Books - संजीवनी विद्या का विस्तार
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जले दीपक ही बुझों को जलाएँगे
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कथा है कि महाप्रलय के दिनों सर्वत्र समुद्र का खारा पानी ही भरा पड़ा था।
उसकी तली में गहरी कीचड़ भी भरी हुई थी। उसी बीच एक चमत्कार हुआ। पानी के
ऊपर एक कमल उभरकर खिल आया। उसमें सहस्र पंखुड़ियाँ थीं। बात इतने पर ही
समाप्त नहीं हुई। कमल के मध्य पर ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। वे वेदज्ञान से
सृष्टि को गुंजित करने लगे। साधन और सौंदर्य उसी गुँजन के प्रभाव से उभरे-
जुड़े और चेतन सृष्टि उसी प्रयास के फलस्वरूप विनिर्मित हो चली।
पौराणिक मिथक की वास्तविकता के सम्बन्ध में दो मत हो सकते हैं पर इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने समय की विपन्न परिस्थितियों में चमत्कार जैसा उद्भव होने ही वाला है। सहस्रदल खिलने ही वाला है। उसमें ब्रह्म चेतना का ऐसा प्रवाह निःसृत होने वाला है, जो उल्टे को उलट कर सीधा कर सके, सुखद सम्भावनाओं को अभिनव सृजन इस स्तर का बन पड़े, जिसे कीचड़ से उभरा कमल कहा जा सके।
इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक बुलबुले शान्तिकुञ्ज की जमीन को फोड़कर उभरने और उबलने लगे हैं। अगले दिनों यह एक निर्झर के रूप में गति पकड़ ले तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हल्की भाप आरम्भ में धीरे से उठती है, पर कुछ ही समय में घटा- टोप बनकर बरसने लगती है। इसे आश्चर्य नहीं तो और क्या कहें? राई जितने छोटे बीज का विशाल वट- वृक्ष के रूप में सुविस्तृत हो जाना क्या कोई कम आश्चर्य की बात है? यह अपनी सृष्टि ऐसे ही आश्चर्यों का प्रदर्शन पग- पग पर करती है। सच तो यह है कि संसार में जो कुछ हो चुका है, जो हो रहा है, जो होने वाला है, उसे सृष्टि चमत्कारों की शृंखला के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता। बाल की नोक जितना क्षुद्र शुक्राणु यदि साढ़े पाँच फीट का सर्वांग सुन्दर मनुष्य बन सकता है, तो चमत्कार के अतिरिक्त और कहा क्या जाए? ग्रह- नक्षत्र अधर में टँगे है और द्रुतगति से घूमते रहते हैं, तो इसे अघटित का घटित होने के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?
मनुष्य स्वल्प है। उसकी सामर्थ्य भी सीमित है। उसकी सूझ- बूझ प्रयत्नशीलता और सफलता भी सीमित स्तर की ही बनकर रह जाती है, पर भगवान् के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, वे देखते- देखते ऋतुओं में ऐसा परिवर्तन करके रख देते हैं कि उस अलौकिकता को देखकर हतप्रभ ही होकर रह जाना पड़ता है। मनुष्य यदि ऐसा करना चाहे, तो भी उसका पुरुषार्थ वैसा बन ही नहीं पड़ेगा।
अवतारों की पूर्ण शृंखला का अवगाहन करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उनका अवतरण असम्भव से सम्भव कर दिखाने के लिए ही होता रहा है। यों निराकार होने के कारण वे प्राणियों की तरह प्रयत्न- पुरुषार्थ नहीं कर पाते, फिर भी मनुष्यों में से ही ऐसे कितनों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें हवा भर कर नन्हे से गुब्बारे को कद्दू जितना विशाल बनाया जा सके। हनुमानों, अंगदों, अर्जुनों, नारदों, बुद्धों, गाँधियों आदि की इतनी बड़ी शृंखला है, जिन्होंने मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी ऐसे महान् प्रयोजन पूरे कर दिखाए, जिन्हें अद्भुत और अलौकिक कहा जा सके। एक बार तो महर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मा जी की बनाई सृष्टि की तुलना में दूसरी नई सृष्टि रच डालने के लिए कमर कस ली थी। ऐसे मामले बुद्धि द्वारा मुश्किल से ही सुलझाए जा सकते हैं। अगस्त्य ऋषि ने तीन चुल्लू में समूचा समुद्र सोख लिया था। ऐसे कृत्यों के पीछे यदि भगवान् की शक्ति काम करती दीख पड़े, तो उसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।
लम्बा समय दुर्मति- जन्य दुर्गति सहन करते- करते बीत गया। अब यदि उलट- पुलट कर सही स्थिति में ला देने की योजना बनी है, तो उसे इसलिए असम्भव नहीं मान लेना चाहिए कि मनुष्यों के सीमित प्रयास इतने सुविस्तृत कार्य को नहीं कर सकते। मनुष्य के लिए कुछ भी कितना ही कठिन हो सकता है, पर जिसने आकाश में असंख्य ग्रह- तारक झाड़- फानूस की तरह अधर में लटका रखे हैं, उसके लिए किसी सदाशयता भरे प्रयोजन को पूरा कर सकना कैसे कुछ कठिन हो सकता है?
