Books - संजीवनी विद्या का विस्तार
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संजीवनी विद्या को व्यापक बनाया जाए
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यहाँ चर्चा जीवंतों और प्राणवानों की हो रही है, जिनके लिए अपनी गाड़ी
धकेलने में कोई हैरानी नहीं पड़ती और जो दूसरों को सहारा दे सकने में भी
समर्थ हैं। भेड़ तक, ऊन का उपहार लिए प्रस्तुत रहती हैं, पेड़ों को अपनी
पत्तियों, लकड़ियों और फल- फूलों की संपदा बाँटने में संकीर्णता नहीं होती।
फिर मनुष्य में तो उदारता का कुछ अंश होना ही चाहिए। सोचते हैं कि हजार
पीछे एक तो ऐसा होगा ही, जिसे मानवीय गरिमा का स्मरण हो, और जो भलाई करने व
विकृतियों के निराकरण में किसी न किसी काम आये।
आठ घण्टे कमाने, सात घण्टे सोने और पाँच घण्टे जिधर- तिधर भागदौड़ करते रहने के लिए सुरक्षित रख लिए जाएँ, तो भी २० घण्टे में दिनचर्या भली प्रकार निभ जाती है। चार घण्टे परमार्थ- प्रयोजनों में निरंतर लगाते रहने के लिए उनके पास भी बच जाते हैं, जो रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने के लिए विवश हैं। ऐसों के अतिरिक्त उन सरकारी पेंशनरों की संख्या कम नहीं, जो मात्र पचपन वर्षों में ही पेंशन ले लेते हैं और कम- से अस्सी वर्ष की आयु तक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने की स्थिति में रहते हैं। यदि वे अंतरात्मा की पुकार सुन सकें तो युगधर्म की चुनौती स्वीकार करने में अपने बचे जीवन को बिना किसी कठिनाई के लगा सकते हैं।
जिनके लड़के -बच्चे कमाने लायक हो गये, उनमें से भी असंख्य निष्क्रिय जीवन बिताने लगते हैं। आवारागर्दी में समय गुजारते हैं। एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसने पिछले दिनों पर्याप्त पैसा कमा लिया अथवा उत्तराधिकार में प्राप्त प्रचुर सम्पत्ति हथिया ली। यदि वे चाहें, तो इस सम्पदा को बैंक में जमा करके उसके ब्याज से शेष जीवन एवं बच्चों का उत्तरदायित्व भली प्रकार पूरा कर सकते हैं। इनके पास समय- ही समय है। यदि उसका मन कीचड़ में उगने वाले कमल की तरह तनिक ऊँचा उठ सके, आदर्श और चिंतन की ओर मुँह मोड़ सके, तो समझना चाहिए कि युग- प्रशिक्षकों की एक नई सेना मोरचे पर आ खड़ी हुई। साधु, ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग तो धर्म के आधार पर आजीविका अर्जित करता है, उसके लिए तो अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है कि नमक हलाल तो कहलाता ही रहे। भजन करने का बहाना तो ऐसा नहीं है, जिसकी आड़ में जनसाधारण की श्रद्धा और संपदा का दोहन किया जाता रहे।
महिलाओं में से भी कुछ न कुछ ऐसी हो सकती हैं, जिन्हें रसोइदारिन, चौकीदारिन तथा धोबिन स्तर के कामों में थोड़ी फुरसत मिल सकती है। वे युगधर्म की माँग में अपना थोड़ा- बहुत समयदान, अंशदान तो लगा ही सकती हैं। विधवाओं- परित्यक्ताओं का एक बड़ा वर्ग भी जिस- तिस की बेगार भर करता रहता है। जिनके विवाह सामाजिक विडम्बनाओं ने संभव नहीं होने दिये अथवा जिनके मन में अपने पिछड़े समुदाय के प्रति किसी कोने में दर्द है, वे प्राय: अविवाहित ही रह जाती हैं। निराश्रित होने पर नौकरी करतीं और उस कमाई को भाई- भतीजों पर उड़ेलती रहती हैं। ऐसी देवियाँ, यों अपने को दुर्भाग्यग्रस्त मानती हैं, पर वे वस्तुतः: सौभाग्यवती हैं, जिन्हें बंदी- दासी का जीवन जीने की विवशता से भगवान् ने बचा लिया। घर में बहुएँ आ जाने पर तो सास- वर्ग महिलाएँ प्रौढ़ होते हुए भी काम- धंधों से छुटकारा पा जाती हैं। संपन्न परिवारों में अच्छी कमाई होने के कारण नौकर- चाकर सब काम कर देते हैं, घर की महिलाओं के पास तो टी.वी. देखने, रेडियो सुनने, उपन्यास पढ़ने जैसे बेकार काम ही समय काटने के लिए शेष रह जाते हैं। यह वर्ग भी इतना बड़ा है, जो चाहे तो महिला उत्कर्ष के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
