तो आमाशय की झिल्ली को अनुचित तनाव की स्थिति में ला देता है । इससे आमाशय में भोजन का परिपाक सहज में नहीं होता, न इसका पोषण झिल्ली कर सकती है । कहवाइन एक प्रकार का उत्तेजक है, जो मस्तिष्क को उत्तेजित करता है । चाय का पेपीन नामक विष भी टेनिन जैसा ही दूषित है ।
शारीरिक हानि के विचार से शराब और चाय एक ही प्रकार के हैं, अंतर महँगी और सस्ती का है । शराब मदहोश बनाकर अल्पकाल के लिए दु:ख हरती है, किंतु चाय उत्तेजना देती और नींद हरती है । अमूल्य जीवन तथा शरीर के स्वास्थ्य को नष्ट करने में यह शराब से कम नहीं है, क्योंकि यह उससे सस्ती है और इसका प्रचार स्थान-स्थान पर है । क्षुधा नष्ट हो जाती है तथा चाय के अतिरिक्त और किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती । हृदय की गति निर्बल पड़ जाती है । इसके बिना मन खिन्न, चिड़चिड़ा और मस्तिष्क कार्य रहित सा रहता है ।
भारत के प्रसिद्ध डॉ. गोपाल भास्कर गडबुल लिखते हैं कि कान तथा अन्य ज्ञान इंद्रियों पर इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । कुछ दिनों में पक्षाघात (लकवा ), बहरापन आदि रोग होते हैं । जो व्यक्ति चाय पीते हैं, उनके दिमाग की नसें ढीली पड़ जाती हैं और कानों में साँय-साँय की ध्वनि आने लगती है । स्त्रियाँ जो मनुष्यों की अपेक्षा अधिक निर्बल होती हैं, चाय की अभ्यासी बनकर रोगों से अधिक ग्रस्त हो जाती हैं ।
कुछ डॉक्टरों का कथन है कि चाय-काफी के सेवन से एक नया रोग उत्पन्न हुआ है- पहले मस्तिष्क में एक प्रकार का वेग उत्पन्न होता है, चेहरे का रंग पीत वर्ण हो जाता है, किंतु चाय पीने वाला उसकी परवाह नहीं करता । कुछ समय पश्चात आंतरिक एवं बाह्य कष्ट प्रकट होने लगता है । चित्त (स्वभाव) शुष्क और मुखाकृति अधिक पीतवर्ण हो जाती है । चाय के कारण एक अन्य रोग जिसे ' चाहरम ' कहते हैं, उत्पन्न हो जाता है, जिसमें एक प्रकार की कठिन मूर्च्छा, आंतरिक इंद्रियों के कार्य शिथिल (हृदय में कंप और पाचन यंत्रों में पीड़ा होती है, जिसे फलस्वरूप स्वाभाविक शिथिलता प्रकट होने लगती है । मूत्राशय पर अप्राकृतिक दबाव पड़कर उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है ।
एक विशेषज्ञ लिखते हैं- ''चाय का कैफीन कब्ज उत्पन्न करता है । प्राय: देखा जाता है कि चाय के शौकीनों को तब तक शौच नहीं उतरती जब तक वे चाय न पी लें । वास्तव में चाय मल निस्सरण नहीं करती । गरम पानी जो चाय में मिला रहता है, शरीर के अपान वायु को हलका कर देता है और उसी के कारण मल का निस्सरण होता है । चाय पीने वाले उसे चाय का गुण समझते हैं । कैफीन विष दिल की धड़कन को बढ़ा देता है और कभी-कभी तो दिल की धड़कन इतनी बढ़ जाती है कि आदमी मर तक जाता है । इस विष से गठिया आदि वात रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं । गुरदे पर इसका ऐसा बुरा प्रभाव पड़ता है कि बहुमूत्र की शुरू हो जाती है । चक्कर आना, आवाज बदल जाना, रक्त विकार, लकवा लग जाना, वीर्य के अनेक विकार, मूर्च्छा आना, नींद का कम हो जाना आदि ऐसे घातक रोग हैं जो चाय में रहने वाले साइनोजेन, सिट्रानाइन, साइनाइड आदि विषों के कारण उत्पन्न होते हैं ।''
