Books - संजीवनी विद्या का विस्तार
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लोकमानस-परिष्कार का प्रशिक्षण
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शान्तिकुञ्ज एक छोटी- सी भूमि पर बसा, थोड़े- से लोगों द्वारा संचालित एक
साधारण- सा आश्रम है। उसकी व्यय- व्यवस्था प्रेमी- परिजनों द्वारा नित्य
निकाली जाने वाली दस पैसा जैसी छोटी राशि से चलती है। एक घण्टा समय नित्य
निकालने वाले परिजन भी उसी श्रद्धा के बल पर इतनी भारी गाड़ी को अपने
बलबूते घसीटते रहे हैं। सरकारी या धनाध्यक्षों के अनुग्रह की न कभी आशा की
गई और न वह इस संकल्प की ओर उन्मुख ही हुआ।
सद्ज्ञान- प्रकाश के देवता ‘सविता’ के रथ में कभी ऋषि, मनीषी, तपस्वी, साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ और परिव्राजक रूपी सात अश्व मिल- जुलकर दौड़ते थे और उस ऊर्जा एवं आभा से विश्व का कोना- कोना आलोक से भरते थे। उस सांस्कृतिक रथ के निर्माण में समर्थ- सम्पन्न अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ नियोजित करते रहते थे। धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अवसर इसी आधार पर उपलब्ध हुआ था, पर अब तो सब कुछ उलटा हो गया, तथाकथित सन्तजन लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण करने के लिए देवताओं के एजेण्ट बन गए हैं। पैसा खरचने वाले आत्म- विडम्बना के अतिरिक्त और किसी काम के लिए एक कौड़ी भी खरचना नहीं चाहते। ऐसी दशा में विकृतियाँ ही बढ़ती हैं। विकृतियाँ मात्र विपत्ति ही नहीं लातीं, वे उनके समाधान के उपायों को भी झुठलाती और उधर ध्यान देने वालों को भी बरगलाती हैं। इस प्रकार समस्या दूनी, दुहरी और जटिल हो जाती है।
फिर भी कुछ करना तो है ही। स्वल्प सामर्थ्य में भी हीनता के भाव मन में न लाकर जो सम्भव है, उसे कर गुजरना ही इष्ट है। वही किया भी जा रहा है। दुष्कर्मों की तरह सत्कर्मों का अनुकरण करने वाले भी अनेकों निकल आते हैं। दीवाली की रात दीप- मालिकाओं से जगमगाने लगती है। दीप- पर्व मनाया जाता है और समझा जाता है कि समर्थों के मुँह मोड़ लेने पर भी सामान्यों और छोटों का समुदाय भी ऐसा कुछ कर गुजरता है, जिसे कम- से सराहना का लाभ तो मिल ही सके।
अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली पत्रिकाओं के माध्यम से, पाँच लाख स्थायी और पच्चीस लाख अस्थायी परिजनों का एक समुदाय शान्तिकुञ्ज तन्त्र के इर्द- गिर्द इकट्ठा हो गया है। यह प्राय: पचास वर्ष से युग- समस्याओं उसके समाधानों और वर्तमान पीढ़ी के युगधर्म स्तर के कर्तव्यों के सम्बन्ध में निरन्तर कुछ पढ़ता, समझता, सोचता तो रहा ही है, साथ ही उसने समय की पुकार को सुनने और तद्नुरूप यथासम्भव कदम उठाते रहने का प्रयत्न भी चालू रखा है। यही है अपनी जीवन भर की सञ्चित पूँजी- अपना विचार परिवार, जिसे वशं- परम्परा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और सशक्त माना जा सकता है। इसी को श्रद्धासिक्त पुष्पाञ्जलि के रूप में युगदेवता के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया है। दशरथ ने अपने पुत्र विश्वामित्र को सौंप दिए थे। गुरुगोविन्द सिंह के पाँच पुत्रों का भी ऐसा ही श्रेष्ठ सदुपयोग हुआ था। नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय, प्रेम महाविद्यालय, कलकत्ता का नेशनल कॉलेज जैसे आश्रम भी अपने छात्रों को ऐसी ही दिशा में अग्रसर करके कृत्य- कृत्य हुए थे। शान्तिकुञ्ज के अन्तराल में भी ऐसी ही उत्कृष्ट अभिलाषा उभरी है कि वह भी ऐसा ही कुछ अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करे।
