Books - अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -3
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Language: HINDI
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तस्वीर ने जगायी अन्तश्चेतना
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सन् १९८३
में हम दोनों पति- पत्नी शान्तिकुञ्ज आए। होली का समय था। हमें
वहाँ बहुत अच्छा लगा। लौटने से पहले गुरुदेव- माताजी को प्रणाम
करने गए, तब गुरुदेव ने कहा था ‘‘बेटा यहीं आ जाओ’’।
हम उस समय नए- नए ही मिशन से जुड़े थे। हमारा जीवनक्रम भी
बिल्कुल दूसरी तरह का था। शान्तिकुञ्ज का त्याग- तितिक्षा भरा जीवन
हमने अपने लिए कभी सोचा नहीं था, इसलिए हमने इस बात को अधिक
गम्भीरता से नहीं लिया। सोचा सन्त व्यक्ति हैं, आत्मीयतावश
बोले होंगे। जब घर आई तो यह बात ध्यान से उतर चुकी थी। हमारी
दिनचर्या फिर अपने ही ढर्रे पर चलने लगी, मगर सद्गुरु ने जिसे
पकड़ लिया वह भला कैसे भटक सकता है! दो साल बीतते बीतते हमें अपना सब कुछ समेटकर शान्तिकुञ्ज आने के लिए बाध्य होना पड़ा।
सन् १९८४ में अखण्ड- ज्योति में एक लेख निकला था। उस लेख को पढ़ने के बाद पता नहीं क्या हुआ, मैं हमेशा गुरुदेव और मिशन के बारे में ही सोचती रहती। दिन में काम के बीच में तो वे मन पर छाए ही रहते। रात को सो भी नहीं पाती। उठकर बैठ जाती तो अनायास ही गुरुदेव की तस्वीर पर नजर पड़ती, जो हमारे शयन कक्ष में लगी थी। मुझे एकबारगी अनुभव होता कि वह तस्वीर मुझसे कुछ कह रही है। समझने का प्रयास करती लेकिन कुछ समझ नहीं पाती। मैं हमेशा उस तस्वीर को ध्यान से देखा करती। सोचती। आखिर क्या बात रही होगी इसमें। इससे पहले भी बहुत अच्छी- अच्छी तस्वीरें- पोर्टे्रट देखी हैं मैंने, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ है। धीरे- धीरे यह सिलसिला बढ़ता गया,अब रात का अधिकांश समय जागते ही बीतता। कभी- कभी उठकर देखती ये (पति)भी जागे हुए हैं, उसी तस्वीर को निहार रहे हैं। एक बार मैंने उनसे पूछा- आपको भी ऐसा ही लगता है क्या? उन्होंने कहा- हाँ यह चित्र कुछ कहता है, लेकिन मैं समझ नहीं पाता।
तीन महीने तक यही क्रम जारी रहा, तब एक दिन इन्होंने कहा- गुरुदेव से ही पूछा जाए क्या कहना चाहते हैं वे, इतना कहना था कि हम दोनों को याद आई, गुरुदेव की वह बात- बेटा यहीं आ जाओ। हाँ, यही तो कहा था उन्होंने। दोनों की नजरें मिलीं और स्वीकृति बन गई। मैंने निश्चयात्मक स्वर में कहा चलो वहीं चलते हैं, ऐसा जीना भी क्या जीना, रात को सो भी नहीं पाते। घर का सारा सामान हमने लोगों को बाँट दिया। जितना साथ ले सकते थे, बिस्तर इत्यादि बाँध लिए और शान्तिकुञ्ज आ गए। बाद में किसी कारणवश जब घर जाना हुआ तब फिर उस तस्वीर को देखा, लेकिन तब वह साधारण तस्वीरों जैसी ही दीखी। दरअसल वह तस्वीर हमें बार- बार याद दिलाने का प्रयास करती, गुरुजी के आदेश को। आज मैं विश्वास करती हूँ कि वह बेजान तस्वीर नहीं बोलती थी, उसमें गुरुजी स्वयं बोलते थे। उनकी आवाज को तब मैं सुनने में असमर्थ थी।
प्रस्तुति :- मणि दास, शान्तिकुंज (उत्तराखण्ड)
सन् १९८४ में अखण्ड- ज्योति में एक लेख निकला था। उस लेख को पढ़ने के बाद पता नहीं क्या हुआ, मैं हमेशा गुरुदेव और मिशन के बारे में ही सोचती रहती। दिन में काम के बीच में तो वे मन पर छाए ही रहते। रात को सो भी नहीं पाती। उठकर बैठ जाती तो अनायास ही गुरुदेव की तस्वीर पर नजर पड़ती, जो हमारे शयन कक्ष में लगी थी। मुझे एकबारगी अनुभव होता कि वह तस्वीर मुझसे कुछ कह रही है। समझने का प्रयास करती लेकिन कुछ समझ नहीं पाती। मैं हमेशा उस तस्वीर को ध्यान से देखा करती। सोचती। आखिर क्या बात रही होगी इसमें। इससे पहले भी बहुत अच्छी- अच्छी तस्वीरें- पोर्टे्रट देखी हैं मैंने, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ है। धीरे- धीरे यह सिलसिला बढ़ता गया,अब रात का अधिकांश समय जागते ही बीतता। कभी- कभी उठकर देखती ये (पति)भी जागे हुए हैं, उसी तस्वीर को निहार रहे हैं। एक बार मैंने उनसे पूछा- आपको भी ऐसा ही लगता है क्या? उन्होंने कहा- हाँ यह चित्र कुछ कहता है, लेकिन मैं समझ नहीं पाता।
तीन महीने तक यही क्रम जारी रहा, तब एक दिन इन्होंने कहा- गुरुदेव से ही पूछा जाए क्या कहना चाहते हैं वे, इतना कहना था कि हम दोनों को याद आई, गुरुदेव की वह बात- बेटा यहीं आ जाओ। हाँ, यही तो कहा था उन्होंने। दोनों की नजरें मिलीं और स्वीकृति बन गई। मैंने निश्चयात्मक स्वर में कहा चलो वहीं चलते हैं, ऐसा जीना भी क्या जीना, रात को सो भी नहीं पाते। घर का सारा सामान हमने लोगों को बाँट दिया। जितना साथ ले सकते थे, बिस्तर इत्यादि बाँध लिए और शान्तिकुञ्ज आ गए। बाद में किसी कारणवश जब घर जाना हुआ तब फिर उस तस्वीर को देखा, लेकिन तब वह साधारण तस्वीरों जैसी ही दीखी। दरअसल वह तस्वीर हमें बार- बार याद दिलाने का प्रयास करती, गुरुजी के आदेश को। आज मैं विश्वास करती हूँ कि वह बेजान तस्वीर नहीं बोलती थी, उसमें गुरुजी स्वयं बोलते थे। उनकी आवाज को तब मैं सुनने में असमर्थ थी।
प्रस्तुति :- मणि दास, शान्तिकुंज (उत्तराखण्ड)