Books - उच्चस्तरीय परमार्थ समयदान
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Language: HINDI
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सुअवसरों का लाभ सुपात्रों को
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स्वाति वर्षा आकाश से होती है, उसकी सत्ता और महत्ता भी असाधारण होती है; पर उसका लाभ हर किसी को नहीं मिलता। कुछ विशिष्ट सीपियां ही ऐसी होती हैं, जो उन बूंदों को गर्भ में धारण करती और मोती उगाती हैं। सभी बांसों में उन दिनों बंस-लोचन कहां उत्पन्न होता है? सभी केलों में कपूर कहां निर्मित होता है? स्वाति वर्षा समदर्शी कही जा सकती है। फिर भी कुछ ऐसे सौभाग्यशाली होते हैं, जो उससे कुछ विशेष अधिकार प्राप्त कर लेते हैं। उन्हीं की बिरादरियों में ऐसे भी असंख्य रह जाते हैं, जिन्हें अपने दुर्भाग्य को कोसते या स्वाति वर्षा पर दोषारोपण करते हुए किसी प्रकार मन को समझाना पड़ता है।
एक बार असंख्य मृतकों को पुनर्जीवित करने के लिए देवताओं ने अमृत वर्षा की। सभी मृतक जी उठे; पर एक ऐसा भी था, जो मरा हुआ ही पड़ा रहा। इस भेद-भाव का कारण जाना गया, तो पता चला कि अन्य मुर्दे तो आकाश की ओर मुंह किये हुए थे, उनके नासिका, मुख आदि छिद्रों से होकर अमृत भीतर चला गया और वे जी उठे। किन्तु जिसने मुंह धरती पर गड़ा रखा था, उस उल्टे पड़े मृतक के लिए अमृत वर्षा भी क्या करती? जो ग्रहण न कर सके, उसके लिए समर्थ दाता भी कुछ न कर सकने की स्थिति में विवश रहता देखा जाता है।
चतुर्मास में वर्षा की झड़ी लगी रहती है। भुर-भुरी जमीन गीली हो जाती है। जहां उर्वरता वगैरह है, वहां घास-पास की हरियाली उग आती है। फसलें लहलहाती हैं और एक बीज के बदले हजार दानों वाली बालें विनिर्मित कर देते हैं। पर उन चट्टानों और रेगिस्तानों के लिए क्या कहा जाय। जहां मेघ-मालाएं भी अपना कुछ प्रभाव दिखा नहीं पातीं। जहां न पानी टिकता है और न हरियाली उगने जैसी व्यवस्था ही बनती है। इसे दाता का पक्षपात नहीं, गृहीता की कुपात्रता ही कह सकते हैं। उन दिनों छोटे-बड़े तालाब अपनी-अपनी पात्रता के अनुरूप लबालब भर जाते हैं और गहरी नदियां असीम जल-राशि को बटोरती, द्रुतगति से दौड़ती चली जाती हैं। वर्षा का अनुग्रह उन छोटे गड्ढों को तनिक सा ही मिल पाता है जो अधिक गहराई न होने के कारण थोड़ा सा ही पानी जमा कर पाते हैं और कड़ी धूप पड़ते ही सूख कर नीरस और निरुपयोगी बन जाते हैं।
अगले दिनों हर कहीं सौभाग्य बरसने वाले हैं। उज्ज्वल भविष्य का अवतरण सुनिश्चित है, प्रश्न इतना भर है कि उस सुयोग में भी अपनी भागीदारी सिद्ध करने वाले भी तो कुछ हों? अर्जुन कटिबद्ध न होता, तो उसके लिए भगवान का सारथी होना भी क्या कर पाता? रीछ वानरों ने आदर्शवादी साहसिकता का परिचय न दिया होता, तो उन्हें भक्त शिरोमणि और भगवान का कृपा-पात्र बनने का सौभाग्य भला कहां मिल पाता? गलने वाला ही उगता है। बीज का वृक्ष बन जाना आश्चर्यजनक तो है, पर प्रकृति व्यवस्था से पृथक् नहीं। वही फल पुनः वृक्ष बनता है, जो पकने पर वृक्ष से टूटने अथवा मिट्टी में मिलने से जी नहीं चुराता। कृपण जो जी चुराते हैं—वे स्वयं सड़ते और साथियों को भी सड़ाते हैं। पेड़ के साथ चिपके रहने वाले फलों को घिनौने कीड़े ही खा जाते हैं।