चाय के प्रचार में हमारी दिखावटी अंधानुकरण करने की दूषित मनोवृत्ति ने विशेष योग प्रदान किया है । ठंडे मुल्कों के लिए चाय आवश्यक हो सकती है, किंतु भारत जैसे गरम देश के लिए यह हानिकारक है ।
प्रथम हानि पाचनशक्ति का ह्यास है । बदहजमी, भूख की कमी, अपच में चाय बड़ी सहायक होती है । सर विलियम राबर्ट लिखते हैं- ''थोड़ी मात्रा में भी चाय और काफी का सेवन करने से हमारे शरीर के पाचन रस कमजोर हो जाते हैं, जिससे अन्न के पौष्टिक तत्वों के सत्वों को हमारा शरीर नहीं खींच सकता, दूसरे शब्दों में यही अग्निमांद्य अथवा अजीर्ण होता है ।''
दाँतों के रोग में वृद्धि का एक कारण गरम-गरम चाय का व्यवहार ही है । गरम पानी लगने से दाँतों की जड़ें निर्बल पड़ जाती हैं । देखने में दाँत काले मैले गंदगी से भरे हुए दिखाई देने लगते हैं ।
चाय क्षणिक उत्तेजना देती है । उत्तेजना समाप्त होने के पश्चात मनुष्यों को स्वाभाविक शक्ति कम मालूम होने लगती है । यह शक्ति बढ़ाती नहीं, पुरानी शक्ति को क्षणभर के लिए उत्तेजित मात्र कर देती है । मस्तिष्क में रक्त का संचालन अधिक हो जाने से उसमें नई स्फूर्ति सी आ जाती है । चाय या काफी पीने वालों को कोई न कोई उत्तेजना अवश्य चाहिए । बिना उत्तेजना के वे कोई भी कार्य संपन्न नहीं कर पाते । प्राय: देखा जाता है कि लोग चाय का प्याला पीते रहते हैं, तभी तक उनका मन कार्य में लगता है । जहाँ चाय समाप्त हुई कि कार्य करने की प्रवृत्ति नहीं रहती । चाय सिगरेट जैसी आदत बन जाती है ।
चाय से सर में दर्द बना रहता है । लोगों में यह भ्रांतिमूलक धारणा बैठ गई है कि चाय से भोजन हजम हो जाता है । वास्तव में इससे उलटे पाचनक्रिया में व्यवधान उपस्थित हो जाता है । दिल की धड़कन की शिकायत बढ़ जाती है और अंग भारी रहते हैं ।
अनेक गणमान्य चिकित्सकों का कथन है कि चाय और काफी हृदय के कार्य को बढ़ा देती हैं । फेंफड़ों को बहुत अधिक कार्बोलिक एसिड गैस बाहर निकालना पड़ती है, शरीर में उष्णता की न्यूनता हो जाती है तथा गुर्दों के कार्य में अभिवृद्धि हो जाती है । यदि चाय तथा काफी में कहवाइन (कड़ुवा विष) का अंश बहुत अधिक रहता है तो मनुष्य का जी मिचलाता है, बहुत चक्कर आते हैं और अंत में मनुष्य बेहोश हो जाता है । अधिक तेज काली-काली कहवाइन विष से भरी हुई चाय से मनुष्य मर भी सकता है ।
चाय में दो प्रकार के विषैले पदार्थों का अस्तित्व है- ( १) टेनिन (२) कहवाइन । चाय पीते समय हम जो कसैला-कसैला स्वाद अनुभव करते हैं, वह टेनिन है तथा शरीर के लिए हानिकारक है । यह चमड़े का तनाव बढ़ा देता है । जब यह मानव शरीर के भीतर प्रविष्ट होता है तो आमाशय की झिल्ली को अनुचित तनाव की स्थिति में ला देता है । इससे आमाशय में भोजन का परिपाक सहज में नहीं होता, न इसका पोषण झिल्ली कर सकती है । कहवाइन एक प्रकार का उत्तेजक है, जो मस्तिष्क को उत्तेजित करता है । चाय का पेपीन नामक विष भी टेनिन जैसा ही दूषित है ।
