Books - उच्चस्तरीय परमार्थ समयदान
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Language: HINDI
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एक अलभ्य अवसर—जो सामने है
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इक्कीसवीं सदी अगणित, श्रेय-सौभाग्य की वर्षा करने के लिए घनघोर घटाटोप की तरह उमड़ती-घुमड़ती चली आ रही है, पर उस दैवी अनुदान का लाभ सबको समान रूप में नहीं मिल सकेगा। विजय निश्चित होने पर भी मोर्चा जीतने का श्रेय और उपहार उन सेनापतियों को ही मिलता है, जिनने रणनीति बनाने से लेकर व्यूह रचना, विधि-व्यवस्था, साधन-सुविधा आदि का सही निर्धारण करने में अपने कौशल का परिचय दिया होता है। शेष तो उस युद्ध-विजय की प्रसन्नता भर व्यक्त करते रह जाते हैं।
प्राचीन काल में, ऐसा ही महत्त्वपूर्ण अवसर एक बार सतयुग में भी आया था। वह भी अनायास ही स्वर्ग से धरती पर नहीं आ टपका था। ऋषियों-तपस्वियों की प्रचण्ड सेवा-साधनाओं ने उसे विनिर्मित किया और अपनी गरिमा दिखाने के लिए बाधित किया था। इन दिनों का विपन्न वातावरण भी, मनुष्य समुदाय के भ्रष्ट-चिन्तन और दुष्ट-आचरण का ही परिणाम है। जब तक आधारभूत कारणों में परिवर्तन न होगा, तब तक प्रचलन-प्रवाह को उलटना भी कहां संभव हो सकेगा?
भविष्य में सतयुग की वापसी की आशा और उसके स्वागत की व्यवस्था की जा रही है; पर वह व्यापक गंगावतरण, अनेकानेक भगीरथों की तपश्चर्या सन्निहित होने की प्रतीक्षा भी तो करेगी ही। समय बदलने में दैवी अनुग्रह का निर्धारण प्रमुख होगा, सो ठीक है; पर उसे प्रत्यक्ष कर दिखाने का अभीष्ट श्रेय-सम्मान पाने में वरिष्ठ प्रतिभाएं ही समर्थ होंगी। अनायास तो कभी कुछ हुआ ही नहीं। सुयोग या कुयोग भी मनुष्य के अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व के अनुरूप ही उपलब्ध होते देखा जाता है। यह दूसरी बात है कि आदर्शों के प्रति निष्ठावान होने वालों की अपनी क्षमता से जो बाहर हो, उसके लिए अदृश्य सत्ता का अदृश्य सहयोग बड़ी मात्रा में मिल जाय, उस सहयोग के आधार पर प्राप्त सफलता के कारण किसी अग्रगामी को पुरुषार्थ का धनी घोषित किया जाय और श्रेय-सम्मान से लाद दिया जाय।
भगीरथ गंगावतरण के लिए तप-साधना में निरत थे। गंगा स्वर्ग से धरती पर आने के लिए सहमत भी हो गईं; पर प्रमुख कठिनाई यही थी कि जब वह प्रचण्ड धारा इतनी ऊंचाई से नीचे आए, तब उसे धारण कौन करे? अन्यथा जोखिम था कि वह धरती में छेद करती हुई पाताल को चली जाती। इस कठिनाई को आशुतोष शिव ने समझा और वे सहज हो अपनी जटाएं बिखेर कर नियत स्थान पर जा पहुंचे। गंगा शिवजी की जटाओं पर उतरी। बाद में भी भगीरथ आगे-आगे चलते रहे और पीछे दौड़ते गंगा के प्रवाह का मार्ग दर्शन करते हुए उसे नियत लक्ष्य तक पहुंचाने में सफल हुए। गंगा का नामकरण भागीरथी हुआ था। यों तो श्रेय असंभव को संभव कर दिखाने वाली शिव-शक्ति को जाना चाहिए था। पर भगवान तो भक्तों को ही यशस्वी बनाने में रुचि लेते रहते हैं।
बात इतनी भर आ जाती है कि भक्त कहलाने वालों को नारद जैसा समर्पित होना चाहिए; जिसे अपने स्वार्थ की नहीं भगवान के कार्य की ही चिन्ता रहे। युग परिवर्तन के इस महान अवसर पर ऐसे ही प्रह्लादों की आवश्यकता है, जिसकी श्रद्धा को देखकर नृसिंह के रूप में भगवान दौड़े आयें और समय की विभीषिका को रौद्र रूप धारण करके मार भगायें। यही है आज की अपेक्षा। तलाश मात्र ऐसे श्रेयार्थियों की है, जो युग निर्माता—महामानवों की तरह अपनी यश-गाथा को अमर बनाने का पुरस्कार पायें। उन्हें भी अपनी पात्रता और प्रामाणिकता तो सिद्ध करनी ही होगी।