महिला- समुदाय के उपर्युक्त वर्ग ऐसे नहीं हैं, जो काम की अधिकता की बात कहकर महिला- उत्थान की सामयिक महत्ता- आवश्यकता को नकारने के लिए कोई समझ में आ सकने योग्य बहाना गढ़ सकें।
इस समय प्रजनन के भार से धरती त्राहि- त्राहि कर रही है और समाज का ढाँचा बुरी तरह लड़खड़ा रहा है। ऐसे आपत्ति- काल में जो नर- नारी बच्चे जनने से हाथ सिकोड़े, उन्हें समझदारों और दूरदर्शियों में गिना जा सकता है। यदि ऐसा कहीं संभव हो, वहीं यह संभावना साकार होती है कि दोनों एक- एक मिलकर ग्यारह का उदाहरण बनें। एक- दूसरे को ऊँचा उठाने में सहायता करें। बच्चों का झंझट न होने पर दोनों मिलकर युग धर्म का निर्वाह कर ग्यारह गुना काम कर सकते हैं।
प्रसव- पीड़ा में १३ प्रतिशत महिलाएँ मर जाती हैं और बड़ी संख्या में आजीवन रुग्णता- दुर्बलता का शिकार बनती हैं। उन पतियों पर लानत की धूल कौन फेंके, जो पत्नी के आधी जिंदगी अर्ध- मृतकों के स्तर की व्यतीत करने के लिए बाधित करते हैं। अपना अर्थ- भार दुगुना- चौगुना बढ़ाते हैं। सुसंस्कार दे सकने की योग्यता न होने पर बच्चों को कुसंस्कारी बनाते हैं और समाज के लिए असंख्य समस्याएँ खड़ी करते हैं। यदि बच्चे उत्पन्न करने की सामयिक मूर्खता से बचा जा सके, तो इन दिनों भी अनेक महिलाएँ नारी- उत्कर्ष के कार्य में जुट सकती हैं और अपने संपर्क- क्षेत्र में एक प्रकार से अभिनव क्रांति उत्पन्न कर सकती हैं।
प्रश्न व्यस्तता, अभावग्रस्तता आदि का नहीं, वरन् एक ही है कि जन- जन पर कृपणता, निष्ठुरता, घिनौनी स्वार्थपरता के रूप में शैतान ही छाया है। वही आदर्शों के निमित्त कुछ संयम बरतने और परमार्थपरक सेवा- साधना करने के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा होता है। यदि किसी प्रकार उसे घटाया- हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि शिक्षित- अशिक्षित स्तर के कोई भी नर- नारी किसी न किसी हद तक युग- अध्यापक की छोटी- बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यदि ऐसा माहौल बन सके, तो समझना चाहिए कि महाकाल की महती आवश्यकता का एक बड़ा अंश सरलतापूर्वक संपन्न हो गया।
कोई समय था, जब सभी देवालय, गुरुकुल, आरण्यक, आश्रम, तीर्थ इसी एक काम में अपनी क्षमता नियोजित किये रहते थे। उनमें बड़ी संख्या में ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि व ऋषि- मनीषी रहा करते थे और वहाँ पहुँचने वालों को उनकी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप इस प्रकार का शिक्षण दिया करते थे, ताकि हर आगंतुक को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने में सहायता मिल सके। यही कारण था कि बालकों से लेकर वृद्धों तक के संजीवनी विद्या का ज्ञान रहता था और वे उसका अनुकरण करते हुए उस स्तर के बनते थे, जिन्हें सच्चे अर्थों में देवमानव कहा जा सके। ऐसे लोग जहाँ भी बसेंगे, वह धरती सहज ही स्वर्गोपम कही और समझी जाने लगेगी। ऐसा वातावरण पुरातन काल में तो था ही, अब उसी प्रक्रिया को फिर अपनाया जाने लगे, तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए कि सतयुग की वापसी होकर रहेगी।