वसन्त, १९९० से शान्तिकुञ्ज में कई प्रशिक्षण एक साथ चल पड़े हैं। इनमें से प्रथम है- लोकमानस के परिष्कार का आन्दोलन और उसका संचालन। दूसरा है- महिला जागरण, जिसमें आधी जनसंख्या को अपना मूल्य समझने, बोध करने के लिए शिक्षित स्वावलम्बी और सुसंस्कृत बनने की चेतना को उभारना है। तीसरी है- मानवीय अन्तराल में सन्निहित प्राण- चेतना के उद्दीपन हेतु साधनात्मक अन्वेषण का निर्धारण परीक्षण, यह शोध- प्रक्रिया ब्रह्मवर्चस् में की जाएगी। महिला- प्रशिक्षण को शक्ति- चेतना कहा जाएगा और भाव- संवेदना उभारने वाली शिक्षा को कल्प- प्रक्रिया नाम दिया गया है। यों तीनों ही उपक्रम एक ही तन्त्र के अन्तर्गत काम करेंगे और उनका सूत्र- संचालन करने वाली ऊर्जा एक ही बिन्दु से उभरेगी।
कार्यारम्भ के प्रथम चरण में सोचा गया है कि पाँच लाख स्थायी पाठक परिजनों में हर साल एक लाख को प्रशिक्षित किया जाए, पाँच लाख को पाँच साल में प्रशिक्षित कर दिया जाए। यदि गति और दुगुनी बढ़ सकी तो सन् २००० के आगमन में, प्रस्तुत २५ लाख को न केवल प्रशिक्षित कर दिया जाएगा, वरन् किसी न किसी सीमा तक नियमित रूप से हर दिन कुछ न कुछ करते रहने का व्रत धारण करा दिया जाएगा।
एक से पाँच बनने- बनाने का एक आन्दोलन इसी के साथ चलाया जा रहा है। इस आधार पर आशा की जा सकती है कि जब इन्हीं दिनों ५ लाख के प्रभाव से २५ लाख कुसमुसाने और अँगड़ाई लेने लगे हैं तो आगामी वर्षों में २५ लाख से पाँच गुने बढ़कर सवा करोड़ हो सकते हैं। क्रम आगे भी जारी रहा तो सवा करोड़ का सवा छ: करोड़ हो जाना भी असम्भव नहीं। इतने सृजन शिल्पी लोकमानस को परिष्कृत करने में, प्रचलनों में घुसी अवाञ्छनीयताओं को उलटने में बहुत हद तक सफल हो सकते हैं। स्रष्टा की सुनियोजित योजना आगे बढ़ती रही, तो वह दिन दूर नहीं कि जन- जन के मनों में समुद्र- मन्थन जैसी प्रक्रिया उभरे और उनमें एक से- एक बढ़कर दैवी सम्पत्ति के प्राणवान् रत्न निकलकर इस विश्ववसुधा को स्वर्गोपम बनाकर रख दें।
इन दिनों आदर्शवादी विरक्तों को खोज निकालने में सफलता नहीं मिल रही है। रंगीन कपड़े पहनने वालों, माला सटकाने वालों और मुफ्त के सुविधा- साधन बटोरने वालों की कमी नहीं। पर विवेकानन्द, दयानन्द एवं केशवानन्द कहाँ से आएँ? उस दिशा में प्राय: निराश हो चलने पर अब सोचा यह गया है कि सद्गृहस्थों के माध्यम से ही आपत्तिकालीन आवश्यकता को पूरा किया जा सकेगा। इसका और कोई विकल्प भी तो नहीं है।
हर वर्ष एक लाख का शिक्षण- यह शान्तिकुञ्ज का वर्तमान निर्धारण है। इसी संख्या में उन महिलाओं को भी सम्मिलित रखा गया है, जो घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर महिला- उन्नयन के लिए समय निकाल सकने की स्थिति में हैं। आशा की जानी चाहिए कि सुविधा- साधन बढ़ाते रहें तो अगले दस वर्ष में २५ लाख को अपने घर वालों में ही प्रशिक्षित कर दिया जाए। उन्हें ऐसा साँचा बना दिया जाए जो अपनी बनावट के अनुरूप नये पुर्जे, नये खिलौने ढालने की आवश्यकता पूरी करते रहें। ईश्वर की इच्छा विस्तार करने की हो, तो अपना मिशन भी मत्स्यावतार की तरह सुविस्तृत हो सकता है, समूचे संसार को अपने अंचल में बटोर सकता है।
