Books - उच्चस्तरीय परमार्थ समयदान
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Language: HINDI
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दैवी अनुदान भी सशर्त
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भगवान को उदार कहा जाता है, पर वह विशेषण सशर्त ही क्रियान्वित होता है। सुदामा की बगल से चावलों की पोटली छीन लेने के उपरान्त ही, उनके खाली हाथ हो जाने पर ही भगवान ने बहुत कुछ देने का मन बनाया था। जो अनुदान दिया जायेगा, वह मात्र गुरुकुल चलाने के लिए प्रयुक्त होगा; यह विश्वास कर लेने के उपरान्त ही उस उदारचेता कहलाने वाले ने द्वारिकापुरी को सुदामापुरी के लिए हस्तान्तरित किया था। भक्तजन कहलाने वालों को मात्र जीभ की लपा-लपी से ही मनोवांछा पूरा करने का अवसर मिल जायेगा, इस भ्रांति से जितनी जल्दी पीछा छुड़ा लिया जाय, उतना ही अच्छा है। यहां इस हाथ दे और उस हाथ ले की नीति का ही बोल-बाला है। भगवान भी इसके अपवाद नहीं हो सकते। वे पहले मांगते हैं और पा जाने के उपरान्त ही ऐसा कुछ देने का मन बनाते हैं, जिसे भारी-भरकम और महत्त्वपूर्ण कहा जा सके।
समर्पण और विसर्जन के बिना द्विधा को एकता में परिणत होने का अवसर ही नहीं मिलता। भक्त ही भगवान बनकर विचरण करते देखे जाते हैं, पर वे होते ऐसे हैं, जिनने अपनी संकीर्ण-स्वार्थपरता के विसर्जन में कोताही नहीं बरती। पानी को दूध के भाव बिकने का अवसर अपनी सत्ता गंवा बैठने के उपरान्त ही मिलता है। नाले का नदी के रूप में परिणत होना इसी समर्पण प्रक्रिया के अन्तर्गत संभव होता है। दाम्पत्य जीवन का आनन्द, किसी का सघन समर्पण किए बिना, किसी को मिला ही नहीं। गुरु और शिष्य के बीच भी क्षमताओं का आदान-प्रदान ही होता रहता है। यदि वह प्रक्रिया चरण-स्पर्श और बदले में आशीर्वाद पाने की विडम्बना भर बनी रहे, तो उससे कभी कोई शानदार प्रतिफल प्रस्तुत करते नहीं बनता। चाणक्य–चन्द्रगुप्त, समर्थ-शिवाजी, परमहंस-विवेकानन्द, गांधी-बिनोवा आदि की गुरु-शिष्य परम्परा एक ओर से समर्पण और दूसरी ओर से संचित क्षमता के हस्तान्तरण के रूप में ही सम्पन्न होती रही है। भगवान के यहां भी उसी आधार पर आदान-प्रदान का क्रम चलता है। वहां उठाईगीरों, जेबकतरों और ठग-चापलूसों की दाल गलती ही नहीं।
इक्कीसवीं सदियों परमसत्ता के तत्वावधान में सम्पन्न होने जा रही है; पर उसे प्रत्यक्ष प्रकट करने का श्रेय तो शरीरधारी मनुष्यों में से ही किन्हीं को मिलेगा। निराकार सत्ता अपने हाथों कुछ दृश्य क्रिया-कलाप कर दिखाने के झंझट में पड़ती नहीं। प्रेत तक को जब अपनी उपस्थिति का प्रमाण देने के लिए किसी व्यक्ति को ही माध्यम बनाना पड़ता है, फिर भगवान को ही अपने हाथों स्वयं ही कुछ क्रिया-कौतुक दिखाते फिरने की झंझट में पड़ना क्यों पड़ेगा? वे अपना कार्य उच्चस्तरीय प्रतिभाओं के माध्यम से ही कराते हैं। सरकार के नियत-निर्धारणों को क्रियान्वित करना अफसरों के जिम्मे ही रहता है। राजा कहां तक पोस्ट कार्ड बेचता फिरेगा? इन कार्यों के लिए उपयुक्त कर्मचारी ही नियुक्त किये जाते और अभीष्ट कार्यों को सम्पन्न करने में जुटे रहते हैं।
भगवान को मांगने की आदत है, देते तो वे बाद में हैं। पृथ्वी में बीज गलता पहले है, फलों का अवसर बाद में आता है। गाय घास पहले मांगती है, दूध बाद में देती है। भगवान को विश्व मानव के लिए बहुत कुछ देना है। इसके लिए उसे प्रतिभावानों की श्रद्धा-सम्पदा प्रचुर परिमाण में अपेक्षित है। महाकाल ने इसकी घोषणा सर्वत्र मुनादी पिटवा कर करा दी है। जो भगवान को उसकी इच्छानुसार दे सकें, उन्हीं की इन दिनों पुकार हो रही है। इसकी परिणति के रूप में प्रतिफल प्राप्त करने का अवसर तो क्रिया की प्रतिक्रिया वाले सिद्धान्त के अनुरूप उन्हीं दाताओं को विशेष रूप से और सर्वसाधारण को सामान्य रूप से सहज ही मिल जायेगा।
