Books - आध्यात्मिक काम-विज्ञान
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Language: HINDI
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काम क्रीड़ा की उपयोगिता ही नहीं विभीषिका का भी ध्यान रहे
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पिछले दिनों अग्नि तत्व को बहुत महत्व मिला और सोम एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहा। फलतः सृष्टि का—समाज का—सारा सन्तुलन गड़बड़ा गया। हवन कुण्ड के चारों ओर एक पानी की नाली भरी रखी जाती है। कर्मकाण्ड के ज्ञाता जानते हैं कि यज्ञ कुण्ड में अग्नि कितनी ही प्रदीप्त क्यों न रहे उसके चारों ओर घेरा सोम का जल का ही रहना चाहिए। अग्नि को उतने समारोह पूर्वक यज्ञ आयोजनों में स्थापित नहीं किया जाता जितनी धूमधाम के साथ कि जल यात्रा की जाती है और जल देवता को स्थापित किया जाता है। अग्नि का—ग्रीष्म ऋतु का उत्ताप तीव्र होते ही वर्षा ऋतु दौड़ आती है और उन तपन का समाधान प्रस्तुत करती है।
नर की अग्नि ऊष्मा और नारी की सोम, जल कहा गया है। नर की प्राण शक्ति का पुरुषार्थ क्षमता और कठोरता का बौद्धिक प्रखरता का अपना स्थान है और उसका उपयोग किया जाना चाहिए पर यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया गया—नारी का नियंत्रण उस पर न हुआ तो सृष्टि में क्रूरता और दुष्टता का उत्ताप ही बढ़ता चला जायगा। परम्परा यह रही है कि नर के श्रम साहस का उपयोग क्रम चलता रहा है, पर नारी ने अपनी मृदुल भावनाओं से उसे मर्यादाओं में रहने के लिए नियन्त्रित और बाध्य किया है। उसकी मृदुल और स्नेह सिक्त भावनाओं ने क्रूरता को कोमलता में बदलने की अद्भुत सफलता पाई है। यह क्रम ठीक तरह चलता रहता पुरुष का शौर्य, ओजस् अपनी प्रखरता से सम्पदायें उपार्जित करता और नारी अपनी मृदुलता से उसे सौम्य सहृदय बनाती रहती तो दोनों सही पहियों की गाड़ी से प्रगति की दिशा में सृष्टि व्यवस्था की यात्रा ठीक प्रकार सम्पन्न होती रहती। चिरकाल तक वही क्रम चला। उपार्जन नर ने किया और उसका उपयोग नारी ने। अब वह क्रम नहीं रहा। अब उच्छृंखल नर हर क्षेत्र में सर्व सत्ता सम्पन्न हुआ दैत्य, दानव की तरह निरंकुश सत्ता का उद्धत उपयोग कर रहा है। नारी तो मात्र भोग्या, रमणी, कामिनी बनकर विषय विकारों की तृप्ति के लिए साधन सामग्री मात्र रह गई है। उसके हाथ से वे सब अधिकार छीन लिये गये जो अनादिकाल से उसे सृष्टि कर्ता ने सौंपे थे।
वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में दिशा निर्धारण के सूत्र नारी के हाथ में रहने चाहिए। तभी उपलब्ध सम्पदाओं का सौम्य सदुपयोग सम्भव हो सकेगा। आज हर क्षेत्र में विकृतियों की विभीषिकाएं नग्न, नृत्य कर रही हैं इसके स्थूल कारण कुछ भी हों सूक्ष्म कारण यह है कि नारी का वर्चस्व नेतृत्व कहीं भी नहीं रहा, सर्वत्र नर की ही मनमानी, घरजानी चल रही है। उसकी प्रकृति में जो कठोरता का भला या बुरा तत्व अधिक है उसी के द्वारा सब कुछ संचालित हो रहा है फलस्वरूप हर क्षेत्र में उद्धतता का बोलबाला दीख पड़ता है। जल के अभाव में अग्नि-सर्वनाशी दावानल का विकराल रूप धारण कर लेती है इन दिनों नारी को उपेक्षित, तिरस्कृत करने के उपरान्त जो विद्रूप अपनाया है उसका परिणाम व्यापक हाहाकार के रूप में सामने प्रस्तुत है।
स्थिति को बदलने और सुधारने के लिए भूल को फिर सुधारना होगा और वस्तुस्थिति उपलब्ध करने के लिये पीछे लौटना होगा। नारी का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जाय और उसके हाथ में नेतृत्व सौंपा जाय, यह समय की पुकार और परिस्थितियों की मांग है, उसे पूरा करना ही होगा। नवयुग-निर्माण के लिए जन मानस में जिन कोमल भावनाओं का परिष्कार किया जाना है वह नारी सूत्रों से ही उद्भूत होगा। युद्ध, संघर्ष, कठोरता, चातुर्य, बुद्धि कौशल के चमत्कार देख लिये गये। उनने सम्पदाएं तो कमाई पर उसकी एकांकी उद्धत प्रकृति उसका सदुपयोग न कर सकी। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव सफलता की प्रतीक तो नारी है। उसी का वर्चस्व मृदुलता का संचार कर सकने में समर्थ है। उसे उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय तो उपार्जन कितना भी—किसी देश में क्यों न होता रहे—सदुपयोग के अभाव में वह विश्व घातक ही सिद्ध होता रहेगा। सन्तुलन तभी रहेगा जब नारी को पुनः उसके पद पर प्रतिष्ठापित किया जाय और शक्ति के उन्मत्त हाथी पर स्नेह का अंकुश नियोजित किया जाय। भावनात्मक नव निर्माण का यह अति महत्वपूर्ण सूत्र है। नारी का पिछड़ापन दूर किये बिना—उसे आगे लाये बिना—कोई गति नहीं—इस कदम को उठाये बिना हमारी धरती पर स्वर्ग अवतरण करने और मनुष्य में देवत्व का उद्भव करने के हमारे स्वप्न साकार न हो सकेंगे।
प्रतिबन्धित नारी को स्वतन्त्रता के स्वाभाविक वातावरण में सांस ले सकने की स्थिति तक ले चलने में प्रधान बाधा उस रूढ़िवादी मान्यता की है जिसके अनुसार उसे या तो अछूत, बन्दी, अविश्वस्त घोषित कर दिया गया है या फिर उसे कामिनी की लांछना से कलंकित कर दिया है इन मूढ़ मान्यताओं पर प्रहार किये बिना उनका उन्मूलन किये बिना यह सम्भव न हो सकेगा कि अन्ध परम्परा के खूनी शिकंजे ढीले किये जा सकें और नारी को कुछ कर सकने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग कर सकना सम्भव हो सके। यह लेख माला इसी प्रयोजन के लिए लिखी जा रही है और यह प्रतिपादित किया जा रहा है कि नारी न तो कामिनी है—न अविश्वस्त न नरक में धकेलने वाली न बन्दी बना कर रखी जाने योग्य, भूखी अथवा दासी। वह मनुष्य जाती की आधी इकाई है—और उसका व्यक्तित्व वर्चस्व नर के समान ही नहीं वरन् अधिक उपयोगी भी है। उसे सरल स्वाभाविक स्थिति में जीवन यापन करने की छूट दी जा सके तो विश्व की वर्तमान विषम परिस्थितियों में आश्चर्यजनक मोड़ लाया जा सकता है और अन्धकार से घिरा दीखने वाला मानव जाति का भविष्य आशा के आलोक से प्रकाशवान होता हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है।
सर्व साधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरुष-पुरुष मिल कर कुछ काम करें या स्त्रियां-स्त्रियां मिलकर सहयोग सान्निध्य जगावें तो व्यभिचार अनाचार की आशंका नहीं की जा सकती। उसी प्रकार नर और नारी मिलजुल कर रहें तो उसमें प्रकृतितः कोई जोखिम या कुकल्पना की ऐसी आशंका नहीं है जिससे भयभीत होकर आधे मनुष्य समाज पर-नारी पर अवांछनीय प्रतिबंध आरोपित किये जाये। नर नारी का प्राकृतिक मिलना कितना उपयोगी आवश्यक एवं उल्लासपूर्ण है इसका परिचय हम भरे-पूरे परिवार में—जिसमें सभी वर्ग के नर-नारी अति पवित्रता के साथ रहते हैं—आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। घर परिवार में पति-पत्नी के जोड़ों के अतिरिक्त कौन किसे कुदृष्टि से देखता है या कुचेष्टा करता है यह स्थिति विश्व परिवार में भी लाई जा सकती है और सर्वत्र नर-नारी समान रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्नेह सद्भाव का संवर्धन करते हुए आत्मिक और भौतिक विकास में परस्पर अति महत्वपूर्ण योगदान दें सकते हैं। यह स्थिति लाई ही जानी चाहिए—बुलाई ही जानी चाहिए। अवरोध केवल गर्हित दृष्टिकोण ने प्रस्तुत किया है। इसके लिए अधिक दोषी कलाकार वर्ग है जिसने समाज के सोचने की दिशा ही अति भ्रमित करके रख दी, नारी को रमणी, कामिनी और वैश्या के रूप में प्रस्तुत करने की कुचेष्टा में जब कला के सारे साधन झोंक दिये गये तो जन मानस विकृत क्यों न होता? चित्रकार जब उसके मर्म-स्थलों को निर्लज्ज निर्वसना बनाने के लिए दुशासन की तरह अड़े बैठे हैं कवि जब वासना भड़काने वाले ही छन्द लिखें, गायक जब नख शिख का उत्तेजक उभार और लम्पटता के हाव-भावों भरे क्रिया-कलापों को अलापें—साहित्यकार कुत्सा ही कुत्सा सृजन करते चले जायें—और प्रेस तथा फिल्म जैसे वैज्ञानिक माध्यमों से उन दुष्प्रवृत्तियों को उभारने में पूरा-पूरा योगदान मिले तो जनमानस को विकृत और भ्रमित कर देना क्या कुछ कठिन हो सकता है? हमें इस विकृति के मूल स्रोत कला के अनाचार को रोकना बदलना होगा। स्नेह और सद्भाव की—देवी सरस्वती के साथ किया जाने वाला यह बर्बर व्यवहार यदि उल्टा जा सकता हो तो लोक मानस में नारी के प्रति स्वाभाविक सौजन्य फिर पुनः जीवित किया जा सकता है।
रूढ़िवादियों से कहा जाय कि वे दिन में आंखें मलकर न बैठे रहें। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। औचित्य की प्रतिष्ठा करने के लिये बुद्धिवाद की प्रखरता प्रातःकालीन ऊषा की तरह उदय होती चली आ रही है। उसे रोका न जा सकेगा। कथा पुराणों की दुहाई देकर—प्रथा परम्परा का पल्ला पकड़ कर-अब देर तक वे प्रतिबन्ध जीवित न रखे जा सकेंगे जो नारी को व्यभिचारिणी और अविश्वस्त समझ कर उसे अगणित बन्धनों में जकड़े हुए हैं। विवेक और न्याय की आत्मा तड़प रही है, वह इस बात के लिये मचल पड़ी है कि नारी के साथ बरती जाने वाली बर्बरता का अन्त किया जाय। सो वह सब होकर रहेगा। उसे कोई भी अवरोध देर तक रोक न सकेगा। अगले दिनों निश्चित रूप से नर और नारी परस्पर सहयोगी बनकर स्नेह सद्भाव के साथ स्वाभाविक जीवन जियेंगे और एक दूसरे को आशंका या यौन आकर्षण की दृष्ट से न देखकर पुण्य सौजन्य के आधार पर निर्माण और निर्वाह के क्षेत्रों में प्रगतिशील कदम बढ़ाते चलेंगे। रूढ़िवाद के लिये उचित यही है कि समय रहते बदलें अन्यथा समय उनकी अवज्ञा ही नहीं दुर्गति भी करेगा। उदीयमान सूर्य रुकेगा नहीं, उल्लू, चमगादड़ और वनबिलाव ही चाहे तो मुंह छिपाकर किसी कोने में विश्राम लेने के लिए अवकाश प्राप्त कर सकते हैं।
इसी प्रकार तथाकथित सन्त महात्माओं को कहा जाना चाहिये कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता, और कलुषिता से डरें उसे ही भवबन्धन मानें। नरक की खान वही है। नारी को उस लांछना से लांछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करे जिसके पेट से वे स्वयं पैदा हुए हैं और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए हैं। अच्छा हो हमारी जीभ पुत्री को न कोसे—भगिनी को लांछित न करे—नारी नरक की खान हो सकती है यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धान्त से तालमेल न खाती। यदि बात वैसी ही होती तो अपने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाएं न रहतीं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता। निरर्थक की डींगे न हांके तो ही अच्छा है। अन्तरात्मा प्रज्ञा, भक्ति, साधना, मुक्ति, सिद्धि या सभी स्त्रीलिंग हैं। यदि नारी नरक की खान है और स्त्रीलिंग, इस शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा है अध्यात्मवाद के नाम पर भौंड़ा भ्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रान्त करने की अपेक्षा उसे समेट कर अजायब घर की कोठरी में बन्द कर दिया जाय।
सर्वसाधारण को इस तथ्य से परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी को सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाय तो उससे किसी को कुछ भी हानि पहुंचने वाली नहीं है वरन् सबका सब प्रकार से लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाय। उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है मनुष्य को मनुष्य के अधिकार मिलने ही चाहिए। विश्व में राजनैतिक स्वतन्त्रता की मांग पिछले दिनों बहुत प्रबल होती चली आई है और उसने परम्परागत ताज, तख्तों को जड़ मूल से उखाड़ कर फेंक दिया। यह प्रवाह परिवर्तन राजनीति तक ही सीमित न रहेगा। मनुष्य के समान स्वाधीनता दिला कर ही वह गति रुकेगी। गुलाम प्रथा का अन्त हो गया अब दास-दासी खरीदे व बेचे नहीं जाते। वर्ग भेद और रंग भेद के नाम पर बरती जाने वाली असमानता के विरुद्ध आरम्भ हुआ विद्रोह प्रबल से प्रबलतर होता चला जा रहा है और दिन दूर नहीं जब कि मानवीय सम्मान और अधिकार से वंचित कोई व्यक्ति कहीं न रहेगा। जन्म-जाति, वंश, वर्ण, रंग आदि के नाम पर बरती जाने वाली असमानता अब देर तक जिन्दा रहने वाली नहीं है। वह अपनी मौत के दिन गिन रही है। इसी संदर्भ में यह भी गिरह बांध लेनी चाहिए कि नर और नारी के बीच बरता जाने वाला भेद भाव भी उसी अन्याय की परिधि में आता है। नारी की पराधीनता मनुष्य के आधे भाग की—आधी जनसंख्या की पराधीनता है। यह कैसे सम्भव है वह आगे भी आज की ही तरह बनी रहे। स्वतन्त्रता का प्रवाह नारी को भी इन अनीति मूलक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर रहेगा। दिन दूर नहीं कि गाड़ी के दो पहियों की तरह-शरीर की दो भुजाओं की तरह नर-नारी सौम्य सहयोग करते दिखाई पड़ेंगे। समय का प्रवाह आज नहीं तो कल इस स्थिति को उत्पन्न करके रहेगा। अच्छा हो वक्त रहते हम बदल जायें तो अमिट भावनाओं से लड़ मरने की अपेक्षा उसके लिये रास्ता खुला छोड़ दें—अच्छा तो यह है कि न्याय और विवेक की दिव्य किरणों के साथ उदय होने वाली इस ऊषा की अभ्यर्थना—करने अपनी सद्भाव सम्पन्नता का परिचय देने के लिए आगे बढ़ चलें।