प्रश्न शिक्षा पद्धति एवं शिक्षकों का है, उसे शान्तिकुञ्ज ने पूरा करने का निश्चय कर लिया है। इसके लिए स्वाध्याय- सत्संग का ही नहीं, उन छोटे- बड़े आयोजनों- समारोहों की भी व्यवस्था बनाई गई है, जिनके आकर्षण से जनसमुदाय को एकत्रित और प्रशिक्षित किया जा सके।
आठ घण्टे कमाने, सात घण्टे सोने और पाँच घण्टे जिधर- तिधर भागदौड़ करते रहने के लिए सुरक्षित रख लिए जाएँ, तो भी २० घण्टे में दिनचर्या भली प्रकार निभ जाती है। चार घण्टे परमार्थ- प्रयोजनों में निरंतर लगाते रहने के लिए उनके पास भी बच जाते हैं, जो रोज कुआँ खोदने और रोज पानी पीने के लिए विवश हैं। ऐसों के अतिरिक्त उन सरकारी पेंशनरों की संख्या कम नहीं, जो मात्र पचपन वर्षों में ही पेंशन ले लेते हैं और कम- से अस्सी वर्ष की आयु तक शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने की स्थिति में रहते हैं। यदि वे अंतरात्मा की पुकार सुन सकें तो युगधर्म की चुनौती स्वीकार करने में अपने बचे जीवन को बिना किसी कठिनाई के लगा सकते हैं।
जिनके लड़के -बच्चे कमाने लायक हो गये, उनमें से भी असंख्य निष्क्रिय जीवन बिताने लगते हैं। आवारागर्दी में समय गुजारते हैं। एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जिसने पिछले दिनों पर्याप्त पैसा कमा लिया अथवा उत्तराधिकार में प्राप्त प्रचुर सम्पत्ति हथिया ली। यदि वे चाहें, तो इस सम्पदा को बैंक में जमा करके उसके ब्याज से शेष जीवन एवं बच्चों का उत्तरदायित्व भली प्रकार पूरा कर सकते हैं। इनके पास समय- ही समय है। यदि उसका मन कीचड़ में उगने वाले कमल की तरह तनिक ऊँचा उठ सके, आदर्श और चिंतन की ओर मुँह मोड़ सके, तो समझना चाहिए कि युग- प्रशिक्षकों की एक नई सेना मोरचे पर आ खड़ी हुई। साधु, ब्राह्मण व पुरोहित वर्ग तो धर्म के आधार पर आजीविका अर्जित करता है, उसके लिए तो अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है कि नमक हलाल तो कहलाता ही रहे। भजन करने का बहाना तो ऐसा नहीं है, जिसकी आड़ में जनसाधारण की श्रद्धा और संपदा का दोहन किया जाता रहे।
महिलाओं में से भी कुछ न कुछ ऐसी हो सकती हैं, जिन्हें रसोइदारिन, चौकीदारिन तथा धोबिन स्तर के कामों में थोड़ी फुरसत मिल सकती है। वे युगधर्म की माँग में अपना थोड़ा- बहुत समयदान, अंशदान तो लगा ही सकती हैं। विधवाओं- परित्यक्ताओं का एक बड़ा वर्ग भी जिस- तिस की बेगार भर करता रहता है। जिनके विवाह सामाजिक विडम्बनाओं ने संभव नहीं होने दिये अथवा जिनके मन में अपने पिछड़े समुदाय के प्रति किसी कोने में दर्द है, वे प्राय: अविवाहित ही रह जाती हैं। निराश्रित होने पर नौकरी करतीं और उस कमाई को भाई- भतीजों पर उड़ेलती रहती हैं। ऐसी देवियाँ, यों अपने को दुर्भाग्यग्रस्त मानती हैं, पर वे वस्तुतः: सौभाग्यवती हैं, जिन्हें बंदी- दासी का जीवन जीने की विवशता से भगवान् ने बचा लिया। घर में बहुएँ आ जाने पर तो सास- वर्ग महिलाएँ प्रौढ़ होते हुए भी काम- धंधों से छुटकारा पा जाती हैं। संपन्न परिवारों में अच्छी कमाई होने के कारण नौकर- चाकर सब काम कर देते हैं, घर की महिलाओं के पास तो टी.वी. देखने, रेडियो सुनने, उपन्यास पढ़ने जैसे बेकार काम ही समय काटने के लिए शेष रह जाते हैं। यह वर्ग भी इतना बड़ा है, जो चाहे तो महिला उत्कर्ष के लिए बहुत कुछ कर सकता है।