सामान्य रूप में, पैसे देकर दान की प्रतिक्रिया का निर्वाह कोई भी कर लेता है और यश, सन्तोष आदि के रूप में उसका परिणाम भी यथा समय मिल जाता है। पर देने में सबसे बड़ा दान—समयदान है, क्योंकि वही ईश्वर प्रदत्त दैवी सम्पदा है। हर किसी को समान रूप से उपलब्ध भी है। इस दृष्टि से न कोई गरीब है, न सम्पन्न। सभी का दिन 24 घंटे का होता है। यदि कोई अत्यन्त कृपण दिग्भ्रान्त और असाधारण रूप से स्वार्थ-बन्धनों से जकड़ा हुआ न पड़ा हो, तो वह भगवान की इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए समयदान की बात उदारतापूर्वक सोच सकता। तनिक सी सूझ-बूझ भरी साहसिकता के सहारे ऐसी व्यवस्था भी बना सकता है, कि निर्वाह भी चलता रहे, कुटुम्ब भी चलता रहे और साथ-साथ युग-धर्म के निर्वाह में भी कमी न पड़े।
व्यस्तता और अभावग्रस्तता का बहाना मात्र उन्हीं से बनाते बन पड़ता है, जो आत्मा और परमात्मा को बहका सकने में अपनी चतुरता दिखाने की धूर्तता के सफल होने पर विश्वास करते हैं। अन्यथा बीस घन्टे में रोटी कमाने और शरीर निर्वाह चलाते रहने के लिए पर्याप्त होने चाहिए। चार घंटा नित्य आत्मा की गुहार और परमात्मा की पुकार के लिए लगाये जा सकते हैं। दूरदर्शी, विवेकशील और उदारचेताओं को इतना या इससे आधा—दो घंटे नित्य का समयदान करते रहने में किसी प्रकार की अड़चन-बाधा प्रतीत नहीं हो सकती।
पैसे का भी महत्त्व तो है, पर वस्तुतः भावश्रद्धा, पुण्य-परमार्थ जैसे उच्चस्तरीय प्रयोजनों की पूर्ति समयदान से ही बन पड़ती है। यदि ऐसा न होता, तो जिस-तिस प्रकार तिजोरी भर लेने वाले, यश खरीदने के लिए या आत्म श्रद्धा को उजागर करने के लिए, कुछ फालतू पैसा दान-पुण्य में लगाकर लोक और परलोक दोनों पर भी कब्जा कर लिया करते; पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। धनी और निर्धन दोनों ही इस कसौटी पर समान रूप से परखे जाते हैं कि उनसे जीवन का सर्वोत्तम अंश, समयदान के रूप में किस अनुपात में निकालते बन पड़ा?
महान कार्य समय और श्रम के सहारे ही बन पड़े हैं। पैसे से तो वस्तुओं को ही खरीदा जा सकता है। मनुष्य की वास्तविक आवश्यकता से, वस्तुओं की न्यूनाधिकता से प्रभावित नहीं होती। जो वास्तविक आवश्यकता है, वह आन्तरिक प्रखरता, प्रामाणिकता और सुनियोजन पर अवलम्बित है। इसका प्रमाण परिचय उसी आधार पर दिया जा सकता है, कि लोक मानस के परिष्कार में, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन में किसका कितना और किस स्तर का समयदान सम्भव हुआ? ऋषियों-मनीषियों और महामानवों ने समय-साधनों के आधार पर ही वह कर दिखाया था, जिसमें जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और ईश्वर की प्रसन्नता का उभयपक्षीय लाभ मिल सके।
युग सृजन के लिए बहुमुखी क्रिया-कलाप सामने उपस्थित है, जिनमें विचार क्रान्ति को प्रमुखता दी गयी है। प्राण-प्रतिभा से सम्पन्न लोग, इसी निमित्त समय का यथा-सम्भव अधिक नियोजन करने के लिए तत्पर हों, इसके लिए विश्व मानव ने—भगवान ने—समर्थों से समयदान की याचना की है। इससे कम में उन प्रयोजनों की पूर्ति सम्भव न हो सकेगी, जिनके ऊपर युग परिवर्तन की पृष्ठ–भूमि बन सकना अवलम्बित है। उच्चस्तरीय समयदान अनायास ही नहीं बन पड़ता, उसके साथ श्रद्धा, भाव-संवेदना, विवेकशीलता, शालीनता, उदारता जैसी दिव्य आत्मिक विभूतियों का सम्पुट जुड़ा होता है। यही कारण है, कि जिन पर ओछेपन का उन्माद सवार है, वे इस युग साधना से कन्नी काटते रहते हैं। जिनकी आत्म-चेतना में उत्कृष्टता के दैवीतत्वों का यत्किंचित् भी अस्तित्व है, उनके लिए इस अनुदान को युगदेवता के चरणों में प्रस्तुत करते हुए तनिक भी कठिनाई नहीं होती; वरन् भगवान की योजना को पूरा करते हुए राजा बलि जैसी हार्दिक प्रसन्नता की अनुभूति होती रहती है।
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*समाप्त*