नव निर्माण की प्रक्रिया इस दिशा में अधिक उत्सुक इसलिए है कि भावी विश्व का समग्र नेतृत्व नारी को ही सौंपा जाने वाला है। राज सत्ता का उपयोग पिछले दिनों आक्रमण, आतंक, शोषण और युद्ध लिप्सा के लिए होता रहा है पुरुष के नेतृत्व के दुष्परिणाम इतिहास का पन्ना-पन्ना बता रहा है। अब राज सत्ता नारी के हाथ सौंपी जायेगी ताकि वह अपनी करुणा और मृदुलता के अनुरूप राज सत्ता के अंचल में कराहती हुई मानवता के आंसू पोंछ सके। शिक्षा से लेकर न्याय तक—वाणिज्य से लेकर धर्म धारणा तक हर क्षेत्र का नेतृत्व जब नारी करेगी तब सचमुच दुनिया तेजी से बदलती चली जायेगी। कला के सारे सूत्र जब नारी के हाथ सौंप दिये जायेंगे तब उस देव मंच से केवल शालीनता की दिव्य धाराएं ही प्रवाहित होंगी और उस पुण्य जाह्नवी में स्नान करके जन मानस अपने समस्त कषाय कल्मष धोकर निर्मल निष्पाप होता दिखाई देगा।
नर का नेतृत्व मुद्दतों से चला आ रहा है उसकी करतूत करामात भली प्रकार देखी परखी जा चुकी। अच्छा है वह ससम्मान पीछे हट जाय और पेन्शन लेकर कम से कम नेतृत्व की लालसा से विदा हो ही जाय। करने के लिये बहुत काम पड़े हैं। पुरुष को उनसे रोकता कौन है? बात केवल नेतृत्व की है। बदलाव का तकाजा है कि ग्रीष्म का आतप बहुत दिन तप लिया अब वर्षा की शांति और शीतलता की फुहारें झरनी चाहिए। सर्वनाश की किस विषम विभीषिका में मनुष्य जाति फंसी पड़ी है उससे परित्राण नेतृत्व बदले बिना सम्भव नहीं। नारी की करुणा से ही नर की निरन्तर क्रूरता का परिमार्जन हो सकेगा। उसे सशक्त और समर्थ बनाने के लिए वह सब बौद्धिक प्रक्रिया सजीव करनी पड़ेगी जो इस लेख माला के अन्तर्गत प्रस्तुत की जा रही है।
नर-नारी के सम्मिलन से खतरा केवल एक ही है कि यह वर्तमान विकृत वासना का ताण्डव रोका नहीं गया तो पाश्चात्य देशों की तरह स्वच्छन्द के वातावरण में बढ़ चला यौन अनाचार बिखर पड़ेगा और वह भी कम विघातक न होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जहां नारी स्वातन्त्र्य के लिए हमें प्रयत्न करना है वहां यह चेष्टा भी करनी है कि कामुकता की ओर बहती हुई मनोवृत्तियों को परिष्कृत करने में कुछ उठा न रखा जाय। नारी का सौम्य और स्वाभाविक चित्रण इस सन्दर्भ में अति महान है। कला के विद्रूप को कोसने से काम न चलेगा, उसे गन्दे हाथों से छीन लेना शासन सत्ता के लिए तो सम्भव है पर हम लोग जन स्तर पर इस प्रजातन्त्र पद्धति के रहते कुछ बहुत बड़ा प्रतिरोध नहीं कर सकते हम यही कर सकते हैं कि दूसरा कला मंच खड़ा करें और उसके माध्यम से नारी की पवित्रता प्रतिपादित करते हुए लोक मानस की यह मान्यता बनायें कि नारी वासना के लिए नहीं पवित्रता का पुण्य स्फुरण करने के लिए है। कला मंच यह सब आसानी से कर सकता है। साहित्य का सृजन इसी दिशा में हो, कविताएं ऐसी ही लिखी जायें, चित्र इसी प्रयोजन के लिए बनें, गायक यही गायें, प्रेस यही छापें, फिल्म यही बनायें तो कोई कारण नहीं कि नारी का स्वाभाविक एवं सरल सौम्य स्वरूप पुनः जन मानस में प्रतिष्ठापित न किया जा सके ऐसी दशा में वह जोखिम न रहेगा जिसे पाश्चात्य लोग भुगत रहे हैं। उनने नारी स्वतन्त्रता तो प्रस्तुत की पर विकारोन्मूलन के लिए कुछ करना तो दूर उलटे उसे भड़काने में लग गये और दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। हमें यह भूल नहीं करनी चाहिए। हम दृष्टिकोण के परिष्कार के प्रयत्नों को भी नारी स्वातन्त्र्य आंदोलन के साथ मोड़कर रखें तो निश्चय ही वैसी आशंका न रहेगी जिससे विकृतियों के भड़क पड़ने का विद्रूप उठकर खड़ा हो जाय। साथ ही हमें आध्यात्मिक काम विज्ञान के उन तथ्यों को सामने लाना होगा जिनके आधार पर यौन सम्बन्ध की—काम क्रीड़ा की उपयोगिता और विभीषिका को समझा जा सके और उसके दुरुपयोग के खतरे से बचने एवं सदुपयोग से लाभान्वित होने के बारे में समुचित ज्ञान सर्व साधारण को मिल सके।
प्रकृति की प्रेरणा सदाचार भरी आत्मीयता
आजकल पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता से प्रभावित लोग यौन सदाचार का पालन करते हिचकिचाते हैं और तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति से प्रेरणायें ली हैं। प्रकृति में, पशुओं में, कामाचार की कोई मर्यादायें नहीं रहती अतएव मनुष्य भी यदि उनका पालन नहीं करे तो कुछ हर्ज नहीं। वस्तुतः ऐसा कहने वालों ने प्रकृति का गहराई तक अध्ययन नहीं किया थोड़े से तुच्छ और नगण्य किस्म की मक्खियों, मच्छरों, कुत्ते, बिल्लियों की बात अलग है अन्यथा सृष्टि में जितने भी शक्तिशाली और प्रसन्नता प्रिय जीव हैं उन सबके दाम्पत्य जीवन बहुत ही आत्मीयता, घनिष्ठता और सदाचार पूर्ण होते हैं।
मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों में उतनी काम, कला नहीं होती। वे काम वासना का उपयोग मात्र वंशवृद्धि के लिए ही करते हैं। उतना ही नहीं वे वंश वृद्धि के बाद के अपने उत्तरदायित्वों को भी समझते हैं और उसके बाद उन्हें निभाने के लिए पहले से ही व्यवस्था करने लगते हैं।
संयम और सुखी परिवार
‘स्टिकल-बैक’ नाम की एक मछली होती है, जो समुद्र में ही पाई जाती है। डा. लार्ड ने इस मछली की विभिन्न आदतों और क्रियाओं का बहुत सूक्ष्मता से अध्ययन किया। बैकोवर आइरलैण्ड में महीनों रह-रहकर आपने इस मछली की जीवन पद्धति का अध्ययन किया और बताया कि मनुष्य चाहे तो इससे अपने पारिवारिक जीवन को सुखी और सुदृढ़ बनाने की महत्त्वपूर्ण शिक्षायें ले सकता है।
नर स्टिकल बैक अपना घर बसाने के लिये बहुत पहले से तैयारी प्रारम्भ कर देता है। सबसे पहले सारे समुद्र में घूम-घूमकर वह कोई ऐसा स्थान ढूंढ़ निकालता है, जहां पर पानी न बहुत तेजी से बह रहा हो न बहुत धीरे। जगह शांत एकान्त हो और वहां हर किसी का पहुंचना भी सम्भव न हो।
प्राचीनकाल की जीवन-प्रणाली और शिक्षा पद्धति पर दृष्टि दौड़ाकर देखते हैं तो पता चलता है कि तत्कालीन ऋषियों-मुनियों एवं सामाजिक मार्ग-दर्शक आचार्यों ने भी यह भलीभांति अनुभव किया था कि दाम्पत्य और गृहस्थ-जीवन एक महत्वपूर्ण योग साधना है, उसके लिये आवश्यक तैयारियां न की जायें तो लोगों के वैयक्तिक जीवन ही नहीं पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थायें भी लड़खड़ा सकती हैं। जीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर विद्याध्ययन करने और पाठ्य-क्रम में धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक विषयों के समावेश के पीछे एक मात्र उद्देश्य और रहस्य यही था कि आने वाले जीवन और जिम्मेदारियों को वहन करने के लिये शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक त्रुटि न रह जाये। पूर्ण तैयारी कर लेने के फलस्वरूप ही उन दिनों के दाम्पत्य जीवन, पारिवारिक और सामाजिक संगठन, प्रेम-मैत्री करुणा, दया, क्षमा, उदारता आदि सुख-सन्तोष और स्वर्गीय परिस्थितियों से भरे-पूरे रहते थे। आनंद छलकता था उन दिनों, पर आज जब कि शिक्षा के ढंग ढांचे में, हमारी रीति-नीति और जीवन पद्धति में उस तैयारी के लिये कोई स्थान नहीं रहा, तब हमारे पारिवारिक जीवन में कोई उल्लास नहीं रह गया। दाम्पत्य जीवन असन्तोष और अस्त-व्यस्तता के पर्याय बन गये हैं।
मनुष्य भूलकर सकता है पर सृष्टि के सैकड़ों जीव−जंतुओं की तरह स्टिकल बैक मछली यह भूल कभी नहीं करती। जैसे उसे प्रकृति से यह प्रेरणा मिली हो कि वह अपनी जीवन पद्धति द्वारा मनुष्य को सिखाये और समझाये कि जो आनन्द पहले से तैयारी किये हुए दाम्पत्य जीवन में है, वह चाहे जैसे गृहस्थ बसा लेने में नहीं है। यह सारा उत्तरदायित्व पति का है कि वह समुचित व्यवस्थायें स्वयं जुटाये। अपनी तैयारी में कोई त्रुटि न हो तो पत्नियों की और से पूर्ण सहयोग और समर्थन न मिले ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। इस मछली की तरह तैयारी किये हुये नर दाम्पत्य जीवन का ऐसा आनन्द पाते हैं कि उन्हें न तो स्वर्ग की कल्पना होती है और न मुक्ति की ही। वे इसी जीवन में स्वर्ग-भोग का सौभाग्य प्राप्त करते हैं।
तत्परतापूर्वक ढूंढ़-खोज के बाद जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है, तब स्टिकल बैक पत्नी के लिये सुन्दर घर बनाने की तैयारी करता है। इसके लिये उस बेचारे को कितना परिश्रम करना पड़ता है, यह बात अपने माता-पिता की पीठ पर चढ़े, विवाह की कामना करने वाले युवक भला क्या समझेंगे? स्टिकल बैक पानी में तैरती हुई छोटे-छोटे पौधों की नरम-नरम लकड़ियां, तैरते हुये पौधों की जड़े इकट्ठी करता है और उन्हें चुने हुये स्थान पर ले जाता है। विवाह के शौकीन स्टिकल को पहले खूब परिश्रम और मजदूरी करनी पड़ती है। अपने शरीर से वह एक प्रकार का लस्लसा पदार्थ निकालता है और एकत्रित सारी वस्तुओं को उसी में चिपका लेता है ताकि उसका इतना परिश्रम व्यर्थ न चला जाये। उसने जो लकड़ियां एकत्रित की हैं, वह अपने स्थान तक पहुंच जायें।
स्टिकल बैक पूरे आत्म-विश्वास के साथ काम करता है। सारा एकत्रित सामान मजबूती से चिपक गया है, इसका विश्वास करने के लिये वह अपने शरीर को फड़फड़ाता हुआ नाचता है, जैसे उसे परिश्रम में आनन्द लेने की आदत हो। जब एक बार विश्वास हो गया कि सामान गिरेगा नहीं, तब आगे बढ़ता है और पूर्व निर्धारित स्थान पर इस सामान से मकान बनाता है। शरीर का लसलसा पदार्थ यहां सीमेन्ट का काम करता है और लाई हुई लकड़ियां ईंट-पत्थरों का। आगन्तुक वधू के लिये महल बना कर एक बार वह उसे घूम-घूमकर देखता है। लगता है अभी वैभव में कुछ कमी रह गई। फिर वह रेत के बारीक टुकड़े मुख में भर कर लाता है और मकान के फर्श पर बिछाता है। कोठरी में कहीं टूट-फूट की गुंजाइश हो तो उसे ठीक करता है। सारा मकान वार्निस किया हुआ—सा हो जाने के बाद ही उसे सन्तोष होता है। जब यह तैयारियां पूर्ण हुईं, तब वह स्वयं मादा की खोज में निकलता है। उसे दहेज और लेन-देन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह जानता है, नारी-नर की अपनी आवश्यकता भी है, इसलिये प्रिय वस्तु को भरपूर स्वागत और सम्मान अपनी ओर से ही क्यों न दिया जाये। वह मनुष्यों की तरह का दम्भ और पाखण्ड प्रदर्शित नहीं करता।
उपयुक्त पत्नी मिल जाने पर वह उसे घर लाता है। पत्नी कुछ दिन में गर्भावस्था में आती है, तब ये उसे घूमने को भेजता रहता है, घर और अण्डों की देख-भाल तब वह स्वयं ही करता है। यह उनके भोजन आदि का ही प्रबन्ध नहीं करता वरन् सुरक्षा के लिये दरवाजे पर कड़ा पहरा भी रखता। मि. फ्रैंक बकलैण्ड ने इसकी कर्मठता का वर्णन करते हुये, लिखा है कि मकान में थोड़ी-सी भी गड़बड़ी हो तो यह उसे तुरन्त ठीक करता है।
स्टिकल बैक अपने बच्चों और पत्नी के पालन का उत्तरदायित्व पूरी सूझ समझ के साथ निबाहता है। वह उन्हें पर्दे में नहीं रखता। पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे, इसके लिये वह अपने मकान में दो दरवाजे रखता है। इससे वहां के पानी में बहाव बना रहता है और ताजी ऑक्सीजन मिलती रहती है, यदि बहाव रुक जाये तो वह तुरन्त शरीर फड़-फड़ाकर बहाव पैदा कर देता है, जिससे रुके हुये पानी की गन्दगी प्रभावित न कर पाये।
स्टिकल बैक का जीवन कितना कलात्मक और सुरुचिपूर्ण है। इधर बच्चे निकलने लगे, उधर उसने मकान के ऊपरी भाग छत को अलग करके एक बढ़िया झूला तैयार किया। मनुष्यों की तरह गुम-सुम का जीवन उसे पसन्द नहीं। झूला बनाकर उसमें बच्चों को भी झुलाता है और पत्नी को भी। स्वयं उस क्षेत्र में परेड करता रहता है, जिससे उसके आनन्द और खुशहाली की अभिव्यक्ति होती है पर दूसरे दुश्मन और बुरे तत्व डरकर भाग जाते हैं, जैसे कला प्रिय और सुरुचि पूर्ण सद्गृहस्थ से अवगुण दूर रहने से अशांति पास नहीं आती। बच्चे झूला छोड़कर इधर-उधर भागते हैं तो यह उन्हें बार-बार झूले में डाल देता है, जब तक बच्चे स्वयं समर्थ न हो जायें, यह उन्हें आवारा-गर्दी और कुसंगति में नहीं बैठने देता। अपनी रक्षा करने में जब वे समर्थ हो जाते हैं, तभी उन्हें जाने और नया संसार बनाने की अनुमति देता है।
स्टिकल बैक की तरह मनुष्य का पारिवारिक जीवन भी तैयारी उद्देश्य और सुरुचिपूर्ण होता, पतिव्रत ही नहीं पत्नीव्रत का भी ध्यान रखा गया होता तो सामाजिक जीवन हंसता खिलखिलाता हुआ होता।