छोटा आरम्भ उपहासास्पद तो लगता है, फिर भी इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता कि वह कुछ ही समय में कहीं- से जा पहुँचे बुद्ध और गाँधी के आन्दोलन आरम्भ में नगण्य स्तर के ही थे, पर जब समय ने साथ दिया, तो क्रिया की प्रतिक्रिया इतनी महान् हुई कि उसे देखते हुए आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है।
युगसन्धि महापुरश्चरण शान्तिकुञ्ज में विगत दो वर्षों से चल रहा है। उसकी शाखा- प्रशाखाओं के रूप में हजारों स्थान और लाखों मनुष्य अनुप्राणित हो चले हैं। अब इस वर्ष से युगशिल्पियों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया बड़े रूप में चल पड़ी है, ताकि धीमी गति से चल रहे प्रयासों को राकेट स्तर की तेजी उपलब्ध हो सके। पिछले वर्ष नौ- नौ दिन के और एक- एक महीने के प्रशिक्षण- सत्रों की शृंखला चलती रही है, पर इस बार उसे ऐसी गति प्रदान की गई है, जिससे लम्बी अवधि में सम्पन्न हो सकने वाले कार्य अपेक्षाकृत चौगुनी, सौगुनी गति से अग्रगामी बन सकें और उन्हें सन् २००० तक के आगामी वर्षों में पूरा किया जा सके।
विद्यालयों की इमारतें बनती हैं, फर्नीचर इकट्ठा किया जाता है, पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि सुयोग्य अध्यापकों का चयन हो और उन्हें अपने काम पूरा करने की ललक निरन्तर बेचैन किए रहे। इसके बाद अन्य कार्य तो सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रहते हैं।
सन् ९० के वसन्त पर्व से शान्तिकुञ्ज में ‘सघनशक्ति’ उत्पन्न करने के अतिरिक्त, उपयुक्त विद्या चेतना के धनी और समर्थ शक्तिशाली अध्यापक प्रशिक्षित विनिर्मित करने का कार्य आरम्भ किया गया है। अखण्ड ज्योति के पाँच लाख परिजनों को प्रशिक्षित करने का कार्य सर्वप्रथम हाथ में लिया गया है। स्थान भी इन्हीं दिनों कुछ बढ़ाया गया है। शान्तिकुञ्ज में निवास, भोजन, साधन आदि की व्यवस्था पिछले वर्ष की तुलना में प्राय: दूनी बढ़ाई गई है, पर फिर भी आवश्यकता को देखते हुए उसे कई गुनी बढ़ाने की आवश्यकता पड़ रही है। थोड़ा धैर्य रखने पर उसकी पूर्ति हो जाने की सम्भावना है।
अधिक लोगों को कम समय में प्राण चेतना से अनुप्राणित करना हो, तो इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता कि शिक्षा अवधि को जितना कम करना सम्भव हो, उतना कर लिया जाए। न्यूनतम की बात सोंचे, तो वह अवधि पाँच दिन से कम कदाचित् सम्भव नहीं हो सकती, इसलिए चालू प्रशिक्षण- सत्रों को पाँच- पाँच दिन का कर दिया गया है। तारीख १ से ५, ७ से ११, १३ से १७, १९ से २३, २५ से २९। इस प्रकार हर महीने पाँच सत्र निरन्तर सम्पन्न होते रहेंगे। शिक्षा की दृष्टि से किसी महत्त्वपूर्ण शिक्षण के लिए यह अवधि बहुत ही कम है, पर जब प्रसङ्ग प्राण- प्रत्यावर्तन का हो, आदान- प्रदान की व्यवस्था को ही प्रमुख माना गया हो, तो कान में कुछ देर की फुसफुसाहट भी बड़े प्रयोजनों को पूरा कर देती है। सीखने और सिखाने वाले दमदार हों, तो रामायण की यह उक्ति भी चरितार्थ हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अल्पकाल विद्या सब आई॥’’