उपरोक्त प्रशिक्षण वसन्त पर्व (३१ जनवरी )सन् १९९० से विधिवत् आरम्भ हो गया है। इसमें मात्र अखण्ड ज्योति के परिजन ही पाँच- पाँच दिन के लिए प्रवेश पा सकेंगे। सभी को समय का पूर्व निर्धारण करना होगा और स्वीकृति मिलने पर ही आने की तैयारी करनी होगी। अब उन सभी को कड़ाई के साथ आने के लिए मना कर दिया गया है, जो मात्र सैर- सपाटे के लिए आया करते थे। अशिक्षित, वयोवृद्ध, रोगी, बालक, अनगढ़ इन सत्रों में प्रवेश नहीं ही पा सकेंगे।
सद्ज्ञान- प्रकाश के देवता ‘सविता’ के रथ में कभी ऋषि, मनीषी, तपस्वी, साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ और परिव्राजक रूपी सात अश्व मिल- जुलकर दौड़ते थे और उस ऊर्जा एवं आभा से विश्व का कोना- कोना आलोक से भरते थे। उस सांस्कृतिक रथ के निर्माण में समर्थ- सम्पन्न अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ नियोजित करते रहते थे। धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अवसर इसी आधार पर उपलब्ध हुआ था, पर अब तो सब कुछ उलटा हो गया, तथाकथित सन्तजन लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण करने के लिए देवताओं के एजेण्ट बन गए हैं। पैसा खरचने वाले आत्म- विडम्बना के अतिरिक्त और किसी काम के लिए एक कौड़ी भी खरचना नहीं चाहते। ऐसी दशा में विकृतियाँ ही बढ़ती हैं। विकृतियाँ मात्र विपत्ति ही नहीं लातीं, वे उनके समाधान के उपायों को भी झुठलाती और उधर ध्यान देने वालों को भी बरगलाती हैं। इस प्रकार समस्या दूनी, दुहरी और जटिल हो जाती है।
फिर भी कुछ करना तो है ही। स्वल्प सामर्थ्य में भी हीनता के भाव मन में न लाकर जो सम्भव है, उसे कर गुजरना ही इष्ट है। वही किया भी जा रहा है। दुष्कर्मों की तरह सत्कर्मों का अनुकरण करने वाले भी अनेकों निकल आते हैं। दीवाली की रात दीप- मालिकाओं से जगमगाने लगती है। दीप- पर्व मनाया जाता है और समझा जाता है कि समर्थों के मुँह मोड़ लेने पर भी सामान्यों और छोटों का समुदाय भी ऐसा कुछ कर गुजरता है, जिसे कम- से सराहना का लाभ तो मिल ही सके।
अखण्ड ज्योति और उसकी सहेली पत्रिकाओं के माध्यम से, पाँच लाख स्थायी और पच्चीस लाख अस्थायी परिजनों का एक समुदाय शान्तिकुञ्ज तन्त्र के इर्द- गिर्द इकट्ठा हो गया है। यह प्राय: पचास वर्ष से युग- समस्याओं उसके समाधानों और वर्तमान पीढ़ी के युगधर्म स्तर के कर्तव्यों के सम्बन्ध में निरन्तर कुछ पढ़ता, समझता, सोचता तो रहा ही है, साथ ही उसने समय की पुकार को सुनने और तद्नुरूप यथासम्भव कदम उठाते रहने का प्रयत्न भी चालू रखा है। यही है अपनी जीवन भर की सञ्चित पूँजी- अपना विचार परिवार, जिसे वशं- परम्परा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और सशक्त माना जा सकता है। इसी को श्रद्धासिक्त पुष्पाञ्जलि के रूप में युगदेवता के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया है। दशरथ ने अपने पुत्र विश्वामित्र को सौंप दिए थे। गुरुगोविन्द सिंह के पाँच पुत्रों का भी ऐसा ही श्रेष्ठ सदुपयोग हुआ था। नालन्दा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय, प्रेम महाविद्यालय, कलकत्ता का नेशनल कॉलेज जैसे आश्रम भी अपने छात्रों को ऐसी ही दिशा में अग्रसर करके कृत्य- कृत्य हुए थे। शान्तिकुञ्ज के अन्तराल में भी ऐसी ही उत्कृष्ट अभिलाषा उभरी है कि वह भी ऐसा ही कुछ अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करे।