शेरनी 108 दिन में प्रसव करती है। इसके बाद वह प्रायः 2 वर्ष तक, जब तक कि बच्चे बड़े न हो जायें और समर्थ न बन जायें उन्हीं के पोषण व प्रशिक्षण में व्यस्त रहती है। सहवास की इच्छा होने पर भी वह उसे टालती रहती है और बच्चों के बड़े हो जाने पर ही पुनः गर्भ धारण करती है। इस तरह के उदाहरण से भावनाओं की गम्भीरता का पता चलता है। इसके विपरीत आचरण स्वभाव का हल्कापन है, भावनाओं का अर्थ केवल मात्र झुकना नहीं अपितु अपनी समीक्षा बुद्धि को जागृत रखते हुए, जो पवित्र रसमय और मर्यादा जन्य है उसे पूरा करने में अपनी संपूर्ण निष्ठा का परिचय देना है।
कीवी, कैसोवरी, रही, मौआ, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन आदि पक्षियों के जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद चार्ल्स डारविन ने लिखा है—इन पक्षियों का गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बड़ा सन्तुलित; समर्पित और चुस्त होता है। नर-मादा आपस में ही नहीं बच्चों के लालन-पालन में भी बड़ी सतर्कता, स्नेह और बुद्धि-कौशल से काम लेते हैं। मनुष्य-जाति की तरह इनमें भी परिवार के पालन-पोषण का अधिकांश उत्तरदायित्व नर पर रहता है। मादा से शरीर में छोटा होने पर भी वह घोंसला बनाना, अण्डे सेहना और जिन दिनों मादा अण्डे सेह रही हो उन दिनों उसके आहार की व्यवस्था करना, सद्यः प्रसूत बच्चों को संभालने से लेकर उन्हें उड़ना सिखा कर एक स्वतन्त्र कुटुम्ब बसा कर रहे की प्रेरणा देने तक का अधिकांश कार्य नर ही करता है। वह इनकी दुश्मनों से रक्षा भी करता है।
गृहस्थी बसाने में सम्भवतः मनुष्य को इतनी आपा-धापी नहीं करनी पड़ती होगी जितनी बेचारे पेन्गुइन पक्षी को। उसके लिये पेन्गुइन दो महीने सितम्बर और फरवरी में दक्षिणी ध्रुव की यात्रा करता है। पेन्गुइन जाते हैं अपने अभिभावक अपने मार्गदर्शक के अनुशासन में रहना कितना लाभदायक होता है। उसके अनुभवों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिये पेन्गुइन अपने मुखिया के चरण-चिन्हों पर ही चलता है।
ध्रुवों पर पहुंचने के बाद पुराने पेन्गुइन तो अपने पहले वर्षों के छोड़े हुए घरों में आकर रहने लगते हैं किन्तु नव-युवक पेन्गुइन अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर नया परिवार बसाने के लिये चल देता है। उसकी सबसे पहली आवश्यकता एक योग्य पत्नी की होती है। वह ऐसी किसी मादा को ढूंढ़ता है जिसका विवाह न हुआ हो। अपनी विचित्र भाव-भंगिमा और भाषा में वह मादा से सम्बन्ध मांगता है। मनुष्य ही है जो जीवन साथी का चुनाव करते समय गुणों का ध्यान न देकर केवल धन और रूप-लावण्य को अधिक महत्त्व देता है। पर पेन्गुइन यह देखता है कि उसका जीवन साथी क्या उसे सुदृढ़ साहचर्य प्रदान कर सकता है।
सम्बन्ध की याचना वह स्वयं करता है। ऐसे नहीं, उसे मालूम है जीवन में धर्मपत्नी का क्या महत्त्व है, इसलिये पत्नी को खुश करके।पत्नी की प्रसन्नता भी सुन्दर चिकने पत्थर होते हैं। नर चोंच में दबा कर एक सुन्दर-सा कंकड़ लेकर मादा के पास जाता है। मादा कंकड़ देखकर उसके गुणी, पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी होने का पता लगाती है। यदि उसे नर पसन्द आ गया तो वह अपनी स्वीकृति दें देगी अन्यथा चोंच मारकर उसे भगा देगी। चोट खाया हुआ नर एक बार पुनः प्रयत्न करता है। थोड़ी दूर पर उदास सा बैठकर इस बात की प्रतीक्षा करता है कि मादा सम्भव है तरस खाये और स्वीकृति दे दे। यदि मादा ने ठीक न समझा तो नर बेचारा कहीं और जाकर सम्बन्ध ढूंढ़ने लगता है। मादा की स्वीकृति मिल जाये तो पेन्गुइन की प्रसन्नता देखते ही बनती है। नाच-नाच कर आसमान सिर पर उठा लेता है। पर मादा को पता होता है। गृहस्थ परिश्रम से चलते हैं इसलिये वह नर को संकेत देकर घर बनाने में जुट जाती है। नर तब दूर-दूर तक जाकर कंकड़ ढूंढ़कर लाता है। मादा महल बनाती है। इस समय बेचारा नर डांट-फटकार भी पाता है पर उसे यह पता है कि पत्नी के स्नेह और सद्भाव के सुख के आगे मीठी फटकार का कोई मूल्य नहीं। दोनों मकान बना लेते हैं तब फिर स्नान के लिये निकलते हैं और जल की निर्मल लहरों में देर तक स्नान करते हैं। स्नान करके लौटने पर कई बार उनके बने-बनाये मकान पर कोई अन्य पेन्गुइन अधिकार जमा लेता है। दोनों पक्षों में युद्ध होता है जो विजयी होता है वही उस मकान में रहता है। पर युद्ध के बाद भी स्नान करने जाना आवश्यक है इस बार वे पहले जैसी भूल नहीं करते। बारी-बारी से स्नान करने जाते हैं और लौट कर फिर गृहस्थ कार्य में संलग्न होते हैं। मादा अण्डे देती है पर बच्चों की पालन प्रक्रिया नर ही पूर्ण करते हैं। पेन्गुइन की इस तरह की घटनायें देख कर मनुष्य की उससे तुलना करने को जी करता है। मनुष्य भी उनकी तरह लूट-पाट और स्वार्थ पूर्ण प्रवंचना में कितना अशान्त और संघर्षरत रहता है। पर वह सुखी गृहस्थ के सब लक्षण भी इन पक्षियों से नहीं सीख सकता और परस्पर घर में ही लड़ता-झगड़ता रहता है। पेन्गुइन-सी सहिष्णुता भी उसमें नहीं है।
कछुये को नृत्य करते देखने की बात तो दूर की है, किसी ने उसे तेज चाल से चलते हुये भी नहीं देखा होगा पर दाम्पत्य जीवन में आबद्ध होते समय उसकी प्रसन्नता और थिरकन देखते ही बनती है। कछुआ जल में तेजी से नृत्य भी करता है और तरह-तरह के ऐसे हाव-भाव भी जिन्हें देख कर मादा भी भाव विभोर हो उठती है। यही स्थिति है मगरमच्छ की। मगर भी प्रणय बेला में विलक्षण नृत्य करता है।
मछलियों में सील मछली की दुनिया और भी विचित्र है। नर अच्छा महल बनाकर रहता है। और उसमें कई-कई मादायें रखता है। नर अन्य नरों की मादाओं को हड़पने का भी प्रयत्न करते रहते हैं और इसी कारण उन्हें कई बार तेज संघर्ष भी करना पड़ता है। कामुकता और बहु विवाह की यह दुष्प्रवृत्ति मछलियों में ही नहीं शुतुरमुर्ग और रही नामक पक्षियों में भी होती है। यह 7-8 मादायें तक रखते हैं फिर भी नर इतना धैर्यवान् और परिश्रमी होता है कि एक-एक मादा आठ-आठ दस-दस अण्डे देती है और नर उन सबको भली प्रकार संभाल लेता है। लगता है इनकी दुनिया ही पत्नी जुटाने और बच्चे पैदा करने के लिये होती है इस दृष्टि से मनुष्य की कामुकता और दोष-दृष्टि को तोला जा सकता है। यदि मनुष्य भी इन दो प्रवृत्तियों तक ही अपने जीवन क्रम को सीमित रखता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह रही और सील मछलियों की ही जाति का कोई जीव है।
कई बार तो अश्लीलता में मनुष्य सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर जाता है किन्तु इन पक्षियों और प्राणियों ने अपने लिये जो विधान बना लिया होता है उससे जरा भी विचलित नहीं होते। चींटी राजवंशी जन्तु है। उसमें रानी सर्व प्रभुता सम्पन्न होती है वही अण्डे देती है और बच्चे पैदा करती है। अपने लिये मधुमक्खी की तरह वह एक ही नर का चुनाव करती है शेष चींटियां मजदूरी, चौकीदारी और मेहतर आदि का काम करती हैं। अपनी-जिम्मेदारी प्रत्येक चींटी इस ईमानदारी से पूरी करती है कि किसी दूसरी को रत्ती भर भी शिकायत करने का अवसर न मिले जब कि उन बेचारियों को अपने हिस्से से एक कण भी अधिक नहीं मिलता। लगता है सामाजिक व्यवस्था में ईमानदारी को भी श्रम और निष्ठा यह आदर्श मनुष्य ने चींटी से सीख लिया होता तो वह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और सन्तुष्ट रहा होता, पर यहां तो अपने स्वार्थ, अपनी गरज के लिये मनुष्य अपने भाई-भतीजों को भी नहीं छोड़ता। कम तौलकर, मिलावट करके कम परिश्रम में अधिक सुख की इच्छा करने वाला मनुष्य इन चींटियों से भी गया गुजरा लगता है।
एक बार अफ्रीका में वन्य पशु खोजियों का एक दल हाथियों की सामाजिकता का अध्ययन करने आया। संयोग से उन्हें एक ऐसा सुरक्षित स्थान मिल गया जहां से वे बड़ी आसानी से हाथियों के करतब देख करते थे। एक दिन उन्होंने देखा हाथियों का एक झुण्ड सवेरे से ही विलक्षण व्यूह रचना कर रहा है। कई मस्त हाथियों ने घेरा डाल रखा है। झुण्ड में जो सबसे मोटा और बलवान् हाथी था वही चारों तरफ आ जा सकता था शेष सब अपने-अपने पहरे पर तैनात थे। लगता था वह बड़ा हाथी उन सबका पितामह या मुखिया था उसी के इशारे पर सब व्यवस्था चल रही थी और एक मनुष्य है जो थोड़ा ज्ञान पा जाने या प्रभुता सम्पन्न हो जाने पर भाई-भतीजों की कौन कहे परिवार के अत्यन्त संवेदनशील और उपयोगी अंग बाबा, माता-पिता को भी अकेला या दीन-हीन स्थिति में छोड़कर चल देता है।
मुखिया के आदेश से 5-6 हथिनियां उस घेरे में दाखिल हुईं। बीच में गर्भवती हथिनी लेटी थी। सम्भवतः उसकी प्रसव पीड़ा देखकर ही हमलावरों से रक्षा के लिये हाथियों ने वह व्यूह रचना की थी। परस्पर प्रेम, आत्मीयता और निष्ठा का यह दृश्य सचमुच मनुष्य को लाभदायक प्रेरणायें दे सकता है यदि मनुष्य स्वयं भी उनका परिपालन कर सकता होता।
बच्चा हुआ, कुछ हथनियों ने जच्चा को संभाला कुछ ने बच्चे को। ढाई-तीन घण्टे तक जब तक प्रसव होने के बाद से बच्चा धीरे-धीरे चलने न लगा हाथी उसी सुरक्षा स्थिति में खड़े रहे। हथनियां दाई का काम करती रहीं। बच्चे और मादा के शरीर की सफाई से लेकर उन्हें खाना खिलाने तक का सारा काम कितने सहयोग और संकुचित ढंग से हाथी करते हैं यह मनुष्य को देखने, सोचने, समझने और अपने जीवन में भी धारण करने के लिये अनुकरणीय है।
पेन्गुइन पक्षी बच्चों पर कठोर नियन्त्रण रखते हैं। बड़े-बूढ़ों के नियन्त्रण के कारण बच्चे थोड़ा भी इधर-उधर नहीं जा सकते। जब शरीर और दुनियादारी में वे चुस्त और योग्य हो जाते हैं तो फिर स्वच्छन्द विचरण की आज्ञा भी मिल जाती है जब कि मनुष्य ने बच्चे पैदा करना तो सीखा पर उनमें से आधे भी ऐसे नहीं होते जो सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह इतनी कड़ाई से करते हों। अधिकांश तो यह समझना भी नहीं चाहते कि बच्चों को किस तरह योग्य नागरिक बनाया जाता है।
थोड़ी भी परेशानी आये तो मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों से कतराने लगता है किन्तु अन्य जीव अपने गृहस्थ कर्त्तव्यों का पालन कितनी निष्ठा के साथ करते हैं यह देखना हो तो अफ्रीका चलना चाहिये। यहां कीवी नाम का एक पक्षी पाया जाता है। कामाचार को वह अत्यन्त सावधानी से बर्तता है ताकि उसे कोई देख न ले। काम सम्बन्धी मर्यादाओं को ढीला छोड़ने का ही प्रतिफल है कि आज सामाजिक जीवन में अश्लीलता और फूहड़पन का सर्वत्र जोर है। कीवी को यह बात ज्ञात है और वह अपने वंश को सदैव सदाचारी देखना चाहता है इसीलिये सहवास भी वह बिलकुल एकान्त में और उस विश्वास के साथ करता है कि वहां उसे कोई देखेगा नहीं। मादा जब अण्डे देने लगती है तो नर उनकी रक्षा करता है और सेहता भी है। उसे लगातार 80 दिन तक अण्डे की देखभाल करनी होती है। बच्चा पैदा होने के साथ वह जहां पुत्रवान् होने पर गर्व अनुभव करता है वहां यह प्रसन्नता भी कि अब उसे विश्राम मिलेगा पर होता यह है कि इसी बीच मादा ने दूसरा अण्डा रख दिया होता है बेचारे नर को फिर 80 दिन का अनुष्ठान करना पड़ जाता है। इस तरह वह कई-कई पुरश्चरण एक ही क्रम में पूरे करके अपनी निष्ठा का परिचय देता है। मनुष्य क्या उतना नैतिक हो सकता है? इस पर विचार करें तो उत्तर निराशाजनक ही होगा।
वासना के दुष्परिणाम
प्राणि जगत में जहां एक ओर यौन सदाचार अधिकाधिक ब्रह्मचर्य और पारिवारिक जीवन में स्नेह भरी घनिष्ठता के दर्शन होते हैं वहीं काम का वह विद्रूप भी स्पष्ट दिखाई दें जाता है जो नारी को कामिनी और रमणी रूप में देखने के कारण मनुष्य जाति को भुगतना पड़ता है संयम और दाम्पत्य जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले जीवों का जीवनकाल इतना त्रास दायक पाया गया है कि उसे देखकर रोयें खड़े हो जाते हैं कम से कम मनुष्य जैसे विचारशील प्राणी को तो वैसी स्थिति नहीं आने देनी चाहिये। प्रजनन-ऋतु आने पर नर-सील मादाओं के लिए लड़ने लगते हैं। एक सशक्त नर-सील 40-50 तक मादाओं का मालिक होता है। पर उसकी विक्षुब्ध वासना अपरिमित होती है। नई मादाएं देखकर वह मचल उठता है तथा पड़ौसी सील-समूह पर आक्रमण कर बैठता है। उस समूह के नर से उसे प्रचण्ड संघर्ष करना पड़ता है। मान लें, कि वह इस संघर्ष में विजयी ही हो जाता है और अपनी पसन्द की मादा को लेकर थका, आहत, गर्वोद्धत अपने समूह में लौटता है, तो उसे प्रायः यही दृश्य दीखेगा कि उसके समूह की एक याकि दो-चार मादाएं, कोई दूसरा नर-सील खींचे लिए जा रहा है। अब या तो मन मारकर, अपहरण का यह आघात झेलें अथवा उसी थकी मंदी दशा में द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारे और तब परिणाम पता नहीं क्या हो?
इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अधिकांश नर-सील तीन माह की यह प्रजनन-ऋतु बीतने तक श्लथ, क्षत-विक्षत हो चुकते हैं और आहार जुटा पाने योग्य शक्ति भी उनमें शेष नहीं रहती। इसका कारण मादा के प्रति नर-पशु की निरन्तर यौन-जागरूकता की प्रवृत्ति है। इससे विपरीत सामूहिक सह-जीवन की प्रवृत्ति वाले पशुओं में तो मादा के प्रति कोई अनावश्यक आकर्षण नर रखते ही नहीं मात्र प्रजनन-ऋतु में ही मादा विशेष के प्रति आकर्षित होते हैं। शेष समय वे मानो लिंगातीत साहचर्य ही स्थिति में रहते हैं। हाथी की शक्ति एवं बुद्धिमत्ता सुविदित है। किन्तु इस विषमता वादी प्रकृति से हाथियों के मुखिया को भी अपनी शक्ति व समय का अधिकांश भाग अनावश्यक संघर्षों में खर्च करना होता है।
हाथी समूह में रहते हैं। समूह-नायक ही अपने समूह की सभी हथनियों का स्वामी होता है। समूह के अन्य किसी सदस्य द्वारा किसी भी हथिनी से तनिक-सी भी काम चेष्टा या प्रेम-प्रदर्शन करने पर, मुखिया यह देखते ही उस पर आक्रमण कर या तो भगा देता है या परास्त कर प्रताड़ित, अपमानित करता है।
कोई युवा, शक्तिशाली हाथी कभी भी ऐसी उद्धत चेष्टा कर मुखिया को उत्तेजित कर देता है और युद्ध में उसे यदि परास्त कर देता है, तो फिर वही टोली की सभी हथनियों का स्वामी तथा टोली नायक बनता है। पराजित नायक बहुधा विक्षिप्त हो जाता है और खतरनाक भी हो उठता है।
‘‘मरण बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणम्’’ सूत्र में कामुकता के अमर्यादित चरणों को मरण का प्रतीक माना गया है। उसमें सर्वनाश ही सन्निहित है। यह विचार सर्वथा असत्य है कि अति कामुकता बरतने वालों से उनकी सहधर्मिणी प्रभावित होती है, वरन् सच तो यह है कि वह उलटी घृणा करने लगती है। ऐसी घृणा जहां पनपेगी वहां सद्भाव कहां रहेगा? जब मादा देखती है कि नर अपनी तृप्ति के लिए उसके शरीर का अनावश्यक दुरुपयोग किये जा रहा है तो वह पति-भक्ति अपनाने के स्थान पर उलटे आक्रमण कर बैठती है। ऐसे आक्रमणों से नर की दुर्गति ही होती है और ‘मरण बिन्दुपातेन’ सूत्र के अनुसार उद्धत कामविकार मृत्यु का दूत बनकर सामने आ खड़ा होता है।
नर-बिच्छू अपनी प्रेयसी के साथ-साथ नृत्य करता है—घण्टों। कभी तेजी से दोनों आगे बढ़ते हैं, कभी पीछे हटते हैं। थककर शिथिल होने पर दोनों साथ-साथ ही विश्राम करते हैं। लेकिन मादा बिच्छू कई बार उत्तेजना में नर को खा भी जाती है।
‘‘फ्राग-फिश’’ का यौनाचरण भी ऐसा ही प्राणान्तक है। मादा फ्राग-फिश घूमती रहती है, श्रीमान नर अधिकांश पुरुषों की ही तरह लम्पट और अधीर होते हैं। मादा के पास पहुंचते ही वे उत्तेजित हो उठते हैं, जब कि मादा को ऐसा कुछ भी नहीं होता। उत्तेजित नर मादा के मादक दिख रहे शरीर-मांस में तेजी से दांत गढ़ाता है। बस, फिर यह दांत गढ़ा ही रह जाता है। क्योंकि उस मांस से यह दांत कभी निकल नहीं पाता। किसी तरह केलि करते हैं। नशा उतर जाने के बाद दांत छुड़ाने की पूरी कोशिश करते हैं—बार-बार। पर विफल मनोरथ ही रहते हैं। खाना-पीना बन्द। कितने दिन जीयेंगे? अन्त में दम टूट जाता है।
बिल्लियों का गम्भीर रुदन उनकी शारीरिक पीड़ा का नहीं वरन् उत्तेजित मनोव्यथा का परिचालक होता है। बन्दरों की कर्ण कटु किलकारियों में भी यह आभास होता है कि उनके भीतर कुछ असाधारण हलचल हो रही है।
साही का प्रणयकाल उसके उछलने कूदने की व्यस्तता से जाना जा सकता है उन दिनों वह खाना, पीना, सोना, तक भूल जाती है और बावली सी होकर लकड़ी के टुकड़ों को मुंह में देकर उन्हें उछालती हुई ऐसी दौड़ती है मानो उसे फुटबाल मैच में व्यस्त रहना पड़ रहा हो।
सर्प की प्रणयकेलि उनकी आलिंगन आबद्धता के रूप में दीख जाता है उन क्षणों वह अत्यंत भावुक और आवेशग्रस्त होता है। सर्प नहीं चाहता कि इस एकान्त सेवन में कोई भागीदार हस्तक्षेप करे। यदि उसे पता चल जाय कि कोई लुक-छिप कर उसे देख रहा है तो सर्प क्रोधोन्मत्त होकर प्राणघातक आक्रमण कर बैठता है।
कितने ही नर-पशु इस आवेग में ग्रसित होकर एक दूसरे के प्राणघातक बन जाते हैं। उस आवेश में वे अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं।
हिरनों में ऋतुकाल स्वयंवर के लिए मल्लयुद्ध का रूप धारण करता है। इससे उनके सींग टूटते हैं, घाव लगते हैं और कई बार तो वे प्राण तक गंवाते हैं। हिरनियां इस मल्ल युद्ध को निरपेक्ष भाव से देखती रहती हैं और पराजित से सम्बन्ध तोड़ने और विजयी की अनुचरी बनने के लिए बिना किसी खेद के सहज स्वभाव प्रस्तुत रहती हैं। यही दुर्गति अगणित पशुओं की होती है। उनमें से आधे तो प्रायः इसी कुचक्र में क्षत-विक्षत होकर मरते हैं।
केवल नर ही इस स्वयंवर युद्ध में लड़-मरकर कष्ट उठाते हों सो बात नहीं। कई बार तो मादाएं भी नरों की अविवेकशीलता के लिए उन्हें भरपूर दण्ड देतीं और नाच नचाती हैं। नर गरुड़ को प्रणयकेलि की तभी स्वीकृति मिलती है जब वह मल्लयुद्ध में अपनी प्रेयसी को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। ऋतुमती गरुड़ मादा नर को आमन्त्रण तो देती है पर साथ ही यह चुनौती भी प्रस्तुत करती है कि यदि वह पिता बनने योग्य हैं तो ही उस पद की लालसा करें। समर्थता को परखने के लिए मादा मल्ल-युद्ध करती है और इस भयानक संघर्ष में नर के पंख नुच जाते हैं, घायल होने पर खून से लथपथ हो जाता है इतने पर भी यदि वह मैदान छोड़कर भाग खड़ा न हो तो ही उसके गले में स्वयम्वर की माला पहनाई जाती है। तब न केवल विवाह होता है वरन् नर को घर परिवार के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को सम्भलने में मादा की भरपूर मदद करने के लिए भी तत्पर होना पड़ता है।
सन् 1950 आज से कुल 20 वर्ष पूर्व की बात है, कुछ वैज्ञानिकों ने एन्जिलर मछली के बारे में विस्तृत खोज प्रारम्भ की। मध्य-सागर में रहने वाली इस एन्जिलर के बारे में अब तक लोगों को वैसे ही स्वल्प-सी जानकारी थी जैसे शरीरस्थ अनेक चक्रों, ग्रन्थियों, गुच्छाओं, एवं उपत्यिकाओं के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त है।
अध्ययन के लिये जितनी भी एन्जिलर पकड़ी गईं, नर उनमें से एक भी न निकला। एक दिन एक मछली विशेषज्ञ ने निश्चय किया कि इस मछली के अंग-प्रत्यंगों की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। विशेष और महत्वपूर्ण जानकारी तब मिली जब इन विशेषज्ञ महोदय ने देखा एन्जिलर मादा के सिर के ऊपर सीधी आंख पर एक बहुत ही छोटा-सा मछली जैसा जीव चिपका हुआ है। इस जीव का अध्ययन करने से पता चला यही वह सज्जन हैं, जिनकी वैज्ञानिकों को तलाश थी। नर एन्जिलर, यही था बेचारी मादा के सिर पर चिपका उसी के रक्त को चूसने वाला।
मादा का आकार 40 इन्च, भगवान् ने अच्छा किया कि पति-देव को कुल चार इन्च का बनाकर यह दिखाया कि नारी को मात्र प्रजनन और शोषण की सामग्री बनाने वालों का बौना होना ही ठीक है। मनुष्य के इतिहास में भी यही पाया जाता है। संसार के जो भी देश आज प्रगति के शिखर पर पहुंचे हैं, उन सबमें नारी के उत्थान के लिये बड़े कदम उठाये गये हैं। हम भारतवासी हैं, जिन्होंने नारी को दासी, पर्दे में रहने वाली, शिक्षा-शून्य बनाया, उसका रमणी के रूप में उपभोग किया। तभी तो प्रगति में एन्जिलर नर की तरह बौने के बौने रह गये।
हम में यह दोष कहां से आया इसका उत्तर भी एन्जिलर मछली के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दिया। उन्होंने नर के स्वभाव का अध्ययन करके बताया कि उसकी यह शोषण प्रियता उसकी आलसी और वासनापूर्ण प्रकृति के कारण है। जीवन में मधुरता के लिये कोई स्थान न होने के कारण वह अपनी ही पत्नी का खून पिया करता है। देखने में एन्जिलर नर पापी और अपराधी कहा जा सकता है पर जिन लोगों ने नारी का मूल्यांकन वासना के रूप में दासी और सम्पत्ति के रूप में किया, उन्हें क्या माना और क्या कहा जाय इसका निर्णय तो हमें अपने भीतर मुख डालकर करना पड़ेगा?
कामुकता का बाह्य स्वरूप कितना ही आकर्षक क्यों न हो उसके कलेवर में विष और विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं। अफ्रीका में एक बहुत सुन्दर फूल पाया जाता है पक्षी इन फूलों पर आसक्त होकर उनपर जा बैठते हैं बैठते ही फूल धीरे-धीरे सिकुड़ना प्रारम्भ कर देता है। और फिर उसे इस तरह जकड़ कर उसे अपने पैने कांटे चुभो देता है कि लगातार प्रयत्न करने पर भी वह निकल नहीं पाता, खून पूरी तरह चूस लेने के बाद ही पौधा उसे छोड़ता है। कामुक उच्छृंखल ऐसी ही विनाशकारी प्रवृत्ति है। प्रकृति में पग पग पर उसके दर्शन होते हैं?
चीन में पैराडाइज नाम की एक ऐसी मछली पाई जाती है जो अपने मुंह से एक विशेष प्रकार के लस-लसे रसायन के बुलबुले छोड़ती है। थोड़ी देर में बड़ी संख्या में एकत्र हुए इन बबूलों में एक सिरे से छेद कर वह भीतर-भीतर ऐसी सुन्दर छंटाई करती है जिससे बबूलों का समुदाय अनेक मकानों वाला नगर दिखाई देने लगता है। अब मादा अण्डे देने प्रारम्भ करती है। और उन्हें इसी बबूल-नगर में पहुंचायी जाती है। स्वयं उस नगर की पहरेदारी करती रहती है। दुर्ग के किसी भी द्वार से बच्चे निकल न भागने पावें वह इसकी बराबर देख रेख रखती है इसी तरह उसकी वंशवृद्धि होती रहती है।
माया ने उसी तरह अपना विस्तार अनेक प्रकार के शरीर बना कर किया। ऐसे शरीर जहां जीव के अस्तित्व को किसी प्रकार संकट न पावे। पीछे वह ऐसी व्यवस्था और उपक्रम जुटाती रहती है जिससे जीव उसी मायावी नगर में फंसा रहे उससे बाहर न निकलने पावे। माया के इस घेरे को बिरले ही तोड़ पाते हैं।
अमेरिका के दक्षिणी भागों में पानी में पाया जाने वाला कछुये की सी शक्ल का एलीगेटर स्नैपर बड़ा चतुर जीव है। वह अपनी जीभ को बाहर निकाल कर इस तरह दायें-बायें, आगे-पीछे लपलपाता है कि देखने वाले को यह जीभ किसी स्वतन्त्र जीभ-सी लगती है उसे देख कर कई मछलियां उसे खाने के लिये दौड़ पड़ती हैं जैसे ही वह उसके पास पहुंचती हैं। एलीगेटर स्नैपर उन्हें दबोच कर खा जाता है।
यही स्थिति शरीर में—इन्द्रियों में बसे विषयों की लपलपाहट से भ्रमित जीभ उनकी तृप्ति के लिए भाग-भाग कर आता है और बार-बार काल के द्वारा दबोच लिया जाता है। थोड़े से बुद्धिमान भी होते हैं जो इन्द्रियों की इस आसक्ति को आत्मा का नहीं शरीर का विषय मानते हैं और उनसे दूर रह कर ही अपनी रक्षा कर पाते हैं। नदियों में पाया जाने वाला घड़ियाल जितना क्रूर होता है उतना ही चतुर भी। शिकार के लिए वह नदियों के किनारे आकर इस तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है। मानो वह कोई चट्टान या निष्प्राण वस्तु हो जैसे ही कोई मूर्ख मछली पास पहुंची कि उसने पकड़ा और उदरस्थ किया।
मनुष्य की इन्द्रियां भी उतनी धूर्त और चालाक होती हैं सामान्यतः वे निर्जीव दिखाई देती हैं। इसलिए मनुष्य आहार-विहार और परिस्थितियों की सतर्कता नहीं रख पाता। जैसे ही खान-पान और मर्यादाजन्य भूलें हुईं कि इन्हीं निष्प्राण लगने वाली इन्द्रियों की उत्तेजना ने धर पकड़ा फिर तो उनके चंगुल से निकल पाना कठिन ही होता है। ज्ञानी और विचारशील लोग पहले से ही सतर्क रहते और संयमित तथा मर्यादित जीवन जीते हैं तभी उनसे बचते और अपनी शक्ति, शान्ति और सम्मान सुरक्षित रख पाते हैं। योरोप में एक चिड़िया पाई जाती है ‘‘स्पैरो’’। उसका मूल आहार है टिड्डा, पर वह मिले कैसे। स्पैरो एक कौने में दुबक कर बैठती है और ठीक टिड्डे की आवाज में बोलना शुरू करती है। टिड्डे यह आवाज सुनकर उसके पास आ जाते हैं और स्पैरो पक्षी के आहार बन कर मौत के मुंह में चले जाते हैं।
इन्द्रियजन्य सुखों की स्थिति भी ऐसी ही है जब वे कुलबुलाते हैं तो मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि उनका शरीर से सम्बन्ध है। आत्मा से नहीं। वह उन्हें अपना ही स्वजन सहायक समझकर उनकी तृष्णा बुझाने में लगा रहता है और इस तरह आत्मा को अवनति के गर्त में धकेलता रहता है।
माया के इन खेलों को समझने वाला और उनसे दूर रहने वाला व्यक्ति ही बुद्धिमान, विचारशील और आत्म-निष्ठ होता है। उसी का जीवन सफल और सार्थक कहलाता है।