पौराणिक मिथक की वास्तविकता के सम्बन्ध में दो मत हो सकते हैं पर इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने समय की विपन्न परिस्थितियों में चमत्कार जैसा उद्भव होने ही वाला है। सहस्रदल खिलने ही वाला है। उसमें ब्रह्म चेतना का ऐसा प्रवाह निःसृत होने वाला है, जो उल्टे को उलट कर सीधा कर सके, सुखद सम्भावनाओं को अभिनव सृजन इस स्तर का बन पड़े, जिसे कीचड़ से उभरा कमल कहा जा सके।
इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक बुलबुले शान्तिकुञ्ज की जमीन को फोड़कर उभरने और उबलने लगे हैं। अगले दिनों यह एक निर्झर के रूप में गति पकड़ ले तो किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए। हल्की भाप आरम्भ में धीरे से उठती है, पर कुछ ही समय में घटा- टोप बनकर बरसने लगती है। इसे आश्चर्य नहीं तो और क्या कहें? राई जितने छोटे बीज का विशाल वट- वृक्ष के रूप में सुविस्तृत हो जाना क्या कोई कम आश्चर्य की बात है? यह अपनी सृष्टि ऐसे ही आश्चर्यों का प्रदर्शन पग- पग पर करती है। सच तो यह है कि संसार में जो कुछ हो चुका है, जो हो रहा है, जो होने वाला है, उसे सृष्टि चमत्कारों की शृंखला के अतिरिक्त और कुछ कहा नहीं जा सकता। बाल की नोक जितना क्षुद्र शुक्राणु यदि साढ़े पाँच फीट का सर्वांग सुन्दर मनुष्य बन सकता है, तो चमत्कार के अतिरिक्त और कहा क्या जाए? ग्रह- नक्षत्र अधर में टँगे है और द्रुतगति से घूमते रहते हैं, तो इसे अघटित का घटित होने के अतिरिक्त और क्या कहा जाए?
मनुष्य स्वल्प है। उसकी सामर्थ्य भी सीमित है। उसकी सूझ- बूझ प्रयत्नशीलता और सफलता भी सीमित स्तर की ही बनकर रह जाती है, पर भगवान् के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, वे देखते- देखते ऋतुओं में ऐसा परिवर्तन करके रख देते हैं कि उस अलौकिकता को देखकर हतप्रभ ही होकर रह जाना पड़ता है। मनुष्य यदि ऐसा करना चाहे, तो भी उसका पुरुषार्थ वैसा बन ही नहीं पड़ेगा।
अवतारों की पूर्ण शृंखला का अवगाहन करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि उनका अवतरण असम्भव से सम्भव कर दिखाने के लिए ही होता रहा है। यों निराकार होने के कारण वे प्राणियों की तरह प्रयत्न- पुरुषार्थ नहीं कर पाते, फिर भी मनुष्यों में से ही ऐसे कितनों का चयन कर लेते हैं, जिन्हें हवा भर कर नन्हे से गुब्बारे को कद्दू जितना विशाल बनाया जा सके। हनुमानों, अंगदों, अर्जुनों, नारदों, बुद्धों, गाँधियों आदि की इतनी बड़ी शृंखला है, जिन्होंने मनुष्य शरीरधारी होते हुए भी ऐसे महान् प्रयोजन पूरे कर दिखाए, जिन्हें अद्भुत और अलौकिक कहा जा सके। एक बार तो महर्षि विश्वामित्र ने ब्रह्मा जी की बनाई सृष्टि की तुलना में दूसरी नई सृष्टि रच डालने के लिए कमर कस ली थी। ऐसे मामले बुद्धि द्वारा मुश्किल से ही सुलझाए जा सकते हैं। अगस्त्य ऋषि ने तीन चुल्लू में समूचा समुद्र सोख लिया था। ऐसे कृत्यों के पीछे यदि भगवान् की शक्ति काम करती दीख पड़े, तो उसे आश्चर्य नहीं मानना चाहिए।
लम्बा समय दुर्मति- जन्य दुर्गति सहन करते- करते बीत गया। अब यदि उलट- पुलट कर सही स्थिति में ला देने की योजना बनी है, तो उसे इसलिए असम्भव नहीं मान लेना चाहिए कि मनुष्यों के सीमित प्रयास इतने सुविस्तृत कार्य को नहीं कर सकते। मनुष्य के लिए कुछ भी कितना ही कठिन हो सकता है, पर जिसने आकाश में असंख्य ग्रह- तारक झाड़- फानूस की तरह अधर में लटका रखे हैं, उसके लिए किसी सदाशयता भरे प्रयोजन को पूरा कर सकना कैसे कुछ कठिन हो सकता है?