महिला- समुदाय के उपर्युक्त वर्ग ऐसे नहीं हैं, जो काम की अधिकता की बात कहकर महिला- उत्थान की सामयिक महत्ता- आवश्यकता को नकारने के लिए कोई समझ में आ सकने योग्य बहाना गढ़ सकें।
इस समय प्रजनन के भार से धरती त्राहि- त्राहि कर रही है और समाज का ढाँचा बुरी तरह लड़खड़ा रहा है। ऐसे आपत्ति- काल में जो नर- नारी बच्चे जनने से हाथ सिकोड़े, उन्हें समझदारों और दूरदर्शियों में गिना जा सकता है। यदि ऐसा कहीं संभव हो, वहीं यह संभावना साकार होती है कि दोनों एक- एक मिलकर ग्यारह का उदाहरण बनें। एक- दूसरे को ऊँचा उठाने में सहायता करें। बच्चों का झंझट न होने पर दोनों मिलकर युग धर्म का निर्वाह कर ग्यारह गुना काम कर सकते हैं।
प्रसव- पीड़ा में १३ प्रतिशत महिलाएँ मर जाती हैं और बड़ी संख्या में आजीवन रुग्णता- दुर्बलता का शिकार बनती हैं। उन पतियों पर लानत की धूल कौन फेंके, जो पत्नी के आधी जिंदगी अर्ध- मृतकों के स्तर की व्यतीत करने के लिए बाधित करते हैं। अपना अर्थ- भार दुगुना- चौगुना बढ़ाते हैं। सुसंस्कार दे सकने की योग्यता न होने पर बच्चों को कुसंस्कारी बनाते हैं और समाज के लिए असंख्य समस्याएँ खड़ी करते हैं। यदि बच्चे उत्पन्न करने की सामयिक मूर्खता से बचा जा सके, तो इन दिनों भी अनेक महिलाएँ नारी- उत्कर्ष के कार्य में जुट सकती हैं और अपने संपर्क- क्षेत्र में एक प्रकार से अभिनव क्रांति उत्पन्न कर सकती हैं।
प्रश्न व्यस्तता, अभावग्रस्तता आदि का नहीं, वरन् एक ही है कि जन- जन पर कृपणता, निष्ठुरता, घिनौनी स्वार्थपरता के रूप में शैतान ही छाया है। वही आदर्शों के निमित्त कुछ संयम बरतने और परमार्थपरक सेवा- साधना करने के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा होता है। यदि किसी प्रकार उसे घटाया- हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि शिक्षित- अशिक्षित स्तर के कोई भी नर- नारी किसी न किसी हद तक युग- अध्यापक की छोटी- बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। यदि ऐसा माहौल बन सके, तो समझना चाहिए कि महाकाल की महती आवश्यकता का एक बड़ा अंश सरलतापूर्वक संपन्न हो गया।
कोई समय था, जब सभी देवालय, गुरुकुल, आरण्यक, आश्रम, तीर्थ इसी एक काम में अपनी क्षमता नियोजित किये रहते थे। उनमें बड़ी संख्या में ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि व ऋषि- मनीषी रहा करते थे और वहाँ पहुँचने वालों को उनकी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप इस प्रकार का शिक्षण दिया करते थे, ताकि हर आगंतुक को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने में सहायता मिल सके। यही कारण था कि बालकों से लेकर वृद्धों तक के संजीवनी विद्या का ज्ञान रहता था और वे उसका अनुकरण करते हुए उस स्तर के बनते थे, जिन्हें सच्चे अर्थों में देवमानव कहा जा सके। ऐसे लोग जहाँ भी बसेंगे, वह धरती सहज ही स्वर्गोपम कही और समझी जाने लगेगी। ऐसा वातावरण पुरातन काल में तो था ही, अब उसी प्रक्रिया को फिर अपनाया जाने लगे, तो इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जाना चाहिए कि सतयुग की वापसी होकर रहेगी।
प्रश्न शिक्षा पद्धति एवं शिक्षकों का है, उसे शान्तिकुञ्ज ने पूरा करने का निश्चय कर लिया है। इसके लिए स्वाध्याय- सत्संग का ही नहीं, उन छोटे- बड़े आयोजनों- समारोहों की भी व्यवस्था बनाई गई है, जिनके आकर्षण से जनसमुदाय को एकत्रित और प्रशिक्षित किया जा सके।