नर की अग्नि ऊष्मा और नारी की सोम, जल कहा गया है। नर की प्राण शक्ति का पुरुषार्थ क्षमता और कठोरता का बौद्धिक प्रखरता का अपना स्थान है और उसका उपयोग किया जाना चाहिए पर यदि उसे उच्छृंखल छोड़ दिया गया—नारी का नियंत्रण उस पर न हुआ तो सृष्टि में क्रूरता और दुष्टता का उत्ताप ही बढ़ता चला जायगा। परम्परा यह रही है कि नर के श्रम साहस का उपयोग क्रम चलता रहा है, पर नारी ने अपनी मृदुल भावनाओं से उसे मर्यादाओं में रहने के लिए नियन्त्रित और बाध्य किया है। उसकी मृदुल और स्नेह सिक्त भावनाओं ने क्रूरता को कोमलता में बदलने की अद्भुत सफलता पाई है। यह क्रम ठीक तरह चलता रहता पुरुष का शौर्य, ओजस् अपनी प्रखरता से सम्पदायें उपार्जित करता और नारी अपनी मृदुलता से उसे सौम्य सहृदय बनाती रहती तो दोनों सही पहियों की गाड़ी से प्रगति की दिशा में सृष्टि व्यवस्था की यात्रा ठीक प्रकार सम्पन्न होती रहती। चिरकाल तक वही क्रम चला। उपार्जन नर ने किया और उसका उपयोग नारी ने। अब वह क्रम नहीं रहा। अब उच्छृंखल नर हर क्षेत्र में सर्व सत्ता सम्पन्न हुआ दैत्य, दानव की तरह निरंकुश सत्ता का उद्धत उपयोग कर रहा है। नारी तो मात्र भोग्या, रमणी, कामिनी बनकर विषय विकारों की तृप्ति के लिए साधन सामग्री मात्र रह गई है। उसके हाथ से वे सब अधिकार छीन लिये गये जो अनादिकाल से उसे सृष्टि कर्ता ने सौंपे थे।
वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हर क्षेत्र में दिशा निर्धारण के सूत्र नारी के हाथ में रहने चाहिए। तभी उपलब्ध सम्पदाओं का सौम्य सदुपयोग सम्भव हो सकेगा। आज हर क्षेत्र में विकृतियों की विभीषिकाएं नग्न, नृत्य कर रही हैं इसके स्थूल कारण कुछ भी हों सूक्ष्म कारण यह है कि नारी का वर्चस्व नेतृत्व कहीं भी नहीं रहा, सर्वत्र नर की ही मनमानी, घरजानी चल रही है। उसकी प्रकृति में जो कठोरता का भला या बुरा तत्व अधिक है उसी के द्वारा सब कुछ संचालित हो रहा है फलस्वरूप हर क्षेत्र में उद्धतता का बोलबाला दीख पड़ता है। जल के अभाव में अग्नि-सर्वनाशी दावानल का विकराल रूप धारण कर लेती है इन दिनों नारी को उपेक्षित, तिरस्कृत करने के उपरान्त जो विद्रूप अपनाया है उसका परिणाम व्यापक हाहाकार के रूप में सामने प्रस्तुत है।
स्थिति को बदलने और सुधारने के लिए भूल को फिर सुधारना होगा और वस्तुस्थिति उपलब्ध करने के लिये पीछे लौटना होगा। नारी का वर्चस्व पुनः स्थापित किया जाय और उसके हाथ में नेतृत्व सौंपा जाय, यह समय की पुकार और परिस्थितियों की मांग है, उसे पूरा करना ही होगा। नवयुग-निर्माण के लिए जन मानस में जिन कोमल भावनाओं का परिष्कार किया जाना है वह नारी सूत्रों से ही उद्भूत होगा। युद्ध, संघर्ष, कठोरता, चातुर्य, बुद्धि कौशल के चमत्कार देख लिये गये। उनने सम्पदाएं तो कमाई पर उसकी एकांकी उद्धत प्रकृति उसका सदुपयोग न कर सकी। स्नेह, सौजन्य, सद्भाव सफलता की प्रतीक तो नारी है। उसी का वर्चस्व मृदुलता का संचार कर सकने में समर्थ है। उसे उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय तो उपार्जन कितना भी—किसी देश में क्यों न होता रहे—सदुपयोग के अभाव में वह विश्व घातक ही सिद्ध होता रहेगा। सन्तुलन तभी रहेगा जब नारी को पुनः उसके पद पर प्रतिष्ठापित किया जाय और शक्ति के उन्मत्त हाथी पर स्नेह का अंकुश नियोजित किया जाय। भावनात्मक नव निर्माण का यह अति महत्वपूर्ण सूत्र है। नारी का पिछड़ापन दूर किये बिना—उसे आगे लाये बिना—कोई गति नहीं—इस कदम को उठाये बिना हमारी धरती पर स्वर्ग अवतरण करने और मनुष्य में देवत्व का उद्भव करने के हमारे स्वप्न साकार न हो सकेंगे।
प्रतिबन्धित नारी को स्वतन्त्रता के स्वाभाविक वातावरण में सांस ले सकने की स्थिति तक ले चलने में प्रधान बाधा उस रूढ़िवादी मान्यता की है जिसके अनुसार उसे या तो अछूत, बन्दी, अविश्वस्त घोषित कर दिया गया है या फिर उसे कामिनी की लांछना से कलंकित कर दिया है इन मूढ़ मान्यताओं पर प्रहार किये बिना उनका उन्मूलन किये बिना यह सम्भव न हो सकेगा कि अन्ध परम्परा के खूनी शिकंजे ढीले किये जा सकें और नारी को कुछ कर सकने के लिए अपनी क्षमता का उपयोग कर सकना सम्भव हो सके। यह लेख माला इसी प्रयोजन के लिए लिखी जा रही है और यह प्रतिपादित किया जा रहा है कि नारी न तो कामिनी है—न अविश्वस्त न नरक में धकेलने वाली न बन्दी बना कर रखी जाने योग्य, भूखी अथवा दासी। वह मनुष्य जाती की आधी इकाई है—और उसका व्यक्तित्व वर्चस्व नर के समान ही नहीं वरन् अधिक उपयोगी भी है। उसे सरल स्वाभाविक स्थिति में जीवन यापन करने की छूट दी जा सके तो विश्व की वर्तमान विषम परिस्थितियों में आश्चर्यजनक मोड़ लाया जा सकता है और अन्धकार से घिरा दीखने वाला मानव जाति का भविष्य आशा के आलोक से प्रकाशवान होता हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है।
सर्व साधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि जिस प्रकार पुरुष-पुरुष मिल कर कुछ काम करें या स्त्रियां-स्त्रियां मिलकर सहयोग सान्निध्य जगावें तो व्यभिचार अनाचार की आशंका नहीं की जा सकती। उसी प्रकार नर और नारी मिलजुल कर रहें तो उसमें प्रकृतितः कोई जोखिम या कुकल्पना की ऐसी आशंका नहीं है जिससे भयभीत होकर आधे मनुष्य समाज पर-नारी पर अवांछनीय प्रतिबंध आरोपित किये जाये। नर नारी का प्राकृतिक मिलना कितना उपयोगी आवश्यक एवं उल्लासपूर्ण है इसका परिचय हम भरे-पूरे परिवार में—जिसमें सभी वर्ग के नर-नारी अति पवित्रता के साथ रहते हैं—आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। घर परिवार में पति-पत्नी के जोड़ों के अतिरिक्त कौन किसे कुदृष्टि से देखता है या कुचेष्टा करता है यह स्थिति विश्व परिवार में भी लाई जा सकती है और सर्वत्र नर-नारी समान रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए स्नेह सद्भाव का संवर्धन करते हुए आत्मिक और भौतिक विकास में परस्पर अति महत्वपूर्ण योगदान दें सकते हैं। यह स्थिति लाई ही जानी चाहिए—बुलाई ही जानी चाहिए। अवरोध केवल गर्हित दृष्टिकोण ने प्रस्तुत किया है। इसके लिए अधिक दोषी कलाकार वर्ग है जिसने समाज के सोचने की दिशा ही अति भ्रमित करके रख दी, नारी को रमणी, कामिनी और वैश्या के रूप में प्रस्तुत करने की कुचेष्टा में जब कला के सारे साधन झोंक दिये गये तो जन मानस विकृत क्यों न होता? चित्रकार जब उसके मर्म-स्थलों को निर्लज्ज निर्वसना बनाने के लिए दुशासन की तरह अड़े बैठे हैं कवि जब वासना भड़काने वाले ही छन्द लिखें, गायक जब नख शिख का उत्तेजक उभार और लम्पटता के हाव-भावों भरे क्रिया-कलापों को अलापें—साहित्यकार कुत्सा ही कुत्सा सृजन करते चले जायें—और प्रेस तथा फिल्म जैसे वैज्ञानिक माध्यमों से उन दुष्प्रवृत्तियों को उभारने में पूरा-पूरा योगदान मिले तो जनमानस को विकृत और भ्रमित कर देना क्या कुछ कठिन हो सकता है? हमें इस विकृति के मूल स्रोत कला के अनाचार को रोकना बदलना होगा। स्नेह और सद्भाव की—देवी सरस्वती के साथ किया जाने वाला यह बर्बर व्यवहार यदि उल्टा जा सकता हो तो लोक मानस में नारी के प्रति स्वाभाविक सौजन्य फिर पुनः जीवित किया जा सकता है।
रूढ़िवादियों से कहा जाय कि वे दिन में आंखें मलकर न बैठे रहें। विवेक का युग उभरता चला आ रहा है। औचित्य की प्रतिष्ठा करने के लिये बुद्धिवाद की प्रखरता प्रातःकालीन ऊषा की तरह उदय होती चली आ रही है। उसे रोका न जा सकेगा। कथा पुराणों की दुहाई देकर—प्रथा परम्परा का पल्ला पकड़ कर-अब देर तक वे प्रतिबन्ध जीवित न रखे जा सकेंगे जो नारी को व्यभिचारिणी और अविश्वस्त समझ कर उसे अगणित बन्धनों में जकड़े हुए हैं। विवेक और न्याय की आत्मा तड़प रही है, वह इस बात के लिये मचल पड़ी है कि नारी के साथ बरती जाने वाली बर्बरता का अन्त किया जाय। सो वह सब होकर रहेगा। उसे कोई भी अवरोध देर तक रोक न सकेगा। अगले दिनों निश्चित रूप से नर और नारी परस्पर सहयोगी बनकर स्नेह सद्भाव के साथ स्वाभाविक जीवन जियेंगे और एक दूसरे को आशंका या यौन आकर्षण की दृष्ट से न देखकर पुण्य सौजन्य के आधार पर निर्माण और निर्वाह के क्षेत्रों में प्रगतिशील कदम बढ़ाते चलेंगे। रूढ़िवाद के लिये उचित यही है कि समय रहते बदलें अन्यथा समय उनकी अवज्ञा ही नहीं दुर्गति भी करेगा। उदीयमान सूर्य रुकेगा नहीं, उल्लू, चमगादड़ और वनबिलाव ही चाहे तो मुंह छिपाकर किसी कोने में विश्राम लेने के लिए अवकाश प्राप्त कर सकते हैं।
इसी प्रकार तथाकथित सन्त महात्माओं को कहा जाना चाहिये कि वे अपने मन की संकीर्णता, क्षुद्रता, और कलुषिता से डरें उसे ही भवबन्धन मानें। नरक की खान वही है। नारी को उस लांछना से लांछित कर उस मानव जाति की भर्त्सना न करे जिसके पेट से वे स्वयं पैदा हुए हैं और जिसका दूध पीकर इतने बड़े हुए हैं। अच्छा हो हमारी जीभ पुत्री को न कोसे—भगिनी को लांछित न करे—नारी नरक की खान हो सकती है यह कुकल्पना अध्यात्म के किसी आदर्श या सिद्धान्त से तालमेल न खाती। यदि बात वैसी ही होती तो अपने इष्टदेव राम, कृष्ण, शिव आदि नारी को पास न आने देते। ऋषि आश्रमों में ऋषिकाएं न रहतीं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि देवियों का मुख देखने से पाप लग गया होता। निरर्थक की डींगे न हांके तो ही अच्छा है। अन्तरात्मा प्रज्ञा, भक्ति, साधना, मुक्ति, सिद्धि या सभी स्त्रीलिंग हैं। यदि नारी नरक की खान है और स्त्रीलिंग, इस शब्दों के साथ जुड़ी हुई विभूतियों को भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। अच्छा है अध्यात्मवाद के नाम पर भौंड़ा भ्रम जंजाल अपने और दूसरों को दिग्भ्रान्त करने की अपेक्षा उसे समेट कर अजायब घर की कोठरी में बन्द कर दिया जाय।
सर्वसाधारण को इस तथ्य से परिचित कराया जाना ही चाहिए कि नर-नारी को सघन सहयोग यदि पवित्र पृष्ठभूमि पर विकसित किया जाय तो उससे किसी को कुछ भी हानि पहुंचने वाली नहीं है वरन् सबका सब प्रकार से लाभ ही होगा। नारी कोई बिजली या आग नहीं है जिसे छूते ही या देखते ही कोई अनर्थ हो जाय। उसे अलग-अलग रखने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है मनुष्य को मनुष्य के अधिकार मिलने ही चाहिए। विश्व में राजनैतिक स्वतन्त्रता की मांग पिछले दिनों बहुत प्रबल होती चली आई है और उसने परम्परागत ताज, तख्तों को जड़ मूल से उखाड़ कर फेंक दिया। यह प्रवाह परिवर्तन राजनीति तक ही सीमित न रहेगा। मनुष्य के समान स्वाधीनता दिला कर ही वह गति रुकेगी। गुलाम प्रथा का अन्त हो गया अब दास-दासी खरीदे व बेचे नहीं जाते। वर्ग भेद और रंग भेद के नाम पर बरती जाने वाली असमानता के विरुद्ध आरम्भ हुआ विद्रोह प्रबल से प्रबलतर होता चला जा रहा है और दिन दूर नहीं जब कि मानवीय सम्मान और अधिकार से वंचित कोई व्यक्ति कहीं न रहेगा। जन्म-जाति, वंश, वर्ण, रंग आदि के नाम पर बरती जाने वाली असमानता अब देर तक जिन्दा रहने वाली नहीं है। वह अपनी मौत के दिन गिन रही है। इसी संदर्भ में यह भी गिरह बांध लेनी चाहिए कि नर और नारी के बीच बरता जाने वाला भेद भाव भी उसी अन्याय की परिधि में आता है। नारी की पराधीनता मनुष्य के आधे भाग की—आधी जनसंख्या की पराधीनता है। यह कैसे सम्भव है वह आगे भी आज की ही तरह बनी रहे। स्वतन्त्रता का प्रवाह नारी को भी इन अनीति मूलक बन्धनों से मुक्ति दिलाकर रहेगा। दिन दूर नहीं कि गाड़ी के दो पहियों की तरह-शरीर की दो भुजाओं की तरह नर-नारी सौम्य सहयोग करते दिखाई पड़ेंगे। समय का प्रवाह आज नहीं तो कल इस स्थिति को उत्पन्न करके रहेगा। अच्छा हो वक्त रहते हम बदल जायें तो अमिट भावनाओं से लड़ मरने की अपेक्षा उसके लिये रास्ता खुला छोड़ दें—अच्छा तो यह है कि न्याय और विवेक की दिव्य किरणों के साथ उदय होने वाली इस ऊषा की अभ्यर्थना—करने अपनी सद्भाव सम्पन्नता का परिचय देने के लिए आगे बढ़ चलें।