छोटा आरम्भ उपहासास्पद तो लगता है, फिर भी इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता कि वह कुछ ही समय में कहीं- से जा पहुँचे बुद्ध और गाँधी के आन्दोलन आरम्भ में नगण्य स्तर के ही थे, पर जब समय ने साथ दिया, तो क्रिया की प्रतिक्रिया इतनी महान् हुई कि उसे देखते हुए आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है।
युगसन्धि महापुरश्चरण शान्तिकुञ्ज में विगत दो वर्षों से चल रहा है। उसकी शाखा- प्रशाखाओं के रूप में हजारों स्थान और लाखों मनुष्य अनुप्राणित हो चले हैं। अब इस वर्ष से युगशिल्पियों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया बड़े रूप में चल पड़ी है, ताकि धीमी गति से चल रहे प्रयासों को राकेट स्तर की तेजी उपलब्ध हो सके। पिछले वर्ष नौ- नौ दिन के और एक- एक महीने के प्रशिक्षण- सत्रों की शृंखला चलती रही है, पर इस बार उसे ऐसी गति प्रदान की गई है, जिससे लम्बी अवधि में सम्पन्न हो सकने वाले कार्य अपेक्षाकृत चौगुनी, सौगुनी गति से अग्रगामी बन सकें और उन्हें सन् २००० तक के आगामी वर्षों में पूरा किया जा सके।
विद्यालयों की इमारतें बनती हैं, फर्नीचर इकट्ठा किया जाता है, पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि सुयोग्य अध्यापकों का चयन हो और उन्हें अपने काम पूरा करने की ललक निरन्तर बेचैन किए रहे। इसके बाद अन्य कार्य तो सरलतापूर्वक सम्पन्न होते रहते हैं।
सन् ९० के वसन्त पर्व से शान्तिकुञ्ज में ‘सघनशक्ति’ उत्पन्न करने के अतिरिक्त, उपयुक्त विद्या चेतना के धनी और समर्थ शक्तिशाली अध्यापक प्रशिक्षित विनिर्मित करने का कार्य आरम्भ किया गया है। अखण्ड ज्योति के पाँच लाख परिजनों को प्रशिक्षित करने का कार्य सर्वप्रथम हाथ में लिया गया है। स्थान भी इन्हीं दिनों कुछ बढ़ाया गया है। शान्तिकुञ्ज में निवास, भोजन, साधन आदि की व्यवस्था पिछले वर्ष की तुलना में प्राय: दूनी बढ़ाई गई है, पर फिर भी आवश्यकता को देखते हुए उसे कई गुनी बढ़ाने की आवश्यकता पड़ रही है। थोड़ा धैर्य रखने पर उसकी पूर्ति हो जाने की सम्भावना है।
अधिक लोगों को कम समय में प्राण चेतना से अनुप्राणित करना हो, तो इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता कि शिक्षा अवधि को जितना कम करना सम्भव हो, उतना कर लिया जाए। न्यूनतम की बात सोंचे, तो वह अवधि पाँच दिन से कम कदाचित् सम्भव नहीं हो सकती, इसलिए चालू प्रशिक्षण- सत्रों को पाँच- पाँच दिन का कर दिया गया है। तारीख १ से ५, ७ से ११, १३ से १७, १९ से २३, २५ से २९। इस प्रकार हर महीने पाँच सत्र निरन्तर सम्पन्न होते रहेंगे। शिक्षा की दृष्टि से किसी महत्त्वपूर्ण शिक्षण के लिए यह अवधि बहुत ही कम है, पर जब प्रसङ्ग प्राण- प्रत्यावर्तन का हो, आदान- प्रदान की व्यवस्था को ही प्रमुख माना गया हो, तो कान में कुछ देर की फुसफुसाहट भी बड़े प्रयोजनों को पूरा कर देती है। सीखने और सिखाने वाले दमदार हों, तो रामायण की यह उक्ति भी चरितार्थ हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अल्पकाल विद्या सब आई॥’’