शारीरिक हानि के विचार से शराब और चाय एक ही प्रकार के हैं, अंतर महँगी और सस्ती का है । शराब मदहोश बनाकर अल्पकाल के लिए दु:ख हरती है, किंतु चाय उत्तेजना देती और नींद हरती है । अमूल्य जीवन तथा शरीर के स्वास्थ्य को नष्ट करने में यह शराब से कम नहीं है, क्योंकि यह उससे सस्ती है और इसका प्रचार स्थान-स्थान पर है । क्षुधा नष्ट हो जाती है तथा चाय के अतिरिक्त और किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती । हृदय की गति निर्बल पड़ जाती है । इसके बिना मन खिन्न, चिड़चिड़ा और मस्तिष्क कार्य रहित सा रहता है ।
भारत के प्रसिद्ध डॉ. गोपाल भास्कर गडबुल लिखते हैं कि कान तथा अन्य ज्ञान इंद्रियों पर इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । कुछ दिनों में पक्षाघात (लकवा ), बहरापन आदि रोग होते हैं । जो व्यक्ति चाय पीते हैं, उनके दिमाग की नसें ढीली पड़ जाती हैं और कानों में साँय-साँय की ध्वनि आने लगती है । स्त्रियाँ जो मनुष्यों की अपेक्षा अधिक निर्बल होती हैं, चाय की अभ्यासी बनकर रोगों से अधिक ग्रस्त हो जाती हैं ।
कुछ डॉक्टरों का कथन है कि चाय-काफी के सेवन से एक नया रोग उत्पन्न हुआ है- पहले मस्तिष्क में एक प्रकार का वेग उत्पन्न होता है, चेहरे का रंग पीत वर्ण हो जाता है, किंतु चाय पीने वाला उसकी परवाह नहीं करता । कुछ समय पश्चात आंतरिक एवं बाह्य कष्ट प्रकट होने लगता है । चित्त (स्वभाव) शुष्क और मुखाकृति अधिक पीतवर्ण हो जाती है । चाय के कारण एक अन्य रोग जिसे ' चाहरम ' कहते हैं, उत्पन्न हो जाता है, जिसमें एक प्रकार की कठिन मूर्च्छा, आंतरिक इंद्रियों के कार्य शिथिल (हृदय में कंप और पाचन यंत्रों में पीड़ा होती है, जिसे फलस्वरूप स्वाभाविक शिथिलता प्रकट होने लगती है । मूत्राशय पर अप्राकृतिक दबाव पड़कर उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है ।
एक विशेषज्ञ लिखते हैं- ''चाय का कैफीन कब्ज उत्पन्न करता है । प्राय: देखा जाता है कि चाय के शौकीनों को तब तक शौच नहीं उतरती जब तक वे चाय न पी लें । वास्तव में चाय मल निस्सरण नहीं करती । गरम पानी जो चाय में मिला रहता है, शरीर के अपान वायु को हलका कर देता है और उसी के कारण मल का निस्सरण होता है । चाय पीने वाले उसे चाय का गुण समझते हैं । कैफीन विष दिल की धड़कन को बढ़ा देता है और कभी-कभी तो दिल की धड़कन इतनी बढ़ जाती है कि आदमी मर तक जाता है । इस विष से गठिया आदि वात रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं । गुरदे पर इसका ऐसा बुरा प्रभाव पड़ता है कि बहुमूत्र की शुरू हो जाती है । चक्कर आना, आवाज बदल जाना, रक्त विकार, लकवा लग जाना, वीर्य के अनेक विकार, मूर्च्छा आना, नींद का कम हो जाना आदि ऐसे घातक रोग हैं जो चाय में रहने वाले साइनोजेन, सिट्रानाइन, साइनाइड आदि विषों के कारण उत्पन्न होते हैं ।''
चाय के प्रचार में हमारी दिखावटी अंधानुकरण करने की दूषित मनोवृत्ति ने विशेष योग प्रदान किया है । ठंडे मुल्कों के लिए चाय आवश्यक हो सकती है, किंतु भारत जैसे गरम देश के लिए यह हानिकारक है ।