नव निर्माण की प्रक्रिया इस दिशा में अधिक उत्सुक इसलिए है कि भावी विश्व का समग्र नेतृत्व नारी को ही सौंपा जाने वाला है। राज सत्ता का उपयोग पिछले दिनों आक्रमण, आतंक, शोषण और युद्ध लिप्सा के लिए होता रहा है पुरुष के नेतृत्व के दुष्परिणाम इतिहास का पन्ना-पन्ना बता रहा है। अब राज सत्ता नारी के हाथ सौंपी जायेगी ताकि वह अपनी करुणा और मृदुलता के अनुरूप राज सत्ता के अंचल में कराहती हुई मानवता के आंसू पोंछ सके। शिक्षा से लेकर न्याय तक—वाणिज्य से लेकर धर्म धारणा तक हर क्षेत्र का नेतृत्व जब नारी करेगी तब सचमुच दुनिया तेजी से बदलती चली जायेगी। कला के सारे सूत्र जब नारी के हाथ सौंप दिये जायेंगे तब उस देव मंच से केवल शालीनता की दिव्य धाराएं ही प्रवाहित होंगी और उस पुण्य जाह्नवी में स्नान करके जन मानस अपने समस्त कषाय कल्मष धोकर निर्मल निष्पाप होता दिखाई देगा।
नर का नेतृत्व मुद्दतों से चला आ रहा है उसकी करतूत करामात भली प्रकार देखी परखी जा चुकी। अच्छा है वह ससम्मान पीछे हट जाय और पेन्शन लेकर कम से कम नेतृत्व की लालसा से विदा हो ही जाय। करने के लिये बहुत काम पड़े हैं। पुरुष को उनसे रोकता कौन है? बात केवल नेतृत्व की है। बदलाव का तकाजा है कि ग्रीष्म का आतप बहुत दिन तप लिया अब वर्षा की शांति और शीतलता की फुहारें झरनी चाहिए। सर्वनाश की किस विषम विभीषिका में मनुष्य जाति फंसी पड़ी है उससे परित्राण नेतृत्व बदले बिना सम्भव नहीं। नारी की करुणा से ही नर की निरन्तर क्रूरता का परिमार्जन हो सकेगा। उसे सशक्त और समर्थ बनाने के लिए वह सब बौद्धिक प्रक्रिया सजीव करनी पड़ेगी जो इस लेख माला के अन्तर्गत प्रस्तुत की जा रही है।
नर-नारी के सम्मिलन से खतरा केवल एक ही है कि यह वर्तमान विकृत वासना का ताण्डव रोका नहीं गया तो पाश्चात्य देशों की तरह स्वच्छन्द के वातावरण में बढ़ चला यौन अनाचार बिखर पड़ेगा और वह भी कम विघातक न होगा। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए जहां नारी स्वातन्त्र्य के लिए हमें प्रयत्न करना है वहां यह चेष्टा भी करनी है कि कामुकता की ओर बहती हुई मनोवृत्तियों को परिष्कृत करने में कुछ उठा न रखा जाय। नारी का सौम्य और स्वाभाविक चित्रण इस सन्दर्भ में अति महान है। कला के विद्रूप को कोसने से काम न चलेगा, उसे गन्दे हाथों से छीन लेना शासन सत्ता के लिए तो सम्भव है पर हम लोग जन स्तर पर इस प्रजातन्त्र पद्धति के रहते कुछ बहुत बड़ा प्रतिरोध नहीं कर सकते हम यही कर सकते हैं कि दूसरा कला मंच खड़ा करें और उसके माध्यम से नारी की पवित्रता प्रतिपादित करते हुए लोक मानस की यह मान्यता बनायें कि नारी वासना के लिए नहीं पवित्रता का पुण्य स्फुरण करने के लिए है। कला मंच यह सब आसानी से कर सकता है। साहित्य का सृजन इसी दिशा में हो, कविताएं ऐसी ही लिखी जायें, चित्र इसी प्रयोजन के लिए बनें, गायक यही गायें, प्रेस यही छापें, फिल्म यही बनायें तो कोई कारण नहीं कि नारी का स्वाभाविक एवं सरल सौम्य स्वरूप पुनः जन मानस में प्रतिष्ठापित न किया जा सके ऐसी दशा में वह जोखिम न रहेगा जिसे पाश्चात्य लोग भुगत रहे हैं। उनने नारी स्वतन्त्रता तो प्रस्तुत की पर विकारोन्मूलन के लिए कुछ करना तो दूर उलटे उसे भड़काने में लग गये और दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। हमें यह भूल नहीं करनी चाहिए। हम दृष्टिकोण के परिष्कार के प्रयत्नों को भी नारी स्वातन्त्र्य आंदोलन के साथ मोड़कर रखें तो निश्चय ही वैसी आशंका न रहेगी जिससे विकृतियों के भड़क पड़ने का विद्रूप उठकर खड़ा हो जाय। साथ ही हमें आध्यात्मिक काम विज्ञान के उन तथ्यों को सामने लाना होगा जिनके आधार पर यौन सम्बन्ध की—काम क्रीड़ा की उपयोगिता और विभीषिका को समझा जा सके और उसके दुरुपयोग के खतरे से बचने एवं सदुपयोग से लाभान्वित होने के बारे में समुचित ज्ञान सर्व साधारण को मिल सके।
प्रकृति की प्रेरणा सदाचार भरी आत्मीयता
आजकल पाश्चात्य शिक्षा और सभ्यता से प्रभावित लोग यौन सदाचार का पालन करते हिचकिचाते हैं और तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य ने प्रकृति से प्रेरणायें ली हैं। प्रकृति में, पशुओं में, कामाचार की कोई मर्यादायें नहीं रहती अतएव मनुष्य भी यदि उनका पालन नहीं करे तो कुछ हर्ज नहीं। वस्तुतः ऐसा कहने वालों ने प्रकृति का गहराई तक अध्ययन नहीं किया थोड़े से तुच्छ और नगण्य किस्म की मक्खियों, मच्छरों, कुत्ते, बिल्लियों की बात अलग है अन्यथा सृष्टि में जितने भी शक्तिशाली और प्रसन्नता प्रिय जीव हैं उन सबके दाम्पत्य जीवन बहुत ही आत्मीयता, घनिष्ठता और सदाचार पूर्ण होते हैं।
मनुष्य को छोड़कर अन्य प्राणियों में उतनी काम, कला नहीं होती। वे काम वासना का उपयोग मात्र वंशवृद्धि के लिए ही करते हैं। उतना ही नहीं वे वंश वृद्धि के बाद के अपने उत्तरदायित्वों को भी समझते हैं और उसके बाद उन्हें निभाने के लिए पहले से ही व्यवस्था करने लगते हैं।
संयम और सुखी परिवार
‘स्टिकल-बैक’ नाम की एक मछली होती है, जो समुद्र में ही पाई जाती है। डा. लार्ड ने इस मछली की विभिन्न आदतों और क्रियाओं का बहुत सूक्ष्मता से अध्ययन किया। बैकोवर आइरलैण्ड में महीनों रह-रहकर आपने इस मछली की जीवन पद्धति का अध्ययन किया और बताया कि मनुष्य चाहे तो इससे अपने पारिवारिक जीवन को सुखी और सुदृढ़ बनाने की महत्त्वपूर्ण शिक्षायें ले सकता है।
नर स्टिकल बैक अपना घर बसाने के लिये बहुत पहले से तैयारी प्रारम्भ कर देता है। सबसे पहले सारे समुद्र में घूम-घूमकर वह कोई ऐसा स्थान ढूंढ़ निकालता है, जहां पर पानी न बहुत तेजी से बह रहा हो न बहुत धीरे। जगह शांत एकान्त हो और वहां हर किसी का पहुंचना भी सम्भव न हो।
प्राचीनकाल की जीवन-प्रणाली और शिक्षा पद्धति पर दृष्टि दौड़ाकर देखते हैं तो पता चलता है कि तत्कालीन ऋषियों-मुनियों एवं सामाजिक मार्ग-दर्शक आचार्यों ने भी यह भलीभांति अनुभव किया था कि दाम्पत्य और गृहस्थ-जीवन एक महत्वपूर्ण योग साधना है, उसके लिये आवश्यक तैयारियां न की जायें तो लोगों के वैयक्तिक जीवन ही नहीं पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्थायें भी लड़खड़ा सकती हैं। जीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर विद्याध्ययन करने और पाठ्य-क्रम में धार्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक विषयों के समावेश के पीछे एक मात्र उद्देश्य और रहस्य यही था कि आने वाले जीवन और जिम्मेदारियों को वहन करने के लिये शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक त्रुटि न रह जाये। पूर्ण तैयारी कर लेने के फलस्वरूप ही उन दिनों के दाम्पत्य जीवन, पारिवारिक और सामाजिक संगठन, प्रेम-मैत्री करुणा, दया, क्षमा, उदारता आदि सुख-सन्तोष और स्वर्गीय परिस्थितियों से भरे-पूरे रहते थे। आनंद छलकता था उन दिनों, पर आज जब कि शिक्षा के ढंग ढांचे में, हमारी रीति-नीति और जीवन पद्धति में उस तैयारी के लिये कोई स्थान नहीं रहा, तब हमारे पारिवारिक जीवन में कोई उल्लास नहीं रह गया। दाम्पत्य जीवन असन्तोष और अस्त-व्यस्तता के पर्याय बन गये हैं।
मनुष्य भूलकर सकता है पर सृष्टि के सैकड़ों जीव−जंतुओं की तरह स्टिकल बैक मछली यह भूल कभी नहीं करती। जैसे उसे प्रकृति से यह प्रेरणा मिली हो कि वह अपनी जीवन पद्धति द्वारा मनुष्य को सिखाये और समझाये कि जो आनन्द पहले से तैयारी किये हुए दाम्पत्य जीवन में है, वह चाहे जैसे गृहस्थ बसा लेने में नहीं है। यह सारा उत्तरदायित्व पति का है कि वह समुचित व्यवस्थायें स्वयं जुटाये। अपनी तैयारी में कोई त्रुटि न हो तो पत्नियों की और से पूर्ण सहयोग और समर्थन न मिले ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। इस मछली की तरह तैयारी किये हुये नर दाम्पत्य जीवन का ऐसा आनन्द पाते हैं कि उन्हें न तो स्वर्ग की कल्पना होती है और न मुक्ति की ही। वे इसी जीवन में स्वर्ग-भोग का सौभाग्य प्राप्त करते हैं।
तत्परतापूर्वक ढूंढ़-खोज के बाद जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है, तब स्टिकल बैक पत्नी के लिये सुन्दर घर बनाने की तैयारी करता है। इसके लिये उस बेचारे को कितना परिश्रम करना पड़ता है, यह बात अपने माता-पिता की पीठ पर चढ़े, विवाह की कामना करने वाले युवक भला क्या समझेंगे? स्टिकल बैक पानी में तैरती हुई छोटे-छोटे पौधों की नरम-नरम लकड़ियां, तैरते हुये पौधों की जड़े इकट्ठी करता है और उन्हें चुने हुये स्थान पर ले जाता है। विवाह के शौकीन स्टिकल को पहले खूब परिश्रम और मजदूरी करनी पड़ती है। अपने शरीर से वह एक प्रकार का लस्लसा पदार्थ निकालता है और एकत्रित सारी वस्तुओं को उसी में चिपका लेता है ताकि उसका इतना परिश्रम व्यर्थ न चला जाये। उसने जो लकड़ियां एकत्रित की हैं, वह अपने स्थान तक पहुंच जायें।
स्टिकल बैक पूरे आत्म-विश्वास के साथ काम करता है। सारा एकत्रित सामान मजबूती से चिपक गया है, इसका विश्वास करने के लिये वह अपने शरीर को फड़फड़ाता हुआ नाचता है, जैसे उसे परिश्रम में आनन्द लेने की आदत हो। जब एक बार विश्वास हो गया कि सामान गिरेगा नहीं, तब आगे बढ़ता है और पूर्व निर्धारित स्थान पर इस सामान से मकान बनाता है। शरीर का लसलसा पदार्थ यहां सीमेन्ट का काम करता है और लाई हुई लकड़ियां ईंट-पत्थरों का। आगन्तुक वधू के लिये महल बना कर एक बार वह उसे घूम-घूमकर देखता है। लगता है अभी वैभव में कुछ कमी रह गई। फिर वह रेत के बारीक टुकड़े मुख में भर कर लाता है और मकान के फर्श पर बिछाता है। कोठरी में कहीं टूट-फूट की गुंजाइश हो तो उसे ठीक करता है। सारा मकान वार्निस किया हुआ—सा हो जाने के बाद ही उसे सन्तोष होता है। जब यह तैयारियां पूर्ण हुईं, तब वह स्वयं मादा की खोज में निकलता है। उसे दहेज और लेन-देन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह जानता है, नारी-नर की अपनी आवश्यकता भी है, इसलिये प्रिय वस्तु को भरपूर स्वागत और सम्मान अपनी ओर से ही क्यों न दिया जाये। वह मनुष्यों की तरह का दम्भ और पाखण्ड प्रदर्शित नहीं करता।
उपयुक्त पत्नी मिल जाने पर वह उसे घर लाता है। पत्नी कुछ दिन में गर्भावस्था में आती है, तब ये उसे घूमने को भेजता रहता है, घर और अण्डों की देख-भाल तब वह स्वयं ही करता है। यह उनके भोजन आदि का ही प्रबन्ध नहीं करता वरन् सुरक्षा के लिये दरवाजे पर कड़ा पहरा भी रखता। मि. फ्रैंक बकलैण्ड ने इसकी कर्मठता का वर्णन करते हुये, लिखा है कि मकान में थोड़ी-सी भी गड़बड़ी हो तो यह उसे तुरन्त ठीक करता है।
स्टिकल बैक अपने बच्चों और पत्नी के पालन का उत्तरदायित्व पूरी सूझ समझ के साथ निबाहता है। वह उन्हें पर्दे में नहीं रखता। पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे, इसके लिये वह अपने मकान में दो दरवाजे रखता है। इससे वहां के पानी में बहाव बना रहता है और ताजी ऑक्सीजन मिलती रहती है, यदि बहाव रुक जाये तो वह तुरन्त शरीर फड़-फड़ाकर बहाव पैदा कर देता है, जिससे रुके हुये पानी की गन्दगी प्रभावित न कर पाये।
स्टिकल बैक का जीवन कितना कलात्मक और सुरुचिपूर्ण है। इधर बच्चे निकलने लगे, उधर उसने मकान के ऊपरी भाग छत को अलग करके एक बढ़िया झूला तैयार किया। मनुष्यों की तरह गुम-सुम का जीवन उसे पसन्द नहीं। झूला बनाकर उसमें बच्चों को भी झुलाता है और पत्नी को भी। स्वयं उस क्षेत्र में परेड करता रहता है, जिससे उसके आनन्द और खुशहाली की अभिव्यक्ति होती है पर दूसरे दुश्मन और बुरे तत्व डरकर भाग जाते हैं, जैसे कला प्रिय और सुरुचि पूर्ण सद्गृहस्थ से अवगुण दूर रहने से अशांति पास नहीं आती। बच्चे झूला छोड़कर इधर-उधर भागते हैं तो यह उन्हें बार-बार झूले में डाल देता है, जब तक बच्चे स्वयं समर्थ न हो जायें, यह उन्हें आवारा-गर्दी और कुसंगति में नहीं बैठने देता। अपनी रक्षा करने में जब वे समर्थ हो जाते हैं, तभी उन्हें जाने और नया संसार बनाने की अनुमति देता है।
स्टिकल बैक की तरह मनुष्य का पारिवारिक जीवन भी तैयारी उद्देश्य और सुरुचिपूर्ण होता, पतिव्रत ही नहीं पत्नीव्रत का भी ध्यान रखा गया होता तो सामाजिक जीवन हंसता खिलखिलाता हुआ होता।
शेरनी 108 दिन में प्रसव करती है। इसके बाद वह प्रायः 2 वर्ष तक, जब तक कि बच्चे बड़े न हो जायें और समर्थ न बन जायें उन्हीं के पोषण व प्रशिक्षण में व्यस्त रहती है। सहवास की इच्छा होने पर भी वह उसे टालती रहती है और बच्चों के बड़े हो जाने पर ही पुनः गर्भ धारण करती है। इस तरह के उदाहरण से भावनाओं की गम्भीरता का पता चलता है। इसके विपरीत आचरण स्वभाव का हल्कापन है, भावनाओं का अर्थ केवल मात्र झुकना नहीं अपितु अपनी समीक्षा बुद्धि को जागृत रखते हुए, जो पवित्र रसमय और मर्यादा जन्य है उसे पूरा करने में अपनी संपूर्ण निष्ठा का परिचय देना है।