वसन्त, १९९० से शान्तिकुञ्ज में कई प्रशिक्षण एक साथ चल पड़े हैं। इनमें से प्रथम है- लोकमानस के परिष्कार का आन्दोलन और उसका संचालन। दूसरा है- महिला जागरण, जिसमें आधी जनसंख्या को अपना मूल्य समझने, बोध करने के लिए शिक्षित स्वावलम्बी और सुसंस्कृत बनने की चेतना को उभारना है। तीसरी है- मानवीय अन्तराल में सन्निहित प्राण- चेतना के उद्दीपन हेतु साधनात्मक अन्वेषण का निर्धारण परीक्षण, यह शोध- प्रक्रिया ब्रह्मवर्चस् में की जाएगी। महिला- प्रशिक्षण को शक्ति- चेतना कहा जाएगा और भाव- संवेदना उभारने वाली शिक्षा को कल्प- प्रक्रिया नाम दिया गया है। यों तीनों ही उपक्रम एक ही तन्त्र के अन्तर्गत काम करेंगे और उनका सूत्र- संचालन करने वाली ऊर्जा एक ही बिन्दु से उभरेगी।
कार्यारम्भ के प्रथम चरण में सोचा गया है कि पाँच लाख स्थायी पाठक परिजनों में हर साल एक लाख को प्रशिक्षित किया जाए, पाँच लाख को पाँच साल में प्रशिक्षित कर दिया जाए। यदि गति और दुगुनी बढ़ सकी तो सन् २००० के आगमन में, प्रस्तुत २५ लाख को न केवल प्रशिक्षित कर दिया जाएगा, वरन् किसी न किसी सीमा तक नियमित रूप से हर दिन कुछ न कुछ करते रहने का व्रत धारण करा दिया जाएगा।
एक से पाँच बनने- बनाने का एक आन्दोलन इसी के साथ चलाया जा रहा है। इस आधार पर आशा की जा सकती है कि जब इन्हीं दिनों ५ लाख के प्रभाव से २५ लाख कुसमुसाने और अँगड़ाई लेने लगे हैं तो आगामी वर्षों में २५ लाख से पाँच गुने बढ़कर सवा करोड़ हो सकते हैं। क्रम आगे भी जारी रहा तो सवा करोड़ का सवा छ: करोड़ हो जाना भी असम्भव नहीं। इतने सृजन शिल्पी लोकमानस को परिष्कृत करने में, प्रचलनों में घुसी अवाञ्छनीयताओं को उलटने में बहुत हद तक सफल हो सकते हैं। स्रष्टा की सुनियोजित योजना आगे बढ़ती रही, तो वह दिन दूर नहीं कि जन- जन के मनों में समुद्र- मन्थन जैसी प्रक्रिया उभरे और उनमें एक से- एक बढ़कर दैवी सम्पत्ति के प्राणवान् रत्न निकलकर इस विश्ववसुधा को स्वर्गोपम बनाकर रख दें।
इन दिनों आदर्शवादी विरक्तों को खोज निकालने में सफलता नहीं मिल रही है। रंगीन कपड़े पहनने वालों, माला सटकाने वालों और मुफ्त के सुविधा- साधन बटोरने वालों की कमी नहीं। पर विवेकानन्द, दयानन्द एवं केशवानन्द कहाँ से आएँ? उस दिशा में प्राय: निराश हो चलने पर अब सोचा यह गया है कि सद्गृहस्थों के माध्यम से ही आपत्तिकालीन आवश्यकता को पूरा किया जा सकेगा। इसका और कोई विकल्प भी तो नहीं है।
हर वर्ष एक लाख का शिक्षण- यह शान्तिकुञ्ज का वर्तमान निर्धारण है। इसी संख्या में उन महिलाओं को भी सम्मिलित रखा गया है, जो घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर महिला- उन्नयन के लिए समय निकाल सकने की स्थिति में हैं। आशा की जानी चाहिए कि सुविधा- साधन बढ़ाते रहें तो अगले दस वर्ष में २५ लाख को अपने घर वालों में ही प्रशिक्षित कर दिया जाए। उन्हें ऐसा साँचा बना दिया जाए जो अपनी बनावट के अनुरूप नये पुर्जे, नये खिलौने ढालने की आवश्यकता पूरी करते रहें। ईश्वर की इच्छा विस्तार करने की हो, तो अपना मिशन भी मत्स्यावतार की तरह सुविस्तृत हो सकता है, समूचे संसार को अपने अंचल में बटोर सकता है।
उपरोक्त प्रशिक्षण वसन्त पर्व (३१ जनवरी )सन् १९९० से विधिवत् आरम्भ हो गया है। इसमें मात्र अखण्ड ज्योति के परिजन ही पाँच- पाँच दिन के लिए प्रवेश पा सकेंगे। सभी को समय का पूर्व निर्धारण करना होगा और स्वीकृति मिलने पर ही आने की तैयारी करनी होगी। अब उन सभी को कड़ाई के साथ आने के लिए मना कर दिया गया है, जो मात्र सैर- सपाटे के लिए आया करते थे। अशिक्षित, वयोवृद्ध, रोगी, बालक, अनगढ़ इन सत्रों में प्रवेश नहीं ही पा सकेंगे।