कीवी, कैसोवरी, रही, मौआ, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन आदि पक्षियों के जीवन का विस्तृत अध्ययन करने के बाद चार्ल्स डारविन ने लिखा है—इन पक्षियों का गृहस्थ और पारिवारिक जीवन बड़ा सन्तुलित; समर्पित और चुस्त होता है। नर-मादा आपस में ही नहीं बच्चों के लालन-पालन में भी बड़ी सतर्कता, स्नेह और बुद्धि-कौशल से काम लेते हैं। मनुष्य-जाति की तरह इनमें भी परिवार के पालन-पोषण का अधिकांश उत्तरदायित्व नर पर रहता है। मादा से शरीर में छोटा होने पर भी वह घोंसला बनाना, अण्डे सेहना और जिन दिनों मादा अण्डे सेह रही हो उन दिनों उसके आहार की व्यवस्था करना, सद्यः प्रसूत बच्चों को संभालने से लेकर उन्हें उड़ना सिखा कर एक स्वतन्त्र कुटुम्ब बसा कर रहे की प्रेरणा देने तक का अधिकांश कार्य नर ही करता है। वह इनकी दुश्मनों से रक्षा भी करता है।
गृहस्थी बसाने में सम्भवतः मनुष्य को इतनी आपा-धापी नहीं करनी पड़ती होगी जितनी बेचारे पेन्गुइन पक्षी को। उसके लिये पेन्गुइन दो महीने सितम्बर और फरवरी में दक्षिणी ध्रुव की यात्रा करता है। पेन्गुइन जाते हैं अपने अभिभावक अपने मार्गदर्शक के अनुशासन में रहना कितना लाभदायक होता है। उसके अनुभवों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिये पेन्गुइन अपने मुखिया के चरण-चिन्हों पर ही चलता है।
ध्रुवों पर पहुंचने के बाद पुराने पेन्गुइन तो अपने पहले वर्षों के छोड़े हुए घरों में आकर रहने लगते हैं किन्तु नव-युवक पेन्गुइन अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर नया परिवार बसाने के लिये चल देता है। उसकी सबसे पहली आवश्यकता एक योग्य पत्नी की होती है। वह ऐसी किसी मादा को ढूंढ़ता है जिसका विवाह न हुआ हो। अपनी विचित्र भाव-भंगिमा और भाषा में वह मादा से सम्बन्ध मांगता है। मनुष्य ही है जो जीवन साथी का चुनाव करते समय गुणों का ध्यान न देकर केवल धन और रूप-लावण्य को अधिक महत्त्व देता है। पर पेन्गुइन यह देखता है कि उसका जीवन साथी क्या उसे सुदृढ़ साहचर्य प्रदान कर सकता है।
सम्बन्ध की याचना वह स्वयं करता है। ऐसे नहीं, उसे मालूम है जीवन में धर्मपत्नी का क्या महत्त्व है, इसलिये पत्नी को खुश करके।पत्नी की प्रसन्नता भी सुन्दर चिकने पत्थर होते हैं। नर चोंच में दबा कर एक सुन्दर-सा कंकड़ लेकर मादा के पास जाता है। मादा कंकड़ देखकर उसके गुणी, पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी होने का पता लगाती है। यदि उसे नर पसन्द आ गया तो वह अपनी स्वीकृति दें देगी अन्यथा चोंच मारकर उसे भगा देगी। चोट खाया हुआ नर एक बार पुनः प्रयत्न करता है। थोड़ी दूर पर उदास सा बैठकर इस बात की प्रतीक्षा करता है कि मादा सम्भव है तरस खाये और स्वीकृति दे दे। यदि मादा ने ठीक न समझा तो नर बेचारा कहीं और जाकर सम्बन्ध ढूंढ़ने लगता है। मादा की स्वीकृति मिल जाये तो पेन्गुइन की प्रसन्नता देखते ही बनती है। नाच-नाच कर आसमान सिर पर उठा लेता है। पर मादा को पता होता है। गृहस्थ परिश्रम से चलते हैं इसलिये वह नर को संकेत देकर घर बनाने में जुट जाती है। नर तब दूर-दूर तक जाकर कंकड़ ढूंढ़कर लाता है। मादा महल बनाती है। इस समय बेचारा नर डांट-फटकार भी पाता है पर उसे यह पता है कि पत्नी के स्नेह और सद्भाव के सुख के आगे मीठी फटकार का कोई मूल्य नहीं। दोनों मकान बना लेते हैं तब फिर स्नान के लिये निकलते हैं और जल की निर्मल लहरों में देर तक स्नान करते हैं। स्नान करके लौटने पर कई बार उनके बने-बनाये मकान पर कोई अन्य पेन्गुइन अधिकार जमा लेता है। दोनों पक्षों में युद्ध होता है जो विजयी होता है वही उस मकान में रहता है। पर युद्ध के बाद भी स्नान करने जाना आवश्यक है इस बार वे पहले जैसी भूल नहीं करते। बारी-बारी से स्नान करने जाते हैं और लौट कर फिर गृहस्थ कार्य में संलग्न होते हैं। मादा अण्डे देती है पर बच्चों की पालन प्रक्रिया नर ही पूर्ण करते हैं। पेन्गुइन की इस तरह की घटनायें देख कर मनुष्य की उससे तुलना करने को जी करता है। मनुष्य भी उनकी तरह लूट-पाट और स्वार्थ पूर्ण प्रवंचना में कितना अशान्त और संघर्षरत रहता है। पर वह सुखी गृहस्थ के सब लक्षण भी इन पक्षियों से नहीं सीख सकता और परस्पर घर में ही लड़ता-झगड़ता रहता है। पेन्गुइन-सी सहिष्णुता भी उसमें नहीं है।
कछुये को नृत्य करते देखने की बात तो दूर की है, किसी ने उसे तेज चाल से चलते हुये भी नहीं देखा होगा पर दाम्पत्य जीवन में आबद्ध होते समय उसकी प्रसन्नता और थिरकन देखते ही बनती है। कछुआ जल में तेजी से नृत्य भी करता है और तरह-तरह के ऐसे हाव-भाव भी जिन्हें देख कर मादा भी भाव विभोर हो उठती है। यही स्थिति है मगरमच्छ की। मगर भी प्रणय बेला में विलक्षण नृत्य करता है।
मछलियों में सील मछली की दुनिया और भी विचित्र है। नर अच्छा महल बनाकर रहता है। और उसमें कई-कई मादायें रखता है। नर अन्य नरों की मादाओं को हड़पने का भी प्रयत्न करते रहते हैं और इसी कारण उन्हें कई बार तेज संघर्ष भी करना पड़ता है। कामुकता और बहु विवाह की यह दुष्प्रवृत्ति मछलियों में ही नहीं शुतुरमुर्ग और रही नामक पक्षियों में भी होती है। यह 7-8 मादायें तक रखते हैं फिर भी नर इतना धैर्यवान् और परिश्रमी होता है कि एक-एक मादा आठ-आठ दस-दस अण्डे देती है और नर उन सबको भली प्रकार संभाल लेता है। लगता है इनकी दुनिया ही पत्नी जुटाने और बच्चे पैदा करने के लिये होती है इस दृष्टि से मनुष्य की कामुकता और दोष-दृष्टि को तोला जा सकता है। यदि मनुष्य भी इन दो प्रवृत्तियों तक ही अपने जीवन क्रम को सीमित रखता है तो इसका यह अर्थ हुआ कि वह रही और सील मछलियों की ही जाति का कोई जीव है।
कई बार तो अश्लीलता में मनुष्य सामाजिक मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर जाता है किन्तु इन पक्षियों और प्राणियों ने अपने लिये जो विधान बना लिया होता है उससे जरा भी विचलित नहीं होते। चींटी राजवंशी जन्तु है। उसमें रानी सर्व प्रभुता सम्पन्न होती है वही अण्डे देती है और बच्चे पैदा करती है। अपने लिये मधुमक्खी की तरह वह एक ही नर का चुनाव करती है शेष चींटियां मजदूरी, चौकीदारी और मेहतर आदि का काम करती हैं। अपनी-जिम्मेदारी प्रत्येक चींटी इस ईमानदारी से पूरी करती है कि किसी दूसरी को रत्ती भर भी शिकायत करने का अवसर न मिले जब कि उन बेचारियों को अपने हिस्से से एक कण भी अधिक नहीं मिलता। लगता है सामाजिक व्यवस्था में ईमानदारी को भी श्रम और निष्ठा यह आदर्श मनुष्य ने चींटी से सीख लिया होता तो वह आज की अपेक्षा कहीं अधिक सुखी और सन्तुष्ट रहा होता, पर यहां तो अपने स्वार्थ, अपनी गरज के लिये मनुष्य अपने भाई-भतीजों को भी नहीं छोड़ता। कम तौलकर, मिलावट करके कम परिश्रम में अधिक सुख की इच्छा करने वाला मनुष्य इन चींटियों से भी गया गुजरा लगता है।
एक बार अफ्रीका में वन्य पशु खोजियों का एक दल हाथियों की सामाजिकता का अध्ययन करने आया। संयोग से उन्हें एक ऐसा सुरक्षित स्थान मिल गया जहां से वे बड़ी आसानी से हाथियों के करतब देख करते थे। एक दिन उन्होंने देखा हाथियों का एक झुण्ड सवेरे से ही विलक्षण व्यूह रचना कर रहा है। कई मस्त हाथियों ने घेरा डाल रखा है। झुण्ड में जो सबसे मोटा और बलवान् हाथी था वही चारों तरफ आ जा सकता था शेष सब अपने-अपने पहरे पर तैनात थे। लगता था वह बड़ा हाथी उन सबका पितामह या मुखिया था उसी के इशारे पर सब व्यवस्था चल रही थी और एक मनुष्य है जो थोड़ा ज्ञान पा जाने या प्रभुता सम्पन्न हो जाने पर भाई-भतीजों की कौन कहे परिवार के अत्यन्त संवेदनशील और उपयोगी अंग बाबा, माता-पिता को भी अकेला या दीन-हीन स्थिति में छोड़कर चल देता है।
मुखिया के आदेश से 5-6 हथिनियां उस घेरे में दाखिल हुईं। बीच में गर्भवती हथिनी लेटी थी। सम्भवतः उसकी प्रसव पीड़ा देखकर ही हमलावरों से रक्षा के लिये हाथियों ने वह व्यूह रचना की थी। परस्पर प्रेम, आत्मीयता और निष्ठा का यह दृश्य सचमुच मनुष्य को लाभदायक प्रेरणायें दे सकता है यदि मनुष्य स्वयं भी उनका परिपालन कर सकता होता।
बच्चा हुआ, कुछ हथनियों ने जच्चा को संभाला कुछ ने बच्चे को। ढाई-तीन घण्टे तक जब तक प्रसव होने के बाद से बच्चा धीरे-धीरे चलने न लगा हाथी उसी सुरक्षा स्थिति में खड़े रहे। हथनियां दाई का काम करती रहीं। बच्चे और मादा के शरीर की सफाई से लेकर उन्हें खाना खिलाने तक का सारा काम कितने सहयोग और संकुचित ढंग से हाथी करते हैं यह मनुष्य को देखने, सोचने, समझने और अपने जीवन में भी धारण करने के लिये अनुकरणीय है।
पेन्गुइन पक्षी बच्चों पर कठोर नियन्त्रण रखते हैं। बड़े-बूढ़ों के नियन्त्रण के कारण बच्चे थोड़ा भी इधर-उधर नहीं जा सकते। जब शरीर और दुनियादारी में वे चुस्त और योग्य हो जाते हैं तो फिर स्वच्छन्द विचरण की आज्ञा भी मिल जाती है जब कि मनुष्य ने बच्चे पैदा करना तो सीखा पर उनमें से आधे भी ऐसे नहीं होते जो सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह इतनी कड़ाई से करते हों। अधिकांश तो यह समझना भी नहीं चाहते कि बच्चों को किस तरह योग्य नागरिक बनाया जाता है।
थोड़ी भी परेशानी आये तो मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों से कतराने लगता है किन्तु अन्य जीव अपने गृहस्थ कर्त्तव्यों का पालन कितनी निष्ठा के साथ करते हैं यह देखना हो तो अफ्रीका चलना चाहिये। यहां कीवी नाम का एक पक्षी पाया जाता है। कामाचार को वह अत्यन्त सावधानी से बर्तता है ताकि उसे कोई देख न ले। काम सम्बन्धी मर्यादाओं को ढीला छोड़ने का ही प्रतिफल है कि आज सामाजिक जीवन में अश्लीलता और फूहड़पन का सर्वत्र जोर है। कीवी को यह बात ज्ञात है और वह अपने वंश को सदैव सदाचारी देखना चाहता है इसीलिये सहवास भी वह बिलकुल एकान्त में और उस विश्वास के साथ करता है कि वहां उसे कोई देखेगा नहीं। मादा जब अण्डे देने लगती है तो नर उनकी रक्षा करता है और सेहता भी है। उसे लगातार 80 दिन तक अण्डे की देखभाल करनी होती है। बच्चा पैदा होने के साथ वह जहां पुत्रवान् होने पर गर्व अनुभव करता है वहां यह प्रसन्नता भी कि अब उसे विश्राम मिलेगा पर होता यह है कि इसी बीच मादा ने दूसरा अण्डा रख दिया होता है बेचारे नर को फिर 80 दिन का अनुष्ठान करना पड़ जाता है। इस तरह वह कई-कई पुरश्चरण एक ही क्रम में पूरे करके अपनी निष्ठा का परिचय देता है। मनुष्य क्या उतना नैतिक हो सकता है? इस पर विचार करें तो उत्तर निराशाजनक ही होगा।
वासना के दुष्परिणाम
प्राणि जगत में जहां एक ओर यौन सदाचार अधिकाधिक ब्रह्मचर्य और पारिवारिक जीवन में स्नेह भरी घनिष्ठता के दर्शन होते हैं वहीं काम का वह विद्रूप भी स्पष्ट दिखाई दें जाता है जो नारी को कामिनी और रमणी रूप में देखने के कारण मनुष्य जाति को भुगतना पड़ता है संयम और दाम्पत्य जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले जीवों का जीवनकाल इतना त्रास दायक पाया गया है कि उसे देखकर रोयें खड़े हो जाते हैं कम से कम मनुष्य जैसे विचारशील प्राणी को तो वैसी स्थिति नहीं आने देनी चाहिये। प्रजनन-ऋतु आने पर नर-सील मादाओं के लिए लड़ने लगते हैं। एक सशक्त नर-सील 40-50 तक मादाओं का मालिक होता है। पर उसकी विक्षुब्ध वासना अपरिमित होती है। नई मादाएं देखकर वह मचल उठता है तथा पड़ौसी सील-समूह पर आक्रमण कर बैठता है। उस समूह के नर से उसे प्रचण्ड संघर्ष करना पड़ता है। मान लें, कि वह इस संघर्ष में विजयी ही हो जाता है और अपनी पसन्द की मादा को लेकर थका, आहत, गर्वोद्धत अपने समूह में लौटता है, तो उसे प्रायः यही दृश्य दीखेगा कि उसके समूह की एक याकि दो-चार मादाएं, कोई दूसरा नर-सील खींचे लिए जा रहा है। अब या तो मन मारकर, अपहरण का यह आघात झेलें अथवा उसी थकी मंदी दशा में द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारे और तब परिणाम पता नहीं क्या हो?
इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अधिकांश नर-सील तीन माह की यह प्रजनन-ऋतु बीतने तक श्लथ, क्षत-विक्षत हो चुकते हैं और आहार जुटा पाने योग्य शक्ति भी उनमें शेष नहीं रहती। इसका कारण मादा के प्रति नर-पशु की निरन्तर यौन-जागरूकता की प्रवृत्ति है। इससे विपरीत सामूहिक सह-जीवन की प्रवृत्ति वाले पशुओं में तो मादा के प्रति कोई अनावश्यक आकर्षण नर रखते ही नहीं मात्र प्रजनन-ऋतु में ही मादा विशेष के प्रति आकर्षित होते हैं। शेष समय वे मानो लिंगातीत साहचर्य ही स्थिति में रहते हैं। हाथी की शक्ति एवं बुद्धिमत्ता सुविदित है। किन्तु इस विषमता वादी प्रकृति से हाथियों के मुखिया को भी अपनी शक्ति व समय का अधिकांश भाग अनावश्यक संघर्षों में खर्च करना होता है।
हाथी समूह में रहते हैं। समूह-नायक ही अपने समूह की सभी हथनियों का स्वामी होता है। समूह के अन्य किसी सदस्य द्वारा किसी भी हथिनी से तनिक-सी भी काम चेष्टा या प्रेम-प्रदर्शन करने पर, मुखिया यह देखते ही उस पर आक्रमण कर या तो भगा देता है या परास्त कर प्रताड़ित, अपमानित करता है।
कोई युवा, शक्तिशाली हाथी कभी भी ऐसी उद्धत चेष्टा कर मुखिया को उत्तेजित कर देता है और युद्ध में उसे यदि परास्त कर देता है, तो फिर वही टोली की सभी हथनियों का स्वामी तथा टोली नायक बनता है। पराजित नायक बहुधा विक्षिप्त हो जाता है और खतरनाक भी हो उठता है।
‘‘मरण बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दु धारणम्’’ सूत्र में कामुकता के अमर्यादित चरणों को मरण का प्रतीक माना गया है। उसमें सर्वनाश ही सन्निहित है। यह विचार सर्वथा असत्य है कि अति कामुकता बरतने वालों से उनकी सहधर्मिणी प्रभावित होती है, वरन् सच तो यह है कि वह उलटी घृणा करने लगती है। ऐसी घृणा जहां पनपेगी वहां सद्भाव कहां रहेगा? जब मादा देखती है कि नर अपनी तृप्ति के लिए उसके शरीर का अनावश्यक दुरुपयोग किये जा रहा है तो वह पति-भक्ति अपनाने के स्थान पर उलटे आक्रमण कर बैठती है। ऐसे आक्रमणों से नर की दुर्गति ही होती है और ‘मरण बिन्दुपातेन’ सूत्र के अनुसार उद्धत कामविकार मृत्यु का दूत बनकर सामने आ खड़ा होता है।
नर-बिच्छू अपनी प्रेयसी के साथ-साथ नृत्य करता है—घण्टों। कभी तेजी से दोनों आगे बढ़ते हैं, कभी पीछे हटते हैं। थककर शिथिल होने पर दोनों साथ-साथ ही विश्राम करते हैं। लेकिन मादा बिच्छू कई बार उत्तेजना में नर को खा भी जाती है।
‘‘फ्राग-फिश’’ का यौनाचरण भी ऐसा ही प्राणान्तक है। मादा फ्राग-फिश घूमती रहती है, श्रीमान नर अधिकांश पुरुषों की ही तरह लम्पट और अधीर होते हैं। मादा के पास पहुंचते ही वे उत्तेजित हो उठते हैं, जब कि मादा को ऐसा कुछ भी नहीं होता। उत्तेजित नर मादा के मादक दिख रहे शरीर-मांस में तेजी से दांत गढ़ाता है। बस, फिर यह दांत गढ़ा ही रह जाता है। क्योंकि उस मांस से यह दांत कभी निकल नहीं पाता। किसी तरह केलि करते हैं। नशा उतर जाने के बाद दांत छुड़ाने की पूरी कोशिश करते हैं—बार-बार। पर विफल मनोरथ ही रहते हैं। खाना-पीना बन्द। कितने दिन जीयेंगे? अन्त में दम टूट जाता है।
बिल्लियों का गम्भीर रुदन उनकी शारीरिक पीड़ा का नहीं वरन् उत्तेजित मनोव्यथा का परिचालक होता है। बन्दरों की कर्ण कटु किलकारियों में भी यह आभास होता है कि उनके भीतर कुछ असाधारण हलचल हो रही है।
साही का प्रणयकाल उसके उछलने कूदने की व्यस्तता से जाना जा सकता है उन दिनों वह खाना, पीना, सोना, तक भूल जाती है और बावली सी होकर लकड़ी के टुकड़ों को मुंह में देकर उन्हें उछालती हुई ऐसी दौड़ती है मानो उसे फुटबाल मैच में व्यस्त रहना पड़ रहा हो।
सर्प की प्रणयकेलि उनकी आलिंगन आबद्धता के रूप में दीख जाता है उन क्षणों वह अत्यंत भावुक और आवेशग्रस्त होता है। सर्प नहीं चाहता कि इस एकान्त सेवन में कोई भागीदार हस्तक्षेप करे। यदि उसे पता चल जाय कि कोई लुक-छिप कर उसे देख रहा है तो सर्प क्रोधोन्मत्त होकर प्राणघातक आक्रमण कर बैठता है।
कितने ही नर-पशु इस आवेग में ग्रसित होकर एक दूसरे के प्राणघातक बन जाते हैं। उस आवेश में वे अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं।
हिरनों में ऋतुकाल स्वयंवर के लिए मल्लयुद्ध का रूप धारण करता है। इससे उनके सींग टूटते हैं, घाव लगते हैं और कई बार तो वे प्राण तक गंवाते हैं। हिरनियां इस मल्ल युद्ध को निरपेक्ष भाव से देखती रहती हैं और पराजित से सम्बन्ध तोड़ने और विजयी की अनुचरी बनने के लिए बिना किसी खेद के सहज स्वभाव प्रस्तुत रहती हैं। यही दुर्गति अगणित पशुओं की होती है। उनमें से आधे तो प्रायः इसी कुचक्र में क्षत-विक्षत होकर मरते हैं।
केवल नर ही इस स्वयंवर युद्ध में लड़-मरकर कष्ट उठाते हों सो बात नहीं। कई बार तो मादाएं भी नरों की अविवेकशीलता के लिए उन्हें भरपूर दण्ड देतीं और नाच नचाती हैं। नर गरुड़ को प्रणयकेलि की तभी स्वीकृति मिलती है जब वह मल्लयुद्ध में अपनी प्रेयसी को परास्त करने में समर्थ हो जाता है। ऋतुमती गरुड़ मादा नर को आमन्त्रण तो देती है पर साथ ही यह चुनौती भी प्रस्तुत करती है कि यदि वह पिता बनने योग्य हैं तो ही उस पद की लालसा करें। समर्थता को परखने के लिए मादा मल्ल-युद्ध करती है और इस भयानक संघर्ष में नर के पंख नुच जाते हैं, घायल होने पर खून से लथपथ हो जाता है इतने पर भी यदि वह मैदान छोड़कर भाग खड़ा न हो तो ही उसके गले में स्वयम्वर की माला पहनाई जाती है। तब न केवल विवाह होता है वरन् नर को घर परिवार के साथ जुड़े हुए उत्तरदायित्वों को सम्भलने में मादा की भरपूर मदद करने के लिए भी तत्पर होना पड़ता है।
सन् 1950 आज से कुल 20 वर्ष पूर्व की बात है, कुछ वैज्ञानिकों ने एन्जिलर मछली के बारे में विस्तृत खोज प्रारम्भ की। मध्य-सागर में रहने वाली इस एन्जिलर के बारे में अब तक लोगों को वैसे ही स्वल्प-सी जानकारी थी जैसे शरीरस्थ अनेक चक्रों, ग्रन्थियों, गुच्छाओं, एवं उपत्यिकाओं के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों को थोड़ी-सी जानकारी प्राप्त है।
अध्ययन के लिये जितनी भी एन्जिलर पकड़ी गईं, नर उनमें से एक भी न निकला। एक दिन एक मछली विशेषज्ञ ने निश्चय किया कि इस मछली के अंग-प्रत्यंगों की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये। विशेष और महत्वपूर्ण जानकारी तब मिली जब इन विशेषज्ञ महोदय ने देखा एन्जिलर मादा के सिर के ऊपर सीधी आंख पर एक बहुत ही छोटा-सा मछली जैसा जीव चिपका हुआ है। इस जीव का अध्ययन करने से पता चला यही वह सज्जन हैं, जिनकी वैज्ञानिकों को तलाश थी। नर एन्जिलर, यही था बेचारी मादा के सिर पर चिपका उसी के रक्त को चूसने वाला।
मादा का आकार 40 इन्च, भगवान् ने अच्छा किया कि पति-देव को कुल चार इन्च का बनाकर यह दिखाया कि नारी को मात्र प्रजनन और शोषण की सामग्री बनाने वालों का बौना होना ही ठीक है। मनुष्य के इतिहास में भी यही पाया जाता है। संसार के जो भी देश आज प्रगति के शिखर पर पहुंचे हैं, उन सबमें नारी के उत्थान के लिये बड़े कदम उठाये गये हैं। हम भारतवासी हैं, जिन्होंने नारी को दासी, पर्दे में रहने वाली, शिक्षा-शून्य बनाया, उसका रमणी के रूप में उपभोग किया। तभी तो प्रगति में एन्जिलर नर की तरह बौने के बौने रह गये।
हम में यह दोष कहां से आया इसका उत्तर भी एन्जिलर मछली के अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दिया। उन्होंने नर के स्वभाव का अध्ययन करके बताया कि उसकी यह शोषण प्रियता उसकी आलसी और वासनापूर्ण प्रकृति के कारण है। जीवन में मधुरता के लिये कोई स्थान न होने के कारण वह अपनी ही पत्नी का खून पिया करता है। देखने में एन्जिलर नर पापी और अपराधी कहा जा सकता है पर जिन लोगों ने नारी का मूल्यांकन वासना के रूप में दासी और सम्पत्ति के रूप में किया, उन्हें क्या माना और क्या कहा जाय इसका निर्णय तो हमें अपने भीतर मुख डालकर करना पड़ेगा?
कामुकता का बाह्य स्वरूप कितना ही आकर्षक क्यों न हो उसके कलेवर में विष और विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं। अफ्रीका में एक बहुत सुन्दर फूल पाया जाता है पक्षी इन फूलों पर आसक्त होकर उनपर जा बैठते हैं बैठते ही फूल धीरे-धीरे सिकुड़ना प्रारम्भ कर देता है। और फिर उसे इस तरह जकड़ कर उसे अपने पैने कांटे चुभो देता है कि लगातार प्रयत्न करने पर भी वह निकल नहीं पाता, खून पूरी तरह चूस लेने के बाद ही पौधा उसे छोड़ता है। कामुक उच्छृंखल ऐसी ही विनाशकारी प्रवृत्ति है। प्रकृति में पग पग पर उसके दर्शन होते हैं?
चीन में पैराडाइज नाम की एक ऐसी मछली पाई जाती है जो अपने मुंह से एक विशेष प्रकार के लस-लसे रसायन के बुलबुले छोड़ती है। थोड़ी देर में बड़ी संख्या में एकत्र हुए इन बबूलों में एक सिरे से छेद कर वह भीतर-भीतर ऐसी सुन्दर छंटाई करती है जिससे बबूलों का समुदाय अनेक मकानों वाला नगर दिखाई देने लगता है। अब मादा अण्डे देने प्रारम्भ करती है। और उन्हें इसी बबूल-नगर में पहुंचायी जाती है। स्वयं उस नगर की पहरेदारी करती रहती है। दुर्ग के किसी भी द्वार से बच्चे निकल न भागने पावें वह इसकी बराबर देख रेख रखती है इसी तरह उसकी वंशवृद्धि होती रहती है।
माया ने उसी तरह अपना विस्तार अनेक प्रकार के शरीर बना कर किया। ऐसे शरीर जहां जीव के अस्तित्व को किसी प्रकार संकट न पावे। पीछे वह ऐसी व्यवस्था और उपक्रम जुटाती रहती है जिससे जीव उसी मायावी नगर में फंसा रहे उससे बाहर न निकलने पावे। माया के इस घेरे को बिरले ही तोड़ पाते हैं।
अमेरिका के दक्षिणी भागों में पानी में पाया जाने वाला कछुये की सी शक्ल का एलीगेटर स्नैपर बड़ा चतुर जीव है। वह अपनी जीभ को बाहर निकाल कर इस तरह दायें-बायें, आगे-पीछे लपलपाता है कि देखने वाले को यह जीभ किसी स्वतन्त्र जीभ-सी लगती है उसे देख कर कई मछलियां उसे खाने के लिये दौड़ पड़ती हैं जैसे ही वह उसके पास पहुंचती हैं। एलीगेटर स्नैपर उन्हें दबोच कर खा जाता है।
यही स्थिति शरीर में—इन्द्रियों में बसे विषयों की लपलपाहट से भ्रमित जीभ उनकी तृप्ति के लिए भाग-भाग कर आता है और बार-बार काल के द्वारा दबोच लिया जाता है। थोड़े से बुद्धिमान भी होते हैं जो इन्द्रियों की इस आसक्ति को आत्मा का नहीं शरीर का विषय मानते हैं और उनसे दूर रह कर ही अपनी रक्षा कर पाते हैं। नदियों में पाया जाने वाला घड़ियाल जितना क्रूर होता है उतना ही चतुर भी। शिकार के लिए वह नदियों के किनारे आकर इस तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है। मानो वह कोई चट्टान या निष्प्राण वस्तु हो जैसे ही कोई मूर्ख मछली पास पहुंची कि उसने पकड़ा और उदरस्थ किया।
मनुष्य की इन्द्रियां भी उतनी धूर्त और चालाक होती हैं सामान्यतः वे निर्जीव दिखाई देती हैं। इसलिए मनुष्य आहार-विहार और परिस्थितियों की सतर्कता नहीं रख पाता। जैसे ही खान-पान और मर्यादाजन्य भूलें हुईं कि इन्हीं निष्प्राण लगने वाली इन्द्रियों की उत्तेजना ने धर पकड़ा फिर तो उनके चंगुल से निकल पाना कठिन ही होता है। ज्ञानी और विचारशील लोग पहले से ही सतर्क रहते और संयमित तथा मर्यादित जीवन जीते हैं तभी उनसे बचते और अपनी शक्ति, शान्ति और सम्मान सुरक्षित रख पाते हैं। योरोप में एक चिड़िया पाई जाती है ‘‘स्पैरो’’। उसका मूल आहार है टिड्डा, पर वह मिले कैसे। स्पैरो एक कौने में दुबक कर बैठती है और ठीक टिड्डे की आवाज में बोलना शुरू करती है। टिड्डे यह आवाज सुनकर उसके पास आ जाते हैं और स्पैरो पक्षी के आहार बन कर मौत के मुंह में चले जाते हैं।
इन्द्रियजन्य सुखों की स्थिति भी ऐसी ही है जब वे कुलबुलाते हैं तो मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि उनका शरीर से सम्बन्ध है। आत्मा से नहीं। वह उन्हें अपना ही स्वजन सहायक समझकर उनकी तृष्णा बुझाने में लगा रहता है और इस तरह आत्मा को अवनति के गर्त में धकेलता रहता है।
माया के इन खेलों को समझने वाला और उनसे दूर रहने वाला व्यक्ति ही बुद्धिमान, विचारशील और आत्म-निष्ठ होता है। उसी का जीवन सफल और सार्थक कहलाता है।